घोड़े वाले बाऊ साहब / दयानंद पाण्डेय
बाबू गोधन सिंह इन दिनों परेशान हैं। उन की परेशानी के कोई एक दो नहीं कई कारण हैं। लेकिन तुरंत-तुरंत उन की परेशानी के दो कारण हैं। एक तो वह अपनी बैलगाड़ी का एक चक्का बदलना चाहते हैं और जो संपर जाए तो बैलों की जोड़ी में से कम से कम एक दाहिने बैल को बेंच कर नया ले लें। जो जुगत बन जाए तो जोड़ी ही बदल दें !
पर कैसे ?
एक समय था जब बाबू गोधन सिंह को घोड़े बदलने में देर नहीं लगती थी और आज बैल बदलने के लिए, बैलगाड़ी का चक्का बदलने के लिए भी उन्हें चारों ओर देखना पड़ रहा है! वह बुदबुदाते भी हैं, ‘सब समय-समय का फेर है !’
वह जमाना ही और था। तब गोधन सिंह की तूती बोलती थी। बल्कि उन से भी ज्यादा उन के घोड़ों की तूती बोलती थी। और घोड़े भी ऐसे जैसे, ‘राणा की पुतली फिरी नहीं, चेतक तुरंत मुड़ जाता था।’ बाबू गोधन सिंह भी घोड़ों के एक-एक रोएं का खुद ख़याल रखते थे। उन के पट्टीदारों के घर हाथियां बंधतीं पर वह घोड़ा ही बांधते थे। घोड़ों से जैसे उन्हें इश्क था। घुड़सवारी जैसे उन की सांस थी, उन की धड़कन थी। तबीयत जो ख़राब हो तो वह एक टाइम खाना भले न खाएं पर घुड़सवारी जरूर करते। घोड़ों की जीन कसे बिना उन का खाना हजम नहीं होता था! घोड़े भी जैसे उन की राह देखते रहते।
बाबू गोधन सिंह का भी काम तब दो एक घोड़ों से नहीं चलता था। चार-छह घोड़े हरदम उन की घुड़साल में रहते ही रहते थे। काला, सफ़ेद, लाल। किसिम-किसिम के रंग और नस्ल के घोड़े। बाबू गोधन सिंह जब घोड़े पर चढ़ कर निकलते तो गांव में लोग उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ते।
बाद के दिनों में अपनी घुड़सवारी दिखाने की उन्हें लत सी पड़ गई। ‘दर्शक’ बने रहें इस चक्कर में वह जब घोड़े पर बैठ कर निकलते तो गरीब गुरबा में कुछ कपड़ा-लत्ता, पैसा-कौड़ी भी बांटने लगे। भीड़ और बटुरने लगी। भीड़ देख कर बाबू गोधन सिंह की छाती और मूंछ दोनों अकड़ जाती। उन के रौब में और इजाफा हो जाता। साथ ही भीड़ देखने की ललक भी बढ़ जाती।
धीरे-धीरे इस भीड़ की ललक में बाबू गोधन सिंह कब शादी-ब्याह के पहले द्वारपूजा की अगुवानी करने लग गए इस का पता उन्हें भी नहीं चला। पहले पहल वह अपनी पट्टीदारी की लड़की की शादी में जब बारात आई तो अपना घोड़ा ले कर पगड़ी बांधे अगुवानी के लिए निकले। फिर जाने क्या सूझी कि वह खेतों में घुड़सवारी के करतब दिखाने लगे। फिर तो गांव में ठाकुर बिरादरी की किसी की बेटी की शादी हो बाबू गोधन सिंह की घुड़सवारी वाली अगुवानी के बिना द्वारपूजा होती नहीं थी। धीरे-धीरे बाबू गोधन सिंह आस-पास के गांवों के ठाकुरों की लड़की की शादी में द्वारपूजा की अगुवानी करने लगे। सिलसिला बढ़ता गया और वह ठाकुरों की लकीर लांघ कर ब्राह्मणों की बेटियों की शादी की द्वारपूजा में भी अगुवानी के लिए मशहूर हो गए। और जल्दी ही वह सारी सीमाएं तोड़ कर छोटी-बड़ी सभी जातियों की बेटियों की शादी की द्वारपूजा में अगुवानी करने लगे। बाबू गोधन सिंह का नाम भी अब धूमिल होता जा रहा था। लोग अब उन्हें बाबू गोधन सिंह की जगह सिर्फ बाबू साहब ही कहने लगे थे। बाबू साहब लोग वैसे तो गांव में और भी थे पर बाबू गोधन सिंह को लोग जिस ठसक और आदर से बाबू साहब कहते, किसी और बाबू साहब को नहीं। बाबू गोधन सिंह की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जाती। इतनी कि अब वह बाबू साहब भी नहीं, बाऊ साहब कहलाने लगे थे। इलाके में उन की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग कहते कि अगर वह एम॰ पी॰, एम॰ एल॰ ए॰ का चुनाव लड़ें तो जीत जाएं। पर वह तो राजनीति नाम से चिढ़ते थे। और जब चुनाव-चुनाव कुछ ज्यादा ही उन के नाम के आगे जुड़ने लगा, फिर कुछ राजनीतिक पार्टियों के लोग उन से मिलने भी आने लगे तो वह खीझ गए। कलफ लगा कर खद्दर का सफेद धोती कुर्ता बड़ी शान से पहनने वाले बाबू गोधन सिंह ने अचानक खद्दर पहनना छोड़ कर रंगीन टेरीकाट का कुर्ता और सूती धोती पहननी शुरू कर दी। खद्दर के सभी कुर्ते धोती उन्हों ने अपने हरवाह फेंकुआ को दे दिए। इस फेर में कुछ दिनों तक वह घुड़सवारी के करतब दिखाना भूल गए। वह तो भला हो गोपी कोइरी का कि उसी बीच उस की बेटी की शादी पड़ गई और वह 'दोहाई बाऊ साहब’ कहते हुए उन के दरवाजे पहुंच गया। बाऊ साहब को भी जैसे आक्सीजन मिल गई। वह न सिर्फ अगुवानी के लिए तैयार हो गए बल्कि गोपी कोइरी को पांच सौ एक रुपए भी बिटिया की शादी में बतौर मदद दे बैठे। बोले, ‘न्यौता है ! रख ले!’
फिर तो उस दिन की अगुवानी भी देखने लायक थी।
इधर तुरही-नगाड़ा बजा, उधर बाऊ साहब का घोड़ा दौड़ा। लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। ऐसी घुड़सवारी बाऊ साहब की लोगों ने पहले कभी देखी नहीं थी। पर बाऊ साहब पर तो जैसे जुनून सवार था घुड़सवारी के करतब दिखाने का।
फिर तो जैसे सिलसिला ही चल निकला। इधर तुरही-नगाड़ा बजता उधर बाऊ साहब का घोड़ा दौड़ता ! अब लोग दूर-दूर से बाऊ साहब की अगुवानी देखने आने लगे। इतने जितने नाच देखने नहीं आते थे। बल्कि कई तो खाना बांध कर साथ लाते थे कि शाम को बाऊ साहब की अगुवानी देखेंगे और रात में नाच ! फिर आने-जाने का कौन झमेला पाले ! तो कुछ चतुर दर्शक बारात में ही पैठ कर भोजन के बहाने ‘आलू परोरा और अरवा चावल’ काट लेते।
बाऊ साहब की अगुवानी अब इस इलाके में किंवदंती बन चली थी। पर बाऊ साहब कितने परेशान और तबाह हैं इस की ख़बर किसी को नहीं थी। वह किसी को पता लगने भी नहीं देते थे। खद्दर की कलफ लगी धोती और कुर्ता भले ही उन से बिसर कर उन की अकड़ के इजाफे को धूमिल करते थे पर लुजलुजे टेरीकाट के कुर्ते में भी उन की मूंछों की कड़क पहले ही जैसी थी।
पर करें तो क्या करें ?
इन कड़क मूछों का वारिस उन्हें नहीं मिल रहा था। सात-आठ बरस बीत गए थे उन की शादी के पर वह संतान सुख से वंचित थे। मार पूजा-पाठ, सोखा- ओझा, झाड़-फूंक, देवता-पित्तर, अनौती-मनौती सब कर धर कर वह हार चुके थे। पर बात थी कि बनती नहीं थी। उल्टे उन की धर्मपत्नी को जब तब चुड़ैल धर लेती थी सो वह परेशान रहने लगे थे। संतान न होने के गम में वह घोड़े बढ़ाते जाते। कुछ पंडितों ने गऊ सेवा की सलाह दी तो उन्हों ने घोड़ों के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ा दी। घुड़साल-गऊशाला दोनों ही बराबर थे। गायों का तो गोबर, सानी-पानी भी वह खुद करने लगे। पर बात तब भी नहीं बनी। फिर कुछ लोगों ने बिहार में छपरा के पास मैरवां बाबा के थान जाने की सलाह दी।
बाऊ साहब मैरवां बाबा के थान गए। मैरवां जा कर एक संन्यासी साधु की शरण ली। उस के हाव-भाव बाऊ साहब को अच्छे नहीं लगे पर संतान का सवाल था सो चुप लगाए रहे। शुरू में उस ने बाऊ साहब से कुछ पूजा-पाठ करवाए और बबुआइन पर डोरे डाले। पर उस की दाल नहीं गली। फिर उस ने उपवास के आदेश दिए। दिन भर निराजल व्रत और शाम को एक समय फलाहार। दोनों जने के लिए। कहा कि, ‘ब्रह्मचर्य भी दोनों जने के लिए जरूरी है।’ रात में वह लौंग भभूत भी करता। दिन में वह बाऊ साहब को कुछ जड़ी-बूटी ढूंढने के लिए भेजने लगा और बबुआइन से अपनी सेवा करवाता। सेवा करवाते-करवाते वह एक दिन बबुआइन को बाहों में भर कर लिटाने लगा। पहले तो बबुआइन अचकचा गईं और कुछ समझी नहीं और जब तक कुछ समझतीं-समझतीं तब तक वह संन्यासी उन्हें निर्वस्त्र कर चुका था। बबुआइन थीं तो निराजल व्रत और बाऊ साहब जड़ी बूटी ढूंढने के लिए दूर भेजे गए थे सो संन्यासी ने बबुआइन को संतान सुख देने का इरादा बना लिया था। बबुआइन भले निराजल व्रत थीं, दम देह से बाहर था पर उन की पतिव्रता स्त्री ने कहीं भीतर से जाेर मारा और उन्हों ने संन्यासी को दुत्कारते हुए अपने ऊपर से ढकेल दिया। संन्यासी भन्नाया और धर्म-कर्म की धौंस दी। कहा कि, ‘धर्म में अड़चन बनोगी तो संतान सुख नहीं मिलेगा।’ उस ने धमकाया और कहा कि, ‘यह देह भोग भी अनुष्ठान का एक हिस्सा है ! सो अनुष्ठान पूरा होने दो नहीं, बड़ा पाप पड़ेगा।’
बबुआइन ने पलट कर संन्यासी की दाढ़ी नोंच ली और पास पड़ी लौंग भभूत उस की आंखों में झोंक दिया। संन्यासी, ‘अनर्थ-अनर्थ, घोर अनर्थ !’ चीख़ने लगा। बबुआइन बोलीं, ‘कुछ अनर्थ-वनर्थ हमारा नहीं होने वाला। जो होगा, वह तेरा होगा।’ वह देह पर जल्दी-जल्दी कपड़े लपेटती हुई बोलीं, ‘हम से कहता है ब्रह्मचर्य जरूरी है और अपने ‘भोग’ करना चाहता है। मलेच्छ ! तुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी!’
‘अब भी कहता हूं कि बुद्धि से कार्य ले मूर्ख औरत ! और अनुष्ठान पूरा हो जाने दे, मुझे भोग करने दे, यही विधान है, प्राचीन विधान है, कइयों को इस से संतान सुख मिल चुका है ! पर तू अभागन है जो अनुष्ठान में बाधा डाल रही है।’ संन्यासी अपनी आंख मलता हुआ बोला।
‘ऐसे मुझे नहीं चाहिए संतान सुख !’ कह कर बबुआइन ने उस आंख मलते संन्यासी को जोर की एक लात मारी ! जाने कहां से बबुआइन में इतनी ताकत आ गई थी। दर्द से कराहता हुआ संन्यासी बोला, ‘छोड़ दे मेरी कुटिया अभागन।’ वह जोर से चीख़ा, ‘और इसी समय छोड़ दे ! तूने मेरा और मेरी कुटिया दोनों का अपमान किया है।’
बबुआइन ने झटपट उस की कुटिया छोड़ते हुए कहा, ‘तू क्या छुड़ाएगा, मैं ख़ुद ही तेरी यह पाप की कुटिया छोड़े जा रही हूं !’ और अभी जब पुलिस आ कर तुझ पर डंडे बजाएगी तब तुझे समझ आएगा कि कैसे संतान के लिए अनुष्ठान में भोग जरूरी होता है।’
‘तो पापिन तू पुलिस के पास जाएगी ?’ वह संन्यासी गुर्राया।
‘बिलकुल जाऊंगी। सौ बार जाऊंगी।’ वह बोलीं।
‘जा अभागन जा !’ संन्यासी बोला, ‘जरूर जा। तुझे संतान सुख जरूर मिलेगा।’
संन्यासी बोला, ‘मुझ से तो तू बच गई, छूट गई मेरे हाथ से, पर पुलिस तुझे नहीं छोड़ेगी। तुझे संतान सुख जरूर देगी।’ उस ने जोड़ा, ‘ऐसा भी बहुत हो चुका है और जो तू समझ रही है कि पुलिस मुझे डंडे लगाएगी तो यह तेरा अज्ञान है औरत! पुलिस यहां डंडे नहीं ‘हफ्ता’ लगाती है। वह क्या खा कर डंडे लगाएगी? हा-हा।’ कह कर वह संन्यासी फिर से चिलम में भरी चरस पीने लगा।
बबुआइन उस की बातें सुन कर एक बार के लिए तो डर गईं। पर जल्दी-जल्दी अपना सामान बांधा और कुटिया के बाहर आ कर बाऊ साहब के इंतजार में बैठ गईं। बाऊ साहब जो संतानोत्पत्ति के अनुष्ठान ख़ातिर जड़ी-बूटी लेने गए थे। कहीं दूर। बहुत दूर।
सांझ घिरते-घिरते बाऊ साहब आ भी गए। बबुआइन को मय सामान के बाहर बैठे देख कर कुछ तो वह खुद ही समझ गए, जो बाकी रहा बबुआइन की आंखों और उन के छलकते आंसुओं ने समझा दिया। बाऊ साहब बबुआइन को ले कर कुटिया के भीतर गए और जिस संन्यासी के रोज सुबह-शाम पांव छूते थे उसे पैरों से दोनों जने मार कर बाहर आ गए। वह संन्यासी चरस में धुत्त था, उस की सेहत पर कुछ असर नहीं पड़ा। बबुआइन के कहे पर बाऊ साहब पुलिस में भी गए। पर जैसा कि उस संन्यासी ने कहा था कि, ‘पुलिस यहां डंडे नहीं हफ्ता लगाती है।’ वैसे ही हुआ। उल्टे बबुआइन ही पुलिस के सवाली फंदे में आ गईं। पुलिस ने उन से रात थाने में रुकने को कहा तो बबुआइन डर गईं। उन्हें उस संन्यासी की कही बात याद आ गई कि, ‘मुझ से बच गई, छूट गई मेरे हाथ से, पर पुलिस तुझे नहीं छोड़ेगी। तुझे संतान सुख जरूर देगी।’ बबुआइन को उस का कहा यह भी याद आया कि, ‘ऐसा भी बहुत हो चुका है।’ बबुआइन ने बाऊ साहब को यह सारी बातें खुसफुस-खुसफुस कर के बताईं तो बाऊ साहब भी सशंकित हुए और खाना खाने के बहाने थाने से रुखसत हुए। हालां कि पुलिस वालों ने उन्हें रोका और कहा कि, ‘भोजन की चिंता मत करें, यहीं मंगवा देते हैं।’ पर बाऊ साहब दो कदम आगे जा कर बोले, ‘अरे जाएंगे कहां, खा कर यहीं आएंगे और यहीं सोएंगे।’ तो पुलिस वाले निश्चिंत हो गए। लेकिन बाऊ साहब निश्चिंत नहीं हुए। वह सवारी ढूंढ कर सीधे छपरा पहुंचे। वहां नहीं रुके। स्टेशन पर कोई गाड़ी नहीं थी रात में तो वहीं वेटिंग रूम में रुक गए। सुबह गाड़ी मिली और वह घर वापस आए।
उदास और परेशान !
गांव में लोग पूछते और बार-बार पूछते कि ‘क्या हुआ ?’ अब क्या हुआ का क्या जवाब देते बाऊ साहब। गांव की ‘ज्ञानी’ और ‘अनुभवी’ औरतें भी बबुआइन से ‘ठिठोली’ फोड़तीं। किसिम-किसिम की। पर बबुआइन लोक लाज के डर से चुप लगा जातीं। लेकिन गांव क्या जवार के लोग भी चुप नहीं थे। सब के सब उम्मीदों की ढेर पर उछल रहे थे कि अब तो बाऊ साहब के ख़ानदान का चिराग आने वाला है। पर उम्मीदों के खोखले ढेर पर आख़िर लोग कब तक उछलते ? दो साल, तीन साल बीत गया और बाऊ साहब के यहां बबुआइन के खटाई खाने का दिन नहीं आया, सोहर गाने का दिन नहीं निकला।
और अब तो गांव जवार के क्या, बाऊ साहब क्या बबुआइन भी परेशान रहने लगीं कि आख़िर ख़ानदान के चिराग बिना वह क्या करेंगी। बाऊ साहब तो घोड़ों में अपनी इस चिंता का घाम उतार लेते थे। पर बबुआइन क्या करें?
हां, क्या करें बबुआइन ?
हार मान कर बबुआइन ने बाऊ साहब को दूसरी शादी कर लेने को कह दिया। न सिर्फ कह दिया बल्कि पूरा दबाव भी डाला और डलवाया। पर बाऊ साहब तैयार नहीं थे। वह कहते, ‘जब संतान सुख लिखा होगा तो एक ही पत्नी से मिल जाएगा। नहीं लिखा होगा तो दो क्या चार शादियां कर लूं नहीं मिलेगा।’
‘शुभ-शुभ बोलिए !’ बबुआइन उन का मुंह पकड़ती हुई कहतीं, ‘ऐसा नहीं कहते,’ और बाऊ साहब चुप रह जाते।
बबुआइन आख़िरकार नहीं मानीं और अपनी एक ममेरी बहन से बाऊ साहब का रिश्ता तय करवा दिया। बारात विदा हुई तो लोढ़ा ले कर बबुआइन ने खुद बाऊ साहब को परीछा। टीका लगाया।
पर बारात विदा होने के बाद जाने क्यों वह रोईं भी और बहुत रोईं। उन को लगने लगा था कि बाऊ साहब अब उन से बिछड़ जाएंगे। उन के नहीं रहेंगे। यही सोचते-सोचते वह और रोने लगतीं। आख़िरकार वह रोते-रोते घुड़साल में चली गईं और एक-एक कर के सभी घोड़ों को दुलराने लगीं। और जब बाऊ साहब के सब से प्रिय घोड़े के पास वह पहुंचीं तो उस से चिपट गईं और फफक-फफक कर रोने लगीं।
सांझ हो गई थी। पर उधर दूल्हा बने बाऊ साहब भी उदास थे। द्वारपूजा की बेला तो वह और भी उदास हो गए। ख़ास कर जब बैंड बाजे के साथ तुरही-नगाड़ा बजा तो वह बेकल हो गए। बहुत दिनों बाद बल्कि उन के लिए तो यह पहली बार हो रहा था कि तुरही-नगाड़ा बज रहा था और उन का घोड़ा और वह अगुवानी में नहीं थे। वह बहुत छटपटाए और एक बार तो उन्हों ने सोचा भी कि दूल्हे की भूमिका से जरा देर छुट्टी ले कर वह अगुवानी की भूमिका में हो लें। लड़की के पिता को बुला कर मजाक ही मजाक में उन्हों ने यह बात ‘मामा जी मामा जी !’ संबोधित कर बड़े मनुहार से कही भी। पर मामा जी सकुचा गए। बोले, ‘आप भी का कहते हैं दामाद जी! आज और एह बेला ई बात भूल जाइए।’ वह बोले, ‘अभी तो आप दूल्हा बाबू हैं। यही बने रहें। इसी में आप की भी शोभा है। और हमारा भी इसी में शोभा है !’
पर डोली के अगल-बगश्ल घोड़ों की पदचाप सुन-सुन कर बाऊ साहब परेशान हो गए। उन्हें अपने प्रिय घोड़े की याद आ गई और साथ ही बबुआइन की भी।
बाऊ साहब बबुआइन के बारे में सोचने लगे कि वह कितना उन्हें चाहती हैं। उन्हें और उन के ख़ानदान को। कि ख़ानदान का चिराग हो इस के लिए वह अपनी सौत तक लाने को तैयार हो गईं। यहां तक कि उन्हें ख़ुद परीछ कर भेजा। वह बबुआइन की याद में भावुक हो गए। उन की आंखें भर आईं। यहां तक कि जब वह अपनी दूसरी पत्नी की मांग में सिंदूर भर रहे थे तब भी उन की आंखों में बबुआइन ही थीं, उन के भावों में बबुआइन ही थीं। वह मांग में सिंदूर ऐसे भर रहे थे जैसे वह बबुआइन की मांग में सिंदूर भर रहे हों। और उन्हें अपने पहले ब्याह की याद आ गई। जब कि इधर ससुराल की औरतें बाऊ साहब के साथ ठिठोली और मजाक पर आमादा थीं। लेकिन बाऊ साहब तो बबुआइन की याद में भींग रहे थे।
आख़िर बाऊ साहब दूसरी बबुआइन को भी ब्याह कर घर पहुंचे। तब भी बड़की बबुआइन, (हां, अब वह बड़की बबुआइन हो गई थीं।) बढ़-चढ़ कर बाऊ साहब और छोटकी को परीछ रही थीं। यहां तक कि सुहागरात के लिए भी छोटकी बबुआइन के पास बाऊ साहब को पकड़ कर बड़की बबुआइन ही ले गईं। बड़की बबुआइन जब बाऊ साहब को छोटकी बबुआइन के कमरे में छोड़ कर आने लगीं तो जाने यह छोटकी बबुआइन से उम्र का गैप था या बड़की बबुआइन से लगाव बाऊ साहब कूद कर बड़की बबुआइन से लिपट कर दहाड़ मार कर रोने लगे। जैसे कोई बच्चा अपनी मां से लिपट कर रो रहा हो। पर बड़की बबुआइन उन्हें समझा बुझा कर चली आईं। लेकिन थोड़ी ही देर बाद बाऊ साहब भाग कर बड़की बबुआइन के कमरे में आ गए। और उन से लिपट गए। धीरे-धीरे बड़की बबुआइन के कपड़े उतारने लगे। बड़की बबुआइन हालां कि बुदबुदाती रहीं, ‘आज की रात हमारी नहीं, छोटकी की है।’ पर बाऊ साहब माने नहीं और यह रात बड़की बबुआइन पर ही न्यौछावर कर गए।
दूसरी सुबह बड़की बबुआइन ने छोटकी से माफी मांगी और कुछ ‘गुन’ भी उसे बताए बिलकुल भौजाई अंदाज में। ऐसे जैसे भाभी ननद को बताए।
लेकिन बाऊ साहब तो बाऊ साहब ! बड़की बबुआइन का पल्लू छोड़ते ही नहीं थे। हार मान कर बड़की बबुआइन कुछ काम निकाल कर नइहर चली गईं।
वापस आईं तो बिलकुल धर्म की गठरी बन कर। गोया बड़की बबुआइन नहीं संन्यासिन हों। बाऊ साहब भी तब तक छोटकी बबुआइन में रम गए थे। पर बड़की बबुआइन का यह संन्यासिन रूप उन्हें चौंका गया। वह तो बाद में बड़की बबुआइन ने उन्हें इस का राज बताया कि ख़ानदान के चिराग के लिए यह पूजा पाठ बहुत जरूरी है। छोटकी बबुआइन के रूप जाल में रीझ चुके बाऊ साहब भी आंख मूंद कर मान गए। अब अलग बात है कि गांव में लोग खुसफुसाते कि भरी जवानी में बड़की बबुआइन सधुआइन होइ गईं !
आलम यह था कि बड़की बबुआइन पूजा पाठ में रम गई थीं और बाऊ साहब छोटकी बबुआइन में। कई बार यह भी होने लगा कि छोटकी बबुआइन, बड़की बबुआइन को हाशिए पर रखने लगीं, उन्हें अपमानित करने लगीं। जिसे बड़की बबुआइन इतने दुलार से लाई थीं वही अब उन की सौत बनने लगी। बड़की बबुआइन ने कभी इस का बुरा नहीं माना। सब कुछ वह हंस कर टाल जातीं। लेकिन बाऊ साहब छोटकी बबुआइन की गुलामी में इतने अंधे हो गए कि बड़की बबुआइन का अपमान उन्हें दिखाई ही नहीं देता था। हां, यह जरूर था कि बड़की बबुआइन के लाख ‘नहीं-नहीं’ रटने के बाजवूद बाऊ साहब कभी-कभी उन के साथ भी रात गुजार लेते थे।
मन फेर वास्ते।
छोटकी बबुआइन के आए तीन-चार साल होने लगे पर समय बाऊ साहब का नहीं बदला। न ही उन का दुर्भाग्य। छोटकी बबुआइन के सारे ‘गुन-जतन’ और बड़की बबुआइन के लाख पूजा-पाठ के बावजूद बाऊ साहब के ख़ानदान के चिराग का दूर-दूर तक पता नहीं था। छोटकी बबुआइन के खटाई खाने के दिन का इंतजार, इंतजार ही बना रह जाता। उल्टे अब होने यह लगा कि बड़की बबुआइन के साथ-साथ छोटकी बबुआइन को भी चुड़इल धरने लगी थी। अब की बार बाऊ साहब ने सोखा-ओझा के अलावा डॉक्टरों की भी सेवाएं लेनी शुरू कर दी थीं।
पर सब बेअसर था।
गांव में चरचा चल पड़ी कि बाऊ साहब के भाग्य में संतान नहीं बदा है। अब जो पट्टीदार दूर-दूर रहते थे, जलन रखते थे, वह भी अब करीब आने लगे, मीठा व्यवहार करने लगे। क्या तो बाऊ साहब की जमीन-जायदाद आख़िर कौन संभालेगा?
एक तरह से कंप्टीशन ही लग गया था कि कौन पट्टीदार बाऊ साहब का ज्यादा सगा है। सब उन की ख़ातिरदारी में लगे रहते। पर बड़की बबुआइन सब कुछ समझते हुए भी अनजान बनी पूजा-पाठ में लगी रहतीं। छोटकी बबुआइन को भी वह पूजा-पाठ के लिए समझातीं पर वह उन की सुनती ही नहीं थीं। समय धीरे-धीरे कटता जा रहा था साथ ही बड़की बबुआइन की चिंताएं भी। बाऊ साहब तो अपने घोड़ों और द्वारपूजा की अगुवानी में फिर से मगन हो गए थे। लेकिन बड़की बबुआइन बड़े पशोपेश में थीं कि आख़िर बाऊ साहब के ख़ानदान का चिराग कहां से लाएं ?
एकाध बार उन्हों ने किसी बच्चे को गोद लेने की भी बात बाऊ साहब से चलाई।
लेकिन बाऊ साहब ने न इंकार किया न हां किया। वह टाल गए।
उन्हीं दिनों एक युवा ब्राह्मण बड़की बबुआइन को पोथी सुनाने आने लगा। पोथी सुनाते-सुनाते वह बड़की बबुआइन की छलकती देह भी देखने लगा। बड़की बबुआइन भी अब चालीस की उम्र छू रही थीं। पर उन की गोरी चिट्टी देह, देह का गठाव उन्हें तीस-पैंतीस से नीचे का ही भास दिलाता था। संतान न होने के नाते भी उन की देह ढली नहीं थी, उठान पर थी। ब्राह्मण था भी तेइस-पच्चीस बरस का। पोथी सुनाते-सुनाते वह अनायास ही बड़की बबुआइन की उठती-गिरती छातियां देखने लगता। भगवान ने भी बड़की बबुआइन को संतान भले नहीं दिया था पर सुंदरता और सुंदर देह देने में कंजूसी नहीं की थी। बड़की बबुआइन जब चलतीं तो उन के नितंबों को ही देख कर लोग पागल हो जाते।
और वह युवा ब्राह्मण ?
वह तो जैसे उन का उपासक ही बन चला। बड़की बबुआइन के आगे उस का ब्रह्मचर्य गलने लगता। लेकिन बड़की बबुआइन युवा ब्राह्मण की इस उपासना से बेख़बर भगवान की ही उपासना में लीन थीं। युवा ब्राह्मण यह तो जानता था कि बड़की बबुआइन संतान के लिए लालायित हैं सो एक दिन हिम्मत कर उस ने महाभारत की कथा बांचनी शुरू कर दी। बड़की बबुआइन ने ब्राह्मण को मना भी किया कि, ‘महाभारत वह न सुनाएं। महाभारत सुनने से घर में झगड़ा होता है।’ पर युवा ब्राह्मण उन्हें महाभारत सुना देने पर आमादा था। कहा कि, ‘एक-दो अध्याय सुनने से कोई हानि नहीं होती।’ बड़की बबुआइन मान गईं। तो ब्राह्मण ने महाभारत का वह प्रसंग बड़की बबुआइन को सुनाना शुरू किया जिस में ऋषि वेद व्यास नियोग से अंबिके, अंबालिके और दासी को संतान सुख देते हैं। ब्राह्मण ने इस कथा को पूरे मनोयोग, पूरे लालित्य और पूरे विस्तार से सुनाया और उस ने पाया कि कथा सुन कर बड़की बबुआइन विचलित भी हुईं। फिर उन्हों ने बात ही बात में ब्राह्मण से पूछा भी कि, ‘नियोग क्या आज के युग में भी संभव है ?’ युवा ब्राह्मण का ब्रह्मचर्य भले बड़की बबुआइन के आगे गल रहा था पर ईमान अभी नहीं गला था। उस ने साफ बता दिया कि, ‘मेरी जानकारी में आज के युग में नियोग संभव नहीं है फिर....’ कह कर वह चुप हो गया।
‘फिर क्या ?’ बड़की बबुआइन में उत्सुकता जागी।
‘संतान के लिए किसी ब्राह्मण की मदद लेना भी धर्म ही है।’ वह युवा ब्राह्मण संकोच बरतते हुए बोला।
‘क्या बात करते हैं पंडित जी !’ नाराज होती हुई बड़की बबुआइन उस ब्राह्मण से बोलीं, ‘अब आप जाइए !’ ब्राह्मण चुपचाप चला गया। फिर नहीं आया। बड़की बबुआइन ने बुलवाया भी नहीं। कुछ दिनों बाद जब बड़की बबुआइन का चित्त स्थिर हुआ तो उन्हों ने उस युवा ब्राह्मण को बुलवा भेजा। वह ब्राह्मण आया और फिर से पोथियां पढ़ने लगा। दिन बीतने लगे। एक दिन बड़की बबुआइन ने भरी दुपहरिया में उस युवा ब्राह्मण से फिर महाभारत में वर्णित ऋषि वेद व्यास द्वारा अंबिके, अंबालिके और दासी को नियोग से संतान सुख देने की कथा सुनाने को कहा। पहले तो युवा ब्राह्मण ने उन्हें मना कर दिया पर जब बड़की बबुआइन का इसरार ज्यादा बढ़ा तो ऋषि वेद व्यास का नियोग प्रसंग वह ब्राह्मण सुनाने लगा। नियोग प्रसंग सुनते-सुनते कब बड़की बबुआइन उस के चरणों में लेट गईं उसे पता ही नहीं चला। जब पता चला तो पहले तो वह घबराया कि कहीं अनर्थ न हो जाए, कहीं बड़की बबुआइन नाराज न हो जाएं पर जल्दी ही उस ने हिम्मत बटोर का बबुआइन के गाल पर पड़े आंसुओं को धोती की कोर से पोंछा। फिर उन के बालों को सहलाया। और जब देखा कि बड़की बबुआइन जागी हुई भी हैं पर आंखें बंद किए निष्चेष्ट लेटी पड़ी हैं तब धीरे से उस ने एक हाथ नीचे से उन के नितंबों पर फेरा और दूसरा उरोजों पर। बड़की बबुआइन एक क्षण के लिए तो कुनमुनाई कसमसाईं पर दूसरे ही क्षण वह आंखें बंद किए-किए समर्पिता के भाव में आ गईं। ब्राह्मण युवा था और अनुभवहीन भी। जल्दी ही स्खलित हो गया। बड़की बबुआइन उदास हो गईं। पर क्या करें अब तो वह उस के आगे समर्पित हो चुकी थीं। इज्जत तो गंवा ही चुकी थीं और संतान प्राप्ति की लालसा भी उन्हें दबोचे हुई थी। संतान प्राप्ति की लालसा में अब वह हर भरी दुपहरिया में उस युवा ब्राह्मण के आगे समर्पित होने लगीं। वह ब्राह्मण बाऊ साहब की तरह उन्हें पूरी तरह तृप्त तो नहीं कर पाता था पर बड़की बबुआइन भी उस के साथ देह नहीं, संतान जीती थीं। मन में एक मलाल भर कर कि, ‘यह तो पाप है।’ पर अब वह करें तो भी तो क्या ? संतान की चाह में पतिव्रत धर्म और इज्जत वह दोनों ही गंवा चुकी थीं। सब कुछ के बावजूद वह उदास भी रहने लगीं। ब्राह्मण उन्हें बहुत बहलाने की कोशिश करता पर एज गैप सामने आ जाता। वह छोटा पड़ जाता। दीन तो वह था ही, हीन भी हो जाता। पर धीरे-धीरे बड़की बबुआइन को लगने लगा कि अब इस युवा ब्राह्मण से भी उन्हें तृप्ति मिलने लगी है। और कभी-कभी तो वह बाऊ साहब से भी ज्यादा तृप्ति दे देता।
बाऊ साहब एक बार में ही करवट बदल लेते। पर यह युवा ब्राह्मण करवट ही नहीं बदलता। घंटे भर में ही दो बार-तीन बार तृप्त करता। वह तृप्त करता और बबुआइन उसे भरपूर दक्षिणा देतीं।
इस देह तृप्ति और दक्षिणा का संयोग आखि़र रंग लाया। बड़की बबुआइन की मंथली इस बार रुक गई। उन की कोख हरी हो गई। वह खुशी से दोहरी हो गईं। उस दुपहरिया वह युवा ब्राह्मण के प्रति ज्यादा कृतज्ञ थीं। ज्यादा तृप्त भी हुईं। फिर उस को ऐसे चूमती रहीं जैसे वह उन के होने वाले बच्चे का पिता नहीं, ख़ुद होने वाला बच्चा हो।
पर बड़की बबुआइन ने यह बात तुरंत-तुरंत किसी को नहीं बताई। बाऊ साहब को भी नहीं कि कहीं उन्हें कोई शक न हो जाए। ख़ुद तो वह खुशी से समायी न फूलतीं। पर वह खुशी किसी और पर जाहिर नहीं करतीं। एक तो मारे लाज से। दूसरे, टोने-टोटके के डर से। फिर एक डर यह भी था कि कहीं गर्भ पक्का न हो तो ? कुछ अपशकुन हो जाए तो ? पर जब दूसरे और तीसरे महीने भी मंथली नहीं हुई और उलटियां शुरू हो गईं तो गांव भर में बाऊ साहब ने लड्डू बंटवाए। मंदिर-तीर्थ किए और बड़की बबुआइन के लिए लेडी डॉक्टर का प्रबंध किया। संयोग देखिए की बड़की बबुआइन ने बेटे को जन्म दिया। बधावे बजने लगे। घर में औरतें सोहर गाने लगीं और बाहर हिजड़े नाचने लगे। नगाड़ा-तुरही बजने लगे।
गांव झूम उठा। बाऊ साहब की ख़ुशी में सभी शरीक थे। और बाऊ साहब? वह तो अपना प्रिय सफेद घोड़ा ऐसे दौड़ाते जैसे वह चेतक हो और खुद राणा प्रताप !
लेकिन इस सारे क्रम में कोई अगर दुःखी था तो दो लोग। एक तो बाऊ साहब के पट्टीदार और दूसरे छोटकी बबुआइन। पर यह लोग अपना दुःख जाहिर नहीं करते।
और वह युवा ब्राह्मण ?
उस की तो जैसे लाटरी खुल गई।
बाऊ साहब ने उसे पांच बीघा जमीन दे कर उस की एक कुटिया कम आश्रम बनवा दिया। क्या तो बड़की बबुआइन का पूजा-पाठ और इस ब्राह्मण के आशीर्वाद से ही बाऊ साहब को संतान सुख मिला था।
सच भी यही था।
बड़की बबुआइन ने भी उस युवा ब्राह्मण की सेवा में कसर नहीं छोड़ी। पर साथ ही उस की पोथी-पत्र की कसम भी ले ली कि वह इस राज को राज ही रहने देगा, मर जाएगा पर भेद नहीं खोलेगा। वह और तो सब कुछ मान गया, अपने मन और जबान पर लगाम लगा लिया पर तन का वह क्या करे ? वह बार-बार मौका देख कर बड़की बबुआइन के सामने याचक बन कर खड़ा हो जाता। पर बड़की बबुआइन उस की याचना के आगे पिघलती ही नहीं थीं। उन्हें वैसे भी देह सुख की तलाश नहीं थी। संतान सुख की तलाश उन की पूरी हो ही चुकी थी। लेकिन वह युवा ब्राह्मण बिना बड़की बबुआइन की देह फिर भोगे छोड़ने वाला नहीं था। आख़िर बड़की बबुआइन को उस के आगे झुकना ही पड़ा। उस की देह के नीचे आना ही पड़ा। वह युवा ब्राह्मण भी अब ढीठ हो चुका था और ‘अनुभवी’ भी।
धीरे-धीरे बड़की बबुआइन को भी उस से सुख मिलने लगा। वह देह सुख में डूबने लगीं। और बाऊ साहब ? उन्हें लगता बाऊ साहब अब बुढ़ा रहे हैं। देह लीला अब उन के मान की नहीं रही। सो अब वह थीं, ढींठ और अनुभवी हो चला युवा ब्राह्मण था, उस का आश्रम था और देह भोग था। नतीजा सामने था बड़की बबुआइन के पांव फिर भारी थे।
खुशियां फिर छलछलाईं।
अब वह दो बेटों की मां थीं। धीरे-धीरे युवा ब्राह्मण की कृपा से वह ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ को चरितार्थ करती हुई अब तीन-तीन बेटों की मां बन चली थीं। एक बेटे की शक्ल तो बड़की बबुआइन से मिलती थी पर बाकी दो किस पर गए थे यह बाऊ साहब के लिए शोध का विषय था। क्यों कि उन पर तो एक भी बेटा नहीं गया था। फिर भी वह यही सोच कर खुश थे कि अब उन के तीन-तीन बेटे हैं।
लेकिन छोटकी बबुआइन खुश नहीं थीं। उन की हालत अब बिगड़ती जा रही थी। बड़की बबुआइन के तीन-तीन बेटे और उन के एक भी नहीं। तब जब कि बाऊ साहब संतान सुख के लिए ही उन्हें ब्याह कर लाए थे। बड़की बबुआइन की तरह छोटकी बबुआइन ने भी अब पूजा-पाठ शुरू कर दिया। एक बार बाऊ साहब से वह मैरवां बाबा के थान चलने के लिए भी अड़ीं पर बाऊ साहब ने उन्हें डांट दिया। बोले, ‘वहां सब अघोड़ी रहते हैं।’
अंततः छोटकी बबुआइन ने भी पोथी सुनना शुरू किया लेकिन उन का ब्राह्मण युवा नहीं, बूढ़ा था। दूसरे, छोटकी बबुआइन का लावण्य भी अब जाता रहा था। मारे कुंठा के वह घुलती जा रही थीं। पर देह सुख की लालसा उन की अभी मरी नहीं थी। तिस पर बाऊ साहब उन के लिए पूरे नहीं पड़ते थे। महीने में दो एक बार ही उन के पास आते और जल्दी ही छितरा कर छिटक जाते। छोटकी बबुआइन भुखाई की भुखाई रह जातीं, तृप्त भी नहीं हो पातीं। हार मान कर वह बाऊ साहब से चिपटने लगतीं तो आजिज आ कर बाऊ साहब उठ कर बड़की बबुआइन के कमरे में चले जाते।
तो क्या करें अब छोटकी बबुआइन ?
हार मान कर वह बड़की बबुआइन की शरण में गईं। वह जैसे बड़की बबुआइन की दासी सी बन गईं। बहुत सेवा करने के बाद आख़िर एक रोज उन्हों ने बबुआइन से पूछ ही लिया राज की बात। बोलीं, ‘दीदी एक बात पूछूं?’
‘पूछो !’ दर्प में ऊभ-चूभ बड़की बबुआइन बोलीं।
‘आख़िर कौन सा उपाय करती हैं जो आप के एक नहीं तीन-तीन बेटे हो गए!’ वह बड़की बबुआइन की मनुहार करती, लजाती हुई बोलीं, ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी ! जिंदगी भर आप के चरणों में रहूंगी।’ कह कर छोटकी बबुआइन, बड़की बबुआइन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाईं। लेकिन बड़की बबुआइन सिर पर पल्लू रखती हुई उठ खड़ी हुईं। और बिन कुछ बोले चली गईं। लेकिन छोटकी बबुआइन ने भी जैसे ठान ही लिया था। वह जब तब सांझ-सवेरे, रात-दुपहरिया बड़की बबुआइन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगतीं, ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी !’ पर बड़की बबुआइन चुप लगा जातीं। आख़िर वह बतातीं भी तो क्या बतातीं? लेकिन जब ‘हम को भी बता न दीजिए दीदी !’ का दबाव बहुत बढ़ गया तो बड़की बबुआइन एक दिन पिघल गईं। छोटकी पर उन्हें दया आ गई। पल्लू सिर पर रखती और पांव फैलाती हुई उन्हों ने संतान सुख का सूत्र दे दिया, ‘बाऊ साहब के भरोसे रहोगी तो कुछ नहीं होगा।’ वह खुसफुसाईं, ‘अपना इंतजाम खुद करो !’ कह कर वह किंचित मुसकुराईं। ऋषि वेद व्यास की नियोग कथा बरास्ता अंबिके, अंबालिका सुनाई और बोलीं, ‘लेकिन सावधानी से किसी को पता न चले। आख़िर ख़ानदान की इज्जत का सवाल है।’ और फिर उदास हो कर लेट गईं। छोटकी बबुआइन बड़ी देर तक उन के पांव दबाती रहीं।
संतान सुख का सूत्र छोटकी बबुआइन के हाथ भी लग ही गया था। जल्दी ही उन के भी पांव भारी हो गए। छोटकी बबुआइन का ब्राह्मण भी बूढ़ा भले था पर इतना भी नहीं कि संतान सुख न दे सके। पर छोटकी बबुआइन को तो सिर्फ संतान सुख ही नहीं, देह सुख की भी तलाश थी। अंततः उन्हों ने भी एक युवा ब्राह्मण तलाश लिया था जो दीन भी था और हीन भी लेकिन देह सुख और संतान सुख देने में प्रवीण और निपुण। देखते-देखते छोटकी बबुआइन के भी तीन संतानें हो गईं। दो बेटा, एक बेटी। उधर बड़की बबुआइन के भी एक बेटी हो गई थी। इस तरह बाऊ साहब के जहां संतान नहीं होती थी और अब सात-सात संतानें हो गई थी। खर्चे बढ़ गए थे। ज्यादातर खेत सीलिंग में फंस गए थे जो बचे थे खर्च निपटाने के चक्कर में बिकने लग गए थे। सब से ज्यादा खर्च बाऊ साहब का घोड़ों पर था और बच्चों पर। आठ घोड़ों में से अब तीन घोड़े ही उन के पास रह गए थे। इन में भी दो बूढ़े़। वह परेशान रहने लग गए थे। पट्टीदारों के घरों से हाथियां हट गई थीं, पर बाऊ साहब के घर से घोड़े नहीं। घोड़े और घुड़सवारी जैसे उन की सांस थे। साल दर साल खेत बिकते जा रहे थे और खर्च बढ़ता जा रहा था। तिस पर तीन घोड़े वह नए ख़रीद कर लाए थे।
‘लेकिन सिर्फ घोड़े भर ख़रीद लेने से तो काम चलता नहीं, घोड़ों को चना भी चाहिए होता है।’ छोटकी बबुआइन एक दिन भुनभुनाईं। सुनते ही बाऊ साहब गुस्से से लाल-पीले हो गए। और एक झन्नाटेदार थप्पड़ लगा दिया। यह पहली बार था जब बाऊ साहब ने किसी औरत पर हाथ उठाया था। हाथ उठा कर वह भी पछताए। लेकिन वह करते भी तो क्या करते ? पहली बार ही किसी ने उन से उन के घोड़ों के बाबत सवाल उठाया था। वह एक बार मौत मंजूर कर सकते थे पर उन के घोड़ों की शान में कोई बट्टा लगा दे यह उन्हें मंजूर नहीं था। वह चाहे कोई भी हो।
पर खर्चे कैसे रोकें ?
आख़िर एक दिन उन्हों ने बड़की-छोटकी दोनों बबुआइनों को बुला कर एक साथ बैठाया। खर्चे काबू करने पर राय मशविरा किया और उठने से पहले फरमान जारी कर दिया। दोनों बबुआइनों से साफ-साफ कह दिया बाऊ साहब ने कि अब उन्हें और बच्चे नहीं चाहिए। उन्हों ने अंगरेजी शब्द ‘बर्थ कंट्रोल’ का भी इस्तेमाल किया। उन को लगा कि बबुआइनें जाने मानें या न मानें सो ‘गवर्मेंट’ का डर भी दिखाया और बताया कि, ‘यह सिर्फ हम ही नहीं गवर्मेंट भी कहती है कि बर्थ कंट्रोल करो।’ उन्हों ने जोड़ा ‘नहीं जेल भेज देगी।’
दोनों बबुआइनों ने आंखों-आंखों में एक-दूसरे को देखा और सचमुच डर गईं।
सवाल था कि वह दोनों बबुआइनें तो परहेज कर जाएं। लेकिन उन युवा ब्राह्मणों का वह क्या करें ?
बड़की बबुआइन ने तो अपने को कंट्रोल कर लिया और ब्राह्मण को भी समझा कर बर्थ कंट्रोल कर लिया। लेकिन छोटकी ?
वह अपने आप को ही कंट्रोल नहीं कर पाईं। देह सुख के फेर में पड़ कर फिर से गर्भवती हो गईं। अब वह क्या करें ? दिक्कत यह भी थी कि इन दिनों बाऊ साहब भी बर्थ कंट्रोल के फेर में छोटकी के पास नहीं जाते थे और छोटकी बबुआइन गर्भवती हो गई थीं। अब वह कहां मुंह दिखाएं। बाऊ साहब को क्या जवाब दें ?
अंततः वह एक चमाइन से पेट मलवाने लगीं कि बच्चा गिर जाए। पर कुछ नहीं हुआ। उन्हों ने बहुत दिनों बाद चुड़इल धरने का भी टोटका किया कि सोखा-ओझा की मार पीट से बच्चा गिर जाए। बच्चा तब भी नहीं गिरा। फिर वह चुपके-चुपके एक झोला छाप डॉक्टर के इलाज में पड़ गईं। बच्चा तो पूरा नहीं गिरा, वह जरूर मर गईं।
बाऊ साहब बहुत दुखी हुए और नाराज भी। उस झोला छाप डॉक्टर को जूतों-लातों से ख़ूब मारा। और पुलिस के हवाले कर दिया। उसे जेल जाना पड़ा। पर जेल जाते-जाते उस ने सच भाख दिया। वह भी सार्वजनिक। बाऊ साहब जैसे आसमान से गिरे। गिरे तो महीनों बिस्तर से उठे नहीं। वह तो बड़की बबुआइन की सेवा और तपस्या ने उन्हें जिला दिया नहीं, डॉक्टर तो जवाब ही दे चुके थे।
बाऊ साहब के इलाज में खर्चा बहुत हो गया था। इतना कि बड़की बबुआइन को उन के घोड़े तक बेचने पड़ गए। पर जब बाऊ साहब ठीक हो कर खड़े हुए बड़की बबुआइन ने खुद कर्जा कुर्जी जुगाड़ कर बाऊ साहब के लिए सफेद घोड़ा ख़रीद दिया था क्यों कि वह जानती थीं कि बिना घोड़े के बाऊ साहब जी नहीं सकते थे। और सचमुच बाऊ साहब घोड़ा देखते ही जीन कस कर उस पर सवार हो उसे सरपट दौड़ाने लगे। उन के पहले जैसे दिन फिर वापस आ गए। वह फिर से शादी की द्वारपूजा की अगुवानी करने लगे उसी आन, उसी बान और उसी शान से।
पर यह कितने दिन चल सकता था? सात-सात बच्चों का खर्च, बेटियों की शादी की चिंता तिस पर घोड़े का शौक। बाऊ साहब के लिए अब यह सब कुछ भारी पड़ता जा रहा था। आख़िर कब तक खेत बेंच-बेंच कर वह घोड़ा ख़रीदें और उसे खिलाएं ? वह सोचते और सो जाते।
अब होने यह लगा था कि जैसे पहले बाऊ साहब अगुवानी करते थे तो साथ में लड़की के पिता को न्यौता के नाम पर कुछ मदद भी जरूर करते थे। लेकिन अब जब वह अगुवानी करते थे तो घोड़े की ख़ुराक के नाम पर कुछ मदद ले लेते थे।
विवशता थी उन की यह लोग भी समझते थे। लेकिन इस सब के बावजूद उन की अगुवानी देखने वाले दर्शकों का तांता नहीं टूटा था। दर्शकों का ग्राफ उल्टे बढ़ा ही था। एक तरह से मान लिया गया था कि जिस द्वारपूजा की अगुवानी बाऊ साहब न करें, वह शादी, शादी नहीं।
पर जल्दी ही भ्रम टूटा। लोगों का भी और बाऊ साहब का भी।
बाऊ साहब के लिए वैसे भी अगुवानी तो मात्र बहाना थी, उन का मकसद तो पहले ही से उन के मन में साफ था कि उन की घुड़सवारी लोग देखें। बस ! घुड़सवारी में उन के प्राण बसते थे। पर यह शौक अब उन के लिए दिन-ब-दिन शाही शौक बनता जा रहा था। खेत बिकते जा रहे थे। फिर कुछ लोगों ने बाऊ साहब को समझाया कि अब आज का घोड़ा तो मोटर साइकिल है। एक बार ख़रीद लीजिए और जब चलाइए तभी पेट्रोल भरवाइए। घोड़े की तरह नहीं कि बैठा कर भी चना खिलाइए।
बात बाऊ साहब की समझ में आ गई थी। उन्हों ने फिर खेत बेंचा और एक राजदूत मोटर साइकिल ख़रीदी।
पर अब यह राजदूत मोटर साइकिल चलाए कौन ? बाऊ साहब ने इस राजदूत मोटर साइकिल को चलाने के लिए बाकायदा वेतन दे कर एक ड्राइवर रखा। दो बरस में उन्हों ने तीन मोटर साइकिल ख़रीदी और चार ड्राइवर बदले। पर जो बात घुड़सवारी में थी वह इस मोटर साइकिल में नहीं बनी। एक तो उन्हें सिकुड़ कर पीछे बैठना पड़ता था और उन्हीं की तनख़्वाह पाने वाला सीना तान कर आगे बैठता था। फिर भी वह मूंछें ऐंठ कर गर्दन आगे निकाल कर बैठते। लोग कहते भी थे कि, ‘वो देखो घोड़े वाले बाऊ साहब जा रहे हैं।’ तो उन्हें बुरा लगता। बहुत बुरा। दूसरे उन्हें जितने भी ड्राइवर मिले सब बेइमान मिले।
हरदम मोटर साइकिल बिगाड़ देते और बनवाने के नाम पर मैकेनिक से मिल कर मोटर साइकिल के पार्ट बदलवा देते। कुछ दिन में फिर मोटर साइकिल कबाड़ा हो जाती।
औने-पौने दामों में बेचना पड़ता। वह परेशान हो गए। मोटर साइकिल बेचते-ख़रीदते। दूसरे घुड़सवारी जैसा चैन भी उन्हें इस सवारी में नहीं मिलता था। हार मार कर उन्हों ने मोटर साइकिल बेंच दी और फिर नहीं ख़रीदी।
पर बिना सवारी किए वह जीते तो कैसे भला ? उन की सांस फूलने लगी। तो क्या वह फिर से घोड़ा ख़रीदें ?
पर वह घोड़े के खर्चे से डर गए। फिर उन्हों ने बहुत सोच समझ कर एक बैलगाड़ी बनवाई। एक जोड़ी बढ़िया बैल ख़रीदे। ख़ास इस बैलगाड़ी के लिए। इन बैलों को वह हल में नहीं जुतने देते थे शुरू में। फिर बाद में वह हल में भी जुतने लगे। पर इन बैलों का फिर भी ख़ास ख़याल रखते थे बाऊ साहब। फिर जब बैलगाड़ी में इन बैलों को बांध कर बाऊ साहब चलते, इन बैलों के गले में बंधी घंटियां जब खन-खन बजतीं तो बाऊ साहब का रोयां-रोयां पुलकित हो जाता। लोग कहते भी कि, ‘वो देखो घोड़े वाले बाऊ साहब जा रहे हैं।’ यह सुन कर उन्हें जरा धक्का सा लगता पर दूसरे ही क्षण वह फिर से मूंछें ऐंठ कर बैलों की लगाम ढीली कर उन की पूंछें ऐंठने लगते तो यह बैल भी घोड़े की तरह तो नहीं लेकिन दौड़ने जरूर लगते थे। बैलों का यह दौड़ाना भी बाऊ साहब को अच्छा लगता।
वह लोगों से कहते भी कि, ‘उस निगोड़ी मोटर साइकिल से तो ठीक ही है यह बैलगाड़ी। सिकुड़ कर पीछे तो नहीं बैठना पड़ता। और उस से भी बड़ी बात कि लगाम अपने हाथ में है। न सही घोड़े की, बैलों की ही लगाम। लगाम तो है अपने हाथ।’ बाऊ साहब यह कह कर ठसक से भर जाते और मूंछें ऐंठने लग जाते।
और द्वारपूजा की अगुवानी ?
अगुवानी अब वह भूल गए थे। गांव में भी किसी लड़की की शादी पड़ती तो वह कोशिश कर के गांव से बाहर चले जाते कि जब घोड़ा ही नहीं तो कैसी द्वारपूजा, कैसी अगुवानी ?
पर बैलगाड़ी ?
बैलगाड़ी तो वह दौड़ाते। कुछ लोग कहते भी कि, ‘क्या हो गया है बाऊ साहब को? दुनिया बैलगाड़ी से तरक्की कर जेट, कंप्यूटर और ऐटम युग में जा रही है और बाऊ साहब बैलगाड़ी और बैलों की लगाम में ही लगे बैठे हैं?’ बाऊ साहब ऐसा कहने वालों से कोई तर्क नहीं करते। कहते, ‘यह तो अपने मन और चैन की बात है।’
पर एक बार जब उन का बेटा एक बोरा गेहूं बेंच कर सिर्फ एक जूता ख़रीद कर लाया,एक्शन जूता। तब उन्हों ने जब उसे टोका तो वह भी कहने लगा ‘बाबू का चाहते हैं कि हमहूं आप की तरह बैलगाड़ी युग में जिएं ?’ सुन कर बाऊ साहब सकते में आ गए।
इसी बीच एक घटना और घटी। उन के दूसरे बेटे का गांव के एक पट्टीदार के लड़के से झगड़ा हुआ। तो बाऊ साहब उस पर नाराज हो गए। पंचायत बैठी तो बाऊ साहब जानते थे कि पट्टीदार का लड़का मैरवां बाबा के थान की ‘कृपा’ से पैदा हुआ था। बात ही बात में वह उसे दोगला कह बैठे। बोले, ‘जानता हूं मैरवां के दोगली संतान !’ फिर क्या ? पट्टीदार भी अपनी पर आ गया। बोला, ‘तो बाऊ साहब आप के यहां ही कौन सब कुछ ठीक ठाक है ? आप के भी सभी पुत्र ऋषि पुत्र ही हैं।’ वह बोला, ‘आप आंख मूंदें तो मूंदें समूचा गांव थोड़े ही आंख मूंदेगा।’
सुन कर बाऊ साहब मरने मारने पर आमादा हो गए।
घर आ कर बड़की बबुआइन से जिरह करने लगे। बड़की बबुआइन बोलीं, ‘लोगों का क्या है जो चाहे कह दें। पर आप कैसे मान गए इस बात को ? आप तो जानते हैं सब भगवान के आशीर्वाद से है।’ बड़की बबुआइन बोलीं, ‘फिर आप काहे इन नीचों के मुंह लगते हैं ?’
पर बड़की बबुआइन उस रोज बाऊ साहब से हरदम की तरह आंख मिला कर ई सब नहीं बोलीं। बाऊ साहब उदास हो गए और बिना खाना खाए ही रात सो गए।
पर नींद थी कहां ?
बाऊ साहब के पास घोड़ा नहीं था, यह वह मन मार कर बर्दाश्त कर गए थे पर अब आन भी न रहे यह उन्हें बर्दाश्त नहीं था। करवट बदल-बदल कर वह सोचते रहे। वह अपने आप ही से बुदबुदाए भी कि, ‘अगर यह सब साले ऋषि पुत्र हैं तो अच्छा था कि वह निःसंतान ही रहते। निरवंश ही रहते। आख़िर क्या जरूरत थी उधार के अंश से वंश चलाने की ? कौन राजपाट था जो राजगद्दी ख़ाली रह जाती? रही बात खेती-बारी की तो वह भी तो अब बिकती ही जा रही है।’ वह बुदबुदाते रहे और अकुलाते रहे। अफनाते रहे और बार-बार, फिर-फिर यही सोचते रहे कि यह सब क्या सचमुच ऋषि पुत्र हैं ? मतलब दोगले हैं ? उन के अपने अंश नहीं हैं? उन के अपने खून नहीं हैं ? तो कौन हैं ये सब ? आख़िर किस ऋषि की संतानें हैं ये सब ? कहीं पूजा-पाठ करने वाले उन ब्राह्मणों की तो नहीं ? उन की शकलों से बच्चों की शकल की मिलान भी वह ख़यालों ही ख़यालों में करने लगे।
उलटी-सीधी और तमाम बातें सोचते-सोचते सुबह हो गई थी पर बाऊ साहब की आंखों में नींद नहीं समाई।
नींद आंखों में कैसे समाती भला ? वह तो बेकल थे।
इस विकलता का कोई जवाब भी उन्हें ढूंढ़े नहीं मिलता था। छोटकी बबुआइन तो पाप की गठरी बन कर मर चुकी थीं, बड़की बबुआइन सब कुछ भगवान पर छोड़ देतीं। उन ब्राह्मणों से पूछने की हिम्मत नहीं होती थी बाऊ साहब की। कहीं श्राप दे दें सब तो ? और फिर इस सवाल को सार्वजनिक रूप से कुरेदने में अपनी ही बेइज्जती थी। सो वह इस सवाल को मन ही मन कुरेदते रहते और बैलगाड़ी हांकते रहते।
अब फर्क उन के बैलगाड़ी हांकने में भी आ गया था। पहले जैसे वह शौकिया घोड़े दौड़ा कर अगुवानी करते थे पर बाद के दिनों में घोड़े की ख़ुराक के नाम पर कुछ पैसे ले लेते थे, ठीक वैसे ही वह अब बैलगाड़ी भी शौकिया हांकना भूल गए थे। गांवों में लोगों के पास अब सामान ढोने के लिए ट्रैक्टर-ट्राली भी था। डनलफ भी। और बाहर सड़कों पर ट्रक। फिर भी बैलगाड़ी की जरूरत अभी भी थी। सो बाऊ साहब की बैलगाड़ी भी अब लदनी करने लगी थी। बाऊ साहब के साग-सब्जी का खर्च निकल जाता था। कोई टोकता भी कि, ‘का बाऊ साहब ?’ तो वह छूटते ही बोलते, ‘कोई आन की गाड़ी तो हांक नहीं रहा। फिर अपनी ही बैलगाड़ी हांक रहा हूं। कुछ लाद लिया तो का हुआ ?’ वह जैसे जोड़ते, ‘एक पंथ दो काज। खर्च का खर्च निकलता है और अपनी ड्राइवरी भी जिंदा रहती है।’ वह हंसते हुए गला खंखार कर सफाई पर उतर आते, ‘अरे, पहले घोड़ा ड्राइव करता था, फिर मोटर साइकिल ड्राइव करवाया। पर ड्राइव करवाना हम को रास नहीं आया तो अब बैलगाड़ी ड्राइव कर रहा हूं।’
वह कहते, ‘क्या करें मशीनी चीज हम ड्राइव नहीं कर सकते मोटर साइकिल, जीप, मोटर क्या चीज है? एरोप्लेन ड्राइव करते।’ वह ठसक से भर कर बोलते, ‘घोड़े की भी लगाम हमारे हाथ में रहती थी, अब बैलगाड़ी की लगाम अपने हाथ है।’ कह कर ठठ्ठा लगाते कहते, ‘बैलगाड़ी हो, घोड़ा हो, बीवी हो या कुछ और सही, लगाम अपने हाथ में होनी चाहिए। तभी ड्राइव करने का मजा है।’ कह कर वह मूंछें ऐंठते और बैलों को ललकार कर अपनी बैलगाड़ी ‘ड्राइव’ कर देते।
उन के इस ‘ड्राइव’ में उन की सारी चिंताएं डूब जातीं !