चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 13 / बयान 12

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हम ऊपर लिख आये हैं कि इन्द्रदेव ने भूतनाथ को अपने मकान से बाहर जाने न दिया और अपने आदमियों को यह ताकीद करके कि भूतनाथ को हिफाजत और खातिरदारी के साथ रक्खें रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गया।

यद्यपि भूतनाथ इन्द्रदेव के मकान में रोक लिया गया और वह भी उस मकान से बाहर जाने का रास्ता न जानने के कारण लाचार और चुप हो रहा मगर समय और आवश्यकता ने वहां उसे चुपचाप बैठने न दिया और मकान से बाहर निकलने का मौका उसे मिल ही गया।

जब इन्द्रदेव रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गया उसके दूसरे दिन दोपहर के समय सर्यूसिंह जो इन्द्रदेव का बड़ा विश्वासी ऐयार था भूतनाथ के पास आया और बोला, “क्यों भूतनाथ, तुम चुपचाप बैठे क्या सोच रहे हो?'

भूत - बस अपनी बदनसीबी पर रोता और झक मारता हूं, मगर इसके साथ ही इस बात को सोच रहा हूं कि आदमी को दुनिया में किस ढंग से रहना चाहिए।

सर्यू - क्या तुम अपने को बदनसीब समझते हो?

भूत - क्यों नहीं! तुम जानते हो कि वर्षों से मैं राजा वीरेन्द्रसिंह का काम कैसी ईमानदारी और नेकनीयती के साथ कर रहा हूं, और क्या यह बात तुमसे छिपी हुई है कि उस सेवा का बदला आज मुझे क्या मिल रहा है?

सर्यू - (पास बैठकर) मैं सब-कुछ जानता हूं मगर भूतनाथ, मैं फिर भी यह कहने से बाज न आऊंगा कि आदमी को कभी हताश न होना चाहिए और हमेशा बुरे कामों की तरफ से अपने दिल को रोककर नेक काम में तन-मन-धन से लगे रहना चाहिए। ऐसा करने वाला निःसन्देह सुख भोगता है चाहे बीच-बीच में उसे थोड़ी-बहुत तकलीफ भी क्यों न उठानी पड़े, अस्तु आजकल के दुःखों से तुम हताश मत हो जाओ और राजा वीरेन्द्रसिंह तथा इनकी तरह सज्जन लोगों के साथ नेकी करने से अपने दिल को मत रोको। तुम तो ऐयार हो और ऐयारों में भी नामी ऐयार, फिर भी दो-चार दुष्टों की अनोखी कार्रवाइयों से आ पड़ने वाली आफतों को न सहकर उदास हो जाओ तो बड़े आश्चर्य की बात है।

भूत - नहीं मेरे दोस्त मैं हताश होने वाला आदमी नहीं हूं, मैं तो केवल समय का हेर-फेर देखकर अफसोस कर रहा हूं। निःसंदेह मुझसे दो-एक काम बुरे हो गये और उसका बदला भी मैं पा चुका हूं, मगर फिर भी मेरा दिल यह कहने से बाज नहीं आता कि तेरे माथे से कलंक का टीका अभी तक साफ नहीं हुआ, अतएव तू नेकी करता जा और भूलता जा।

सर्यू - शाबाश, मैं केवल तुम्हीं को नहीं बल्कि तुम्हारे दिल को भी अच्छी तरह जानता हूं और वे बातें भी मुझसे छिपी हुई नहीं हैं जिनका इलजाम तुम पर लगाया गया है। यद्यपि मैं एक ऐसे सरदार का ऐयार हूं जो किसी के नेकबदन से सरोकार नहीं रखता और इस स्थान को देखने वाला कह सकता है कि वह दुनिया के पर्दे के बाहर रहता है मगर फिर भी मैं काम ज्यादे न होने के सबब से घूमता-फिरता और नामी ऐयारों की कार्रवाइयों को देखा-सुना करता हूं और यही सबब है कि मैं उन भेदों को भी कुछ जानता हूं जिसका इलजाम तुम पर लगाया गया है।

भूत - (आश्चर्य से) क्या तुम उन भेदों को जानते हो?

सर्यू - बखूबी तो नहीं मगर कुछ-कुछ।

भूत - तो मेरे दोस्त, तुम मेरी मदद क्यों नहीं करते तुम मुझे इस आफत से क्यों नहीं छुड़ाते। आखिर हम-तुम एक ही पाठशाला के पढ़े-लिखे हैं, क्या लड़कपन की दोस्ती पर ध्यान देते तुम्हें शर्म आती है या क्या तुम इस लायक नहीं हो?

सर्यू - (हंसकर) नहीं-नहीं, ऐसा खयाल न करो, मैं तुम्हारी मदद जरूर करूंगा, अभी तक तो तुम्हें किसी से मदद लेने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी थी। और जब आवश्यकता आ पड़ी है तो मदद करने के लिए हाजिर भी हो गया हूं।

भूत - (मुस्कुराकर) तब तो मुझे खुश होना चाहिए, मगर जब तक तुम्हारा मालिक रोहतासगढ़ से लौटकर न आ जाय तब तक हम लोग कुछ भी न कर सकेंगे।

सर्यू - क्यों न कर सकेंगे?

भूत - इसलिए कि तुम्हारा मालिक मुझे यहां कैद कर गया है। मैं इसे कैद ही समझता हूं जबकि यहां से बाहर निकलने की आज्ञा नहीं है।

सर्यू - यह कोई बात नहीं है, अगर जरूरत आ पड़े तो मैं तुम्हें इस मकान के बाहर कर दूंगा चाहे बाहर होने का रास्ता अपने मालिक के नियमानुसार न बताऊं।

भूत - (प्रसन्नता से हाथ ऊपर उठाकर) ईश्वर तू धन्य है। अब आशालता ने जिसमें सुन्दर और सुगन्धित फूल लगे हुए हैं, मुझे फिर घेर लिया। (सर्यू से) अच्छा दोस्त, तो अब बताओ कि मुझे क्या करना चाहिए?

सर्यू - सबके पहिले मनोरमा को अपने कब्जे में लाना चाहिए।

भूत - (कुछ सोचकर) ठीक कहते हो, मेरी भी एक दफे यही इच्छा हुई थी मगर तुम इस बात को नहीं जानते कि शिवदत्त, मनोरमा और...।

सर्यू - (बात काटकर) मैं खूब जानता हूं कि शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को कमलिनी के कैदखाने से निकल भागने का मौका मिला और वे लोग भाए गए।

भूत - तब?

सर्यू - मगर आज एक खबर ऐसी सुनने में आई है जो आश्चर्य और उत्कंठा बढ़ाने वाली है और हम लोगों को चुपचाप बैठे रहने की आज्ञा नहीं देती।

भूत - वह क्या?

सर्यू - यही कि कम्बख्त मायारानी की मदद पाकर शिवदत्त, माधवी और मनोरमा ने जो पहिले ही से अमीर थे, अपनी ताकत बहुत बढ़ा ली और सबसे पहिले उन्होंने यह काम किया कि राजा दिग्विजयसिंह के लड़के कल्याणसिंह को कैद से छुड़ा लिया जिसकी खबर राजा वीरेन्द्रसिंह को अभी तक नहीं हुई और यह भी तुम जानते ही हो कि रोहतासगढ़ के तहखाने का भेद कल्याणसिंह उतना ही जानता है जितना उसका बाप जानता था।

भूत - बेशक-बेशक, अच्छा तब?

सर्यू - अब उन लोगों ने यह सुनकर कि राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह इत्यादि ऐयार तथा किशोरी, कामिनी, कमलिनी, कमला और लाडिली वगैरह सभी रोहतासगढ़ में मौजूद हैं, गुप्त रीति से रोहतासगढ़ पहुंचने का इरादा किया है -

भूत - बेशक कल्याणसिंह उन लोगों को तहखाने की गुप्त राह से किले के अन्दर ले जा सकता है और इसका नतीजा निःसन्देह बहुत बुरा होगा।

सर्यू - मैं भी यही सोचता हूं, तिस पर मजा यह है कि वे लोग अकेले नहीं हैं बल्कि हजार फौजी सिपाहियों को भी उन लोगों ने अपना साथी बनाया है।

भूत - और रोहतासगढ़ के तहखाने में इससे दूने आदमी भी हों तो सहज ही में समा सकते हैं, मगर मेरे दोस्त, यह खबर तुमने कहां से और क्योंकर पाई?

सर्यू - मेरे चेलों ने जो प्रायः बाहर घूमा करते हैं यह खबर मुझे सुनाई है।

भूत - तो क्या यह मालूम नहीं हुआ कि शिवदत्त, माधवी, मनोरमा और कल्याणसिंह तथा उनके साथी किस राह से जा रहे हैं और कहां हैं?

सर्यू - हां यह भी मालूम हुआ है, वे लोग बराबर घाटी की राह से और जंगल ही जंगल जा रहे हैं।

भूत - (कुछ देर तक गौर करके) मौका तो अच्छा है!

सर्यू - बेशक अच्छा है।

भूत - तब?

सर्यू - चलो हम-तुम दोनों मिलकर कुछ करें!

भूत - मैं तैयार हूं, मगर इस बात को सोच लो कि ऐसा करने पर तुम्हारा मालिक रंज तो न होगा!

सर्यू - सब सोचा-समझा है, हमारा मालिक भी रोहतासगढ़ ही गया हुआ है और वह भी राजा वीरेन्द्रसिंह का पक्षपाती है।

भूत - खैर तो अब विलम्ब करना अपने अमूल्य समय को नष्ट करना है (ऊंची सांस लेकर) ईश्वर न करे शिवदत्त के हाथ कहीं किशोरी लग जाय, अगर ऐसा हुआ तो अबकी दफे वह बेचारी कदापि न बचेगी।

सर्यू - मैं भी यही सोच रहा हूं, अच्छा तो अब तैयार हो जाओ, मगर मैं नियमानुसार तुम्हारी आंखों पर पट्टी बांधकर बाहर ले जाऊंगा।

भूत - कोई चिन्ता नहीं, हां यह तो कहो कि मेरे ऐयारी के बटुए में कई मसालों की कमी हो गई है, क्या तुम उसे पूरा कर सकते हो

सर्यू - हां, हां, जिन-जिन चीजों की जरूरत हो ले लो, यहां किसी बात की कमी नहीं है।