चंद्रकांता संतति / खंड 4 / भाग 14 / बयान 2

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मनोरमा और धन्नूसिंह घोड़ों पर सवार होकर तेजी के साथ वहां से रवाना हुए और चार कोस तक बिना कुछ बातचीत किए चले आए। जब ये दोनों एक ऐसे मैदान में पहुंचे जहां बीचोंबीच में एक बहुत बड़ा आम का पेड़ और उसके चारों तरफ आधा कोस का साफ मैदान था, यहां तक कि सरपत, जंगली बेर या पलास का भी कोई पेड़ न था, जिसका होना जंगल या जंगल के आस-पास आवश्यक समझा जाता है, तब धन्नूसिंह ने अपने घोड़े का मुंह उसी आम के पेड़ की तरफ यह कहके फेरा - “मेरे पेट में कुछ दर्द हो रहा है इसलिए थोड़ी देर तक इस पेड़ के नीचे ठहरने की इच्छा होती है।”

मनोरमा - क्या हर्ज है ठहर जाओ, मगर खौफ है कि कहीं भूतनाथ न आ पहुंचे।

धन्नू - अब भूतनाथ के आने की आशा छोड़ो क्योंकि जिस राह से हम लोग आये हैं वह भूतनाथ को कदापि मालूम न होगी, मगर मनोरमा, तुम तो भूतनाथ से इतना डरती हो कि...?

मनोरमा - (बात काटकर) भूतनाथ निःसन्देह ऐसा ही भयानक ऐयार है। पर थोड़े ही दिन की बात है कि जिस तरह आज मैं भूतनाथ से डरती हूं उससे ज्यादे भूतनाथ मुझसे डरता था।

धन्नू - हां जब तक उसके कागजात तुम्हारे या नागर के कब्जे में थे!

मनोरमा - (चौंककर, ताज्जुब से) क्या यह हाल तुमको मालूम है?

धन्नू - हां बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा - सो कैसे?

इतने ही में वे दोनों उस पेड़ के नीचे पहुंच गये और धन्नूसिंह यह कहकर घोड़े से नीचे उतर गया कि 'अब जरा बैठ जायें तो कहें'।

मनोरमा भी घोड़े से नीचे उतर पड़ी। दोनों घोड़े लम्बी बागडोर के सहारे डाल के साथ बांध दिये गए और जीनपोश बिछाकर दोनों आदमी जमीन पर बैठ गये। रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी और चन्द्रमा की विमल चांदनी जिसका थोड़ी ही देर पहिले कहीं नामनिशान भी न था बड़ी खूबी के साथ चारों तरफ फैल रही थी।

मनोरमा - हां अब बताओ कि भूतनाथ के कागजात का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

धन्नू - मैंने भूतनाथ की ही जुबानी सुना था।

मनोरमा - हैं! क्या तुमसे और भूतनाथ से जान-पहिचान है?

धन्नू - बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा - तो भूतनाथ ने तुमसे यह भी कहा होगा कि उसने अपने कागजात नागर के हाथ से कैसे पाये!

धन्नू - हां, भूतनाथ ने मुझसे वह किस्सा भी बयान किया था, क्या तुमको वह हाल मालूम नहीं हुआ?

मनोरमा - मुझे वह हाल कैसे मालूम होता मैं तो मुद्दत तक कमलिनी के कैदखाने मैं सड़ती रही, और जब वहां से छूटी तो दूसरे ही फेर में पड़ गयी, मगर तुम जब सब हाल जानते ही हो तो फिर जान-बूझकर ऐसा सवाल क्यों करते हो?

धन्नू - ओफ, पेट का दर्द ज्यादे होता जा रहा है! जरा ठहरो तो मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूं।

इतना कहकर धन्नूसिंह चुप हो गया और घण्टे भर से ज्यादे देर तक बातों का सिलसिला बन्द रहा। धन्नूसिंह यद्यपि इतनी देर तक चुप रहा मगर बैठा ही रहा और मनोरमा की तरफ से इस तरह होशियार और चौकन्ना रहा जैसे किसी दुश्मन की तरफ से होना वाजिब था, साथ ही इसके धन्नूसिंह की निगाह मैदान की तरफ भी इस ढंग से पड़ती रही जैसे किसी के आने की उम्मीद हो। मनोरमा उसके इस ढंग पर आश्चर्य कर रही थी। यकायक उस मैदान में दो आदमी बड़ी तेजी के साथ दौड़ते हुए उसी तरफ आते दिखाई पड़े जिधर मनोरमा और धन्नूसिंह का डेरा जमा हुआ था।

मनोरमा - ये दोनों कौन हैं जो इस तरफ आ रहे हैं?

धन्नू - यही बात मैं तुमसे पूछा चाहता था मगर जब तुमने पूछ ही लिया तो कहना पड़ेगा कि इन दोनों में एक तो भूतनाथ है।

मनोरमा - क्या तुम मुझसे दिल्लगी कर रहे हो?

धन्नू - नहीं, कदापि नहीं।

मनोरमा - तो फिर ऐसी बातें क्यों कहते हो?

धन्नू - इसलिए कि मैं वास्तव में धन्नूसिंह नहीं हूं।

मनोरमा - (चौंककर) तो तुम फिर कौन हो?

धन्नू - भूतनाथ का दोस्त और इन्द्रदेव का ऐयार सर्यूसिंह।

इतना सुनते ही मनोरमा का रंग बदल गया और उसने बड़ी फुर्ती से अपना दाहिना हाथ सर्यूसिंह के चेहरे की तरफ बढ़ाया मगर सर्यूसिंह पहले ही से होशियार और चौकन्ना था, उसने चालाकी से मनोरमा की कलाई पकड़ ली।

मनोरमा की उंगली में उसी तरह के जहरीले नगीने वाली अंगूठी थी जैसी कि नागर की उंगली में थी और जिसने भूतनाथ को मजबूर कर दिया था तथा जिसका हाल इस उपन्यास के सातवें भाग में हम लिख आये हैं। उसी अंगूठी से मनोरमा ने नकली धन्नूसिंह को मारना चाहा मगर न हो सका क्योंकि उसने मनोरमा की कलाई पकड़ ली और उसी समय भूतनाथ और सर्यूसिंह के शागिर्द भी वहां आ पहुंचे। अब मनोरमा ने अपने को काल के मुंह में समझा और वह इतना डरी कि जो कुछ उन ऐयारों ने कहा बेउज्र करने के लिए तैयार हो गई। भूतनाथ के हाथ से क्षमा-प्रार्थना की सहायता से छूटने की आशा मनोरमा को कुछ भी न थी, इसीलिए जब तक भूतनाथ ने उससे किसी तरह का सवाल न किया वह भी कुछ न बोली और बेउज्र हाथ-पैर बंधवाकर कैदियों की तरह मजबूर हो गई। इसके बाद भूतनाथ तथा सर्यूसिंह में यों बातचीत होने लगी -

भूत - अब क्या करना होगा?

सर्यू - अब यही करना होगा कि तुम इसे अपने घोड़े पर सवार कराके घर ले जाओ और हिफाजत के साथ रखकर शीघ्र लौट आओ।

भूत - और उस धन्नूसिंह के बारे में क्या किया जाये जिसे आप गिरफ्तार करने के बाद बेहोश करके डाल आए हैं?

सर्यू - (कुछ सोचकर) अभी उसे अपने कब्जे ही में रखना चाहिए क्योंकि मैं धन्नूसिंह की सूरत में राजा शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर जाकर इन दुष्टों की चालबाजियों को जहां तक हो सके बिगाड़ा चाहता हूं, ऐसी अवस्था में अगर वह छूट गया तो केवल काम ही नहीं बिगड़ेगा बल्कि मैं खुद आफत में फंस जाऊंगा यदि शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ के तहखाने में जाने का साहस करूंगा।

इसके बाद सर्यूसिंह ने भूतनाथ से वे बातें कहीं जो उससे और शिवदत्त तथा कल्याणसिंह से हुई थीं जो हम ऊपर लिख आए हैं। उस समय मनोरमा को मालूम हुआ कि नकली धन्नूसिंह ने जिस भयानक कुत्ते वाली औरत का हाल शिवदत्त से कहा और जिसे मनोरमा की बहिन बताया था वह सब बिल्कुल झूठ और बनावटी किस्सा था।

भूत - (सर्यूसिंह से) तब तो आपको दुश्मनों के साथ मिल-जुलकर रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर जाने का बहुत अच्छा मौका है।

सर्यू - हां इसी से मैं कहता हूं कि उस धन्नूसिंह को अभी अपने कब्जे में ही रखना चाहिए जिसे हम लोगों ने गिरफ्तार किया है।

भूत - कोई चिन्ता नहीं, मैं लगे हाथ किसी तरह उसे भी अपने घर पहुंचा दूंगा। (शागिर्द की तरफ इशारा करके) इसे तो आप मनोरमा बनाकर अपने साथ ले जाएंगे?

सर्यू - जरूर ले जाऊंगा और कल्याणसिंह के बताये हुए ठिकाने पर पहुंचकर उन लोगों की राह देखूंगा।

भूत - और मुझको क्या काल सुपुर्द किया जाता है।

सर्यू - मुझे इस बात का पता ठीक-ठीक लग चुका है कि शेरअलीखां आजकल रोहतासगढ़ में है और कुंअर कल्याणसिंह उससे मदद लिया चाहता है। ताज्जुब नहीं कि अपने दोस्त का लड़का समझकर शेरअलीखां उसकी मदद करे, और अगर ऐसा हुआ तो राजा वीरेन्द्रसिंह को बड़ा नुकसान पहुंचेगा।

भूत - मैं आपका मतलब समझ गया, अच्छा तो इस काम से छुट्टी पाकर मैं बहुत जल्द रोहतासगढ़ पहुंचूंगा और शेरअलीखां की हिफाजत करूंगा। (कुछ सोचकर) मगर इस बात का खौफ है कि अगर मेरा वहां जाना राजा वीरेन्द्रसिंह पर खुल जायगा तो कहीं मुझे बिना बलभद्रसिंह का पता लगाये लौट आने के जुर्म में सजा तो न मिलेगी (इतना कहकर भूतनाथ ने मनोरमा की तरफ देखा)।

सर्यू - नहीं-नहीं, ऐसा न होगा, और अगर हुआ भी तो मैं तुम्हारी मदद करूंगा।

बलभद्रसिंह का नाम सुनकर मनोरमा जो सब बातचीत सुन रही थी चौंक पड़ी और उसके दिन में एक हौल-सा पैदा हो गया। उसने अपने को रोकना चाहा मगर रोक न सकी और घबड़ाकर भूतनाथ से पूछ बैठी, “बलभद्रसिंह कौन!”

भूत - (मनोरमा से) लक्ष्मीदेवी का बाप, जिसका पता लगाने के लिए ही हम लोगों ने तुझे गिरफ्तार किया है।

मनोरमा - (घबड़ाकर) मुझसे और उससे भला क्या सम्बन्ध मैं क्या जानूं वह कौन है और कहां है और लक्ष्मीदेवी किसका नाम है!

भूत - खैर जब समय आवेगा तो सब-कुछ मालूम हो जायगा। (हंसकर) लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए तो तुम लोग रोहतासगढ़ जाते ही थे मगर बलभद्रसिंह और इन्दिरा से मिलने का बन्दोबस्त अब मैं करूंगा, घबड़ाती काहे को हो!

मनोरमा - (घबड़ाहट के साथ ही बेचैनी से) इन्दिरा, कैसी इन्दिरा ओफ! नहीं-नहीं, मैं क्या जानूं कौन इन्दिरा! क्या तुम लोगों से उसकी मुलाकात हो गई क्या उसने मेरी शिकायत की थी! कभी नहीं, वह झूठी है, मैं तो उसे प्यार करती थी और अपनी बेटी समझती थी! मगर उसे किसी ने बहका दिया है या बहुत दिनों तक दुःख भोगने के कारण वह पागल हो गई है, या ताज्जुब नहीं कि मेरी सूरत बनकर किसी ने उसे धोखा दिया हो, नहीं-नहीं, वह मैं न थी कोई दूसरी थी, मैं उसका नाम बताऊंगी। (ऊंची सांस लेकर) नहीं-नहीं, इन्दिरा, नहीं, मैं तो मथुरा गई हुई थी, वह कोई दूसरी ही थी, भला मैं तेरे साथ क्यों ऐसा करने लगी थी! ओफ! मेरे पेट में दर्द हो रहा है, आह, आह, मैं क्या करूं!

मनोरमा की अजब हालत हो गई, उसका बोलना और बकना पागलों की तरह मालूम पड़ता था जिसे देख भूतनाथ और सर्यूसिंह आश्चर्य करने लगे, मगर दोनों ऐयार इतना तो समझ ही गये कि दर्द का बहाना करके मनोरमा अपने असली दिली दर्द को छिपाना चाहती है जो होना कठिन है।

सर्यू - (भूतनाथ से) खैर अब इसका पाखण्ड कहां तक देखोगे, बस झटपट ले जाओ और अपना काम करो, यह समय अनमोल है और इसे नष्ट न करना चाहिए। (अपने शागिर्द की तरफ इशारा करके) इसे हमारे पास छोड़ जाओ, मैं भी अपने काम की फिक्र में लगूं।

भूतनाथ ने बेहोशी की दवा सुंघाकर मनोरमा को बेहोश किया और जिस घोड़े पर वह आई थी उसी पर उसे लाद आप भी सवार हो पूरब का रास्ता लिया, उधर सर्यूसिंह अपने चेले को मनोरमा बनाने की फिक्र में लगा।