चंद्रदेव सिंह के नाम पत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'

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आर्यकुमार रोड, पटना-४

१३-४-६३

प्रियवर,

कविता मिली। पढ़कर बड़ा मजा आया। मुझे आपने जो गालियाँ दी होंगी, उन्‍हें मैंने नहीं देखा, न आज से पहले यह बात मुझे मालूम थी। लेकिन अच्‍छा हुआ कि आपने स्‍वयं अपना मार्जन कर लिया। यह शुद्ध हदय का लक्षण है, यह इस बात का संकेत है कि आप वैयक्तिक मालिन्‍य से ऊपर रहना चाहते हैं। जीवन के प्रत्‍येक क्षेत्र में चरित्र ही प्रधान है।

'परशुराम की प्रतीक्षा' से दो प्रकार के लोग बहुत नाराज हैं। एक वे जो यह समझते हैं कि चीनी-आक्रमण के विरुद्ध जगनेवाला क्रोध जल्‍दी शांत हो जाए, नहीं तो यह क्रोध देश की प्रगतिशील प्रवृत्तियों के विरुद्ध पड़ेगा। दूसरे वे लोग जो यह समझते हैं कि युद्ध का जवाब युद्ध से न देने की भावना यदि बढ़ी तो वह गांधी-धर्म के प्रतिकूल जायगी।

मेरे जानते दोनों-के-दोनों गलती पर हैं। भारत साम्‍यवादी हो जाए तब भी चीन से उसकी खटपट चलती रहेगी जैसे रूस के साथ चल रही है। और गांधी-धर्म को भी मैं एक दूसरे रूप में समझता हूँ। गांधीजी कहते थे, कायरता सबसे बुरी चीज है, उनके बहुत-से शिष्‍य ऐसे हैं, जो केवल यह मानते हैं कि अहिंसा सबसे अच्‍छी चीज है। लेकिन जो कायर भी नहीं है और अहिंसक भी नहीं, वह क्‍या करे? इस सवाल का जवाब गांधीजी के पास था, लेकिन सर्वोदयवालों के पास नहीं है। इसीलिए उनमें से कुछ लोग मुझे हिंसावादी मानकर मेरी निन्‍दा करते हैं।

पिछले १५ वर्षों में देश कहाँ-से-कहाँ पहुँचा है, यह बात मेरे प्रसंग में भी देखी जा सकती है। १९४६ में 'कुरुक्षेत्र' निकला था। उसी में यह पंक्ति थी जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है, बैठते भरोसा किए वे ही आत्‍मबल का। लेकिन कुरुक्षेत्र पर द्वेष के उतने तीखे बाण नहीं बरसे थे जितने परशुराम पर बरस रहे हैं। २७ साल की अहिंसा-साधना का नतीजा यह निकला कि छह लाख हिन्‍दू और मुसलमान पाप की तलवार से काटे गये। यदि देश की निर्वीर्यता नहीं टूटी, तो वह कितना बलिदान लेगी, यह कवि और चिन्‍तक समझ सकते हैं। बाकी लोगों की समझ में यह बात तब आयेगी जब दुर्घटना घटित हो चुकेगी। कितना लिखूँ? केवल आपको धन्‍यवाद देता हूँ। आप बड़े अच्‍छे हैं।

आपका

दिनकर

राजेन्‍द्रनगर, पटना

१२-६-७२