चंद्रधर शर्मा गुलेरी के साहित्य में राष्ट्र चिंतन / कुँवर दिनेश

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(सौवीं पुण्यतिथि पर विशेष)

जीवन परिचय

हिमाचल प्रदेश से सम्बन्धित हिन्दी के प्रख्यात कथाकार, कवि, व्यंग्यकार, निबन्धकार तथा साहित्यिक पत्रकार, पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म तो राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर में हुआ था, परन्तु उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के निवासी थे। राजसम्मान पाकर उनके पिता ज्योतिर्विद् महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री जयपुर में बस गए थे, जहाँ उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने 7 जुलाई 1883 के दिन चन्द्रधर को जन्म दिया। चंद्रधर को घर में ही संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला। इसके साथ ही उन्होंने अँग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की। इलाहाबाद के प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्होंने बी. ए. किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। तदनन्तर उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने 'द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स' शीर्षक से अँग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।

अपने अध्ययन काल में ही गुलेरी जी ने सन् 1900 में जयपुर में 'नागरी मंच' की स्थापना में सहयोग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र 'समालोचक' का कुशल सम्पादन भी किया। कुछ वर्ष काशी की 'नागरी प्रचारिणी सभा' के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने 'देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला' , 'सूर्य कुमारी पुस्तकमाला' और 'नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला' का सम्पादन किया और 'नागरी प्रचारिणी सभा' के सभापति भी रहे। जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं॰ मदन मोहन मालवीय के आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया।

इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 22 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया। 39 वर्ष की जीवन-अवधि में उन्होंने कहानियाँ, लघुकथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक / पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ लिखीं। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' का प्रकाशन 'सरस्वती' में 1915 ई. में हुआ। उन्होंने 'कछुआ धरम' और 'मारेसि मोहि कुठाऊँ' नामक निबंध और 'पुरानी हिन्दी' नामक लेखमाला भी लिखी। 'महर्षि च्यवन का रामायण' उनकी शोधपरक पुस्तक है। उनके समकालीन लेखक मैथिलीशरण गुप्त, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मदनमोहन मालवीय आदि, बाबू श्याम सुन्दर दास आदि सभी पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की प्रतिभा के प्रशंसक रहे हैं।

गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप अथवा बोलचाल की शैली है, जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुख़ातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवारने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामरस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नज़र आती है। कहीं वे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो कहीं ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अंग्रेज़ी अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और उदाहरण बहुत देते हैं, जिससे उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है। उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान अविस्मरणीय भी है, अनुकरणीय भी। वे अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में खड़ी बोली का प्रयोग कर रहे थे। साहित्य, भाषाविज्ञान, इतिहास, पुरातत्त्व, विज्ञान, पुराण-प्रसंग, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र, संगीत, ज्योतिष तथा अन्य प्राच्य विद्याओं की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए सम्भावनाएँ तलाश रही थी और यथोचित स्थान बना रही थी। प्रो. नामवर सिंह के शब्दों में, "गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे; बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।"

गुलेरी के साहित्य में राष्ट्र चिंतन

'चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साहित्य में राष्ट्र चिन्तन'—इस विषय पर कुछ लिखना कठिन प्रतीत होता है। कठिन इसलिए; क्योंकि गुलेरी जी के समय में राष्ट्र का चिन्तन और निर्माण केवल परिकल्पना तक सीमित था और दूसरे गुलेरी जी के साहित्य को केवल उनकी तीन कहानियों तक सीमित करके ही परोसा जाता रहा है, जिस कारण उनके लेखन का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है। गुलेरी जी की तीन कहानियाँ—'उसने कहा था' , 'सुखमय जीवन' और 'बुद्धू का काँटा' अत्यधिक चर्चित हैं, जिनके कारण उन्हें बहुत ख्याति प्राप्त हुई, लेकिन इन कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने कविता, गीत, निबन्ध, समीक्षा, पत्र व लेख लिखकर भी हिन्दी को पोषित किया तथा समकालीन हिन्दी लेखकों का दिग्दर्शन किया। हिन्दी भाषा के प्रति समर्पणभाव तथा हिन्दी के उन्नयन से भारत में राष्ट्रीय एकता और अखण्डता स्थापित करना उनका लक्ष्य रहा। प्रमुखत: हिन्दी भाषा एवं साहित्य के उत्थान में ही उनका राष्ट्र चिंतन निहित माना जा सकता है—जिसे भाषिक एवं साहित्यिक राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

अत एव गुलेरी जी के साहित्य में राष्ट्र चिन्तन मिलता है। इस विषय पर चर्चा से पूर्व 'राष्ट्र' शब्द पर कुछ टिप्पणी करना चाहूँगा। राष्ट्र का अर्थ है एक निश्चित भू-भाग पर निवास करने वाला वह जन-समुदाय, जिसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति हो तथा जो वैचारिक साम्यता, सौहार्द और एकात्मकता की रज्जु से आबद्ध हो। आज के भूमण्डलीकरण और वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्र की परिभाषा अधिक व्यापक हो गई है—अब एक निश्चित भू-भाग पर निवास करने वाला जन-समुदाय नहीं प्रत्युत् विश्व के किसी भी भूभाग पर निवास कर रहा जन-समुदाय जो अपने सांस्कृतिक मूल से आबद्ध है, उस संस्कृति व परम्परा को जी रहा है तथा जिनकी सामाजिक एकता की सीमाएँ भाषा और संस्कृति की सीमाओं से एकाकार रहती हैं, वह एक ही राष्ट्र है। राष्ट्रीय भावना का सम्बन्ध व्यक्ति की अन्तश्चेतना से है, जिसमें राष्ट्र के प्रति अपनत्व और ममत्व की भावना निरन्तर गतिशील रहती है। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीयता का अर्थ केवल स्वदेश पर सृजित साहित्य तक सीमित नहीं होता, प्रत्युत् साहित्यिक राष्ट्रीयता का आशय है समग्र रूप में निज देश और उसके परिवेश के प्रति समर्पण व निष्ठा की भावना से साहित्य सर्जन करना, जिसमें राष्ट्र के एकीकरण, सद्भाव और उन्नयन की भावनाएँ निहित हों।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी के लेखन में इसी स्तर की साहित्यिक-सांस्कृतिक राष्ट्रीयता मुखर हुई है। गुलेरी जी के साहित्य, विशेष रूप से उनकी पद्यात्मक सर्जना का मूलाधार राष्ट्रीयता की भावना से ही अभिसिञ्चित-पोषित है। अपने साहित्यिक लेखन से उन्होंने तात्कालिक भारतीय समाज को एक आदर्श जीवनशैली की ओर प्रेरित किया और स्वदेश तथा स्वदेशी को अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने भारत के अतीत का यशोगान करते हुए परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़े भारतीयों को जाग्रत करने तथा उन्हें प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं जीवन-मूल्यों की प्राँशुता को समझाने का सार्थक प्रयास किया। गुलेरी जी के साहित्य में तात्कालिक भारत की परतन्त्रता एवं अधोगति के प्रति गम्भीर चिन्ता व क्षोभ शब्दायित हैं। इसके साथ ही स्वतन्त्रता-प्राप्ति की कामना और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम की भावना भी स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है।

गुलेरी जी का काव्य-काल ईसवी सन् 1904 से 1911 तक का है, जिस दौरान उन्होंने अपनी काव्य-रचनाओं के माध्यम से भारतीयों को सशक्त और समर्थ बनने का आह्वान् किया। विशेषकर उन्होंने भारतीय युवाशक्ति को सबल और प्रखर बनाने की कामना की है। उनकी कविता 'झुकी कमान' की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा, जिनमें वे भारत के युवाओं में देशप्रेम, स्वतन्त्रता, न्याय, आत्मबल एवं विजयेषणा की भावनाओं को जाग्रत करते हैं:

है सत्य ही विजय, निश्चय बात जानी

है जन्मभूमि जिनको जननी समान

स्वातन्त्रय है प्रिय जिन्हें शुभ स्वर्ग से भी,

अन्याय की जकड़ती कटु बेड़ियों को

विद्वान् वे कब समीप निवास देंगे। । ।

भारत की ग़ुलामी और उस समय की राजनीतिक उथल-पुथल के साथ-साथ अनेकानेक सामाजिक समस्याओं, विपन्नता, भुखमरी, अकाल तथा प्लेग जैसी महामारी के प्रकोप से भी गुलेरी जी का मन खिन्न था। देश की शोचनीय दशा के प्रति उनके कविमन में जगी मर्मांतक पीड़ा की अनुभूति उनकी एक कविता 'एशिया की विजयादशमी' की इन पंक्तियों में स्वनित हुई है:

त्योहार तो वह करे जिसके कुशूल

हो अन्नपूर्ण बनते रिपु ले त्रिशूल

हो पेट पूरित जभी तब खेल सूझै

रोगी, ऋणी, विजित क्योंकर मोद बूझै। । ।

गुलेरी जी ने राष्ट्र की पीड़ा को आत्मसात् करते हुए यह अनुभव किया कि त्योहार, आमोद और आनन्द मनाना उन्हें शोभा देता है, जो सुखी हैं, सम्पन्न हैं और स्वतन्त्र हैं। रोग एवं महामारी से ग्रसित, भुखमरी से पीड़ित, ऋण से दबे तथा विदेशी शक्तियों के अधीनस्थ व पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारतवासी सर्वथा निश्चिन्त एवं मुदित मन से त्यौहार कैसे मना सकते हैं।

वैदिक सूक्ति—'उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्' को चरितार्थ करते हुए गुलेरी जी ने राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सर्वोपरि रखते हुए भी सर्वधर्मसमभाव तथा वैश्विक सद्भावना का उदात्त हृदय से समर्थन किया है। अपनी शब्दशक्ति से उन्होंने परतन्त्रता के प्रभाव में विछिन्न हो रही भारत की धार्मिक एकता एवं सद्भावना को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने राष्ट्र की अखण्डता के लिए अनिवार्य माना। उनकी एक कविता 'भारत जय' की इन पंक्तियों में सांस्कृतिक विचित्रता एवं धार्मिक विविधता वाले राष्ट्र भारत को एकता के सूत्र में पिरोने का भाव प्रकट हुआ है:

हिन्दू जैन सिख बौद्ध क्रिस्ती मुसलमान

पारसीक यहूदी और ब्राह्म

भारत के सब पुत्र परस्पर रहो मित्र

रखो चित्त गणना समान

मिलो सब भारत सन्तान

एक तन-मन-प्राण

गाओ भारत का यशोगान। । ।

'गुलेरी साहित्यालोक' में संगृहीत गुलेरी जी कि काव्य-रचनाएँ-'एशिया की विजयादशमी' (1904) , 'भारत की जय' (1904) , 'अहिताग्निका' (1905) , 'झुकी कमान' (1905) और 'रवि' (1906) प्रमुख रूप से राष्ट्र चिन्तन एवं देशप्रेम की कविताएँ हैं।

गुलेरी जी के निबन्धों में भी उनका राष्ट्र-विषयक चिन्तन मिलता है। विशेषकर वे एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना करते दीख पड़ते हैं, जिसमें वैदिक आदर्शों तथा जीवन-मूल्यों को अपनाया जाए। वे ऐसे राष्ट्र की कामना करते हैं जिसमें प्राचीन भारत की परम्परा एवं संस्कृति का समुचित सम्मान किया जाए। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राच्य विद्या के अध्यक्ष रहते हुए भी वे प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रबल पक्षधर रहे। लेकिन भारत की प्राचीन संस्कृति की वकालत करते हुए उन्होंने यह भी अनुभव किया कि भारतीय जनमानस परम्परा के नाम पर कुछ अनावश्यक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से बोझिल है; अत एव गुलेरी जी ने समय के साथ बदलने का मार्ग भी खुला रखने का सुझाव दिया है। अपने एक निबन्ध 'कछुआ धर्म' में वे समयानुरूप परिवर्तन को स्वीकार एवं अंगीकार करने को हितकर बताते हैं। सत्य से छिपाव करने वाले तथा नूतनता से विमुख करने वाले 'कछुआ धर्म' अथवा 'शुतरमुर्ग़ धर्म' को त्याग कर वे नूतन विचार और वैज्ञानिक सोच को अपनाने की सलाह देते हैं।

अपने एक अन्य निबन्ध 'शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन' में गुलेरी जी तात्कालिक शिक्षा पद्धति पर तीक्ष्ण कटाक्ष करते हैं। वे शिक्षा को बालमनसुलभ और विज्ञानाधृत बनाने पर बल देते हैं। शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने सम्बन्धी उनके शब्द महत्त्वपूर्ण हैं:

'पहले यह माना जाता था कि विद्या कोई बाहरी चीज़ है जिसे गुरु पढ़नेवाले के हृदय में घुसेड़ता है। पढ़नेवाले का हृदय कोरा काग़ज़ है और उस पर गुरु नए अक्षर और नए संस्कार अंकित करता है। उसके ख़ाली मस्तिष्क में या पोले मन में कोई बहुमूल्य पदार्थ बाहर से भरा जाता है जैसा कि रहीम ने एक सुन्दर उपमा से कहा है: 'रहिमन विद्या पढ़न में, बालक झोंका जाय। / तन घट अरु विद्या रतन, भरत हिलाय हिलाय॥' अथवा जैसा वैदिक-काल की एक पुरानी गाथा कहती है: 'यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति। / एवं गुरुगतां विद्याँ शुश्रूषुरधिगच्छति॥'(जैसे कुदाली से खोदते-खोदते आदमी को पानी मिल जाता है वैसे सेवा करने वाले को गुरु में से विद्या मिलती है।)'

गुलेरी जी कहते हैं-'यह आदर्श अब बदल गया है। विद्या कोई बाहरी चीज़ नहीं है जो गुरु को बाहर से ठूँसकर भरनी पड़ती है। गुरु का काम शिष्य के हृदय की सोती हुई शक्तियों को जगाना है, उसके सहज और परम्परागत संस्कारों को चिताना है। पीढ़ियों से पशुत्व और मनुष्यत्व के जो भाव उसके मस्तिष्क में हैं उन्हें उत्तेजित करना, उनमें जो हानिकारक हों उन्हें मिटाना और जो अच्छे हों उन्हें प्रबल कर देना—ये गुरु का काम है।' नि: सन्देह शिक्षा के विषय में गुलेरी जी के विचार दूरदर्शितापूर्ण हैं जो आज के परिप्रेक्ष्य में भी सही बैठते हैं। इसी निबन्ध का अन्तिम अनुच्छेद, जो 'पाठशाला' शीर्षक से एक लघुकथा के रूप में भी प्रकाशित किया गया है, तात्कालिक शिक्षा के स्तर एवं पद्धति की पोल खोल कर रख देता है। बालमन पर केवल सूचनाओं का बोझ डालने से और उसे रटने की आदत डालने से शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता, प्रत्युत् उसके कोमल एवं ऋजु हृदय के भावों को समझने की दरकार है। इस लघुकथा में गुलेरी जी बताते हैं किस प्रकार एक पाठशाला के प्रधान अध्यापक ने अपने आठ वर्ष के बालक को विभिन्न विषयों से सम्बन्धित सूचनाएँ रटा रखी थीं। पाटःअशाला में निरीक्षण के दौरान वह बालक रटे-रटाए ज्ञान से सभी को अचम्भित कर देता है; लेकिन जब उससे पूछा जाता है कि उसे इनाम में क्या चाहिए, तो वह सहज भाव से कह देता है 'लड्डू' । उसके इस उत्तर पर उसके पिता और अध्यापक तो निराश हो गए, लेकिन लेखक, जो वहाँ उपस्थित थे, अपना अनुभव कुछ इस तरह कहते हैं: 'इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृट्टियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह' लड्डू'की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं।'

इसी प्रकार निबन्ध 'खेल भी शिक्षा ही है' (भाग 1 और 2) में गुलेरी जी खेलों को शिक्षा का अनिवार्य अंग मानते हैं। 'खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब' की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं।

अपने लेखों, निबन्धों व पत्रों में गुलेरी जी प्राय: भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का उल्लेख करते हैं—विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। उनके अनुसार हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है—"यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है" (डिनामिनेशन कॉलेज: 1904) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार: 1920) । छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। 'धर्म का अर्थ उनके लिए सार्वजनिक प्रीतिभाव है' 'जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है' (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य: 1906) । उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है—'आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा... (आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।' (डिनामिनेशनल कॉलेज: 1904) । धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे।

गुलेरी जी के कुछ अन्य निबन्ध महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें उल्लेखनीय हैं— 'काशी' , 'धर्मसंकट' , 'बंग का भंग' , 'बौद्धों के काल में भारतवर्ष' , 'सोSहम्' , 'धर्म और समाज' , जिनमें विविध समकालीन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों की पड़ताल मिलती है। गुलेरी जी की भाषा-शैली व्यंग्य, कटाक्ष, उलाहना और तानाकशी से भरी है, लेकिन यत्र-तत्र भर्त्सना, खण्डन और यथायथ विरोध के स्वर भी मुखरित हुए हैं। वे मुक्तकण्ठ से अपने समय के कटु यथार्थ को कहते हुए बेबाक टिप्पणियाँ कर देते हैं। यहाँ तक कि कहीं-कहीं वे कर्कश भी हो जाते हैं, लेकिन समाज और राष्ट्र के हित से समझौता करने को वे कतई तैयार नहीं हैं।

कविता, कहानी, निबन्ध एवं पत्रादि सहित भाषाशास्त्र, भाषाविज्ञान, काव्यशास्त्र, दर्शन, इतिहास, पुरातत्त्व, ज्योतिष, चित्रकला, संगीत तथा मनोविज्ञान जैसे विषयों पर भी गुलेरी जी ने साधिकार लिखा है। वे बहुभाषाविद् थे—संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगला, अँग्रेज़ी, लैटिन और फ़्रेंच भाषओं के भी ज्ञाता थे, लेकिन उन्होंने भारत राष्ट्र की भाषा के रूप में हिन्दी का अत्यधिक प्रचार-प्रसार किया। हिन्दी के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि उन्होंने अँग्रेज़ी के प्रयोग करने पर अपने मित्र रहे पंडित मदन मोहन मालवीय जी की भी आलोचना की। उनकी 'खुली चिट्ठियाँ' इस बात का प्रमाण हैं। एक खुली चिट्ठी, 'खरे सज्जनों को हरी चिट्ठियाँ' वे लिखते हैं-'श्रीमान् ऑनरेबल पंडित मदन मोहन मालवीय: बी. ए., एल-एल. बी.' के नाम, जिसमें व्यंग्यात्मक ढंग से वे लिखते हैं:

'हमारे एक दयालु मित्र खो गए हैं। वे हमारे कृपालु थे, हमारी हिन्दी के बड़े भारी सेवक और लेखक थे। उनका आपको कुछ पता है? कहाँ हैं? क्यों एकान्तवास करते हैं? उनकी बोलती क्यों बंद हो गई है, इसका आपको पता है? हमारे वे सौम्यदर्शन ब्राह्मण मित्र' पंडित मदनमोहन बी. ए.'इस नाम को भूषित करते थे और दैनिक हिन्दुस्तान के वे चिराग़ थे। ... कुछ लोग तो कहते हैं कि वे ही महाशय शैलूप की तरह नई भूमिका में' ऑनरेबल मालवीय'के नाम से आ गए हैं। क्या यह भी सच है? युक्तप्रान्त की कचहरियों में नागरी का चंचुप्रवेश करने वाला जो प्रसिद्ध है, वह और जो किसी काल में हिन्दी का लेखक था, क्या एक ही व्यक्ति की सविधि (...) है? तो क्या वह महाशय धूपछाया के रंग का है? या' अनेक रूपरूपाय'का भक्त होने से' रूपं-रूपं प्रति रूपो बभूव'हो गया है? या लोगों के चश्मे का रंग बदल गया? या उसे हिन्दी लिखने में लज्जा मालूम होती है? या इसमें यश नहीं मिलेगा? क्या कारण है कि उसके हाथ में नड़ की ग्रामीण क़लम न देखकर सभ्य फ़ाउंटेन पेन देखते हैं! ... (—चिट्ठीवाला)'

गुलेरी जी ने सन् 1900 से 1922 के अन्तराल में हिन्दी में बहुत लेखन किया। यहाँ तक कि उन्होंने छद्म नामों से भी कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखे। उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के प्रभावी संचालन के लिए बाबू श्याम सुन्दर दास को भी यथासम्भव सहयोग प्रदान किया। वे नागरी प्रचारिणी सभा के लिए तन-मन-धन से समर्पित रहे। वे सभा के लिए कुछ देना ही चाहते, कभी कुछ लेना नहीं चाहते थे। यहाँ तक कि सभा के चौकीदार द्वारा लाए गए पानी को भी ग्रहण नहीं करते थे। इस विषय में बाबू श्याम सुन्दर दास के पूछने पर उन्होंने कहा, 'मैं सभा को बेटी मानता हूँ, बेटी के यहाँ का अन्न-जल ग्रहण करना निषिद्ध है।' इस भावना से हिन्दी की सेवा करना नि: सन्देह हिन्दी राष्ट्र के प्रति उनकी गहन आस्था को दर्शाता है। 