चंद्रभागा और चंद्रकला / प्रतिभा राय
चंद्रकलाओं का ह्रास भी है और वृद्धि भी। इसलिए खंडित चाँद इतना सुंदर दिखता है, क्योंकि उसके पीछे एक अदृश्य कूची पूर्णता की तस्वीर बनाती रहती है।
लेकिन उसे देख मैं सोचता हूँ, मानो वह दिन-प्रतिदिन चुकती जा रही है, क्षय होती जा रही है। उसकी बात सोचते ही याद आती है बुद्धत्व की अमरवाणी, प्रथम आर्यसत्य : दुख। दुख मनुष्य के जीवन का एक मर्मांतक सत्य है। परंतु मनुष्य दुख में भी सुख की तलाश करता है। अलग-अलग तरीके से दुख को कम करता है। इसलिए रोगग्रस्त मनुष्य चिकित्सा की मदद लेता है, मन को दिलासा देता है, रोग क्षणिक है -स्वस्थ जीवन ही शाश्वत सत्य है। जबकि मनुष्य को मालूम है, विपरीत बात ही अकाट्य है। आशा ही दुख का कारण है। जबकि वह आशा ही मनुष्य को जिलाये रखती है - आशा ही मनुष्य को आनंद देती है, जबकि वह आनंद स्वयं क्षणिक है।
किंतु वह कौन-सी आस लिये जी रही है, मैं समझ नहीं पा रहा। मन को कैसी दिलासा दिये हुए पड़ी है, यह मेरे सोच से परे है। उसके जीवन का अंतिम सत्य डॉक्टर बता चुके हैं। आज उस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। कितनी ही फीस देने पर भी कोई डॉक्टर उसे देखने आने की जुर्रत नहीं करता। फिर भी वह जिंदा है और जीवन को चाहते हुए जी रही है। उसका मनोबल, उसकी सहनशीलता देख मैं चकित हो जाता हूँ, असमंजस में पड़ जाता हूँ। सोचता हूँ, नदी की विपरीत दिशा के प्रवाह के प्रखर होने की तरह शायद विपरीत परिस्थिति ही मनुष्य को शक्ति प्रदान करती है।
उससे मेरे परिचय का सूत्र वह खुद है।
एक दिन अचानक उसने फोन पर कहा था - 'जी नमस्कार! मैं चंद्रा बोल रही हूँ, चंद्रभागा दास। मैं आपकी प्रशंसक हूँ। आपकी लगभग सारी रचनाएँ पढ़ चुकी हूँ। आपको देखने की बेहद इच्छा हो रही है।'
मैंने विनम्र स्वर में कहा, 'शाम को अक्सर मैं घर पर ही रहता हूँ, किसी भी दिन आ जाइए।'
खामोशी का स्वर मुझे उदास आग्रह से छू रहा था। फिर आवाज आयी - 'मैं पिछले कुछ दिनों से लगातार अस्वस्थ हूँ। सुना है, आप कहीं निकट ही रहते हैं। यदि मेहरबानी करके आप ही एक बार आ जाते...'
मेहरबानी करके नहीं, बल्कि कुतूहलवश उस रोज मैं उसके घर गया और उसके बाद से लगातार जाता हूँ। एक अदृश्य आकर्षण समस्त कार्य-व्यवस्थाओं के बीच मुझे उसकी ओर खींच लेता है।
पहले दिन वह लेटी हुई थी एक लंबा गाउन पहने। उसके बूढ़े पिता लंबोदर बाबू मेरा परिचय पूछने के बाद मुझे आग्रहपूर्वक अंदर लिवा गये। बेटी से परिचय करवा दिया, 'ये हैं लेखक प्रभात राय, जिनके लेखन की तू प्रशंसा करते नहीं थकती। तूने ही फोन किया था आने को।'
उसने हाथ जोड़कर नमस्ते किया, पर बिस्तर से उठी नहीं। उठने की कोई कोशिश भी नहीं की। शायद अस्वस्थता के कारण कमजोरी महसूस कर रही थी। संभवतः डॉक्टर ने उठने को मना किया हो। उसका पान के पत्ते-सा चेहरा कुछ फीका और मुरझाया-सा लग रहा था। नुकीली नाक किसी गोपनीय आवेग से कुछ-कुछ काँप रही थी। एक निष्पाप कांति से उसका चेहरा आकर्षक लग रहा थ। खोयी-खोयी-सी उदास आँखें भावव्यंजक थीं, उसकी नजर गहरी, मर्मस्पर्शी थी। वह एकटक मेरा चेहरा देख रही थी। मानो कुछ ढूँढ़ रही है। कांतिभरी छरहरी युवती की सीधी निस्संकोच निगाह मुझे संकुचित कर रही थी। सोचा, एक अपरिचित लेखक को घर बुलाकर यह लड़की निस्संकोच हो किस गहरे गहन जीवन के प्रश्न का उत्तर तलाश रही है? मैंने पूछा, 'क्या हुआ हैं? आप कब से अस्वस्थ हैं? क्या बुखार है, सिर-दर्द है?'
मेरे सवाल का जवाब न देकर उसने उदासी भरी मुस्कान छोड़ी। उसके बाद तुरंत मेरी अनेक रचनाओं पर बातचीत करने लगी। मैं उसकी अस्वस्थता की बात भूलकर अपनी कृतियों पर विचार-विमर्श करने में जुट गया। उस लड़की को मेरी रचनाएँ जितनी अच्छी लगी थीं, वह लड़की मुझे उनसे अच्छी लगी। इस बीच उसकी माँ चाय-नाश्ता दे गयी थी, सादा पान लगाकर मेरी ओर बढ़ा दिया था - घर के व्यक्ति-सा। दो घंटे तक बैठा रहा पहली मुलाकात में उसकी अस्वस्थता से पूरी तरह बेखबर हो। उठते हुए अपने लोगों-सा जोर देकर बोला था, 'अब तुम्हारी बारी है। उम्मीद है, खूब जल्दी अच्छी हो जाओगी और माँ को साथ लेकर मेरे घर आओगी। मेरी पत्नी बहुत खुश होगी।' उसी तरह लेटे-लेटे उसने एक वादारहित मुरझायी-सी मुस्कान बिखेर दी।
मैंने खड़े-खड़े पूछा, 'मेरी रचनाओं के बारे में सारी बातें बता गयीं, अपने बारे में तो कुछ भी नहीं बताया तुमने? किस कॉलेज में पढ़ती हो? कला या विज्ञान? डॉक्टर ने कितने दिनों तक आराम करने को कहा है?' पहली मुलाकात में इससे अधिक जिज्ञासा भला क्या करता उसके बारे में।
उसने मायूसी-भरी आवाज में कहा, 'अपने बारे में क्या बताऊँ। छोड़िए, फिर कभी सही। आज आपका काफी वक्त बर्बाद कर चुकी हूँ। पर बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर। अपनी रचनाओं की तरह आप भी काफी अंतरंग लगे पहली ही मुलाकात में। मेरा फोन पाकर आप आये, यह मेरा सौभाग्य है।' 'धन्यवाद' कहकर आत्मसंतोष में स्मित मुस्कान सहित कमरे से निकल ही रहा था कि स्तब्ध रह गया बरामदे के एक कोने को देख। मुझे लगा, मेरा युवक-सुलभ ऊष्म रक्त-प्रवाह शीतल होकर जमने लगा है। मेरे पैर ठिठक गये। कंठनली शुष्क है, हृदय थर-थर काँप रहा है, भयकातर निगाह उसी अनाकांक्षित वस्तु से बँध गयी है। सोचा, तकदीर का उत्थान और पतन कितना दुखमय है! ओस के कण-सी स्वच्छ, निष्पाप इस कोमल उम्र की लड़की के कृतकर्म का फल इतना विषमय नहीं हो सकता, जिसके लिए उसे इतना बड़ा अभिशाप मिले। यह महज उसकी तकदीर की विडंबना अथवा आरंभ का फल है।
उसके पिता ने निर्विकार स्वर में कहा, 'आज से बारह साल हो गये। पहले कमर सीधी करके बैठती थी। आजकल नहीं बैठ पाती। व्हील चेयर काफी दिनों से वहाँ उसी तरह पड़ी है। संभवतः वह अब फिर कभी काम न भी आये।'
'हे भगवान!' मेरी इच्छा के विरुद्ध अस्फुट कातरोक्ति अनजाने ही निकल पड़ी।
उसके पिता बोले, 'पहले मैं भी भगवान को याद किया करता था, जब चंद्रा के ठीक होने की झूठी दिलासा डॉक्टर दिया करते थे। चंद्रा के बारे में डॉक्टर अंतिम निर्णय दे चुके हैं, अब मैं भगवान को याद नहीं करता। आजकल न मंदिर जाना पड़ता है और न ही अस्पताल। दौड़-धूप काफी कम हो गयी है। पाँच साल चंद्रा नर्सिंग होम में थी। अस्पताल और मंदिर दौड़ते-दौड़ते तब मैं अधमरा हो गया था।'
मैं चुपचाप सुन रहा था। खड़े-खड़े उन्होंने मेरे आगे अपना दिल खोल दिया, 'तब चंद्रा दस साल की थी। कमर के पास रीढ़ की हड्डी में दर्द उठा। डॉक्टर ने कहा - ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन के बाद चंद्रा की कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया है। वह कभी स्थिर नहीं बैठती थी, धीमे कदमों से न चलने के कारण जिसे घर और स्कूल में रोजाना डाँट पड़ा करती थी, आज वह निश्चल लेटी हुई है बारह वर्षों से। सिर्फ यह अँधेरी कोठरी ही उसकी दुनिया है। जाला भरी छत ही आकाश है। मैं समझ नहीं पा रहा कि भगवान उसे क्यों जिलाये हुए हैं। अब हम हैं ही कितने दिनों के मेहमान। हमारे बाद इसकी क्या दुर्दशा होगी? कुछ सोच सकते हैं आप?'
इतने सारे सवालों का जवाब मैं नहीं दे सका। सिर्फ इतना ही पूछा, 'आपके और बाल-बच्चे...'
'हैं, तीन बेटियाँ खूब अच्छी तरह हैं। दो भारत से बाहर हैं। दोनों लड़के अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हैं। हमारे पास आते हैं तो एकाध दिन रहते हैं। पर चंद्रा की जिम्मेदारी तो हमारी है। हमारे बाद चंद्रा की जिम्मेदारी कोई लेगा, यह मुझे विश्वास नहीं होता। हालाँकि कभी चंद्रा भी सबकी लाड़ली बहन, सबकी मुँहबोली रानी बिटिया थी।' उन्होंने लंबी साँस छोड़ी। जीवन की मर्मांतक सचाइयों को अनुभूति के प्रत्येक कोष में संचित करने वाले इस असहाय वृद्ध को इधर-उधर की झूठी दिलासा देकर निकल आने का साहस मुझमें नहीं था। चंद्रा को जो बीमारी थी, उसके लिए भला क्या दिलासा दिया जा सकता था?
मैं चंद्रा की ओर पीठ किये खड़ा हूँ। वह हमारी बातें सुन रही है। उसे पुनः पलटकर देखने का साहस नहीं हो पा रहा है। यदि उसकी आँखों में इस बुजुर्ग की आँखों की असहायता का कण-भर भी होगा तो मैं उसे क्या दिलासा दिलाऊँगा? मेरी लेखनी पर चंद्रा की गहरी आस्था है। अपने जीवन की समस्या का समाधान यदि वह मुझसे माँग बैठे तो मैं क्या जवाब दूँगा?
फिर एक बार पीछे घूम पड़ा। चंद्रा का सामना करने के लिए खुद को तैयार किया। उसकी बीमारी का विवरण पाने के बाद बिना कुछ कहे चुपचाप वापस चले आना शायद चंद्रा को ठीक न लगे। किंतु क्या कहूँगा चंद्रा को उसकी अर्द्धमृत देह के बारे में? कुछ तो कहूँगा, सोचकर मन कठोर किया, दिल की समस्त कोमल सहानुभूतियों को निचोड़ने के बाद 'मैं बेहद दुखी हूँ', इतना कहने की ठानकर जैसे ही चंद्रा की ओर मुड़ा, स्तब्ध रह गया।
अपरिचित अवांछित देह को बेखातिर-सी बिस्तर पर डाले चंद्रा लेटी हुई है निश्चिंत। बारह साल के निष्ठुर सत्य को जीवन के हर पल में बारंबार स्वीकार कर जो अविचलित-सी मुझे ताक रही थी, उस पर दया करके अफसोस जताने की स्पर्धा अचानक गायब हो गयी। मैंने देखा, पत्थर की आँखों सी उसकी पुतलियाँ स्थिर हैं। चेहरे का भाव वास्तविक पीड़ा से निर्विकार है। मानो चंद्रा नहीं बल्कि खुद मैं असहाय-सा चंद्रा की करुणा भीख माँग रहा हूँ। क्या कहने से चंद्रा की निष्पाप निर्भीक आत्मा को ठेस नहीं लगेगी, वह अपमानित नहीं होगी, यह जानने के लिए मैं चंद्रा से मन-ही-मन विनती करता हूँ। मेरी लाचारी चंद्रा समझ रही है। बारह साल तक न जाने कितने जाने-अनजाने लोगों को उसके दुख में लाचार होने के दृश्यों का उसने सामना किया है। दूसरे लोग जितना अधिक असहाय हुए हैं, वह उतनी अधिक शक्ति अपने भीतर तलाश पायी है। क्योंकि वह जानती है, दया, करुणा, हाहाकार मिला देने से किसी का दुख कम नहीं हो जाता। जो गुजर चुका है वह फिर नहीं लौटता। उसने जो भोगा है, वह झूठ नहीं हो जाएगा।
चंद्रा ने स्थिर गले से कहा, 'कब तक ऐसे खड़े रहेंगे? मैंने आपको बुलाकर वाकई परेशान किया।'
मैंने घबराकर कहा, 'नहीं-नहीं, मुझे कोई परेशानी नहीं है।' मैं और कुछ नहीं कह पाया।
चंद्रा ने तपाक से कहा, 'यदि आप मेरे बारे में कुछ सोच रहे हैं तो क्या मेरे लिए एक काम करेंगे?'
'कहो, मेरे वश में हुआ तो जरूर करूँगा। मैं वादा करता हूँ।'
चंद्रा ने निर्णय भरे स्वर में कहा, 'आपसे अनुरोध है, मुझ पर कभी दया मत कीजिएगा। बारह साल से दूसरे लोगों ने मुझ पर जितनी अधिक दया उँड़ेली है, मैं उतनी ही अधिक दीन हो गयी हूँ। यह देश आज दरिद्र है, क्योंकि दया-दक्षिणा हममें इतनी अधिक है कि उसी से कितने लोगों का गुजारा भी होता है। बुरा तो नहीं मान गये?'
उस अचल देहधारी तेज अचल मस्तिष्क वाली लड़की को एकटक ताकते हुए सोच रहा था कहीं मेरी लाचारी देख चंद्रा मुझ पर तरस तो नहीं खा रही है? वास्तव में जिस लड़की की चिंतन शक्ति इतनी प्रखर और उच्च स्तर की हो, उस पर तरस खाना मूर्खता नहीं तो और क्या है?
'फिर आऊँगा, शुभ रात्रि,' कहकर उससे विदा ले बाहर चला आया। मैंने बरामदे में रखी व्हील चेयर की ओर जान-बूझकर नहीं देखा। चंद्रा की विकलांगता को विज्ञापित करनेवाली यह निर्जीव चेयर सत्य है, यह बात मानने को भी मेरा मन तैयार नहीं था।
गेट तक छोड़ने आये उसके पिता ने धीमी आवाज में कहा, 'वास्तव में चंद्रा से कहलवाकर मैंने ही आपको यहाँ बुलवाया था। क्या आप चंद्रा की एक मदद करेंगे?'
मैंने आग्रहपूर्वक कहा, 'मुझसे जितना भी संभव होगा, करूँगा। जरूर करूँगा। यदि उससे चंद्रा का भला होता हो।'
विषाद-राग की मुस्कान छोड़ते हुए उन्होंने कहा, 'हाँ उससे चंद्रा का भला ही होगा। उसके सिवा उसका अधिक भला और किसी से नहीं होगा।'
मैं त्रिशंकु बना खड़ा था।
उन्होंने कहा, 'मैंने सोचा है चंद्रा से कहूँगा वह सरकार से एक आवेदन करे। किंतु आवेदन-पत्र अच्छी भाषा में बनाकर आप लिख दें।'
मैंने उत्कंठित हो पूछा, 'कहिए सर! क्या लिखना होगा?'
उन्होंने निश्चय भरे स्वर में कहा, 'वह आत्महत्या करेगी। अनुमति माँगते हुए वह सरकार से आवेदन करेगी। मेरी मृत्यु से पहले कम-से-कम इतना काम आपके प्रयास से हो जाये तो मैं चैन से मर सकूँगा। लाड़-प्यार, देखभाल और सुश्रुषा के बीच वह चल बसे तो मुझे खुशी होगी। ...वैसे हमारे बाद उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। लेकिन कितने कष्ट और लापरवाही के बीच वह प्राण त्यागेगी, क्या उसकी कल्पना आप कर सकते हैं?'
वृद्ध के इस निष्ठुर वात्सल्य ने मेरी आँखों को नम कर दिया। मैंने देखा, चंद्रा की बीमार माँ पथरीली आँखों से मेरी ओर ताक रही है। मैं भाग आने को छटपटाने लगा। ऐसा लगा मानो किसी हत्या के अपराध में मैं जड़ित हो चला हूँ। क्या जवाब दूँ मैं?
मैंने पूछा, 'यह बात क्या चंद्रा जानती है?'
वृद्ध ने कहा, 'हाँ, प्रकारांतर से मैं ही उसे आत्महत्या के लिए तैयार कर रहा हूँ। तड़पते हुए प्राण त्यागने से तो बेहतर है, हमारी ही आँखों के सामने उसकी भग्न-देह के बाकी बचे अंश से नन्ही-सी जान निकल जाए।'
'चंद्रा इसके लिए सहमत है?' मैंने पूछा।
वृद्ध विद्रूपता भरी मुस्कान छोड़ते हुए बोले, 'चंद्रा की सहमति से यह दुनिया चलती होती तो भला चंद्रा बारह साल तक एक ही जगह लेटी रहती? जानते हैं, बचपन में वह गजब का नाचती थी? पर आज अपने सामने दीवार पर पेट के बल रेंगती छिपकली से भी वह हीन हो पड़ी हुई है। उसी आक्रोश से मैं उसके कमरे की दीवार पर एक भी छिपकली दिखने नहीं देता। दुष्ट बालकों की तरह उन्हें पीट-पीटकर मार डालता हूँ। मुझे ऐसा करते देख काफी लोग सोचते हैं, मैं पागल हो गया हूँ।'
वास्तव में मैंने भी वृद्ध के छिपकली मारने का दृश्य आज देखा था और यही सोचा था।
उस दिन कोई जवाब दिये बिना मैं लौट आया।
उसके बाद जितनी भी बार चंद्रा के घर गया, उसके पिता ने हमेशा यही पूछा, 'आवेदन-पत्र लिखा? क्या वाकई मृत्यु चंद्रा के लिए जीवन से बेहतर नहीं? क्या इसे आप जीवन कहते हैं? माँ-बाप होकर यह सब कितने दिनों तक देखें हम? मैं चंद्रा को गौर से देखता हूँ, वह दिन-प्रतिदिन मेरी ही आँखों के सामने धीरे-धीरे टूटती जा रही है। अब पक्षाघात उसके पेट तक पहुँच चुका है। लेकिन चंद्रा के दिल, मस्तिष्क, विचार-भावना को पक्षाघात अपनी चपेट में नहीं ले पाया है। चंद्रा खूब बुद्धिमान है और विभिन्न आवेगों से उसका हृदय डगमगा रहा है। किसी को न मालूम हो तो शायद वह यही समझेगा कि चंद्रा काफी दिनों से फ्लू से ही पीड़ित है।'
मैं देखता, चंद्रा के दोनों हाथ अक्सर कुछ-न-कुछ करते रहते हैं। घर भर में चंद्रा के हाथों की बनी कसीदाकारी और पेंटिंग टँगी हैं। चंद्रा के हाथ से बुना स्वेटर केवल उसके पिता ने नहीं पहना, पास-पड़ोस के बच्चे, यहाँ तक कि आगामी जाड़े में मैं भी पहनने वाला हूँ। चंद्रा का शरीर आधा मृत है। हालाँकि चंद्रा मानो जीवन-स्पंदन का एक स्फुलिंग है।
चंद्रा के दोनों हाथ, चलशक्तिहीन दोनों पैरों की अक्षमता की अवहेलना कर अपनी सृजनशीलता को निरंतर जारी रखे हुए थे।
अब चंद्रा के पास जाना मेरे जीवन का रूटीन बन गया था। चंद्रा को न देखने पर मन में उदासी भर जाती। चंद्रा को देखते ही मेरा मन कर्म-प्रेरणा से स्पंदित हो उठता। चंद्रा के होठों की विशुद्ध मंद मधुर मुस्कान रेखा एक बार न देखने पर मेरे हाथ जड़ हो जाते। कहा जाए तो चंद्रा ही बन गयी है मेरी परम प्रेरणास्रोत। उसकी निरंतर कर्मरत उँगलियाँ मानो मेरी चेतना को कोंच-कोंच कर कहती हैं - जो कर्म-विमुख है वास्तव में वही पक्षाघात का रोगी है, मैं अचल होते हुए भी रोगी नहीं हूँ, निठल्ली नहीं हूँ।
चंद्रा को देखकर मैं उसके वृद्ध पिता का अनुरोध जान-बूझकर टाल जाता हूँ। उनके सवालों का जवाब भी नहीं देता।
कभी-कभी चंद्रा के आगे ही उसके पिता मुझसे पूछ बैठते हैं, 'चंद्रा के लिए आपने आत्महत्या की दरख्वास्त लिखी? क्या सोच रहे हैं? डर रहे हैं कि कहीं किसी झमेले में न पड़ जाएँ? आप निश्चिंत रहिए, दरख्वास्त पर चंद्रा खुद दस्तखत करेगी। हमारे दिन खूब जल्दी खत्म होनेवाले हैं, क्या उस ओर ध्यान दिया है कभी आपने? हमारे बाद उसके मुँह में एक बूँद पानी डालने वाला एक नहीं है। प्यास से सूख-सूखकर उसके प्राण निकलें, क्या यही इच्छा है आपकी?'
प्रतीक्षा थकान-भरी और असह्य होती है। मौत की प्रतीक्षा करते पड़े रहना मौत से भी अधिक भयावह है। लेकिन चंद्रा की जिंदगी मौत की प्रतीक्षा कर रही है, यह चंद्रा को देखकर विश्वास नहीं होता। मौत की प्रतीक्षा में जिंदगी अमावस्या में चंद्रोदय-सी इतनी उज्ज्वल और गरिमामय नहीं हो सकती।
उस दिन चंद्रा क्रोशिये की मदद से सुनहरे-रुपहले चमकीले धागों से जगन्नाथ जी का चेहरा बुनती चली जा रही थी। गुनगुनाहट-भरी मधुर मूर्च्छना झर रही थी उसके शरीर के आधे बचे हिस्से से। मुझे लगा, शायद चंद्रा किसी न किसी को चाहने लगी है। यह चाह ही चंद्रा को जिलाये हुए है, संगीत बरसा रही है उसके अंदर, उसके हाथों से होकर वही प्रेम फूल बनकर खिल रहे हैं। बिना प्यार के चंद्रा जीने-सी नहीं जी सकती।
मैंने साहस करके पूछा, 'चंद्रा, बुरा मत मानना। तुम्हारा शरीर पक्षाघात-ग्रस्त जरूर है पर दिल रंगीन सपनों से भरपूर है। यह कैसे संभव हुआ? क्या तुम किसी को चाहने लगी हो?'
वह मेरी ओर न देखकर जगन्नाथ जी के बुन रहे चेहरे पर निगाह टिकाये रखकर कुछ मुस्कुरायी और बोली, 'मेरे मन की बात आप कैसे जान गये?'
मैंने धीरे से कहा, 'तुम्हारे जीने की शैली यही बता रही है। शरीर स्वस्थ होने पर भी बहुत-से लोग तुम्हारी तरह जी भरकर जी नहीं पाते। उनमें से मैं भी एक हूँ। यह सच है कि जी रहा हूँ, पर जीने की मिठास धीरे-धीरे चुकती जा रही है जीवन-जंजाल में...'
चंद्रा ने सिर हिलाकर कहा, 'हाँ, मैं उन्हें चाहती हूँ। उन्हें चाहने के बाद मैं सोचती हूँ मैं अपूर्ण नहीं, अपाहिज नहीं हूँ, उन्हें चाहते के बाद ही मैंने अपने जीवन को चाहा है, यह अहसास किया है कि जीने में सुख हैं।'
'कौन है वह?' मैंने सहमते हुए पूछा।
चंद्रा मेरा चेहरा देखती रही और मीठी-सी मुस्कान छोड़ते हुए बोली, 'आप उन्हें जानते हैं।'
'कौन है वह?' मैंने पूछा और रोमांचित हो सोचने लगा, 'संभवतः चंद्रा कहेगी - वे आप हैं, मेरे अति प्रिय लेखक, मैं आपको चाहती हूँ प्रभात बाबू...' अभी भावना से मैं स्वयं स्पंदित हो रहा था। शरीर के भग्न स्तंभ के भीतर नक्षत्र की तरह चमकती चंद्रा की जाग्रत सुंदर आत्मा से मैं प्यार करने लगा।
चंद्रा ने मुझ पर निगाह उँड़ेलते हुए देखा। उसके बाद उसने सामने दीवार पर टँगी दो वृत्ताकार विशाल आँखों को, फिर सुनहरे जरी के धागे की नक्काशी में अपनी उँगलियों की चातुरी से खिलते जगन्नाथ जी के चेहरे को देखा। उसने नम्र मधुर स्वर में कहा, 'मैं चाहती हूँ उसी खंडित शरीर वाले विकलांग प्रभु जगन्नाथ को। मेरे प्रभु यदि खंडित होकर भी स्वयं संपूर्ण हैं, अथर्व होकर भी सर्वव्यापी हैं, तो फिर मैं क्यों शरीर की अपूर्णता के लिए अपनी आत्मा को कष्ट दूँ? क्या शरीर सुख-दुख का अनुभव कर सकता है? अनुभव करने की शक्ति तो मस्तिष्क की है। भगवान ने यदि उसे जड़ नहीं किया है तो मैं दुखी क्यों होऊँ? मेरा हृदय यदि अभी भी निस्पंद नहीं है तो मैं जी भरकर क्यों न जियूँ?' चंद्रा के उस सुंदर मुरझाये चेहरे पर एक अपूर्व ज्योति झिलमिला रही थी।
जिसका हृदय भरा हुआ है, उसका शरीर खंडित समझकर इतने दिनों तक मैंने स्वयं को दुख दिया है, यह सोचकर मुझे खुद पर दया आयी। मैंने सोचा, चंद्रा संकीर्ण सुख से बहुत ऊपर है।
क्षय होती चंद्रभागा की शाश्वत आत्मा को प्रणाम कर मैं बाहर जा रहा था। दरवाजे पर खड़े हो हमारी बातचीत सुन रहे थे चंद्रा के पिता। पहले दिन की तरह उन्होंने धीरे-धीरे कहा, 'कृपया अब मत लिखिएगा दरख्वास्त, क्योंकि मेरी चंद्रा शरीर से नहीं, आत्मा से जी रही है। क्या कभी आत्मा की हत्या संभव है? मैं यह बात नहीं जानता था, इसीलिए मुझे तकलीफ हो रही थी। अब मैं यंत्रणा-मुक्त हूँ।'
मेरे हृदय के स्पंदन में घुल-मिल गया एक शांत स्वर मेरी चेतना का स्पर्श कर कह रहा था, 'कौरव सभा में द्रौपदी के चीर की तरह संसार में दुख भी अथाह है, लेकिन दोनों हाथ उठाकर वह दुख किसी को समर्पित कर देने पर द्रौपदी की लाज बचने सा दुख भी दूर चला जाता है... दूर चला जाता है...' मेरे हृदय में मानो यह चंद्रा का ही स्वर था।
पीछे लौट पड़ा और सवाल किया, 'तुमने मुझसे कुछ कहा, चंद्रा?'
चंद्रकला की तरह क्षय होती चंद्रभागा पूर्णता मृदु मुस्कान बिखेर रही थी।