चकाचौंध / सुषमा गुप्ता
रात के इस समय चाँद पूरा तो नहीं है पर हाँ इतनी रोशनी तो है कि पीछे का आँगन रोशनी से भरा हुआ है। फिलहाल काफी समय से यहाँ बिजली नहीं है।
बेटे के होस्टल चले जाने के बाद से घर बियाबान-सा लगता है। मैं बेटी से अकसर कहती हूँ सारा शोर क्या भाई ही करता था! घर वीरान हो गया है। बेटी न होती तो घर आना कितना भयानक होता ये सोच कर सिहर जाती हूँ।
घर में अमूमन अब शांति ही रहती है, तो लगातार किताबें पढ़ने का दौर चल रहा है। वैसे भी मेरी समझ में एक बात आ चुकी है किसी भी गहरी उदासी की काट बस किताबें ही हैं तो बेहतर है उनमें ही डूब जाया जाए।
बहुत देर से किसी किताब में खोई थी, समय का भान न रहा। संध्या की ज्योत का समय हो चला, ये तब ध्यान आया जब अँधेरा घिर गया।
शाम ढले तुलसी पर ज्योत जलाना नियम है मेरा। आज जब पीछे आँगन में अभी ज्योत जलाने गई, तो बस चाँद की रोशनी थी आँगन में। इनवर्टर वाला स्विच थोड़ा दूर था और चाँद की रोशनी पर्याप्त लगी, तो लगा ऐसे ही जला दूँ ज्योत।
हवा तेज़ चल रही है, तो कोई दस पंद्रह तिल्लियाँ शहीद हो गईं, पर ज्योत न जली। थक कर मैं वहीं जमीन पर बैठ गई और फिर बहुत सावधानी से गमले की ओट में दीया रखकर ज्योत जलाई, ताकि ज्योत बढ़े नहीं।
हैरानी की सीमा न रही। वहाँ अनगिनत चींटियों ने मिट्टी के अपने घर बना रखे थे!
मैं अजीब ग्लानि से भर गई। एलइडी बल्ब की तेज़ रोशनी में जो घर मुझे कभी नज़र न आए आज वह दीए की मध्यम रोशनी में दिखाई दिए।
मैंने दीए का स्थान बदलकर तुलसी से थोड़ा दूर कर दिया। सोचा-रोशनी की चकाचौंध में जाने-अनजाने मैंने न जाने कितनी बार इन्हें इस ताप से तकलीफ दी होगी!
ज़िन्दगी भी ऐसी ही है।
कभी-कभी अपनों को समझने के लिए, खुद को समझने के लिए
आस पास की चकाचौंध बुझा देनी चाहिए।
रिश्ते और इंसान बेहतर समझ आने लगते हैं।