चकोर / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
पूर्णिमा की रात थी। चांदी की थाली-सा गोल चांद झक-झक कर रहा था। छह वर्ष का 'शांतो' निर्वस्त्र होकर आंगन में उछल-कूद कर रहा था। चांद को देख-देखकर वह अपने-आप में बक रहा था---
चंदा मामा
एरे आव, बेरे आव
दूध-भात लेते आव...
मैं और मेरे दादू एक खटिया पर बैठे थे। एक नैसर्गिक आलोकमय परिवेश हमारे भीतर को भावोद्वेलित कर रहा था। मन खोया-खोया था। तभी दादू एक रवींद्र संगीत गुनगुनाने लगे---
चांदेर हाँसी
बाँध भेंगेछे
उछले पड़े आलो...
सहसा वे बोल उठे-- देख रे, चांद हंस रहा है... प्रकाश बरस रहा है.. और तेरा बेटा भीग-भीगकर नहा रहा है...!
"हूँ...।" मैंने कहा और मेरा मन वास्तव-जगत में आ गया। कुछ क्षण बाद मैंने पुनः कहा, "दादू , दो आदमी चांद पर गए थे। आपको मालूम है?" वे मुस्कुराने लगे। बोले, "क्या वे लोग चांद पर रहने वाली बुढ़िया से मिले थे?"
"बुढ़िया? नहीं तो।"
"क्या वे लोग कदंब-वृक्ष के पास गए थे? फल-फूल कुछ लाए?"
"नहीं।"
"तो क्या लाये थे?"
"कुछ पत्थर और चांद की मिट्टी।"
यह सुनते ही दादू की हंसी फूट पड़ी। वे हो-हो करके हंसने लगे।
करीम चाचा कुल्ही से होकर गुजर रहे थे। हंसी सुनकर सीधे आंगन में आ गए। हंसी का कारण जानकर बोले, "काहे रे बचुआ, अपने दादू को काहे बुड़बक बनाता है? तुम बोला और हमने मान लिया...? हूँह ! चांद तो जैसन था, वैसने है। देखो न, आज पूर्णिमा के कारण वात और गठिया का दरद... बाप रे ! बाप रे बाप !"
करीम चाचा दोनों घुटनों को पकड़कर आहिस्ते-आहिस्ते खटिया पर बैठ गए।