चक्रव्यूह / आलोक कुमार

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आज सवेरे ऑफिस आते ही पता चला कि जीएम साहब ने बुलाया था। 8.30 बजे तक जीएम साहब आते थे और 9 बजे तक मैं उनके ऑफिस में पहुँच गया। वहाँ जाकर पता चला कि मेरा नाम बेस्ट सुपरवाईजर के लिए सेलेक्ट हुआ था। उसी के सिलसिले में मुझे बुलाया गया था। हमारी साहब से बात हो रही थी कि तभी 'मे आई कम इन सर' की आवाज़ पीछे से आई। हमने पीछे मुड़कर देखा ही था कि जीएम साहब की आवाज़ सुनाई दी। आओ-आओ सुरेश... प्लीज कम इन...

मेरी बगल वाली सीट पर उस आगंतुक के बैठते ही जीएम साहब मेरी ओर मुख़ातिब होकर बोले 'राजीव तुम थोड़ी देर बाहर बैठो, फिर बुलाता हूँ। मैं उठकर जाने लगा तो जीएम साहब उस आगंतुक को मुख़ातिब होकर बोले' हाँ सुरेश, ये है राजीव, बेस्ट सुपरवाईजर ऑफ द इयर के लिए सेलेक्ट हुआ है और राजीव ये हैं सुरेश... डीजीएम पंप्स डिविजन'।

'गुड मॉर्निंग सर' डीजीएम साहब को एक कर्टसी विश करके मैं बाहर आ गया। बाहर कुर्सी पर बैठे मुझे ऐसा लगा जैसे डीजीएम साहब को मैंने पहले कहीं देखा है। लेकिन कहीं से तार जोड़ नहीं पाया। फ़ौज से रिटायरमेंट के बाद यहाँ हमारा पाँचवाँ साल था। ज़्यादातर काम साइट पर ही होता था। रोजाना नए लोगों से मिलना होता था। ऐसे में किसी अजनबी का भी जाना पहचाना-सा दिखना एक आम बात थी।

बाहर जीएम साहब के अर्दली ने चाय ऑफर किया और मैं बैठा-बैठा चाय की चुस्की लेने लगा। तभी गेट खुलने की आवाज़ आई और डीजीएम साहब बाहर निकले। शिष्टाचार वश मैं खड़ा हो गया और नमस्ते की मुद्रा में मैंने अपना सिर हिलाया। जवाब में डीजीएम साहब ने भी विश किया और बोले बैठो-बैठो। फिर मेरे पास आकर बोले-'तुम्हारा नाम क्या है' ?

'राजीव' ...। पूरी तत्परता से मैंने जवाब दिया।

मेरे जवाब से उनके चेहरे पर एक आश्चर्यमिश्रित-सी मुस्कान उभर आई।

फिर बोले-'तुम कहाँ के हो' ?

'बिहार सर'। मुझे उनका अपनापन अच्छा लगा।

'बिहार में कहाँ' ? उनकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

'भागलपुर सर'। अब मैं भी काफ़ी हैरान था। लगा, सर तो अपने आस-पास के ही लग रहे हैं।

'राजीव तुम हाई स्कूल भगवानपुर से पढ़े हो न। गणित टीचर शिव कुमार बाबू के बेटे'। अब तो जैसे उन्होने मेरी पूरी जन्म पत्री ही खोल दी थी।

'हाँ सर'। मैं बस इतना ही बोल पाया।

अरे राजीव, मुझे पहचाना नहीं, मैं सुरेश, तुम्हारा क्लास मेट इंग्लिश टीचर अनुपलाल बाबू का लड़का।

'सुरेश' ...... ये नाम सुनते ही मेरे सामने दुबली पतली काया वाले साँवले से सुरेश का चित्र उभर आया। अब तो बिलकुल ही बदल गया था वह। मोटा थुल-थुल-सा शरीर, क्लीन शेव, आँखों पर चश्मा, बालों के बगल से झाँकती सफेदी, एकदम से पहले के उलट हो गया था वो।

'अरे आप सुरेश हैं... सर' ... मेरी झिझक ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

ये आप-आप क्या लगा रखे हो। अभी यहाँ से काम ख़त्म करके आओ हमारे केबिन में... बैठकर बातें करते हैं। मैं इसी बिल्डिंग के थर्ड फ्लोर पर हूँ। किसी से मेरा नाम पूछ लेना।

'यस सर'। मैं बिना 'सर' सम्बोधन के बोल ही नहीं पा रहा था।

'क्या सर-सर लगा रखे हो' ? इतना बोलकर वह अपने ऑफिस को चला गया।

जीएम साहब से ज़रूरी बात ख़त्म करके मैं सुरेश के ऑफिस की ओर चल पड़ा॥

अतीत के उन पन्नों को जैसे फिर आज किसी ने पलट दिया था।

सुरेश से मेरी पहली मुलाक़ात तब हुई थी, जब क्लास 8 में मैंने हाई स्कूल भगवानपुर में एड्मिशन लिया था। वह वहाँ पर क्लास 7 से ही पढ़ता था। एक समानता ये थी कि हम दोनों के पिताजी उसी विद्यालय में शिक्षक थे। उनके पिताजी किसी दूसरे शहर से वहाँ ट्रान्सफर होकर आए थे और पास के ही कस्बे में किराये के घर में रहते थे। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूसरे के और करीब आ गए।

मैं थर्ड फ्लोर पर आ चुका था। नेम प्लेट देखते-देखते मैं सुरेश का नाम ढूँढने लगा। ढूँढने में ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। ऑफिस के बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-डेप्युटी जनरल मैनेजर / पंप्स परचेज़। धीरे से दरवाजे पर दस्तक देकर मैं धीमे से बोला-'मे आइ कम इन सर'।

'कम इन'। बिना नज़रें उठाए यंत्रवत-सा उसने जवाब दिया।

जब मैं पूरा अंदर हो गया तो उसने नज़रें उठाई। मुझे देखते ही तत्परता से बोल पड़ा-'अरे राजीव तुम, आओ-आओ, प्लीज बैठो'।

मैं सकुचाया-सा उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया।

'और बताओ-कब से यहाँ हैदराबाद में हो' ? चश्मे को उसने अपने नाक पर गिरा लिया था। शायद रीडिंग ग्लास था उसका।

' हैदराबाद में तो पिछले दस साल से हूँ, लेकिन इस कंपनी में अभी 5 साल ही हुए हैं। मैंने हैदराबाद का अपना पूरा ब्योरा उसके सामने रख दिया था।

लेकिन मैंने तो किसी से सुना था कि तुम एयर फोर्स में चले गए थे। उसे अभी तक ये बातें याद थी।

'हाँ, वहाँ तो मैं तभी 1991 में ही चला गया था'। मैंने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाया।

'और यहाँ कहाँ रहते हो' ? उसने वर्तमान में आते हुए पूछा।

यहीं कैम्पस में ही टाइप 3 क्वार्टर में। मैं बस उसके सवालों का जवाब दे रहा था।

'मैं भी अंदर ही टाइप 5 क्वार्टर में रहता हूँ। आओ कभी क्वार्टर में' , फिर बैठकर बातें करते हैं'। उसने जैसे अपनी तरफ़ से बात समाप्त कर दी।

'ठीक है सर'। मैंने भी कुर्सी से उठते-उठते कहा।

मैं उसके कमरे से बाहर निकल आया।


'पापा आज एनटीएसई का रिज़ल्ट निकल गया'। ऑफिस से लौटा ही था कि आयुष मेरे सामने उदास-सा खड़ा था।

'क्या हुआ, तुम्हारा सेलेक्सन नहीं हुआ, उदास क्यों हो? ये सब तो लाइफ में चलता रहता है'। एक साथ मैंने सारी बातें बोल दी थी।

'हाँ पापा, लेकिन अच्छा नहीं लग रहा है। केवल तीन लड़के का ही सेलेक्सन हुआ है मेरे स्कूल से'। उसके स्वर में अभी भी उदासी थी।

कोई बात नहीं बेटे, आगे और मन लगाकर पढ़ो, एक परीक्षा में असफल होने से कुछ नहीं होता है। मैंने उसे ढाढ़स बँधाया।

ठीक है पापा, लेकिन इस बार पूरी तरह से आशान्वित था, इसलिए ज़्यादा बुरा लग रहा है। आयुष ने जैसे पूरी व्यथा मेरे सामने रख दी थी।

'बेटा उतार चढ़ाव का नाम ही ज़िंदगी है। अगर केवल सफलता ही हमारे हिस्से आए तो सफल होने का रोमांच ही ख़त्म हो जाता है'। मेरा अंदाज़ दार्शनिक हो गया था।

आयुष ने क्या समझा, क्या नहीं समझा, ये तो पता नहीं लेकिन शांत हो गया। उदासी अब भी उसके चेहरे पर अधिकार जमाये बैठी थी।

मैंने बात का रुख दूसरी ओर मोड़ते हुए कहा, 'आज, पता है, मेरे स्कूल का एक दोस्त आज करीब 25 साल बाद मिला। यहीं बीएचईएल में काम करता है'।

'रिएलि पापा'। आयुष के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान थी।

'हाँ सचमुच'। आयुष के चेहरे पर आई इस एक पल के मुस्कान ने मुझे थोड़ी राहत प्रदान की।

'पापा वह भी एयर फोर्स में थे क्या' ? बच्चे अपनी ही दुनिया में मगन रहते हैं। एयर फोर्स से इतर वह कुछ सोच नहीं पा रहा था।

'नहीं बेटे वह यहाँ 20 साल से काम कर रहा है'। मैंने उसकी जानकारी दुरुस्त की।

'वो कहाँ रहते हैं पापा' ? आयुष की उत्सुकता रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

मुझे थोड़ी तसल्ली मिली, चलो इस बहाने उसका मन तो बहला।

'बेटा, वह यहीं टाइप 5 क्वार्टर में रहता है'। मैंने आगे रुका नहीं बल्कि बोलता चला गया। 'डीजीएम है वो'।

'पापा आपलोग एक ही स्कूल में पढ़ते थे'। आयुष को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि पापा के स्कूल का लड़का भी डीजीएम हो सकता है।

'हाँ बेटे, बल्कि ये कहो कि एक ही क्लास में'। मैंने उसके एक भावी प्रश्न का उत्तर भी दे दिया।

'पापा वह तो पढ़ने में बहुत तेज़ होंगे'। आयुष काफ़ी उत्साहित हो रहा था।

हाँ बेटा, तभी तो वह डीजीएम है। मैंने उसकी उत्सुकता शांत की।

'पापा, लेकिन आप तो बोलते थे कि आप अपने क्लास में फ़र्स्ट आते थे'। आयुष आज इस चर्चा को छोड़ने के मूड में नहीं था।

'हाँ बेटा'। एक टीस-सी उठी मेरे मन में।

'तो वह क्या सेकंड आते थे क्लास में'। आयुष अपनी उपलब्ध जानकरियों से एक अनुमान लगा रहा था।

अब मैं थोड़ा चिड़चिड़ा उठा। बोला-'बेटा मुझे उतना याद नहीं है। अब कुछ और बात करें'।

आयुष ने शायद मेरे मनोभावों को ताड़ लिया। इसलिए शांत हो गया।

मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। सोचा, कहाँ मैं उसके मूड को ठीक करने के लिए ये सब बता रहा था और कहाँ फिर से मैंने ही उसे चुप करा दिया। गलती सुधारते हुए मैंने कहा-'जाओ जाकर थोड़ी देर आईपीएल देख लो, शुरू हो चुका होगा'।

उसकी तो जैसी मानो मन की बात मैंने कह दी।

'थैंक यू पापा' और इससे पहले कि मेरा मन बदले, वह टीवी की तरफ़ दौड़ पड़ा।


ऑफिस में आते जाते सुरेश से मुलाक़ात कभी कभार होती रहती थी। एक दिन मैं बाज़ार में सब्जी खरीद रहा था कि तभी सुरेश पर नज़र पड़ी। देखते ही मैंने नमस्ते किया तो उसने भी जवाब दिया और मेरे पास आ गया। सामान्य-सी बातचीत के बाद बोला-हमारा क्वार्टर बगल में ही है। आओ चाय पीकर जाना। मैंने भी कोई विरोध नहीं किया। अब उसकी लग्जरी कार टाइप-V क्वार्टर के इलाके में पहुँच गयी थी। एक आलीशान से बंगलेनुमा क्वार्टर के सामने उसकी कार लगी। सरवेंट क्वार्टर से एक अधेड़-सा व्यक्ति दौड़ा आया और उसने क्वार्टर का गेट खोला। कार पार्क करने के बाद हम अंदर की तरफ़ चले। ये एक डुप्लेक्स टाइप का क्वार्टर था। अंदर कॉल बेल बजते ही एक महिला ने दरवाज़ा खोला। मेरे नमस्ते का उसने बड़े सलीके से जवाब दिया। सुरेश ने हमारा परिचय कराया-देखो ये मेरा दोस्त है-राजीव यहीं हमारे साथ काम करता है। उस दिन बताया था न, हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे। तभी उसका बेटा बाहर आया। उसकी उम्र भी मेरे बेटे के आसपास ही लग रही थी।

हैलो अंकल-उसके बेटे ने शिष्टाचार वश विश किया।

हैलो बेटा कैसे हो, क्या नाम है तुम्हारा? उसके जवाब में मैंने एक सवाल भी पूछ दिया।

'आशीष अंकल'-बड़ा ही संक्षिप्त-सा उत्तर था उसका।

और बेटे किस क्लास में हो-मैंने अपना सवाल पूछने का सिलसिला जारी रखा।

'टेंथ में अंकल'-उसका उत्तर फिर से संक्षिप्त था।

'किस स्कूल में हो' ?

'यहीं डीवीएस स्कूल में'।

'अरे वहीं तो मेरा बेटा पढ़ता है-आयुष-तुम जानते हो उसे'।

'हाँ अंकल मेरे ही क्लास में है'।

इस बीच सुरेश की वाइफ़ चाय बनाकर ले आयी।

चाय के दौरान कुछ स्कूल की, कुछ कंपनी की बातें होती रही। करीब एक घंटे रुकने के बाद मैं वहाँ से वापस अपने घर आया।

घर पर दरवाज़ा खोलते ही आयुष बोल उठा-'पापा पता है, आज एनटीएसई का मार्क्स भी आ गया है-मुझे 119 नंबर आए हैं। रवितेज को 128 और रिद्धिमा को 125 मार्क्स आया है। दोनों सेलेक्ट हुए हैं। लेकिन पापा एक लड़के को 107 मार्क्स आए हैं, फिर भी उसका सेलेक्सन हुआ है'।

मैंने कहा 'ऐसा नहीं है बेटा, कुछ मिसप्रिंट हुआ होगा, इंटरनेट पर चेक कर लेते हैं'।

इंटरनेट पर सचमुच उस लड़के का नाम चयनित छात्रों में था और मार्क्स भी 107 ही था। पल भर को मुझे भी आश्चर्य हुआ, लेकिन फिर जल्दी ही मेरा ध्यान उसके नाम पर गया-आशीष कुमार'मुझे सारा माजरा समझ में आ गया। मैंने कहा-' होता है बेटा, कभी-कभी कुछ बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए सेलेक्ट किया जाता है'।

'ये क्या बात हुई पापा, फिर उसी को क्यों किया गया, किसी दूसरे को क्यों नहीं' ? आयुष मानने को तैयार नहीं हो रहा था।

मैं बात को तूल नहीं देना चाहता था, इसलिए बोला 'मुझे ज़्यादा पता नहीं है बेटा कुछ होगा'।

लेकिन आयुष इस अनहोनी को पचा नहीं पा रहा था। बोला-'आशीष के पापा आपकी कंपनी में बड़े अधिकारी हैं और अक्सर मुख्य अतिथि बनकर मेरे स्कूल में आते रहते हैं, शायद इसीलिए उसको सेलेक्ट किया गया होगा'।

बच्चे को जानकारी न हो, ये फिर भी ठीक है, लेकिन ग़लत जानकारी हो ये और खतरनाक है।

मैंने कहा-'ऐसी बात नहीं है बेटे और भी तो बहुत से अधिकारी के बेटे पढ़ते होंगे'।

'तभी तो पापा, फिर उसी का चयन क्यों हुआ' ? उसने मेरे जवाब को ही प्रश्न बना दिया।

मैं इन चीजों से आयुष को दूर रखना चाहता था। लेकिन आज बिना समुचित उत्तर दिये मैं उसको अंधेरे में भी नहीं रख पा रहा था।

'बेटा, कुछ लोगों को समाज में थोड़ी सुविधा मिलती है, जैसे लड़कियों को, दिव्यांगों को, या फिर जो बहुत गरीब होते हैं, सामाजिक तौर पर पिछड़े होते हैं, ताकि सबकी बराबर उन्नति हो सके। इसपर ज़्यादा ध्यान मत दो और रवितेज एवं रिद्धिमा को देखो, थोड़ा मन से पढ़ोगे तो तुम्हारा भी हो जाएगा और नहीं ही हुआ तो क्या अनर्थ हो गया, आगे और बहुत से अवसर आएंगे, बस तुम मन से पढ़ो'। मैंने पूरा व्याख्यायन ही दे डाला।

आयुष शांत हो गया लेकिन अभी भी उसके चेहरे पर से उलझनों के भाव मिटे नहीं थे।

उसके जाते ही मैं जैसे पुरानी यादों में खो गया।

1988 में इंटर करने के बाद जब इंजीन्यरिंग की कोचिंग के लिए मेरा नामांकन पटना के 'प्रीमियर इंस्टीट्यूट' में हुआ था तब अनुपलाल बाबू ने सुरेश का नाम भी वहीं लिखाने का फ़ैसला किया। उसी हॉस्टल में उसको भी रखवाया, जहाँ मैं रहता था। जाते समय बोले-थोड़ा सुरेश का ध्यान रखना, इसीलिए तुम्हारे आसपास रखा है। अच्छी संगति में रहेगा तो कुछ अच्छा कर जाएगा। एक साल की तैयारी के बाद जब रिज़ल्ट आया तो सुरेश सेलेक्ट हो गया और मैं रिजैक्ट। मुझे बड़ा धक्का लगा लेकिन अगली बार फिर से तैयारी करके परीक्षा देने का निर्णय लिया। 1989 का साल था। मण्डल और कमंडल का आंदोलन जोरों पर था। भागलपुर का त्रासदीपूर्ण दंगा भी इसी साल हुआ था। एक दिन पता चला-छात्र आंदोलन शुरू हो गया है। छात्र होने के नाते एकाध बार शामिल भी हुआ। बाद में पता चला कि मण्डल कमिशन की रिपोर्ट सरकार ने लागू कर दी है। वैसे ये बात समझ में बाद में आई कि इससे हमें क्या परेशानी है। पहले तो मेरे लिए जैसे साइमन कमीशन, वैसे ही मण्डल कमीशन, समझ में कुछ नहीं आता था। लोगों ने बता दिया कि अब हमें नौकरी नहीं मिलेगी। एक तो पहले से आरक्षण था, अब तो और बढ़ा दिया, नौकरी क्या ख़ाक बचेगी हमारे लिए। उसी दौरान ये पता चला कि सुरेश भी आरक्षित होने के चलते इंजीन्यरिंग में सीट पा सका था। किशोर मस्तिष्क अत्यंत मृदु होता है, जिसपर बहुत जल्द खरोंच लग सकती है। मन में ये बैठ गया कि जब रिज़र्वेशन थोड़ा था तब मुझे सीट नहीं मिली तो अब और बढ़ जाने के बाद क्या मिलेगी। 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत'। अगली बार तैयारी का जो प्रण था, वह परवान चढ़ने से पहले ही शिथिल होता दिख रहा था। कोचिंग में ओर्गेनिक कैमिस्ट्रि के वर्मा सर जब प्रश्न के बाद लड़कों की ओर मुख़ातिब होकर बोलते थे-'एनी बॉडी एक्सेप्ट यैलो शर्ट' तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। लेकिन आज वही गर्वोन्नत चेहरा मुरझाया-सा लगता था। अगले साल यूँ ही प्रतियोगिता में शामिल हुआ लेकिन मैं तो पहले से ही हारा हुआ था। अपने से ज़्यादा ध्यान इस बात पर चला गया था कि रिज़र्वेशन से कौन-कौन सेलेक्ट हुआ है। आज समझ में आती है कि अगर उतना समय पढ़ने में दिया होता तो शायद सेलेक्ट भी हो जाता। बहुत से लड़के हमारी कैटेगरी से भी सेलेक्ट हुए थे।

'पापा-पापा चलिये न बैडमिंटन खेलते हैं'। आयुष की आवाज़ से मैं वर्तमान में लौटा। आज फिर बैडमिंटन में मैं ही जीता था। आयुष की वही बातें-पापा आपको हराना बहुत मुश्किल है। आयुष ने ये बातें पहले भी अनेक बार कही थी। लेकिन आज मेरे लिए जैसे इसका संदर्भ बदल गया था।

मैं बोला-'बेटा, पता है परेशानी या कठिनाई बाहर नहीं है ये हमारे मस्तिष्क में है। अगर अभिमन्यु को ये पता नहीं होता कि उसे सातवें घर को भेदना नहीं आता है तो शायद एक बार वह सफल हो भी जाता, लेकिन जब एक बार उसके मन में बैठ गया कि उसे सातवें घर को भेदने की विद्या नहीं आती है तब तो उसका जीतना असंभव ही था। चक्रव्यूह बाहर नहीं हमारे मन के अंदर है और तुम्हें इसी चक्रव्यूह को तोड़ना है'।

आयुष को ये बातें शायद कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आई। वह बस मेरा मुंह ताकता रहा।

मैंने बात को आगे जारी रखा। उस दिन तुमने कहा था न कि पापा आप फ़र्स्ट करते थे अपने क्लास में। हाँ, मैं फ़र्स्ट करता था। सुरेश सेकंड भी नहीं करता था। कोई 20 के आसपास उसका रैंक आता था। टेंथ, इंटर हर जगह मेरा मार्क्स उससे ज़्यादा था। यहाँ तक कि इंजीन्यरिंग के कोचिंग इंस्टीट्यूट में भी मैं उससे बहुत आगे था और उसका सेलेक्सन केवल इसलिए हुआ क्योंकि वह आरक्षित श्रेणी का था। आशीष का भी एनटीएसई में इसलिए हुआ है क्योंकि उसे भी रिज़र्वेशन मिला है। लेकिन ये बातें सुनकर अगर तुम हतोत्साहित हो जाओगे तो किसी का क्या नुक़सान होगा। नुक़सान तो सिर्फ़ तुम्हारा होगा। रवितेज और रिद्धिमा का भी तो चयन हुआ है। तुम उसे अपनी प्रेरणा बनाओ। नकारात्मक बातों को दिमाग़ में कतई घर मत बनाने दो।

लेकिन पापा आपने तो कहा था कि आरक्षण अपाहिजों, महिलाओं, गरीबों व पिछड़ों को मिलता है लेकिन आशीष तो इनमें से कुछ भी नहीं है। उसके पापा तो बहुत बड़े अधिकारी हैं। आयुष अभी भी हमारे तर्क से संतुष्ट नहीं हुआ था।

'बेटा उनके पूर्वज बहुत गरीब थे। उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार होता था, इसीलिए संविधान में कुछ जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कि गई ताकि वह भी समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सके'। मैं भरसक उसे कनविन्स करने की कोशिश करता रहा।

'लेकिन इसमें हमारी क्या गलती है पापा' ? आयुष अभी भी आश्वस्त नहीं हो पा रहा था।

'कुछ नहीं बेटा, गलती तो उनके पूर्वजों की भी नहीं थी। ये बस समय का चक्र है और किसी न किसी के साथ हमेशा नाइंसाफी होती है। आज तुम्हारी बारी है। लाखों रुपये वेतन लेनेवाले का बेटा आरक्षित है और दिहाड़ी मज़दूर का बेटा अनारक्षित, इसको कोई न्यायसंगत नहीं ठहरा सकता। परंतु जब बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं तो छोटी-मोटी कुर्बानियाँ देनी ही पड़ती है और सबसे बड़ी बात ये कि कभी इन बातों को दिमाग़ पर हावी मत होने देना। संभावनाएँ अनंत है। आरक्षण तो महज़ सरकारी नौकरियों में है। तुम बड़े व्यापारी बन सकते हो, प्राइवेट जॉब कर सकते हो, राजनेता बन सकते हो। हमेशा इसपर ध्यान दो कि तुम्हें क्या मिला, , न कि इसपर कि तुम्हें क्या नहीं मिला। बेटा, जिस मानसिक चक्रव्यूह में मैं फंस गया, मैं तुम्हें उसमें फँसता नहीं देख सकता। प्रण करो कि इस चक्रव्यूह को तुम भेद दोगे। मन को बिना शिथिल किए अपने कर्म के पथ पर बढ़ते रहोगे'।

आयुष मेरा मुंह देख रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था मानो मेरे मन मस्तिष्क पर वर्षों से जमी नाकामी और नकारात्मकता कि कालिमा कि जगह भविष्य की संभावनाओं के सूरज की लालिमा आने लगी हो।