चक्रव्यूह / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
‘‘मँझले को देखो न, कितना कमज़ोर हो गया है।’’ सुबह पत्नी ने कहा।
‘‘देख तो मैं भी रहा हूँ। पर करूँ भी तो क्या? कलकत्ता में रहे हैं। वहाँ गरम कपड़ों की ज्यादा ज़रूरत नहीं पड़ी। अधिक न भी हों तो तीनों बच्चों के लिए एक–एक फुल स्वेटर ज़रूरी है। मैं चप्पल पहनकर ही ऑफिस जा रहा हूँ। कम–से–कम दो सौ रुपये हाथ में हों, तब मँझले का इलाज फिर शुरू कराऊँ।’’
‘‘मैं पिछले आठ साल से देख रही हूँ कि आपके पास महीने के अन्तिम दिनों में दो रुपये भी नहीं बचते।’’ पत्नी तुनक उठी।
कोई खांसी–जुकाम का इलाज तो कराना नहीं। लंग्स की खराबी है। साल–भर दवाई खिलाकर देख ली। रत्ती–भर फर्क नहीं पड़ा। संतुलित भोजन भी कहाँ मिल पाता है मँझले को।
मैंने देखा, पत्नी की आँखें भर आईं–‘‘तीनों बेटों में मँझला ही तो सुन्दर भी लगता है।....’’ उसने एक ओर मुँह घुमा लिया। मैं बिना खाए ही ऑफिस चला गया। मँझले का झुरता हुआ चेहरा दिन–भर मेरी आँखों में तैरता रहा। शाम को बोझिल कदमों से घर लौटा। पिताजी का पत्र आया था कि एक हज़ार रुपये भेज दूँ। अब उनको क्या उत्तर दूँ? महीने–भर की कमाई है आठ सौ रुपये। कहीं डाका डालूँ या चोरी करूँ? साल–भर में भी कभी एक हज़ार रुपए नहीं जुड़ पाए। वे बूढ़ी आँखें आए दिन पोस्टमैन की प्रतीक्षा करती होंगी कि मैं हज़ार न भेजता, तीन–चार सौ ही भेज देता।
एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि–पंजर सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टाँगों से गिरता–पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है। और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।