चक्र / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मोना को सुबह ही सुबह खेलते देखकर महेश ने पत्नी को कनखियों से इशारा किया–‘‘देखो, मोना की रात भी कितना समझाया था कि सोने का वक्त हो गया है। खेल बंद करके होमवर्क पूरा कर लो। अब फिर सुबह ही सुबह......’’ वह क्रौंध से होंठ चबाता हुआ दूसरे कमरे में चला गया। सहमा हुआ मोना नल पर जाकर ब्रश करने लगा।
आठ बज गए। स्कूल जाने में सिर्फ़ आधा घंटा है। महेश की नज़रें मोना को तलाश रही थीं। उड़ती–सी नज़र बरामदे की ओर चली गई। पत्नी रसोईघर में व्यस्त थी। मोना दीवार के किनारे इमली के बीज फैलाकर निशाना साध रहा था। महेश इस बार संयम खो बैठा। उसने लपककर मोना को पकड़ लिया। एक के बाद एक थप्पड़ पड़ने लगे। उस पर जैसे पागलपन सवार हो गया था। उसने मोना को लाकर पलंग पर पटक दिया। एक चीख के साथ वह उछलकर खड़ा हो गया । पत्नी रसोईघर से दौड़कर आई। उसने पत्नी को एक तरफ धकेल दिया।
‘‘मत मारो पापा.....’’ उसने हाथ जोड़ दिए। डर के मारे पेशाब निकल जाने से उसकी पैण्ट गीली हो गई। सुबकियों के साथ उसका पूरा शरीर पत्ते की तरह काँप रहा था। महेश चीखा–‘‘तुमको रात भी समझाया फिर भी तुम बात क्यों नहीं मानते?’’ और थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया। पत्नी ने हाथ पकड़ लिया–‘‘अब जाने भी दो या जान ही लोगे इसकी।’’
दफ्तर पहुचने पर उसका मन और व्याकुल हो गया। जब काम में मन नहीं लगा तो वह छु्ट्टी लेकर घर लौट आया।
मोना को बुखार चढ़ गया था। पत्नी सिरहाने बैठी थी। मोना ने धीरे से आँखें खोलीं। ‘‘पापा’’–कहकर फिर आँखें मूँद लीं।
‘‘मैंने आज अपने बेटे को बहुत पीटा है न?’’ महेश ने मोना के बालों में उँगलियाँ चलाते हुए कहा।
‘‘मैंने भी तो आपकी बात नहीं मानी?’’ मोना ने अपना हाथ पिता की गोद में रख दिया।
दोनों की आँखें भीग चुकी थीं।