चढ़ाव-उतार का जायजा / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान
2011 में ही एरिक हाब्सबाम की 'एबैकस' से विशालकाय किताब 'हाउ टु चेंज द वर्ल्ड' प्रकाशित हुई। पुस्तक का उपशीर्षक है 'टेल्स आफ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म'। साफ है कि इसमें मार्क्स और मार्क्सवाद की कहानी कही गई है। कुल दो खंडों की इस किताब के पहले खंड में मार्क्स और एंगेल्स के लेखन की विशेषताओं को आठ अध्यायों में विवेचित किया गया है। दूसरे खंड के आठ अध्यायों में मार्क्स एंगेल्स की मृत्यु के बाद की मार्क्सवाद की विकास यात्रा को निरूपित किया गया है। इसमें 1956 से 2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को थोड़ा बदलकर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है। इसमें मार्क्स-एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों के अलावे सिर्फ ग्राम्शी को शामिल किया गया है। पुस्तक को पढ़ते हुए यह तथ्य दिमाग में रखना उपयोगी होगा कि वे मार्क्सवाद की लेनिनीय और चीनी परंपरा के प्रति थोड़ा ज्यादा ही आलोचनात्मक रवैया रखते हैं।
पुस्तक के पहले अध्याय 'मार्क्स टुडे' में वे आज के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता की एक वजह यह मानते हैं कि सोवियत संघ के आधिकारिक मार्क्सवाद के अंत ने मार्क्स को लेनिनवाद और लेनिन की प्रेरणा से बने समाजवादी निजामों के साथ जुड़ाव से मुक्त कर दिया और इस बात की गुंजाइश बनी कि आज की दुनिया के प्रसंग में मार्क्स की प्रासंगिकता को नई नजर से देखा परखा जाए। दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि 1990 के दशक में उभरने वाली वैश्विक पूँजीवादी दुनिया बहुत कुछ कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूर्वाशयित दुनिया की तरह नजर आई। यह चीज घोषणापत्र की 150वीं वर्षगाँठ के समय ही दिखाई पड़ने लगी थी क्योंकि उसी समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में नाटकीय उथल पुथल शुरू हुई थी। उनका कहना है कि निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के मार्क्स बीसवीं सदी के मार्क्स से अलग होंगे। पिछली सदी में मार्क्स की जो छवि बनी उसमें तीन तत्वों का योग था। पहला कि जिन मुल्कों में क्रांति एजेंडे पर थी और जिनमें नहीं थी वे अलग अलग थे। इसी से दूसरी चीज यह बनी कि मार्क्स की विरासत दो हिस्सों में बँट गई- सामाजिक-जनवादी और सुधारवादी विरासत तथा रूसी क्रांति से बनी क्रांतिकारी विरासत। तीसरी चीज यानी 1914 से 1940 के बीच उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद और बुर्जुआ समाज के विघटन से यह बात और भी उजागर हुई। तब लगा था कि पूँजीवाद शायद इस झटके से उबर नहीं पाएगा। वह उबरा तो लेकिन पुराने रूप में नहीं। दूसरी ओर सोवियत संघ में जो समाजवाद स्थापित हुआ वह अजेय लगता था। लेकिन ऐसी धारणा बनी कि उत्पादक शक्तियों का पूँजीवाद के मुकाबले तीव्र विकास ही समाजवाद की बरतरी साबित करेगा जो मार्क्स ने शायद नहीं सोचा था। मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों का विकास करने में अक्षम हो गया है इसलिए खत्म हो जाएगा बल्कि उनके अनुसार अति उत्पादन से पैदा पूँजीवाद का आवर्ती संकट अर्थतंत्र को नहीं चला पाएगा और असमाधेय सामाजिक संकटों को जन्म देगा। सामाजिक उत्पादन के परवर्ती अर्थतंत्र को जन्म देना पूँजीवाद के बस की बात नहीं, ऐसा समाजवाद के तहत ही हो पाएगा। अब बीसवीं सदी का यह समाजवादी 'माडल' खत्म हो चुका है और दोबारा उसकी वापसी संभव नहीं है।
फिर भी लेख के अंत में वे बताते हैं कि अनेक मामलों में मार्क्सवादी विश्लेषण अब भी प्रासंगिक है। पहला तो पूँजीवादी आर्थिक विकास की अबाध वैश्विक गति और अपने सामने आने वाली किसी भी चीज का नाश, भले ही वह इनसे कभी लाभान्वित हुआ हो मसलन परिवार का ढाँचा। दूसरे पूँजीवादी विकास के क्रम में आंतरिक 'अंतर्विरोधों' का जन्म जिसमें अनंत तनाव और तात्कालिक समाधान, वृद्धि के साथ जुड़े हुए संकट और बदलाव, अधिकाधिक वैश्विक होते अर्थतंत्र में भयावह केंद्रीकरण शामिल हैं। पुस्तक का दूसरा लेख मार्क्स से पहले के समाजवादियों से उनके संबंध को बताता है। इसके बाद मार्क्स के चिंतन में राजनीति की महत्ता बताने के बाद अलग अलग अध्यायों में उनकी और एंगेल्स की पुस्तकों- कंडीशन आफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो, ग्रुंड्रीस आदि की व्याख्या करने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के प्रकाशन और संपादन की हालत का वर्णन किया गया है। कह सकते हैं कि किताब का पहला खंड बाद में वर्णित मार्क्सवाद के विकास की पूर्वपीठिका के बतौर लिखा गया है। पुस्तक का दूसरा खंड 'मार्क्सिज्म' के नाम से संकलित है और इसमें विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती किस्मत पर प्रकाश डाला गया है।
कहानी की शुरुआत से पहले ही यह साफ कर देना होगा कि इन दौरों में जहाँ 1880 से 1914 है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से 1945 का है। बीच का 1914 से 1929 तक का दौर हो सकता है बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है। उनके वर्णन में तीसरा दौर 1945 से 1983 तक का है। इसके बाद का उतार का दौर 1983 से 2000 तक का है।
दूसरे खंड की शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि मार्क्स के समर्थन और विरोध में इतना कुछ लिखा जा चुका और लिखा जा रहा है कि मौलिकता का दावा करने वाली ढेर सारी किताबों में पुराने तर्कों का ही दोहराव नजर आता है। उनका कहना है कि शुरू में मार्क्स को पूरी तरह से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि शैक्षिक जगत के लोग भी कुछ क्षेत्रों में उनके योगदान को मान्यता देते थे। वह तो जबसे उनके सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें शुरू हुईं तबसे समर्थन और विरोध दोनों ही नई ऊँचाई पर जा पहुँचे।
1880 से 1914 के बीच मार्क्सवाद के प्रभाव का विवरण देते हुए हाब्सबाम इस बात से शुरू करते हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के समर्थक इतिहासकार जब मार्क्सवाद का इतिहास लिखने बैठते हैं तो सबसे पहले मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों के बीच अंतर करते हैं और गैर मार्क्सवादियों को उसमें से निकाल बाहर करते हैं जबकि उनके अनुसार मार्क्स, फ़्रायड और डार्विन की तरह ही आधुनिक दुनिया की आम संस्कृति में समाए हुए हैं इसके बावजूद कि मार्क्सवाद के प्रभाव का गहरा रिश्ता मार्क्सवादी आंदोलनों से रहा है। यह प्रभाव दूसरे इंटरनेशनल के दिनों से ही महसूस होना शुरू हो गया था। 1880 और 1890 दशक के दौरान मार्क्स के नाम से जुड़े समाजवादी और मजदूर आंदोलनों का विस्तार हुआ और उसी के साथ इन आंदोलनों के भीतर और बाहर मार्क्स के सिद्धांतों का प्रभाव भी बढ़ा। आंदोलन के भीतर अन्य वामपंथी विचारधाराओं से मार्क्सवाद को होड़ करनी पड़ी और अनेक देशों में वह प्रमुख विचार के रूप में स्थापित हुआ। आंदोलनों से बाहर यह प्रभाव कुछ अर्ध और पूर्व मार्क्सवादियों पर दिखाई पड़ा। उनमें से मशहूर नाम इटली में क्रोचे, रूस में स्त्रूवे, जर्मनी में सोमबार्ट तथा शैक्षिक जगत के बाहर बर्नार्ड शा आदि हैं। इसी समय वह प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ी जिसके तहत अनेक लोग मार्क्सवाद से अपना नाता तो नहीं तोड़ते थे लेकिन धीरे धीरे जिसे वे 'जड़सूत्रवाद' कहते थे उससे दूर चले जाते और उन्हें ही बाद में 'संशोधनवादी' बुद्धिजीवी कहा गया। मार्क्स के विचारों का प्रसार इस दौर में मुख्य रूप से यूरोप और प्रवासी यूरोपीयों में दिखाई पड़ता है। भारत में बंगाल के जो क्रांतिकारी 1914 से पहले सक्रिय थे वे बाद में मार्क्सवादी बने। हालाँकि यह दौर मुश्किल से तीस बरसों का है फिर भी हाब्सबाम ने इसे तीन चरणों में बाँटा है। पहला चरण इंटरनेशनल की स्थापना के बाद के पाँच छह बरसों का है जिसमें मार्क्सोन्मुखी समाजवादी और लेबर पार्टियों का जन्म और विस्तार हुआ। इन जन्म एक तरह से अप्रत्याशित रूप से विभिन्न देशों के राजनीतिक पटल पर हुआ और मई दिवस जैसे कार्यक्रमों के जरिए उनकी अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति भी महसूस हुई। पूँजीवाद संकट में था और मजदूर वर्ग में उसके विनाश की आशा पैदा हुई। इसी दौर में 1891 में जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने आधिकारिक रूप से मार्क्सवाद से अपने को जोड़ा। दूसरा चरण 1895 के बाद का है जब विश्व पूँजीवाद का प्रसार होने लगा। इस चरण में जन समाजवादी मजदूर आंदोलनों की बढ़त जारी रही लेकिन इसी समय राष्ट्रीय आधार पर इस आंदोलन में विभाजन भी दिखाई पड़े। 1905 से 1917 तक रूसी क्रांति की प्रक्रिया तीसरा चरण है।
आपत्ति असल में किसी एक की प्रधानता पर नहीं बल्कि प्रत्येक प्रसंग में एक ही कारक की प्रधानता पर है। इतिहास में पैटर्न की मौजूदगी से किसी को कैसे इनकार हो सकता है? मसलन यूँ ही तो नहीं हुआ कि फासीवाद एक ही समय समूचे यूरोप में उदित हुआ। यह सही नहीं कि मार्क्स के लिए इतिहास का महावृत्तांत प्रगति का है बल्कि अगर है भी तो तकलीफ और कष्ट का है। असल में मार्क्स के लेखन में अन्य तमाम चीजों को आर्थिक में अपघटित नहीं किया गया है बल्कि राजनीति, संस्कृति, विचार, विज्ञान, विचार और सामाजिक अस्तित्व का स्वतंत्र इतिहास है, वे महज अर्थतंत्र की छायाएँ नहीं बल्कि उस पर भी प्रभाव डालने में समर्थ तत्व हैं। 'आधार' और 'अधिरचना' के बीच एकतरफा संपर्क नहीं होता बल्कि पारस्परिकता होती है। बात यह है कि मनुष्य जिस तरह अपने भौतिक जीवन का उत्पादन करते हैं वह उनके द्वारा सृजित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं का रूप तय करता है। 'निर्धारित' का अर्थ यहाँ सीमा निश्चित करना है।
उत्पादन पद्धति सीधे खास तरह की राजनीति, संस्कृति या विचारधारा को पैदा नहीं करती, न ही एक ही तरह के विचारों को जन्म देती है। अगर ऐसा होता तो पूँजीवादी दौर में मार्क्सवाद का जन्म ही असंभव होता। यह कहना ठीक नहीं कि मार्क्स इतिहास की आर्थिक व्याख्या पेश करते हैं। बजाय इसके उनके अनुसार इतिहास की चालक शक्ति वर्ग और वर्ग संघर्ष हैं जो मार्क्स के लेखन में आर्थिक से ज्यादा सामाजिक कोटि हैं। मार्क्स 'सामाजिक' उत्पादन संबंधों और 'सामाजिक' क्रांति की बात करते हैं। सामाजिक कोटि के रूप में वर्ग के निर्धारण में रीति रिवाज, परंपरा, सामाजिक संस्थाएँ, मूल्य मान्यता और सोचने की आदतें शामिल हैं। वे राजनीतिक परिघटना भी हैं। मार्क्स के लेखन से यह भी संकेत मिलता है कि जिस वर्ग का कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं वह सही मायने में वर्ग ही नहीं है। वर्ग के वर्ग सचेत होने में कानूनी, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक प्रक्रियाएँ मदद करती हैं। असल में तो मार्क्स की पूरी लड़ाई मनुष्य को महज आर्थिक बना देनेवाली व्यवस्था से है। इसीलिए उनकी कल्पना के समाज में इतनी प्रचुरता होनी है कि मनुष्य को हर वक्त धन के बारे में न सोचना पड़े।
छठें आरोप को वे यह कह कर सूत्रबद्ध करते हैं कि विरोधियों के अनुसार मार्क्स परम भौतिकवादी थे। उनके लिए मानवता की आध्यात्मिक उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं था। धर्म को तो उन्होंने खारिज ही कर दिया था। इस तरह उनके चिंतन में ही स्तालिन अथवा परवर्ती कम्युनिस्ट शासकों के अत्याचारों के बीज निहित हैं। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स इसके बारे में बहुत चिंतित नहीं थे कि दुनिया भौतिक तत्व से बनी है या आत्मा से। असल में तो वे मानते थे कि अमूर्त सरल और निर्गुण होता है जबकि ठोस समृद्ध और जटिल। अठारहवीं सदी ज्ञानोदय के भौतिकवादी चिंतकों के लिए अलबत्ता मनुष्य भौतिक दुनिया का यांत्रिक हिस्सा था। मार्क्स इस तरह की सोच को छद्म चेतना मानते थे क्योंकि यह मनुष्यों को निष्क्रिय स्थिति बना देता था। उनके दिमाग खाली स्लेट समझे जाते थे जिन पर बाहरी दुनिया के इंद्रिय संवेदन की छाप पड़नी थी और इसी से उसके वैचारिक दुनिया का निर्माण होना था। मार्क्स ने इस किस्म के भौतिकवाद से नाता तोड़ा और नई किस्म का भौतिकवाद विकसित किया। उन्होंने ममुष्य को निष्क्रिय माननेवाले भौतिकवाद के मुकाबले उसे सक्रिय तत्व मान कर अपनी बात शुरू की। उनके मुताबिक मनुष्य अपने आस पास के वातावरण को बदलने के क्रम में खुद को भी बदलता जाता है। बहुसंख्यक लोगों की सामूहिक व्यावहारिक गतिविधि के जरिए ही हमारे जीवन को शासित करनेवाले विचारों को बदला जा सकता है। मार्क्स के लिए हमारे चिंतन के विषय हमारी ही गतिविधि से बनी दुनिया है। उनके लिए मनुष्य का भौतिक अर्थात शरीर और उसका चिंतन उतने अलग नहीं थे। मनुष्य की वह विशेषता है कि उसमें भौतिक और आध्यात्मिक को अलगाना संभव नहीं। आखिर हमारा मस्तिष्क मांस का एक लोथड़ा भी है। मनुष्य की चेतना को समझने के लिए उसके सार्वजनिक व्यवहार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता।
सातवाँ संभव आरोप उनके मुताबिक यह हो सकता है कि वर्ग की कोटि बेहद पुरानी पड़ गई है। यहाँ तक कि जिस मजदूर वर्ग को उन्होंने क्रांति और समाजवाद का पुरस्कर्ता माना था उसका भी रूप इतना बदल चुका है कि आज वह मार्क्स की नजर से देखने पर पहचान में ही नहीं आता। उत्तर में ईगलटन बताते हैं कि मार्क्सवाद वर्ग को महज शैली, हैसियत, आय, उच्चारण, पेशा आदि के आधार पर नहीं परिभाषित करता। यह इससे तय होता है कि किसी विशेष उत्पादन पद्धति में आप कहाँ खड़े हैं। मजदूर वर्ग के विलोप की कथा बहुत दिनों से सुनाई पड़ती रही है। वर्गों के संघटक तत्व हमेशा से बदलते रहे हैं। वैसे भी पूँजीवाद विरोधों को धूमिल करता है, पुराने विभाजनों को मिटा कर नए मिश्रित रूपों को जन्म देता है, सिर्फ शोषण के मामले में वह समानतावादी होता है। असल में समाजवाद से भी अधिक समता माल उत्पादन में होती है। मार्क्स इसी समरूपता के खिलाफ थे। आश्चर्य नहीं कि विकसित पूँजीवाद वर्गविहीनता का धोखा देता है। हालाँकि सबको पता है कि खाई लगातार चौड़ी हो रही है। मार्क्स के लिए मजदूर वर्ग का महत्व यह था कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मौजूद होता है, उसकी कार्यपद्धति को अच्छी तरह समझता है, राजनीतिक रूप से कुशल और सचेत समूह के बतौर संगठित कर दिया गया है, उसके सफल संचालन के लिए अपरिहार्य है लेकिन उसे बरबाद करने में ही उसका हित है। इसलिए वही उसे हस्तगत कर के उसकी उपलब्धियों का सबके फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मजदूर वर्ग में मार्क्स का यकीन लोकतंत्र के प्रति उनकी गहन निष्ठा से उपजा था। मजदूर वर्ग को वे सार्वभौमिक मुक्ति का नायक मानते थे। वर्ग पर मार्क्स का जोर वर्ग की समाप्ति के लिए है। लेकिन इस काम को मजदूर वर्ग अकेले नहीं कर सकता। उसे अन्य वर्गों के साथ संश्रय बनाना पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि प्रोलेतेरियत शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ऐसी महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द से हुई है जो संतान पैदा कर के ही राज्य की सेवा करती थीं। आज भी वे ही सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं। इसी मायने में डेविड हार्वे कहते हैं कि आज दुनिया में सर्वहारा की तादाद अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। मार्क्स के लिए सर्वहारा का मतलब सभी ऐसे लोगों से था जो पूँजीपति के हाथों अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि सर्वहारा वे हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के पतन से सबसे अधिक फायदा होता है। मजदूर वर्ग के खात्मे की घोषणा पहली बार नहीं हो रही है। सेवा, सूचना और संचार क्षेत्र के विस्तार को इसका लक्षण कहा जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि इनसे पूँजीवाद के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव आने के बजाय वह मजबूत ही हो रहा है।
उनके अनुसार मार्क्स पर आठवाँ आरोप हिंसा को बढ़ावा देने का लगाया जा सकता है। इसी अर्थ में मार्क्सवाद और लोकतंत्र में तालमेल बैठना असंभव बताया जाता है। सही है कि क्रांति का विचार ही हिंसा और अराजकता की तस्वीर पैदा करता है। इसके विरोध में समाज सुधार की कल्पना की जाती है जो शांतिपूर्ण और क्रमिक दिखाई पड़ता है लेकिन अनेक समाज सुधार आंदोलन भी हिंसक रहे हैं। उसी तरह अनेक क्रांतियाँ भी उतनी हिंसक नहीं रही हैं। हिंसा तो प्रतिरोध की तीव्रता के कारण होती है। मार्क्सवादियों की नजर में किसी क्रांति की गहराई का पैमाना हिंसा नहीं होता। राजनीतिक सत्ता पर कब्जे की कार्यवाही तात्कालिक मामला हो सकती है लेकिन क्रांति आम तौर पर दीर्घकालीन प्रक्रिया होती है। जिसमें वैचारिक संघर्ष ज्यादा बड़ी भूमिका निभाता है।
मार्क्सवाद पर जिस नवें आरोप की कल्पना की जा सकती है वह यह कि वह कठोर राज्य की वकालत करता है। निजी संपत्ति को खत्म करने के बाद समाजवादी क्रांतिकारी तानाशाहों की तरह आचरण शुरू कर देंगे। वे लोगों की निजी स्वतंत्रता का अपहरण कर लेंगे। क्रांति के बाद स्थापित शासनों में ऐसा देखा भी गया है। इस विश्वास का कोई आधार नहीं है कि भविष्य में वे भिन्न व्यवहार करेंगे। उदार लोकतंत्र में खामियों के बावजूद वह तानाशाही से बेहतर है। उत्तर देते हुए ईगलटन कहते हैं कि मार्क्स तो राज्य के ही विरोधी थे। उन्होंने ऐसे समय का सपना देखा था जब राज्य का लोप हो जाएगा। मार्क्स के विरोधी उनके सपने की खिल्ली उड़ा सकते है लेकिन उन पर तानाशाही को प्रोत्साहित करने का आरोप नहीं लगा सकते। असल में उनका सपना पूरी तरह हवाई नहीं था। साम्यवादी समाज में केंद्रीय प्रशासन के अर्थों में राज्य के विलोप की बात उनके कथन का सही अर्थ नहीं प्रतीत होती। किसी भी आधुनिक जटिल संस्कृति में उसकी जरूरत रहेगी। वे तो राज्य के हिंसा के औजार के बतौर इस्तेमाल के विरोधी लगते हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में उन्होंने कहा कि साम्यवाद में सार्वजनिक सत्ता का चरित्र राजनीतिक नहीं रहेगा। मार्क्स के समय ढेर सारे अराजकतावादी लोग थे लेकिन उनसे अलग मार्क्स ने कहा कि शायद इसी ऊपर बताए गए अर्थ में राज्य ओझल हो जाएगा। गायब होगा सत्ता का वह अंग जो सामाजिक दमन और एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के शासन का उपकरण है। राज्य को मार्क्स निस्संग नहीं समझते और मानते हैं कि सामाजिक हितों के टकराव में वह पक्षपात करता है। खासकर पूँजी और श्रम के टकराव में तो उसकी पक्षधरता खुल कर सामने आ जाती है। राज्य आम तौर पर प्रचलित सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की कोशिशों के विरुद्ध उसे सुरक्षा प्रदान करता है। अगर सामाजिक व्यवस्था अन्यायपूर्ण है तो राज्य भी अन्याय का साथ देता है। राज्य के हिंसक होने में शायद ही किसी को संदेह होगा। मार्क्स तो बस यह बताते हैं कि यह हिंसा किसकी सेवा में की जाती है। मार्क्स राज्य के बारे में इस मिथक को ध्वस्त करना चाहते थे कि वह शांति और सहयोग को बढ़ावा देता है। राज्य को वे एक पृथक्कीकृत सत्ता मानते थे जो मनुष्य से अलग हो कर उसके नाम पर उसके भाग्य का फ़ैसला करती है। मार्क्स खुद लोकतंत्रवादी थे और इसी नाते राज्य के तानाशाही तरीके के विरोध में थे। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र, लोकतंत्र की छाया ही होता है। लोकतंत्र को वे महज सांसदों की संपत्ति बनाने के बजाय उसे समूचे समाज और उसकी संस्थाओं में समाया हुआ देखना चाहते थे। वे इसे आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र तक विस्तारित करना चाहते थे। उनका कहना था कि राज्य को अल्पसंख्या का बहुसंख्या पर शासन होने के बजाय नागरिकों द्वारा अपने आप पर शासन का तरीका होना चाहिए। मार्क्स का मानना था कि राज्य नागरिक समाज से अलग हो गया है और दोनों के बीच विरोध पैदा हो गया है। इसी विरोध को खत्म करना और राज्य को समाज के निकट ले आना मार्क्स का लक्ष्य था। इसी को वे लोकतंत्र कहते और समझते थे जो उनके मुताबिक समाजवाद में अपनी पूर्णता में प्रकट होगा।
दसवें आरोप के बतौर वे इस राय का उल्लेख करते हैं कि पिछले चालीस बरसों के सारे क्रांतिकारी आंदोलन मार्क्सवाद की हद से बाहर हुए हैं। नारीवाद, पर्यावरण के आंदोलन, समलिंगी आंदोलन, पशुओं के अधिकार आंदोलन, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, शांति आंदोलन आदि वर्ग की कोटि से बाहर गए और नई राजनीतिक सक्रियता को जन्म दिया। वाम धारा तो है लेकिन वह उत्तर वर्गीय उत्तर औद्योगिक संसार के लिहाज से चल रहा है। इसका जवाब देते हुए ईगलटन कहते हैं कि नए दौर का सबसे मजबूत आंदोलन तो पूँजीवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ है, उसे मार्क्सवाद से विच्छिन्न कैसे माना जा सकता है। जहाँ तक नारीवादी आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का संबंध है यह बहुत सीधा सादा नहीं रहा है। अगर कुछ पुरुष मार्क्सवादियों ने स्त्री प्रश्न को सिरे से नकारा है तो कुछ अन्य ने इसे अपनी सैद्धांतिकी में शामिल करने की कोशिश भी की है। कुल मिला कर नारीवाद में मार्क्सवाद का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इसी वजह से अनेक नारीवादियों ने माना कि पूँजीवाद की समाप्ति के बिना नारी मुक्ति नहीं हो सकती। अन्य अब भी इस विश्वास पर कायम हैं कि शायद पूँजीवाद स्त्री उत्पीड़न का खात्मा कर देगा। हालाँकि पूँजीवाद के स्वभाव में ही मार्क्स स्त्री उत्पीड़न नहीं देखते लेकिन पितृसत्ता और वर्गीय सत्ता एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़े हुए हैं कि एक की समाप्ति के बगैर दूसरे की समाप्ति की कल्पना मुश्किल नजर आती है। एंगेल्स की किताब 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता का उदय' स्त्री आंदोलन का जरूरी पाठ बनी हुई है। क्रांति के बाद रूसी बोल्शेविकों ने स्त्री मुक्ति के सवाल को पूरी गंभीरता से उठाया और हल करने की कोशिश की। नारीवादी सवालों की तरह ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में मार्क्सवादियों की भागीदारी सिद्धांत और व्यवहार के लिहाज से अतुलनीय रही है। सांस्कृतिक, लैंगिक, भाषाई भिन्नता, अस्मिता आदि के सवाल राजसत्ता, भौतिक विषमता, श्रम के शोषण, साम्राज्यवादी लूट, जन राजनीतिक प्रतिरोध और क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़े हुए हैं। अगर आप एक से दूसरे को जुदा करेंगे तो सैद्धांतिक भ्रम के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा।