चन्दा की गिट्टक / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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चंदा सिलाई कर रही है। दाहिना हाथ मशीन के हैंडिल को बराबर घुमा रहा है और बायाँ हाथ सुई के नीचे दबे कपड़े को व्यवस्थित करने में लगा है। उसकी निगाहें मशीन की खटर-खटर के साथ आगे बढतेकर कपड़े पर जमी हैं। पास ही चारपाई पर मैं बैठा हूँ, मेरी निगाहें चन्दा की हर गति-विधि का निरीक्षण रही हैं। मुझे मालूम है अभी 'गिट्टक उछल कर गिरेगी, चकित सी चन्दा की आँखें उसके उछलकर गिरने की दिशा में घूमेंगी और औचक ही उसके मुँह से निकलेगा, ' अरे, गिट्टक! ओफ, कितनी दूर जाकर गिरी। '

इसी क्षण की प्रतीक्षा में मैं बैठा हूँ। गिट्टक की उछलती गति के साथ उसकी आँखें फैल जाती हैं, मैं उसके गोल होते होंठों से निकते शब्द सुनता हूँ। उसकी दृष्टि मेरी ओर घूमती है, कुछ अनुरोध की भंगिमा में।

मैं सब देख रहा हूँ, एक -एक व्यापार पर मेरी दृष्टि है, पर अनजान बन कर पूछता हूँ, 'क्या हुआ? '

'वह गिट्टक, ' उसके होंठों से निकलते शब्द सुनता हूँ। उसके उच्चारण का ढंग इतना प्यारा लगता है कि मेरी आँखें उसके कुछ गोल होंठों और फैलती आँखों पर टिकी रहती हैं। बार -बार सुनना चाहता हूँ कानों में रस की धारा प्रवाहित होने लगती है। एक विचित्र सा आनन्द छा जाता है तन-मन पर। मैं उठ कर दौडा हूँ, गिट्टक उठा कर उसके हाथ में दूँगा, कहीं ऐसा न हो कि वह खूद ही उठ कर गिट्टक उठाने लगे। चन्दा बैठी है निश्चिन्त। गिट्टक लेते कृतज्ञ दृष्टि से मुझे देखती है। मैं कृतकृत्य हो गया हूँ। वह तिरछी हो गई डंडी को सीधा कर हथेली से ठोंकती है और फिर उसमें गिट्टक पिरो देती है। 'चन्दा ने पल्लू उठा कर अपनी मुँह पोंछा और फिर सिलने लगी है। खट्खटाक्-खट्खटाक् ' मशीन फिर चलने लगी है। मशीन की वह डंडी ढीली है, मैं जानता हूँ वह फिर टेढी होगी, गिट्टक गिरेगी। इसी इन्तजार में तो बैठा हूँ।

जब चन्दा सिलाई करती है तो मैं वहीं बैठा रहना चाहता हूँ। जिस अंदाज से वह 'गिट्टक ' इस शब्द का उच्चारण करती है वह लालित्य मैंने कहीं नहीं देखा। मेरी खिड़की से वह जगह दिखाई देती है, जहाँ बैठ कर चन्दा सिलाई करती है। जहाँ उसने मशीन खोल कर रखी मैं अपने घर में रुक नहीं पाता। कभी कभी किसी खास रंग की गिट्टक बाजार से मँगाने के लिये मुझ आवाज भी लगाती है। उसकी छोटी बहिन मेरे घर आकर खेलती है, मेरी बहिन की सहेली है। चन्दा का सिलने का टाइम होता है दोपहर बाद जब मैं स्कूल से लौट आता हूँ। वह रोज़-रो़ज सिलती भी नहीं। महीने-दो महीने में एक बार दो-तीन दिन उसकी सिलाई चलती है। वैसे वखत-बेवखत जरा-बहुत सिल ले, वह दूसरी बात है।

जब चंदा सिलने बैठती है, मैं ताक लगाये रहता हूँ। मशीन पुरानी है गिट्टक उछल कर नीचे ही गिरती है, और खुलती चली जाती है दूर तक। मैं पहले चंदा का मुँह देखता हूँ, उसे गिट्टक कहते सुनता हूँ। ऐसे देखता हूँ, जैसे मुझे गिट्टक के गिरने का पता ही न हो। फिर दौड़ पडता हूँ, उठाने। उसके गिट्टक कहने की भंगिमा को मैं देखता रह जाता हूँ। यह साधारण सा-शब्द भी वह कुछ ऐसे बोलती है कि उसमें जादू समा जाता है। सुनने के लिये मैं प्रतीक्षारत रहता हूँ।

वह मुझसे तीन-चार साल बडी है, और मुझे छोटा समझती है। पर इतना छोटा और नासमझ नहीं हूँ मैं। मुझे चन्दा अच्छी लगती है, और उसका 'गिट्टक' सुनने के लिये तो मैं मीलों का सफर तय कर सकता हूँ।

जब भी मुझे पता चलता है कि आज वह सिलाई करनेवाली है, मैं किसी-न-किसी बहाने आ बैछता हूँ। कभी वह मुझसे लाल गिट्टक मँगाती है, कभी हरी। कभी उसकी गिट्टक का तागा टूटने लगता है, तो वह परेशान -सी मुझे देखने लगती है।

डंडी ढीली होने के कारण गिट्टक छिटक कर नीचे जा गिरती है, और चन्दा का पैडल पर घूमता हाथ रुक जाता है, आँखें फैल जाती हैं। वह इधर उधर देखती है कोई उठा दे तो सुई के नीचे दबा कपडा छोड़ं कर उसे न उठना पडे। और कोई वहाँ नहीं होता, मै मौजूद रहता हूँ। उसका चेहरा देखता हूँ, और दौड पडता हूँ गिट्टक उठाने।

चन्दा सिलती रहे, गिट्टक गिरती रहे। मैं उसकी कृतज्ञ दृष्टि अपने चेहरे पर अनुभव करता देखता रहूँ, सुनता रहूँ, दौड़-दौड़ कर गिट्टक उठा कर उसे पकड़ाता रहूँ। बस,गिट्टक उछलती रहे, चन्दा चौंकती रहे, और मैं उसके पीछे भागता रहूँ। उलझा रहूँ उसके रंगीन धागों में- जन्म-जन्मान्तर तक!