चन्दा पर खेती करने की आशा / बुद्धिनाथ मिश्र
अपनी जापान यात्रा के दौरान मुझे ताइतुंग (चीन) की गौरव कही जानेवाली कुँजड़िन चेन शु-चु का परिचय मिला , जिसने सब्जी बेचकर पाँच करोड़ रु. से अधिक राशि विभिन्न सामाजिक कार्यों में दान किया था। उसके जीवन के तीन मूल मंत्र थे:-(1) सिर्फ़ जरूरत की चीजें ही खरीदो। इससे बहुत पैसा बचेगा। (2) उधार लिया धन लौटाना आसान है, मगर किसीके एहसान को लौटाना कठिन है। (3) जिस काम को करते समय आप चिन्तित हों, वह जरूर गलत काम है। जो काम करने से आपको खुशी मिले, वह अच्छा काम होगा। दूसरे क्या कहते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। हिन्दी की जुझारू साहित्य-साधिका आशा शैली के प्रसंग में मुझे बरबस चीन की चेन शु-चु का स्मरण हो आता है। दोनो में कितना साम्य है! दोनो के जीवन के मूलमंत्रों में भी आश्चर्यजनक साम्य है। फ़र्क इतना है कि वह चीन में सब्जी बेचकर रोज-रोज कमाती थी, यह भारत में पत्रिका (शैलसूत्र) बेचकर रोज-रोज गँवाती है।
भाषा-साहित्य के क्षेत्र में उनका काम किसी अघोषित युद्ध से कम नहीं है। एक ओर वे पर्वतीय जीवन के यथार्थ को ‘छाया देवदार की’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से वृहत हिन्दी समाज के सामने रख रही हैं, तो दूसरी ओर ‘एक और द्रौपदी’ जैसे काव्य-संग्रहों से हिन्दी कविता में वास्तविक स्त्री-विमर्श की खाद डाल रही हैं। लालकुआँ जैसी छोटी जगह पर रहना उनकी आर्थिक मजबूरी भी है और धरती से जुड़े जीवन को संभालने की ललक भी। उनके आसपास के लोग कुमाऊँ के ऊँचे पहाड़ों से भागकर नीचे मैदान में बसे लोग हैं, जो कृषि और पशुपालन कर दिन गुजारते हैं। उनकी नज़र में आशा जी एकाकी जीवन जीनेवाली, दिन भर पढ़ने-लिखनेवाली दीदी हैं।
याद आता है, 1993 की जून महीने की वह भयंकर गर्मी, जिसमें तपते हुए कालका मेल से मैं कलकत्ता से शिमला गया था, आकाशवाणी के एक कविसम्मेलन में काव्यपाठ करने। ठहरने की व्यवस्था हिमाचल भाषा संस्कृति के चार कमरे वाले अतिथिगृह में थी। आकाशवाणी केन्द्र पहुँचकर मालूम हुआ कि ‘अपरिहार्य कारणों से’ कविसम्मेलन एक सप्ताह के लिए टल गया है। कलकत्ता इतना समीप नहीं था कि जाकर लौट पाता। इसलिए मन कुल्लू-मनाली जाने का बना रहा था कि उसी अतिथिगृह के एक कमरे में किसी युवती लेखिका के साथ ठहरी आशा जी मिल गयीं। उन्होने ही दरवाजा खटखटाया था और अपना परिचय दिया था कि मैं हिमाचल प्रदेश में ही रामपुर बुशहर के पास गौरा गाँव में रहती हूँ और घर के कामकाज और छोटी-मोटी समाज-सेवा के बाद बचे समय में लिखती-पढ़ती हूँ। जब मेरा हाल उन्होने जाना, तब उनका ही प्रस्ताव था कि कुल्लू-मनाली तो पैसेवाले जाते हैं; आप तो संवेदनशील कवि हैं।
आपको हिमाचल के गाँव में चलकर दो-चार दिन रहना चाहिए। किसी अपरिचित पुरुष को किसी स्त्री द्वारा इस प्रकार घर आमन्त्रित करना साहित्य-जगत में ही सम्भव है। मैं चल पड़ा उनके साथ, बस से उनके गौरा गाँव की ओर। मेरे बगल से सतलज नदी की तेज धार बह रही थी। उस दिन यदि मैं उनके साथ हिमाचल प्रदेश के रामपुर बुशहर की यात्रा न करता और गौरा गाँव में चार दिन न बिताता, तो उस देवपुत्र पर्वतीय समाज की तमाम विशेषताओं को जानने से वंचित रह जाता।
बातचीत के दौरान ही मालूम हुआ कि आशा जी उस गाँव की मूल निवासी नहीं हैं। उनके जीवन की कहानी रोचक भी है और दुखद भी। उनका जन्म 2अगस्त, 1942 को रावलपिंडी में हुआ था। जब वे पाँच वर्ष की थी, तब उनका परिवार तीर्थयात्रा पर हरिद्वार आया हुआ था। उसी दौरान भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ और हिन्दू-मुसलमान रक्त से भाई-भाई होते हुए भी एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गये। साम्प्रदायिक पशुत्व की बलिबेदी पर हजारो-लाखो जानें चली गयीं। इनका परिवार भी रावलपिंडी के अपनों से बिछड़कर जगाधरी में सालभर शरणागत रहा। उसके बाद कुमाऊँ की तराई में इनके पिता बिसेसरनाथ ढल को थोड़ी-सी जमीन मिली और ये लोग हल्द्वानी में आकर रहने लगे। वहीं इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ललित कन्या विद्यालय में हुई। लिखने की प्रवृत्ति उन्ही दिनो पनपने लगी थी और पिताजी से छिपाकर ये लिखती भी रहीं।
सन् 1956 में आशा का विवाह मोहनलाल जी से हुआ, जो बहुत उद्यमी थे और इनके लेखन को प्रोत्साहित भी करते थे। उन्होने 1959 में गौरा गाँव में कुछ जमीन खरीदकर फलों की खेती करना शुरू किया। वे दिन आशा जी के लिए सुनहरे दिन थे। बगीचे में सेब, खुबानी, प्लम, बादाम, माल्टा के पेड़ इतने फलते थे कि दोनो बाँटते-बाँटते परेशान हो जाते थे। जमकर उनका जूस और जैम बनाकर बेचा जाता था। पति ने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और पूरी तरह खेती को आधार बना लिया, जो बहुत सुखद रहा। खुशी के उन्ही दिनों में आशाजी को दो पुत्र और एक पुत्री हुई। उस ग्रामीण परिवेश में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई जहाँतक हो सकती थी, हुई। सन् 1982 में मोहनलाल जी का एक सड़क-दुर्घटना में अकस्मात् निधन हो गया और आशाजी के ऊपर जैसे विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा। एक के बाद एक त्रासदी झेलती हुई अकेली आशाजी ने वह दिन भी देखा, जब बड़े बेटे ने अपनी पत्नी के उकसावे पर गाँव छोड़कर रामपुर बुशहर में घर बना लिया। ऐसे समय में बेटी माँ के लिए बहुत सहारा होती है और उसने सहारा भी बहुत दिया। मगर एक दिन वह भी सर्पदंश के बाद छटपटाकर चल बसी।
मैं जब 1992 में आशाजी के साथ गौरा गाँव गया था, तब उनका छोटा बेटा घर में रहता था। बहू पास के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती थी। उसका एक बेटा था, जो उसके साथ ही स्कूल जाया करता था। एक दिन बहू मुझे भी अपने स्कूल ले गयी और मैने उन बच्चों के साथ खूब मौज भी किया। एक दिन सुबह-सुबह आशाजी के साथ बस से सराहन भी गया, जहाँ बुशहर रियासत का भीमाकाली देवी मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में है, और किन्नौर क्षेत्र का प्रवेशद्वार है। अब तो वहाँ के लिए गौरा से भी बस चलती है, मगर उन दिनो उसे पकड़ने के लिए गौरा से तीन-चार मील नीचे उतरकर रामपुर बुशहर जाना पड़ता था।
वह मंदिर भूतपूर्व राजा वीरभद्र सिंह का (जो कई बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने) पारिवारिक मंदिर है। मुख्य प्रतिमा तंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जिसे साल में केवल एक बार सार्वजनिक किया जाता है। बाकी दिन सोने की भव्य प्रतिमा लोग देखते हैं। मन्दिर परिसर में अतिथिगृह भी है, जिसका संचालन शिमला से राजभाषा अधिकारी करते हैं। आशाजी की फुर्ती और प्रबंध-क्षमता मेरे लिए आश्चर्यजनक थी। सराहन जाने से पहले ही, मेरे तैयार होने तक, उन्होने नाश्ता बनाकर पैक कर लिया था। कपड़े से उसकी ऐसी पैकिंग कि उस ठंढ में भी घंटों बाद पराठे गर्म थे। मैने उनके व्यक्तित्व में पारिवारिक और साहित्यिक गुणों का अद्भुत संगम देखा, जो बहुत दुर्लभ है। जब वे गृहिणी नहीं होती थी, तब अन्तहीन साहित्यिक चर्चा करती थीं। कुल 10-12 परिवारों के उस छोटे-से गाँव के बाहर पतली सड़क के किनारे एक गोल चट्टान थी, जिसपर शाम को बैठकर हम दोनो अपनी कविताओं का विनिमय करते थे। जिस दिन मैं लौटा, वे रामपुर बुशहर तक छोड़ने आयी थीं। मुझे लगा ही नहीं कि उनसे मेरी मुलाकात अभी-अभी हुई है । एक उदास मन लेकर मैं भी शिमला लौट आया और वे भी अपने घर लौट गयीं।
उनके साथ बैठकर रामपुर बुशहर में प्रतिवर्ष अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मेलन करने की योजना भी बनी, जिसे तीन-चार वर्षों तक उन्होने कार्यान्वित भी किया, मगर व्यस्तता के कारण पुनः गौरा जाना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ। जब मैं देहरादून आया, तब एक दिन अचानक आशाजी एक महिला साहित्यकार के साथ वर्षा में भींगती हुई मेरे घर पहुँचीं। तबतक वे गृहिणी से खानाबदोश हो चुकी थीं। छोटे बेटे ने घर में ऐसा उत्पात मचाया कि उन्हें अपने पति के श्रम से अर्जित डीह और अपने श्रम से पाले फलों के बगान को त्याग कर शिमला के वर्किंग वीमेन हॉस्टल में शरण लेनी पड़ी। दो साल तक वहाँ काटने के बाद वे भटिंडा आकर एक अखबार में काम करने लगीं। 6-7 महीने वहाँ रहने के बाद डेढ़ साल तक परवाणु में अपने मामा के मकान में रहीं। वहाँ से खतौली एक आश्रम में आयीं, जहाँ डेढ़ साल रहकर वे समझ गयीं कि वह आश्रम बाहर से जैसा दीखता था, वैसा भीतर से नहीं है। उसका स्वामी ही कत्ल के अपराध में घर से भागकर साधू के वेश में छिपा हुआ था। उसी दौरान वे हरिद्वार और हृषीकेश के आश्रमों में भी स्थायी रूप से रहने के लिए चक्कर काटती रहीं, मगर जब उन्हें विश्वास हो गया कि वे साधू वेशधारी अर्थ-लोलुप ‘बैरागी’ उनसे गाँव की जमीन बिकवाकर सारा पैसा भी ऐंठ लेंगे और जीवन के अंतिम दिनों मेंकलम छुड़वाकर बर्तन मलवाएँगे, तब उन्होने यह विचार छोड़ दिया। इसके बाद 2001 में वे सितारगंज जाकर अपने भाई के पास एक मकान लेकर रहने लगीं।
सन् 2007 में वे लालकुआँ आकर रहने लगीं, जो हल्द्वानी से दस किमी दूर है। यहाँ से उतना ही दूर पंतनगर विश्वविद्यालय भी है। यहाँ भी कई घरों को बदलने के बाद अब वे बिन्दुखत्ता मुहल्ले में मन के अनुकूल घर पा गयी हैं, जिसमें वे स्वतंत्रतापूर्वक एक सम्पूर्ण साहित्यकार के रूप में रहती हैं। अपने लेखन के अलावा कम्प्यूटर पर दूसरे नवोदित रचनाकारों की पुस्तकें भी अल्प पारिश्रमिक लेकर कम्पोज करती हैं। दौड़भाग कर आइएबीएन नम्बर भी आबंटित करा लिया है और आरती प्रकाशन चला रही हैं, जिसके अन्तर्गत उनकी पुस्तकें काँटों का नीड़(कविता संग्रह), शजरे-तन्हा(गज़ल संग्रह) पीर पर्वत(गीत संग्रह) छपी हैं। किताब घर से प्रकाशित इनका ‘हिमाचल बोलता है’ बहुत चर्चित हुई है। उन्होने बच्चों के लिए ‘दादी कहो कहानी’ और ‘सूरज चाचा’ पुस्तकें भी लिखी हैं। इसके अलावा ‘शैलसूत्र’ त्रैमासिक तो तलवार की तरह हमेशा उनके सिर पर लटकती ही रहती है। आशाजी ने भरसक प्रयास किया कि सरकारी विभागों से कुछ विज्ञापन मिल जाए, तो आर्थिक चिन्ताओं से राहत मिले, मगर जब वहाँ इनसे कहा गया कि पूजा के तौर पर स्वीकृत राशि का आधा पैसा नकद रूप में पहले देना होगा, तो भ्रष्टाचार की उस सड़ांध से नाक दबाकर भाग निकली।
पिछले दिनो मैं पंतनगर गया हुआ था, जहाँ से समय निकालकर लालकुआँ भी गया । वहाँ बिन्दुखत्ता में ‘औरतोंवाली दूध की डेरी’(महिला दुग्ध संग्रह केन्द्र) के ऊपर उनके स्वतंत्र आवास में एक दिन रहा भी । उनका आतिथ्य और एक स्वतंत्र साहित्यकार के रूप में उनका ठाठ देखकर दंग रह गया। जहाँतक आर्थिक सुरक्षा की बात है, वे रोज कुआँ खोदती हैं, रोज पानी पीती हैं। फिर भी चन्दा पर खेती और सूरज पर खलिहान बनाने की उनकी आशा अभी जिन्दा है।