चन्द्रकला / पूनम मनु

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"बहन किसी को बतइयो ना ... देख तुझे कसम है मेरी।" चन्द्रकला रोशनी का हाथ थामे बार-बार अपनी बात दोहराए जा रही थी।

"ना ... ना, तू चिंता मत कर, मुझ पर थोड़ा तो एतबार कर। तूने क्या पहले ना बताई मुझे कई बातें। मैंने क्या आजतक किसी को भी बताई या कोई भी तेरी बात बाहर आई ... बता!" उसके काँपते हाथों को अपने हाथों में ले उन्हें थपथपाकर तसल्ली देती रोशनी बोली।


-पर ... बता तो सही, बात क्या हुई. रोशनी बात सुनने को अधीर हो उठी।

उसके इस आग्रह पर कि घर चल तुझे कुछ बताना है पर रोशनी सब छोड़ उसके घर दौड़ी चली आई थी।

चन्द्रकला की साँसों की चढ़ती उतरती धौंकनी को संयत करने की कोशिश में लगातार उसकी पीठ को सहला कर उसका साथ देती रोशनी उसकी आँखों की पलकों में चटक-चटक रंगों के उतरते सपनों को काफी देर महसूसती रही।

भरी दोपहरी में मिट्टी से बने एक बड़े से कमरे के भीतर दोनों में होती खुसर-पुसर किसी और को सुनाई न दे इसलिए कमरे के कपाट भी बंद कर लिए थे दोनों ने। कमरे में घुप्प अँधेरा होने पर भी दोनों की आँखें अंधेरे में सब देखने की अभ्यस्त होने के कारण एक दूसरे को अच्छे से देख-सुन पा रही थीं।

डरे होने के बावजूद अपने होंठो पर हर क्षण के अंतराल पर तैर आती मुस्कान संभाली न जा रही थी चन्द्रकला से। बात एक माह पहले की थी पर, बता अब रही थी। हिम्मत कर कह ही गई-

" बहन, क्या बताऊँ ... वे दो थे। एक ने मुझे मक्का के खेत में खींच लिया। पहले तो मैं बुरी तरह से डर गई. आवेश में आकर चीखती उससे पहले ही उसने मुझे अपने सीने में भींच लिया। जाने क्या था उसमें कि उसकी देह गंध जैसे ही मेरी नाक से टकराई. मैं होश खो बैठी। उसके सीने में भिंची-भिंची मैं मोम-सी पिघलने लगी।

क्षण भर वह रुकी। घूंट-सा भरा उसने। मानों गुलाबों के शर्बत से गला तर किया हो।


-उसने अपने होंठ मेरे होंठों पर रखे तो मेरा रोम-रोम सुलग उठा ... उसकी हथेलियों की निर्ममता मुझे बुरी नहीं लगी रोशनी । उसने सटाक से मेरा सूट मेरे बदन से अलग कर दिया। उफ़्फ़... मत पूछ ... मुझसे मत पूछ। कितना अनोखा था सब मेरे लिए. कितना अनोखा। मैंने अपने आपको आराम से उसके हवाले कर दिया था।

दूसरा खेत के बाहर खड़ा रखवाली करता रहा।

जब पहले का जी भर गया तो दूसरा आ गया। उसने अभी शुरुआत भी नहीं की थी कि रहमान काका जो दूधिया हैं... उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई "कौन है ... कौन है वहाँ?" तो वह जो दूसरा था न ... चुपचाप भाग निकला। जब तक काका मुझ तक पहुँचते मैं कपड़े पहन कर दूसरी जगह पर पहुँच चुकी थी। "

"हे राम... चुप कर... बेशर्म, चुप कर ... रोशनी का चेहरा उसकी बात सुन क्रोध और लज्जा से तमतमाने लगा।" तुझे शर्म नहीं आती ऐसी बकवास करते ... कह दे झूठ है सब। "

उसे यकीन नहीं हो रहा था कि कोई लड़की अपने साथ हुए इस तरह के अमानवीय व्यवहार को बड़ी खुशी और प्रसन्नता के साथ बयान कर रही थी।

"न बहन, मैंने बुलाया था उन्हें। न ही कुछ खास विरोध किया ... तुझे पता है, मैं झूठ तो कम ही बोलती हूँ।" लापरवाही से चन्द्रकला ने जवाब दिया।

"तुझे पता भी है तेरे साथ क्या हुआ है... क्या कहे जा रही है तू। बेवकूफ तेरी इज्ज़त लूटी है उन्होंने और तू। इतनी मूर्ख तो नहीं है तू, जो ये न जानती कि जिस लड़की की इज्ज़त लुट जाती है उसे समाज कभी स्वीकार नहीं करता। किसी को पता चलेगा तो कहीं भी मुंह दिखाने लायक न रहेगी तू।"

रोशनी उसके ऐसे बोल और लापरवाही भरे अंदाज़ पर क्षुब्ध हो, बरस पड़ी।

राम राम कह कानों को हाथ लगाती रोशनी के हाथों को अपने हाथों में भींच चन्द्रकला बोली-"तू सही कहती है। तेरा गुस्सा होना भी ठीक है। पर मेरी तो तू एक ही सहेली है। तुझे अपने दुख-सुख न बताऊँगी तो किसे बताऊँगी। इतनी घिन न कर मुझसे। मेरी हालत क्या तुझे पता ना है। मुझे डांट, पर नाराज़ ना हो।"

स्वर के रूआँसेपन में कमरे का घुप्प अँधेरा भी जैसे घुल गया था। रोशनी कुछ समझ न पा रही थी कि इन परिस्थितियों में वह क्या करे। वह एकटक सामने बैठी चन्द्रकला को देखती रही।

इतने घने अंधेरे में दरवाजे की झिर्री से निकलती मामूली-सी रोशनी में भी चन्द्रकला का गौरवर्ण मुख पुर्णिमा के पूरे चाँद-सा चमक रहा था। हाँ... उस पर उपजे भावों को पढ़ना अवश्य कठिन होता। उस समय। उस कमरे में। रोशनी की जगह यदि कोई और होता।

जाने किस बात पर सूर्यदेव कुपित हो उठते हैं मई जून के महीने में। या कोई घाव है उनका जो रिस-रिस इन दिनों उन्हें ज़्यादा तकलीफ देता है कि उनसे हजारों करोड़ों किलोमीटर की दूरी पर बहती शीतल हवा भी उनकी इस तपन से लू बन जाती। जाने उनके दर्द में कौन उनका साथ देता होगा इन कठिन दिनों में। खैर... कुदरत की बात है कुदरत जाने।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी भले कुछ हो इसका कारण। पर उन दोनों सखियों की इस बात पर कई-कई बार लंबी बहस चलती। एक कहती रात प्रिये न पास न लगाए होंगे सो कुपित हैं। दूसरी कहती नहीं रे ये दुख तो कुछ और ही है।

उनके इस रौद्र रूप का इस लोक वासी जब भी सामना कर रहे होते उस दौरान इन दोनों सखियों का एकमात्र ठिकाना चन्द्रकला के घर का कच्ची मिट्टी व कड़ियों, फूस से बना बिना एक खिड़की, रोशनदान वाला बड़ा-सा यही कमरा होता। जिससे बाहर की आग बरसती तपिश से जरा-सी ठंडक मिल जाती और दोनों को बे रोक-टोक अपनी मन की अद्भुत रहस्य-रोमांच से भरी बातें कहने का अवसर भी।

पर आज बात दूसरी थी। रोशनी को बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि इस बात को वह कैसे स्वीकार करे कि एक लड़की का बलात्कार हो और वह इस घटना से घृणा कर दुखी होने के बजाय प्रसन्न हो।

चन्द्रकला उम्र में उससे चार साल बड़ी थी। पर उन दोनों में उम्र का फासला महत्त्वहीन था। किशोरवय से जवानी की ओर कदम बढ़ाती रोशनी पल प्रतिपल होते शारीरिक मानसिक परिवर्तनों को जब भी महसूस करती वह चन्द्रकला की ओर चली आती। इस उम्र के हर अनसुलझे रहस्य को वह चन्द्रकला के समक्ष रख उनका मतलब जानना चाहती। और उसकी उम्र से सम्बन्धित हर समस्या का निराकरण चन्द्रकला बड़े धैर्य से उसकी बात सुन, कर देती। वह अपने अनुभवों का खज़ाना उसके सामने खोल-खोल रखती जाती जब तक कि उसकी हर जिज्ञासा का उत्तर उसे न मिल जाता।

खूब पढे लिखे परिवार की पढ़ी लिखी बेटी थी रोशनी। पैसों में हो न हो पर रुतबे में उसका परिवार उस गाँव में सबसे ऊपर था। ka कम मिलनसार स्वभाव वाली रोशनी की केवल एक ही सखी थी चन्द्रकला। जो बिलकुल निर्धन किसान परिवार की बेटी थी।

तीन भाइयों की एक बहन। उससे डेढ़ साल बड़ा उसका एक भाई प्रह्लाद रोशनी के घर में उसके भाइयों की देखभाल व खानपान का ख्याल रखता था। रोशनी के भाई राजनीति में थे इसलिए कह लें कि भाई साहबों की खिदमत में लगा रहता था। ताकि उनकी साख और उनका हाथ अपने ऊपर होने की वजह से वे सुरक्षा महसूस कर सके. बड़ा भला था प्रह्लाद। घर के गेंहू पिसवाने से लेकर हर आए-गए की आवभगत करने का काम बखूबी कर लिया करता था।

समय-समय पर उसी को घर बुलाने आती उसकी बहन चन्द्रकला कब उसके मनगुन की सुनने वाली उसकी प्यारी सखी बन बैठी रोशनी को पता भी नहीं चला।

रोशनी के घर में औरतें शतरंज और ताश खेलतीं तो चन्द्रकला कंचे, पाँव टेकन, गिट्टियाँ खेलती। ऐसे अद्भुत खेल रोशनी को खूब भाते और उसका जब भी पढ़ाई से मन ऊबता वह चन्द्रकला के पास ऐसे ही मजेदार खेल खेलने पहुँच जाती। जहाँ पर चन्द्रकला की मोहल्ले की और भी कई छोटी-बड़ी लड़कियाँ होतीं। पर रोशनी केवल चन्द्रकला से ही खुली हुई थी। बावजूद इसके वह सबके संग खेल लिया करती।

चन्द्रकला निपट गंवार और वह बारहवीं करती छात्रा। दोनों में कोई मेल नहीं था। पर मन और प्रेम कब कोई भेद मानते हैं। जिससे प्रेम हुआ मन उसी का हो गया। फिर न कोई ऊंच न नीच, न कोई जात न पांत।

चन्द्रकला से मेलजोल पर रोशनी के घरवालों को कोई खास एतराज़ तो न था पर उसके चन्द्रकला के घर पर बार-बार या जल्दी-जल्दी जाने पर ज़रूर असहमति की स्थिति बनती। पर रोशनी इस बात पर ... एक दो बार तो कान धरती पर फिर अपने उस पुराने ढर्रे पर ही आ जाती।

किशोर उम्र हर व्यक्ति के जीवन का बहुत खास दौर है। इस दौर के हर किशोर / किशोरी में इतनी जिज्ञासाएँ होती हैं जिनका कोई अंत नहीं। ये किशोरी भी जिज्ञासाओं से भरी-

कोई एक लड़का भी पलट कर हँस देता तो मन में होती गुदगुदी तक चन्द्रकला को बता आती। स्कूल में आने वाले नए टीचर की स्मार्टनेस का वह जब तक बखान करती तब तक कि चन्द्रकला उससे इस बात पर बार-बार चुहल न करने लगती।

सपनों के राजकुमार के बारे में बतियाती तो न जाने क्यों चन्द्रकला इस बात पर चुप लगा जाती। उसकी आँखों में तैरते विरानेपन को रोशनी कभी समझ न पाई. कई-कई बार के दबाव के बाद भी चन्द्रकला ने उसे अभी तक नहीं बताया था कि उसे कैसा पति चाहिए था। इस बात को कई बार कुरेदती वह।

वह जब भी इस बात पर उसे अपनी कसम देने वाली होती तभी चन्द्रकला अपना नन्हा-सा हाथ उसके मुख पर रख देती, "ना बहन ... कसम मत दे। किसी दिन मैं तुझे खुद बता दूंगी। पर अभी कुछ मत पूछ।"

इस बात पर उसकी आँखों में आँखें डालती रोशनी "पक्का" कह वादा लेती तो चन्द्रकला नम आँखों से मुस्कुरा देती।

पर इस बात के ज़िक्र के बाद वह न तो कोई खेल खेलती और न ही किसी लड़के लड़की की प्रेम कहानी बताती जो इन दिनों गाँव में चल रही होती।

मन में होती धुक-धुक पर रोशनी फिर बोली "चन्द्रकला..."

"ऊँह ..." चन्द्रकला जैसे कहीं खोई थी।

अज़ब मुस्कान से लबरेज उसके सामान्य से थोड़ा मोटे होंठ बहुत ही सुंदर लग रहे थे। वह इतमीनान से चारपाई पर पसर गई.

'तू भी लेट जा ... मुझे तो नींद-सी आ रही है। आलस-सा भर गया है देह में।'

रोशनी आश्चर्य से उसके कार्यकलाप देखती रही। स्वयं कुछ बताने को उत्साह से बुलाकर लाई. पर इस बात पर न कोई सोच न विचार। जैसे बात कुछ खास न हो। हद है।

जबकि सब सुन रोशनी का चैन जाता रहा। काफी देर असमंजस में रही वह। सूझता तो सोचती कुछ। सोचती तो कुछ निष्कर्ष निकलता। निकलता तो बताती।

घुप्प अंधेरे की ठंडक में भी जैसे वह किसी आग से जल उठी। उसने झिंझोर कर चन्द्रकला को उठाना चाहा पर चन्द्रकला जब तक गहरी नींद में डूब चुकी थी।

आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि वह उसके घर आए और चन्द्रकला उसका अनादर कर ऐसे पाँव पसारकर सो जाये। वह तो खुद उसके आने की सदा प्रतीक्षा करती रहती थी। उसकी दोस्ती पर वह सदैव गर्व से भरी रहती थी।

जहाँ रोशनी अपनी नई-पुरानी श्रंगार की चीजें अक्सर उसे भेंट करती रहती थी। वहीं चन्द्रकला कहीं उसे कच्ची अमिया खिलाकर उसका रहस्य बताती तो कभी खट्टी इमली में नमक-मिर्च मिलाकर शरीर के विकास का रोमांचक नुस्खा और वह आश्चर्य से भर उसके हर नुस्खे का उपयोग / उपभोग करती जाती।

सी...सी ... कर खट्टी इमली या खट्टी अमियाँ में मिली मिर्च खा जब दोनों एक दूसरे के पीछे दौड़ लगातीं तो पुराना पलंग अपने दायें बाएँ उन मस्तानियों को दौड़ते देख भयभीत रहता कि उनकी मस्ती से वह अब टूटा और अब गया।

बाहर औसरे में अपने पुराने बदबूदार घाघरे और कमीज़ में लिपटी उसकी अस्सी किलो की माँ पसीने से लथपथ भिनभिनाती मक्खियों पर खीज उतारती हुई जब चिल्लाती तो दोनों ही दम साध चुप पलंग पर एक दूसरे पर गिर जाने कितनी-कितनी देर खी खी... करती हुई एक दूसरे को चुप होने का इशारा करती हुईं अपने मुंह में अपना-अपना दुपट्टा ठूँसे जातीं।

पर आज ...

रोशनी को ये बात बहुत नागवार गुज़री।

वह धीरे से उठी और कमरे के कपाट खोल चुपके से निकल आई चन्द्रकला के घर से। आज उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। ढलती दोपहरी में जब भी वह घर के लिए निकलती तो सदा चन्द्रकला साथ होती उसके.

जाने क्यूँ उसे उजाड़ दोपहरी में भी गाँव की सुनसान गलियों से गुजरते डर नहीं लगता था। तभी तो वह उसे सकुशल उसके घर पहुँचाकर अकेली ही अपने घर भी चली जाया करती थी।

कई बार पूछा भी उसने "चंदरू, तू जो मुझे घर छोड़ने को चल देती है। तुझे अकेले उधर से लौटते डर नहीं लगता। किसी ने तुझे रास्ते में रोक लिया तो, किसी ने तेरे साथ गंदी हरकत कर दी तो।"

वह ज़ोर से हँसते लापरवाही से उससे कहती "नहीं बहन मुझे डर नहीं लगता, डर जैसा कुछ होता तो डरती न।"

तब वह उसकी बात को समझ असमझ से परे रख बस उसकी हंसी में उसका साथ देते हुये कहती ' चल ठीक है... काश मैं भी तेरे जैसी होती ..."

"ना ..." वह रुक उसके होंठो पर हाथ रख देती ... "ऐसा मत कह बहन, अपने जैसी मैं एक ही ठीक हूँ।"

'चल तू ही शेरनी बन ले' वह अपने होंठों पर से उसके हाथ हटाते हुये उसे आगे चलने का इशारा करती।

दोपहर से शाम और रात से सुबह। रोशनी इसी उधेड़बुन में रही कि इस समस्या में वह क्या करे। कभी सोचती माँ से बात करे कभी सोचती भाभी से बात करे। पर सोच-सोच संकोच में रही कि यदि भाभी या माँ को ये बात पता चली तो चन्द्रकला का तो पता नहीं क्या हो पर उसे करारी फटकार ज़रूर ही पड़ने वाली थी।

पढ़ने-लिखने की उम्र में लड़कियों लड़कों के सम्बन्धों की बातें। उसके घर में तो वैसे ही हर छोटे बड़े का लिहाज रखते हुये हर सम्बंध हर रिश्ते की अपनी मर्यादा का मान करने / रखने की सख़्त हिदायत दी जाती थी और ये बात तो बहुत ही छिछोरी मानी जाती परिवार में।

उफ़ क्या करे क्या नहीं। सखी थी इसलिए छुपाव ज़रूरी था।

उसे चन्द्रकला के लिए बहुत बुरा लग रहा था। आज के उसके प्रति चन्द्रकला के व्यवहार से उसे क्षोभ तो था पर उससे ज़्यादा चिंता उसी को लेकर थी। उस बेवकूफ के साथ बलात्कार हुआ और उसे इस पर अफसोस तो दूर की बात तनिक लज्जा भी नहीं स्वयं पर।

कोई और लड़की होती तो रो-रो हलकान हो जाती अब तक। दोषियों को सज़ा देने की बात करती। पर यहाँ तो ... कोई खेद ही नहीं किसी प्रकार का। कहती है "न मैंने बुलाए और न ही मैंने कोई विरोध किया"।

बातें तो देखो ऐसी करती है कि किसी को बिना बताए पता भी न चले कि ये पढ़ी-लिखी नहीं है। कमाल है। कैसी लड़की है ये जिसे अपने मान-अपमान की ज़रा भी चिंता नहीं।

उसने सुना तो था कि दलितों / हरिजनों की लड़कियों / स्त्रियों की कोई इज्ज़त नहीं होती पर मानती न थी। मानने का सवाल भी नहीं उठता था क्योंकि वह घटना उसे अभी तक जस की तस याद थी जब उन्हीं के गाँव की हरिजन हरदेई काकी ने एक बड़े रईस खाँ साहब के मुंह पर जूतियाँ ही जूतियाँ बजाई थीं भरी अदालत में। मात्र उन्हें बुरी नीयत से छू लेने भर पर भी।

स्वयं उसके बाबू जी ने यह मुकदमा लड़ा था। उस खाँ साहब के खिलाफ।

लड़कियों में हिम्मत होनी चाहिए चाहे वे किसी भी जाति-धर्म की हों। अपना मान यदि वे स्वयं नहीं करेंगी तो कोई उनका मान-सम्मान क्यों करेगा इस विचारधारा की रोशनी को बहादुर चंद्रा का यह बर्ताव बिलकुल समझ नहीं आ रहा था।

इससे भी ज़्यादा इस बात पर अफसोस था कि देश की रक्षा के लिए तैनात किए गए ये रक्षक अपने ही देश की लड़कियों के लिए भक्षक कैसे बन गए?

बात गहरी थी। समझ से परे। उम्र कमसिन।

उसके गाँव की सीमा पर एक बड़ी नदी बहती थी। जिसके किनारे पर दो एक वर्ष पूर्व ही अपने देश की थल सेना की किसी बटालियन ने अपने अभ्यास परीक्षण हेतु कैंप लगाए हुए थे। गर्मियों में इन दिनों हर ओर जंगल में फौजी ही फौजी दिखते थे।

चन्द्रकला ने उसे कई बार बताया था कि "बहन आजकल नहर किनारे फ़ौजी आए हुए हैं इसलिए खेतों में अकेले जाते अब घबराती हैं लड़कियाँ।"

किताबों में फ़ौजियों की बहादुरी और ज़िंदादिली के किस्सों को बहुत बार पढ़ा था उसने और इसी कारण उनके प्रति उसके मन में सम्मान का अथाह सागर भरा हुआ था। इसी से लबरेज वह कई बार कह उठती -"तो क्या हुआ ...? बल्कि बढ़िया है बियाबान सुनसान जंगल में अब हादसे नहीं होंगे या न के बराबर होंगे क्योंकि हमारे बहादुर फौजी हमारे रक्षक वहाँ पर अपना डेरा जमाए हुए हैं।"


-"बहन तू न समझेगी... पढ़ी-लिखी है न।" चन्द्रकला उसकी बात को हवा में उड़ाते हुए कहती तो वह असमंजस से उसकी ओर घूरती रह जाती। वह समझ न पाती कि पढ़ीलिखी होने का मतलब इन निपट गंवार अनपढ़ों की नज़रों में कई चीजों में बेवकूफ होना क्यों है।

आज समझ आ गई उसकी बात उसे। किताबों को पढ लिख सच को सीखने से ज़्यादा ज़िंदगी से सीखे में अधिक सच्चाई है।

फ़ौजियों द्वारा बलात्कार उसके लिए किसी मानसिक आघात से कम न था। सैनिकों की बहादुरी की कहानियों को पढ़ते हुए उनके प्रति असीम फख्र / गर्व से भर मन में उनके प्रति सम्मान से उपजती तरंग के बहाव से अभिभूत होते उसका रोम-रोम फड़कने लगता। साहस और दिलेरी के उस क्षण में वह भी अपने आपको एक सैनिक एक फौजी समझने लगती। उस वीर रस में डूब जोश से भर वह सोचती पढ़ लिख वह भी सेना में जाएगी।

पर आज ... जो उसने सुना। उसका मन धिक्कारने लगा ऐसे फ़ौजियों को। अगर फौज के रहते हर लड़की हर स्त्री अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे तो धिक्कार है ऐसी फौज पर।

उसके गाँव की लड़कियाँ गवाह हैं जो अपने खेतों में जाते, जंगलों में जाते फ़ौजियों के नाम से ही घबराने लगी थीं।

पर ये बेटियाँ हैं न ... लड़कियाँ हैं। नहीं बता पातीं अपने पिता को न भाई को कि जिन्हें बहादुर सैनिक समझ आज तुम इनका मान-सम्मान करने अपने घर दूध, मट्ठा पिलाने ले आए हो और इन्हें चारपाई पर बैठा खुद नीचे बैठ इतना मान दे रहे हो दरअसल ये बहादुर नहीं तुम्हारे मान के लायक नहीं।

उफ कैसी विडम्बना है।

पुरुष हर हालत में वहशी है चाहे वह बेरोजगार हो या कोई फौजी. स्त्री के लिए सभी के मन में एक ही चीज बसती है और वह है हवस। अकेली और मजबूर स्त्री देखी नहीं कि बस इनमें छुपा भेड़िया निकल आता है बाहर। इनका शिकार करने हेतु।

छि ...! अब न यकीन करेगी वह इन किताबों में लिखी बातों पर। जब तक सच्चाई को स्वयं न परख लेगी।

सारी रात जद्दोजहद में निकल गई.

स्कूल जाने का मन न हुआ, न गई. रोजाना जाने की कोई पाबंदी तो उस पर थी नहीं। बल्कि गाँव में रहकर यही बेहतर था कि रोज स्कूल कॉलेज जाने की बजाय घर पर बैठकर ही पढ़ाई की जाए.

उठते ही सुबह सबसे पहले उसने मन में यह निश्चय किया कि आज वह चन्द्रकला के घर नहीं जाएगी। उसे उसके इस व्यवहार पर बहुत क्षोभ था। बावजूद वह सारी रात उसके केवल उसके लिए ही सोचती रही थी।

एक दिन, दो दिन कई दिन गुजर गए. उसका मन बार-बार चन्द्रकला की ओर जाने को करता पर यह सोच वह मन मसोस रह जाती कि उसे आना चाहिए था। उसे मनाने के लिए. उसका भरी दोपहर में अकेले चले आना इस बात का सबूत था कि वह चन्द्रकला के उस बर्ताव से बहुत दुखी ही नहीं क्रोधित भी थी।

पर दोनों ओर का मौन किसे कितना डस रहा था। दोनों में कोई नहीं जानती थी।


-"रोशनी ... ओ, रोशनी देख, तेरी सहेली आई है चन्द्रकला।" माँ ने औरतों की बैठक में से आवाज़ लगाई.

वह अंदर अपने कमरे में बैठी किताब को उलटते पलटते छोड़ बैठक में दौड़ी आई. -"चन्द्रकला ..." वह खुशी से फूली न समाई.

दौड़ कर वह उसके गले लग जाती यदि माँ वहाँ न बैठी होतीं। वह माँ की इस रोक से पूरी तरह वाकिफ थी कि "चन्द्रकला से थोड़ा दूर से ही बात किया कर ... इतनी साफ-सफाई कहाँ रखते हैं ये लोग।"

बाद इसके उनके इस सुझाव को उसने कभी नहीं माना था। कुछेक अपवाद छोड़ दें तो बाकी लड़कियाँ भी चन्द्रकला की तरह ही साफ-सुथरी रहती थीं। बेशक उनके पास साफ-सफाई के साधन कम थे।


-"चल घर ... चल ... आज घर पर कोई नहीं। माँ मामा के घर गई है। प्रह्लाद भैया के लिए लड़की देखने।" उसे अपने कमरे की ओर खींचते उसके हाथ को थाम चन्द्रकला बोली।

रोशनी ने माँ से जल्दी आने का वादा किया तो उसकी मनुहार पर माँ ने कुछ हिदायतों संग उसे जाने की आज्ञा दे दी।

सारे रास्ते बतियाते चुहलबाजी करते कब चन्द्रकला के उस बड़े से भयावह एकलौते कमरे में पहुँच गई रोशनी। पता भी नहीं चला। उसके दोनों छोटे भाई औसारे में पड़ी टूटी-सी खटिया पर पड़े सो रहे थे।

अपने घर में ज़रूरत की हर सुख-सुविधा के होते भी जाने कैसा-सा सुकून था जो रोशनी को चन्द्रकला के घर के नाम पर बने इस एकलौते कमरे में मिलता था। कितनी ठंडक रहती थी वहाँ। न मच्छर न मक्खियों की भिन्... भिन्न। या इसके अलावा भी था कुछ और वहाँ जो बताने और समझने से ज़रा परे था।

चन्द्रकला की दादी की एकमात्र निशानी वह बड़ा पलंग उन दोनों की दोस्ती का चश्मदीद गवाह था। चश्मदीद इसलिए कि उसमें बुनाई के दौरान छोड़ी गई जगहें रोशनी को उसकी सैंकड़ों आँखें लगतीं।


-"तू इतने दिनों से क्यों नहीं आई और अब क्यूँ चली आई, क्या तुझे पता नहीं था कि मैं तुझसे नाराज़ थी।" रोशनी ने झूठ मूठ रूठने का-सा मुंह बनाया।

चन्द्रकला खिलखिलाकर हंस पड़ी। -"बहन... तू ही कितना आई ये देखने कि मैं ज़िंदा भी हूँ कि मर गई."


–चुप कर। उसकी इस बदशकुनी जुबान पर लगाम कसने हेतु रोशनी उसे हड़का बैठी।

थोड़ी ही देर में चन्द्रकला मुद्दे पर आ गई.


-" तू उस दिन पूछ रही थी न कि तेरे साथ इतना कुछ हो गया... और तुझे ज़रा भी लाज नहीं आ रही।

तो सुन

... ये जो मेरी कमर पर उभरा कूबड़ है ना सब इसी की करामात है। आज मैं तुझे बताती हूँ कि भरी दोपहरी में सुनसान गलियों, खेतों, जंगल में अकेले जाने की अपनी साहस भरी कथा ... साहसी, शेरनी, बहादुर जाने क्या... क्या कहती रहती हैं ना ...

तो तू सुन...

बहन जब मैं ग्यारह साल की थी तो कमला भाभी ने ईर्ष्यावश आँगन में मिट्टी लेपने के वास्ते पीली मिट्टी से भरा मेरा तसला मेरी गुहार पर कि 'मेरे सिर पर रखवा दो'–मेरे सिर पर इतनी ज़ोर से पटका कि मेरी गर्दन अंदर को ठुक-सी गई. इसी कारण बाद के वर्षों में मेरे शरीर का विकास तो न हुआ अलबत्ता एक कूबड़ मेरी पीठ पर ज़रूर निकल आया। जिस वजह से किसी भी शारीरिक परिवर्तन का अनुभव मुझे नहीं हुआ।

इसी कूबड़ के कारण मेरा मात्र साढ़े चार फुट का शरीर सभी के लिए महत्त्वहीन हो गया। कोई नज़र भर भी न देखता मुझे और जो देखता उपहास से भरी हेय दृष्टि के साथ।

कुबड़ी ... कुबड़ी कह लोगों का मुंह न थकता। मेरे मन पर होते आघातों का किसी को एहसास तक न होता। आगे से भी सपाट शरीर इसी एक शब्द के साथ सब लड़कों की नज़रों में और भी हीन हो गया।

किसी की भी प्रेम भरी एक नज़र को तरसती मैं तुम्हें साहसी, शेरनी और बहादुर दिखती रही।

माँ बाबा शुरू-शुरू में मेरे उभरते कूबड़ को देख, दुखी रहते पर ... जैसे-जैसे समय गुजरा अपनी उम्र की लड़कियों से इतर जब मेरा अंधेरे सुनसान वीरान खेत, जंगल में जाने का, लड़की होने का भय माँ बाबा के दिमाग से निकल गया तो जैसे उनहोंने भी संतोष की एक सांस ली।

एक लंबी श्वास भर उसने अपनी बात जारी रखी-


-जहाँ पर लड़कियाँ जाने से हिचकिचाती हैं। वहाँ पर बिना मेरे किसी भय के चले जाना सभी को सुकून देता। इस तरह मैं एक इंसान, एक लड़की होने की बजाय बस एक मशीन होकर रह गई. लड़के थकते हैं। लड़कियाँ थकती हैं। पर कुबड़ी ... नहीं वह तो दोनों से अलग है ना...

उसकी आँखें अब नम होने लगीं थीं। उसके साथ रोशनी की भी।


-अपनी उम्र की लड़कियों को जब भी किसी लड़के या अपने भावी पति के सपने सजाते देखती, सुनती तो मेरे हिय में उठती मूक क्रंदन की हुक किसी को समझ न आती। शादी के लिए मेजपोश काढ़ते, थैला काढ़ते, बीजना बनाते, जर्सी, स्वेटर बुनते जब भी मैंने उन लड़कियों से उनके हृदय में मचलते वेगों पर कुछ कहना सुनना चाहा उनकी ओर से मिलती झिड़कियाँ मेरी आत्मा को कितना-कितना तड़पा जाती रहीं है। तुझे क्या बताऊँ मैं। "

रोशनी हतप्रभ अचरज से भरी चन्द्रकला के मुख पर उभरते भावों को सुनती पढ़ती देखती जाती रही। उसके शब्दों से पिघला बहता दर्द उसके कानों में भाप-सी पैदा कर रहा था। मन-मस्तिष्क सुन्न था।

उसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि उसकी सखी उसकी सहेली इतना दर्द दबाये थी अपने भीतर। इतनी वेदना से गुजरती रही आजतक। उसके कुबड़े होने से तो उसे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। यह उतना ही सत्य था जितनी उनकी दोस्ती।

पर आज लगा वह कूबड़ मात्र मांस मज्जा से भरा उसके शरीर का कोई अवांछित अनपेक्षित भाग ही नहीं था अपितु चन्द्रकला के सभी टूटे सपनों का बोझ, सभी की झिड़कियों से मिले अपमान व अपने को औरत जात ही नहीं वरन इंसान होने से भी नकार दिये जाने से उत्पन्न उसके दर्द का भंडार था।

ओह! तो किसी मर्द का उसे औरत की श्रेणी में लाना ही उसके आनंद का अतिरेक था...?

चाहे यह स्थिति कैसे भी उत्पन्न क्यूँ न हुई हो। वजह ज़्यादा महत्त्व न रखती थी यहाँ। यहाँ उसका इंसान होना, स्त्री होना ही उसके लिए ज़्यादा मायने रखता था।


-"इतनी तो कमी नहीं तुम में कि कोई मर्द...खैर ... मुझे इतना पता है यदि तुम्हारी जगह और कोई लड़की होती तो अपने अपमान पर वह इस तरह खुश नहीं होती। तुम तो भली भांति जानती हो कि तुम एक लड़की हो भले चाहे फिर दुनिया माने न माने" मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों के बाद भी उसने अपने मन में उठे इस प्रश्न को ज्यों का त्यों चन्द्रकला के सामने रख दिया। -"तु न समझेगी ... पढ़ी लिखी है न ..." चन्द्रकला ने अपनी वही पुरानी बात दोहराई तो रोशनी एक दम से तमतमा उठी। -"तू रहने दे ... पढ़ी लिखी होने का मतलब बेवकूफ नहीं होता ... समझी तू...और चाहे तू कुछ कह ले मैं तेरी इस बात से सहमत नहीं। तेरे इस व्यवहार पर आपत्ति है मुझे।" -" नहीं है न सहमत ... मत हो, पर सुन, जिस दिन मेरे साथ ये हुआ उस दिन से मेरे दिल का दर्द मिट गया कि मैं एक लड़की एक औरत नहीं ... मैं हूँ ...

थोड़ी देर ठहर लंबी-सी सांस खींचते अपने फेफड़ों को ताज़ी हवा से पूर्ण करते वह आँखों में चमक लिए फिर बोली-" जानती है उस दिन के बाद मेरे महीने शुरू हो गए हैं। जो आज बीस साल की होने के बाद भी शुरू नहीं हुए थे। मेरे मन की पीड़ा तुझे कैसे समझ आएगी भला ... तू तो सुंदर है ना ... दूसरी लड़कियों की तरह माहवारी व सामान्य जिस्म की मालकिन। तू क्या समझेगी मेरा दर्द। जब 17 साल की होने तक भी मेरे महीने शुरू नहीं हुए तो कोई मुझे बांझ कहता तो कोई हिजड़ा या हिजड़ी ... माँ बाप के जिगर का दर्द न बाँट सकी भले ही पर जानती तो थी मैं। वे बहरे तो न थे कि अपनी जाई के बारे में अनाप शनाप सुन उनके कलेजे से टीस न उठती होगी। सारे दिन माँ को पगलाए घूमते देखना कभी इस पर झल्लाती कभी उस पर चिल्लाती ... ऐसी माँ नहीं थी रोशनी, मेरी माँ ऐसी नहीं थी।

मेरे दुख ने उसे ऐसा कर दिया। चूल्हे पर रोटी बनाते जब भी सेंकती लगता आग के लिए लकड़ी कम लगाती है कलेजे के दर्द को ज़्यादा झोंकती है चूल्हे में ... रोटी कच्ची-पक्की रह जाती। जाने क्या जलाने की कोशिश में अक्सर अपने हाथ जला बैठती। बहुत निपुण होने पर भी।

चमक वाली आँखों में अब आँसू भरे थे।

"महवारी" तो क्या तुझे पहले महिना नहीं होता था। "रोशनी आश्चर्य से भर उठी।" पर तूने तो मेरी पहली महवारी पर कपड़े लेने का सलीका और इससे उत्पन्न पेट दर्द से राहत के कई घरेलू नुस्खे मुझे बताए. "

उसके सवाल पर चन्द्रकला दर्द से भर कटाक्ष हंसी हँसने लगी। "सब सुनी-सुनाई बातें थी। जो मैं तुझे बता देती थी।"

"हें ... मैं तो यही समझती थी कि तुझे भी ..." बाकी बचे वाक्य रोशनी के गले के तंतुओं में फंस गए.

चन्द्रकला रोती रही। रोशनी उसके आँसू पोंछती रही। एक चुप्पी. एक मौन। भीतर कुछ चटकता रहा। सिमटता रहा। बिखरता रहा। किसने कितना समेटा अपने आपको ये तो वक्त को मालूम।

अंदर उमड़ते इस विचार पर रोशनी कई क्षणों तक आवेश से भरी रही बहुत देर तक।

आजकल तो इतने हवशी हैं न छोटी बच्ची देखते हैं न बूढ़ी स्त्री ऐसे में तुम उन फ़ौजियों के व्यवहार से कैसे सोच सकती हो कि तुम्हें एक स्त्री समझ ही उन्होने ये सब किया... ये भी तो हो सकता है तुम बस उनकी हवस मिटाने का एक जरिया थीं। कहना चाहा पर न कह सकी। उसका भरम नहीं तोड़ना चाहती थी वह। उसके साथ कुछ अच्छा होने की दशा में भी वह इस तरह के हादसे को सही नहीं ठहरा सकती थी। तुम्हारे साथ बुरा होने के साथ-साथ कुछ भ्रमों का अंत हो गया बेशक पर यदि यहाँ कोई और लड़की होती तो। उसका वर्तमान और भविष्य सब खराब हो चुका होता। कैसे उबरती वह इस हादसे से।

खैर ... मासूम दिलों के बंधन भी मासूम ही होते हैं।

"चंदरु, चल छोड़ ... जाने दे, जो हुआ सो हुआ उसे भूल जा ... पर आगे कभी अपने साथ ऐसा मत होने देना।" रोशनी उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली

"अब ऐसा कभी नहीं होगा... अब बात और है।" प्रतिउत्तर में चन्द्रकला उसके समर्थन में सिर हिलाते अपने आँसू पोंछते हुए कहा।

एक निश्वास और दोनों के मध्य पसरे मौन ने वातावरण कुछ बोझिल-सा कर दिया।

रोशनी चन्द्रकला का दर्द समझती थी। पर इतना दुख। इतनी तकलीफ । इतनी वेदना ... उफ! इसका तो भान भी नहीं था उसे। वह तो किसी के द्वारा उसे कुबड़ी कहे जाने पर भी अपने चौड़े दांतों को दिखाते हुए उसके सवाल का जवाब हँसकर देती थी। बल्कि वह ही उसे कुबड़ी कहने वाले पर खार खाती थी। न किसी से कोई गिला न शिकवा। कितना कुछ दबाए बैठी थी चन्द्रकला अपने भीतर। आस-निराश-सी वह काफी देर शून्य में ताकती रही। उदास और बोझिल समय में मौन से भला कुछ नहीं।

उसके कहने पर चन्द्रकला उसे घर छोड़ आई.

सबकुछ भूलने में समय लगता है। ये समय का दर्द है जो समय के साथ ही भरेगा जानती थी रोशनी। चन्द्रकला भी इससे अंजान न थी। बल्कि वक्त ने उसे समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था।

समय का निर्बाध गति से चलना जारी था।

उसके आने की खबर सुनते ही दौड़ी आई चन्द्रकला को देख रोशनी खुशी से चिल्लाई

"चन्द्रकला तू ..."

रोशनी चन्द्रकला से कोई 6 माह बाद मिली थी। मौसेरी बहन की शादी में मेरठ गई तो अब लौटी. गर्मियों की छुट्टियाँ भी थी। जो मौसी के यहाँ बिताना चाहती थी पर मौसी की आँख के ऑपरेशन के बाद उनकी देखभाल के कारण उसे और ज़्यादा दिनों तक वहाँ रुकना पड़ा था।

दोनों एक दूसरे के गले लग एक दूसरे को देख-देख मुसकुराती रहीं। चन्द्रकला को कितनी खुशी मिली ये तो वही जाने पर चन्द्रकला को देख रोशनी चहक-चहक जाती रही।

उस घटना को घटे लगभग 8 माह हो गए थे। चन्द्रकला के सीने के उभार ने उसे इतना सुंदर सलोना रूप प्रदान किया था कि वह एक सामान्य सुंदर युवती ही लग रही थी। उसका कूबड़ न जाने कहाँ छुप-सा गया था।

उसने एक आँख दबा इशारे से उसकी माहवारी के बारे में जानना चाहा तो वह भी प्रसन्नता भरी आँखों को मटका-मटका कर हाँ के इशारे कर हँसती रही। रोशनी को बहुत अच्छा लग रहा था। उसने सोचा भी नहीं था कि इस दौरान चन्द्रकला इतनी सुंदर हो गई होगी।

दूसरे दिन चन्द्रकला नियत समय पर उसे लेने पहुँच गई. वह उसी का इंतज़ार कर रही थी। माँ से आज्ञा ले वह चन्द्रकला के घर पहुँच गई. उसके लिए मेरठ से लाई उसकी भेंट उसे सौंपते बोली रोशनी-

"ये तो कमाल हो गया चंदरू ... तू तो बहुत सुंदर हो गई."

अपने उभारों पर चुनरी डालते चन्द्रकला खिलखिलाकर हंस पड़ी। जलतरंग बज उठा कहीं। यूं लगा मटमैले से अंधेरे में कहीं चाँद निकल आया। चंद्र की सोलह कलाएँ चन्द्रकला के उजले मुखड़े पर सुशोभित थीं।

"तुझे पता है रोशनी ... मेरे माँ बाबा अब मेरे लिए रिश्ता ढूंढ रहे हैं। चाची के मायके में है कोई. बचपन में पोलियो के कारण थोड़ा-सा पैर कमजोर है उसका। पर चलने-फिरने हर काम में वैसे बिलकुल ठीक है। वैसे तो देखने से किसी को पता भी नहीं चलता है। बताया तो पता चला हमें। उन्हें मैं पसंद हूँ।" चन्द्रकला ने उमगकर उसे बताया तो वह खुशी के मारे जैसे रो ही पड़ी "सच" । चन्द्रकला ने भरी आँखों से हाँ में गर्दन हिलाई.

"मैंने तो कभी सपने भी नहीं देखे थे बहन ... सपने देखने जैसे हौसले ईश्वर ने दिये ही न थे। पर अब..."

आवाज भर्राई उसकी पर आँखें चमक उठीं। चन्द्रकला ने उससे उसका कुशलक्षेम तक न लिया था। बस अपनी ही धुन में थी। पर रोशनी को इस बात का कोई मलाल न था। वह तो बस उसे चहकते देखे जाती रही। उसे सब भला लग रहा था। वह उसे देख वाकई हैरान थी। कुदरत भी अजीब है। कब क्या दे कब क्या ले कुछ पता नहीं।

उसकी हैरानी तब और बढ़ गई जब उसने उसे बताया कि "कुछ कद भी बढ़ा है मेरा।"

"हें..." मूंह फटा रह गया उसका। लगी तो थी चन्द्रकला कुछ बड़ी-सी ... पर सचमुच ही कद बढ़ा है सुन वह एकदम से चौंक उठी।

'ये कैसे हो सकता है' वह मन ही मन बुदबुदा उठी। 'ज़रूर हार्मोन्स की कमी या गड़बड़ी के कारण ही इसका शारीरिक विकास रुक गया होगा और अब अपने आप ही हार्मोन्स ठीक हो गए होंगे ... वरना ऐसे कैसे' वह काफी देर तक मानसिक उलझन में फंसी रही।

उफ ... ये किताबें भी न... जाने क्या-क्या ठूंस देती हैं दिमाग में। वह जानती थी। किताबों में सबकुछ अनुभव के आधार पर ही लिखा जाये ये ज़रूरी तो नहीं।

समय गुजरता रहा। उनकी दोस्ती गहरी और गहरी होती रही। वह बारहवीं से बीए के दूसरे साल में पहुँच गई. सुनहरी जवानी के दिन सुनहरे थे और सुनहरी चीज मनमोहक।

आज चन्दकला की शादी थी। अच्छे घर के सुंदर सभ्य लड़के के साथ उसकी शादी उसके बाबा ने अपनी हैसियत अनुसार खूब धूमधाम से की।

सुर्ख जोड़े में सजी वह अपनी विदाई पर उससे लिपट-लिपट रोती जा रही थी। रोशनी ने जी भर-भर अपनी सखी को उसके भावी जीवन के लिए शुभकामनाएँ व बधाइयाँ दी।

विछोह का दुख घना था। पर हल्का करते रोशनी बोली–"चंदरू, जा तू ... अब जा ... तू तो यही चाहती थी न कि ससुराल हो, सास-ससुर, पति, बच्चे सब हों तो अब अपनी बहन, अपनी सहेली से लिपट क्यूँ रो रही है। जा खुश रह।" उसने उसके गम को हल्का करने की कोशिश में उसे परे धकेलते हुए कहा तो चन्द्रकला उससे और लिपट कर रो पड़ी।