चन्द्रमुखी / गोवर्धन यादव

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“चन्द्रमुखीऽऽऽ” देव ने पुकारा।

वह विचारों की गहरी अंधेरी गुफा में उतरकर अपने प्रश्नों के उत्तर खोज रही थी। यही कारण था कि वह उत्तर नहीं दे पाई। अपनी पीठ पर एक शीतल-सुखद स्पर्श पाकर उसकी चेतना लौटी और उसने पीछे मुडक़र देखा। देव मुस्करा रहे थे। उसने अभिवादन करना चाहा पर पीठ पर हथेली का तनिक अधिक दबाव इस बात का इशारा था कि वह यथावत्ï बैठी रहे।

“चन्द्रमुखी ..... ये क्या हाल बना रखा है। तुम्हारा शरीर तप रहा है, चेहरा निस्तेज हो आया है तथा तुम्हारे केश-कुन्तल बुरी तरह से आपस में उलझे हुए हैं, पारिजात के सुवासित पुष्पों से अपना सिंगार भी नहीं किया है। बात-बात में खिलखिला कर हंस देने वाली सुमुखी ... तुम्हें अचानक क्या हो गया है?” देव ने कहा।

“क्षमा करें देव, आज न जाने क्यों मेरा मन अशान्त हो उठा है। भोगविलास हास-परिहास सब व्यर्थ से जान पड़ रहे हैं।” चन्द्रमुखी ने कहा।

“सुमुखी .... जब तक तुम अपने मन की पीड़ा मुझे नहीं सुनाओगी, तब तक तो उसका निदान संभव नहीं, नि:संकोच होकर अपने मन की व्यथा कथा सुनाओ।”

“फुर्सत के क्षणों में हम सब सखियां विलास बाग में इकट्ठी हुईं, शांत झील के किनारे बैठी हम सब बतिया रही थीं। एक सहेली को न जाने क्या सूझा उसने अपने वस्त्र उतार फेंके और झील में जा उतरी। बड़ी देर तक वह जलक्रीड़ा करती रही और फिर अंजुली भर-भर कर अन्य सहेलियों पर उछालने लगी। फिर क्या था। हम सभी ने अपने-अपने वस्त्र उतार फेंके और पानी में उतर पड़ी। बड़ी देर तक चुहलबाजियां चलती रहीं। मदांध देवी तिलोत्तमा ने तो हद कर दी। उन्होंने पुरुषोचित्त हरकतें शुरू कर दीं और अन्यों के अंग-प्रत्यंगों से छेड़छाड़ करने लगी। यौवनजनित क्रीड़ाओं में प्राय: सभी ने खुलकर भाग लिया। काफी देर तक मदनोत्सव का सा माहौल बना रहा। जब हम थककर चूर हो गए तो एक विशाल वृक्ष के नीचे हरी-हरी मखमल सी दूब के कालीन पर आकर पसर गए।”

“फिर .... फिर क्या हुआ देवी?”

“देवी तिलोत्तमा ने हास-परिहास अब भी जारी रखा था। वे मेरी कमर में हाथ डाले निर्वसन पड़ी थी। अपनी बातों का रुख धरती के इंसानों की तरफ अचानक मोड़ते हुए कहने लगी थी— ‘सखी, हम चौबीसों पहर भोग-विलास की मस्ती में मस्त रहती हैं। अपने आपको खूब सजाती संवारती हैं और स्वर्ग में रह रहे देवों को अपने यौवन की अग्नि में पिघलाती रहती हैं। इस कार्य में मैं कोई नवीनता भी नहीं देखती हूं। यहाँ रहने वालों को न तो भूख सताती है और न ही प्यास, हर पल, हर जगह उजाला ही उजाला बिखरा पड़ा रहता है। शारीरिक-मानसिक परिताप भी नहीं होता। भविष्य की न तो चिंता है और न ही अतीत को लेकर कोई उलझन। बस हरदम, हर घड़ी भोग-विलास में आकंठ डूबी रहो। इस उद्यान के न तो फूल झरते हैं, न ही खिलते हैं, सब चित्र लिखे से दिखाई देते हैं। न तो यहाँ आँधी आती है और न ही तूफान, न यहाँ तेज गरमी पड़ती है और न ही ठंड सताती है। मंद-मंद समीर चौबीसों घंटे चलायमान रहता है। धरती पर ऐसा नहीं होता। वहाँ कल-कल करती नदियां उछलते-कूदते रहती हैं। साल में तीन बार मौसम बदलता है। वर्षा होती है, ठंड पड़ती है और उसके बाद भीषण गर्मी भी। खुलकर भूख लगती है और प्यास भी। आदमी अपनी प्रियतमा का काफी ख्याल रखते हैं। उन्हें सुख भी प्राप्त होता है और दुख भी, पर वे आपस में बराबर-बराबर बाँट लेते हैं। भावपक्ष वहाँ प्रधान होता है। सेवा-दया-प्रेम-करुणा-त्याग-धैर्य-परोपकार-लाड़-दुलार पृथ्वीवासी खूब जानते हैं। सभी जनों के हृदय में नवरसों का संचार बराबर होता रहता है। जबकि हम केवल एक ही रस में डूबी रहती हैं।’ तिलोत्तमा बराबर बोलती ही चली जा रही थी। मैंने बीच में टोकते हुए पूछ ही लिया— ‘दीदी इतना सब आप उन लोगों के बारे में कैसे जानती हो? इतनी अच्छी और इतनी गहरी बातें तुम्हें किसने बताईं? क्या तुम कभी धरती पर गई थीं? क्या तुमने मनुष्य जाति से संसर्ग किया था?’ तरह-तरह के प्रश्नों का पहाड़ मैंने उनके आगे खड़ा कर दिया था। तो और भी गंभीर होकर बताने लगी।

“हाँ - चन्द्रमुखी - एक बार की बात है। धरती पर विश्वामित्र नामक एक तपस्वी तपकर रहे थे। उनका मनोरथ स्वर्ग पर आरूढ़ होना नहीं था। वे तो जनकल्याण के लिए कड़ा तप कर रहे थे। देवेन्द्र को तो तुम अच्छी तरह जानती हो। स्वर्ग में भी वे कुछ न कुछ षड्ïयंत्र रचते ही रहते हैं। उनके अवचेतन मन में शंका का एक बीज उग आया सो उन्होंने मेनका को आदेश दिया कि वह धरती पर जाए और विश्वामित्र का तप भंग कर दे। गर्वीली मेनका धरती पर उतरी। उसका साथ प्राय: सभी ने दिया। जिस जगह पर ऋषि तप कर रहे थे, वहाँ का माहौल अति कामुक बना दिया गया। हम अप्सराओं ने वस्त्र पहने अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। मेनका ने ऋषि के मन में कामना जगा दी। उसे उस समय तक केवल इतना ही ध्यान था कि ऋषि की तपस्या भंग होनी चाहिए। देव-प्रमुख का मनोरथ पूरा होना चाहिए। उनकी तपस्या तो खैर भंग हो गई पर देवी मेनका धरती से वापिस न आ पाई। वह वहीं की होकर रह गई।”

“वो कैसी दीदी?” मैंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

“हम अप्सराओं को देवों से मिलने वाला परिरमन कल्पना मात्र होता है। मन में कामना की नहीं कि उसकी पूर्ति हो गई। न तो उससे कोई विशेष भाव जागता है और न ही कभी विद्यमान रहता है। पर मृत्युलोक में ऐसा नहीं होता। मन में चाहत की एक तड़प पैदा होती है। अपने प्रिय को देखकर अनेकानेक भावनाएँ मन को गुदगुदाने लगती हैं। पिया मिलन की कल्पना न जाने कितने दिवास्वप्न दिखा जाती है। मिलन के अलावा जुदाई भी होती है, जो दोनों को तिल-तिलकर जलाती है। यौवन जब मचल जाता है तो अपने प्रिय का सामीप्य पाने के लिए वह अपना सर्वस्व न्यौछावर भी कर देता है। जब सब कुछ समर्पित हो जाता है तो शेष रह जाता है शुद्ध-प्यार, दिल की गहराइयों से भी गहरा प्यार और यही प्यार मेनका के मन में भी अंगड़ाई लेने लगा। जब वह ऋषि की बाँहों में समाई तो भूल गई स्वर्ग को, हम सभी को, फिर मेनका ने कभी भी स्वर्ग की कामना नहीं की। उसे ऐसा लगने लगा था जैसे वे कभी स्वर्ग से आई ही नहीं थी। काफी समय बीत गया, मेनका स्वर्ग नहीं लौटी। देवराज को ज्ञात हो गया था ऋषि की तपस्या भंग की जा चुकी है। उनका मनोरथ पूरा हो गया। जब उन्हें यह पता चला कि मेनका अब तक वापस नहीं लौटी है तो वे बेचैन हो उठे। उन्होंने अपने दूत धरती पर भेजे और कहा कि वे उनकी ओर से मेनका को प्यार जताएँ और कहें कि वह स्वर्ग लौट आए। इन्द्र अपने दूतों की वापसी का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा था। जानती हो क्या हुआ। दूत खाली हाथ वापिस लौट आए। मेनका ने आने से इंकार कर दिया। स्वर्ग में खलबली-सी मच गई। कई दिनों तक मातम छाया रहा।”

“देव, सखी तिलोत्तमा की कहानी सुनकर ही मेरा ये हाल हुआ है, यदि आप बुरा न मानें तो मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि हम भी धरती पर चलें। उस स्थान को मैं देखना चाहती हूं जहाँ देवी मेनका ने अपना घर बसाया था तथा जिन अलौकिक सुखों का बयान तिलोत्तमा ने किया है, मैं उनका उपभोग करना चाहती हूं। यहाँ की ठहरी हुई जिंदगी में कुछ हलचल जगाना चाहती हूं, मुझे पूरा विश्वास है कि आप मेरी याचना पर विशेष ध्यान देंगे।”

“प्रिये, जानती हो तुम क्या कह रही हो। और मुझसे क्या अपेक्षाएँ रख रही हो। तुम भली-भांति जानती हो कि मैं तुम्हें प्राणपण से चाहता हूं, तुम्हारा तनिक-सा भी वियोग मुझे कितना कष्टकारक लगता है। यदि तुम धरती पर गई तो फिर वापिस न आने पाओगी तब मेरा यहाँ क्या हाल होगा तनिक सी कल्पना तो करो।”

“देव, आप विश्वास रखें मैं भी आपके बगैर पल भर जीवित नहीं रह सकती। हम साथ ही धरती पर जाएँगे, धरती के कथित सुखों का उपभोग करेंगे और फिर वापिस आ जाएँगे। हमारी ये यात्रा गोपनीय ही रहेगी। किसी को कानोंकान पता नहीं चलेगा कि हम धरती पर गए थे।”

“देवी तुम जानती हो, उन सुखों का उपभोग तुम यूं ही नहीं उठा पाओगी। तुम्हें उनके जैसा ही बनना पड़ेगा। यह योनि तुम्हें छोडऩी पड़ेगी तब जाकर तुम वहाँ के कथित सुखों का उपभोग कर पाओगी। तुम्हें अपना सर्वस्व खोना पड़ेगा चन्द्रमुखी।”

“देव मेरे प्यार का विश्वास रखें। आप चाहें तो क्या नहीं कर सकते। आपमें असीम शक्ति है। होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी में बदल सकते हैं। यह सामथ्र्य आपमें है। आप खुद नहीं तो मुझे ही मनुष्य योनि दे दें। मैं उस योनि में रहकर कुछ समय व्यतीत करूंगी और जब मन भर जायेगा तो लौट पड़ूंगी या फिर आप जब चाहें अपना वरदान वापिस ले लें। मैं पुन: अप्सरा के रूप में प्रकट होऊंगी और आपके साथ वापिस हो लूंगी।”

“देवी, तुम्हारी इस याचना ने मुझे अन्दर तक झंझोड़ दिया है। यदि तुम्हारा कहना न मानूं तो तुम्हारा दिल टूट जायेगा और यदि मान लूं तो मेरा। बड़ी विचित्र परिस्थिति पैदा कर दी है तुमने। मैं निर्णय नहीं ले पा रहा हूं कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। एक तरफ खाई है तो दूसरी तरफ बावली। यदि कहीं देवराज को पता चल गया तो खैर नहीं। धरती पर बिखरे पड़े नौ रसों के आस्वादन करने की तुम्हारी प्रबल इच्छा ने इतना अंधा बना दिया है कि तुम्हें आने वाली विपत्ति का तनिक भी भय नहीं लग रहा है।”

“देव, मुझे तनिक भी परवाह नहीं है। इसका मात्र एक कारण है कि मेरे मन में इन रसों का आस्वादन करने के लिए, इनका उपभोग करने के लिए उद्दाम कामनाएँ हलचल मचा रही हैं।”

“देवी, यह सच है कि मुझमें इतनी शक्ति तो है कि मैं तुम्हें देव योनि से मनुष्य योनि में भेज सकता हूं, फिर भी मैं चाहूंगा कि तुम इस शक्ति का गलत प्रयोग करने के लिए नहीं कहोगी।”

(निराश होकर) “एक काम करें देव। धरती पर केवल नौ रस ही तो हैं। मुझे केवल नौ मास तक ऐसा करने की अनुमति दे दें। ठीक दसवें माह मैं वापिस हो लूंगी। हम धरती पर चलते हैं। अपनी पसंद के किसी युवक के साथ रहूंगी और एक निश्चित समय तक उसका उपभोग करूंगी। अब तो ठीक है न!”

“ठीक है। इस शर्त पर मैं तैयार हूं।”

स्वर्ग की अनन्त ऊंचाइयों से होते हुए, दो दिव्य आत्माएँ धरती की ओर उतर चलीं। अनेकों भूभागों को एवं आश्चर्यजनक दृश्यावलियों को देखकर अप्सरा चन्द्रमुखी गद्ïगद्ï हो उठी। धरती पर रह रहे अनेकानेक मानवों के विभिन्न रीति-रिवाजों को भी उन्होंने जांचा परखा और फिर अंत में उन्होंने अपना रुख भारत की ओर मोड़ा। नगाधिराज हिमालय गंगा-मेकलसुता से होकर कन्याकावेरी तक एवं गुजरात से कलकत्ता तक की यात्राएँ कीं और अंत में ऋषि विश्वामित्र की वह तपस्थली भी खोज निकाली जहाँ कभी स्वर्ग से उतरकर मेनका ने रहना अंगीकार किया था।

वनों से आच्छादित पर्वतश्रेणियों के समीप ही एक सुंदर शांत झील पर नजर पड़ी। झील के किनारे एक नवयुवक कठोर पाषाण पर छेनी-हथौड़ी से मूर्तियां गढ़ रहा था। छेनी पर पड़ती हथौड़ी की चोट से एक विशेष नाद पैदा होता। साथ ही उसकी बलिष्ठ एवं कसी हुई भुजाओं में एक आकर्षण था। उसे देखकर चन्द्रमुखी ने अपना निर्णय देव को कह सुनाया कि अब वह इसी युवक के साथ नौ मास रहेगी।

देव की असीम कृपा से अपना निज खोते हुए उसने मनुष्य योनि में प्रवेश किया। नौ माह तक नौ रसों का आस्वादन करते हुए उसने महसूस किया कि देवी तिलोत्तमा के कथन में कितनी सच्चाई थी।

निर्धारित समय से पूर्व उसने उस युवक से कहा, “आर्य इतने लंबे समय तक मैं आपके सानिध्य में रही। तुम्हारी सहायता से मैंने नौ रसों का भरपूर उपभोग किया जो स्वर्ग में सर्वथा अनुपलब्ध थे। समर्पण में कहाँ क्या नहीं मिलता। मैं अपना रहस्य अब तुम पर उजागर करती हूं। दरअसल मैं एक सामान्य स्त्री न होकर स्वर्ग में रहने वाली अप्सरा हूं, इस धरती के रहस्यों को, यहाँ के निवासियों के त्याग, आश्चर्य, सेवा, दया, प्रेम, करुणा, परोपकार एवं दुलार से ओतप्रोत भावनाओं को नजदीक से देखने के लिए, उन्हें समझने के लिए अपनी जिद के कारण अपना मूल रूप छोडक़र एक सामान्य स्त्री के रूप में आकर और तुम्हारा सामीप्य पाक र उन सभी सुख दुखों को भोगा है। अब मैं कुछ समय पश्चात्ï अप्सरा के रूप में परिवर्तित हो जाऊंगी। अपने धाम को वापिस जाने से पूर्व मेरा एकमात्र निवेदन है कि हमने जो कुछ भी यहाँ भोगा है, उन सभी को अपनी छेनी-हथौड़ी के माध्यम से इन शिलाखण्डों पर उकेरो। मेरे स्वर्ग चले जाने एवं तुम्हारे स्वयं के स्वरूप को खोने के बाद एक शून्य एक महाशून्य उपस्थित हो जायेगा। क ोई भी नहीं जान पायेगा कि कभी चन्द्रमुखी तुम्हारे प्यार में पागल हुई थी। तुम्हारे और समर्पण पाने को मैं कभी स्वर्ग से धरती पर आई थी। अपनी छेनी-हथौड़ी से तुम जो गढ़ोगे वह हमारे प्यार के अमिट हस्ताक्षर होंगे। युगों-युगों तक लोग यहाँ खिंचे चले आएँगे और हमारे प्यार के मंदिर को देखकर अपने को कृतार्थ समझेंगे।”

चन्द्रमुखी के लौट जाने के बाद उस युवक के मन में तनिक भी विषाद नहीं हुआ और न ही उसने अपना विवेक खोया। अपनी कुटिया में आकर वह छेनी-हथौड़ी उठा लाया और पत्थरों पर प्यार की इबारत लिखने लगा।

उसने एक विशाल चबूतरे का निर्माण किया। उसने चबूतरे के पत्थर पर हाथियों की शृंखला, कहीं कमलदल तो कहीं वाद्य बजाते वंृदजन को उकेरा।

चबूतरे पर फिर प्यार के मंदिर का स्वरूप रचने लगा। वाद्य यंत्र बजाती चन्द्रमुखी, तो कहीं शृंगार करती तो कहीं अपने प्रिय के साथ आलिंगनबद्ध, तो कहीं नूपुर झंकारती, कभी आईना देखती, कभी अपने पाँवों में माहुर रचाती, तो कहीं अपने प्रिय के साथ विभिन्न मुद्राओं में मैथुनरत। कलाकार ने अपनी कला का भरपूर उपयोग किया। मंदिर के कंगूरों तक में विभिन्न-विभिन्न मुद्राओं में उसने अपने प्रेयसी को ला उतारा।

जब मंदिर का निर्माण पूरा हो गया तो उसने छेनी-हथौड़ी एक तरफ रख दिया। अपनी कुटिया में गया और बाँसुरी उठा लाया। शांत झील के समीप ही एक विशाल खण्ड पर बैठ गया और तन्मय होकर बाँसुरी से खेलने लगा।

बाँसुरी की मधुर तान सुनकर चन्द्रमुखी ऊंचाइयों से उतर कर नृत्य करने लगती, विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती चन्द्रमुखी थककर चूर हो जाती तो वह उसके पास उसी शिलाखण्ड पर आकर बैठ जाती। अपने प्रिय को अपनी बाँहों में समेट लेती। वह आँखें बंद किए अपनी साधना में तल्लीन रहता। अपनी प्रेयसी का सामीप्य पाकर जब वह आँख खोलता तो चन्द्रमुखी शर्माती, लजाती और जब वह उसे बाँहों में भरने को आतुर होता तो वह छिटककर फिर मंदिर के कलशों पर जाकर बैठ जाती।