चन्द्रु की दुनिया / कृश्न चन्दर
कराची में भी उसका यही धंदा था और बांद्रे आकर भी यही धंदा रहा। जहां तक उसकी ज़ात का ताल्लुक़ था , कोई तक़सीम नहीं हुई थी। वो कराची में भी सिद्धू हलवाई के घर की सीढ़ीयों के पीछे एक तंग-ओ-तारीक कोठरी में सोता था और बांद्रे में वही सीढ़ीयों के अक़ब में उसे जगह मिली थी। कराची में उसके पास एक मैला-कुचैला बिस्तर, ज़ंगआलूद पतरे का एक छोटा सा स्याह ट्रंक और एक पीतल का लोटा था। यहां पर भी वही सामान था। ज़हनी लगाव न उसे कराची से था न बंबई से। सच बात तो ये है कि उसे मालूम ही न था ज़हनी लगाव किसे कहते हैं , कल्चर किसे कहते हैं, हुब्बुलवतनी क्या होती है और किस भाव से बेची जाती है। वो इन सब नए धंदों से वाक़िफ़ न था। बस उसे इतना याद था कि जब उसने आँख खोली तो अपने को सिद्धू हलवाई के घर में बर्तन माँजते, झाड़ू देते, पानी ढोते, फ़र्श साफ़ करते और गालियां खाते पाया। उसे इन बातों का कभी मलाल न हुआ क्योंकि उसे मालूम था कि काम करने और गालियां खाने के बाद ही रोटी मिलती है और इस क़िस्म के लोगों को ऐसे ही मिलती है। इलावा अज़ीं सिद्धू हलवाई के घर में उसका जिस्म तेज़ी से बढ़ रहा था और उसे रोटी की शदीद ज़रूरत रहती थी और हर वक़्त महसूस होती रहती थी। इसलिए वो हलवाई के झूटे सालन के साथ साथ उसकी गाली को भी रोटी के टुकड़े में लपेट के निगल जाता था।
उसके माँ बाप कौन थे, किसी को पता न था। ख़ुद चन्द्रु ने कभी इसकी ज़रूरत महसूस नहीं की थी। अलबत्ता सिद्धू हलवाई उसे गालियां देता हुआ अक्सर कहा करता था कि वो चन्द्रु को सड़क पर से उठा कर लाया है । इस पर चन्द्रु ने कभी हैरत का इज़हार नहीं किया। न सिद्धू के लिए शुक्रिये के नर्म जज़्बे का उसके दिल तक गुज़र हुआ। क्योंकि चन्द्रु को कोई दूसरी ज़िंदगी याद नहीं थी। उसे बस इतना मालूम था कि ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ बाप होते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ-बाप नहीं होते। कुछ लोग घर वाले होते हैं, कुछ लोग सीढ़ीयों के पीछे सोने वाले होते हैं, कुछ लोग गालियां देते हैं, कुछ लोग गालियां सहते हैं। एक काम करता है दूसरा काम करने पर मजबूर करता है। बस ऐसी ही ये दुनिया और ऐसी ही रहेगी। वो ख़ानों में बटी हुई यानी एक वो जो ऊपर वाले हैं, दूसरे वो जो नीचे वाले हैं। ऐसा क्यों है और ऐसा क्यों नहीं है और जो है वो कब क्यों और कैसे बेहतर हो सकता है? वो ये सब कुछ नहीं जानता था और न इस क़िस्म की बातों से कोई दिलचस्पी रखता था। अलबत्ता जब कभी वो अपने ज़हन पर बहुत ज़ोर देकर सोचने की कोशिश करता था तो उसकी समझ में यही आता था कि जिस तरह वो सट्टे के नंबर का दाव लगाने के लिए कभी-कभी हवा में सिक्का उछाल कर टॉस कर लेता है। उसी तरह उसके पैदा करने वाले ने उसके लिए टॉस कर लिया होगा और उसे इस ख़ाने में डाल दिया होगा जो उसकी क़िस्मत थी ।
ये कहना भी ग़लत होगा कि चन्द्रु को अपनी क़िस्मत से कोई शिकायत थी हरगिज़ नहीं! वो एक ख़ुश-बाश, मेहनत करने वाला, भाग भाग कर जी लगा कर ख़ुशमिज़ाजी से काम करने वाला लड़का था। वो रात-दिन अपने काम में इस क़दर मशग़ूल रहता था कि उसे बीमार पड़ने की भी कभी फ़ुर्सत नहीं मिली। कराची में तो वो एक छोटा सा लड़का था। मगर बंबई आकर तो उसके हाथ-पांव और खुले और बढ़े, सीना फैला, गंदुमी रंग साफ़ होने लगा, बालों में लच्छे से पड़ने लगे, आँखें ज़्यादा रोशन और बड़ी मालूम होने लगीं। उसकी आँखें और होंट देखकर मालूम होता था कि उसकी माँ ज़रूर किसी बड़े घर की रही होगी ।
चन्द्रु की दुनिया में आवाज़ का इस हद तक गुज़र था कि वो सुन सकता था। बोल नहीं सकता था। आम तौर पर गूँगे बहरे भी होते हैं। मगर वो सिर्फ़ गूँगा था बहरा न था। इसलिए हलवाई एक दफ़ा उसे बचपन में एक डाक्टर के पास ले गया था। डाक्टर ने चन्द्रु का मुआइना करने के बाद हलवाई से कहा कि चन्द्रु के हलक़ में कोई पैदाइशी नुक़्स है। मगर ऑप्रेशन करने से ये नुक़्स दूर हो सकता है और चन्द्रु को बोलने के क़ाबिल बनाया जा सकता है मगर हलवाई ने कभी इस नुक़्स को ऑप्रेशन के ज़रीये दूर करने की कोशिश नहीं की। सिद्धू ने सोचा ये तो बहुत अच्छा है कि नौकर गाली सुन सके मगर उसका जवाब न दे सके ।
चन्द्रु का ये नुक़्स सिद्धू की निगाह में उसकी सबसे बड़ी ख़ूबी बन गया। इस दुनिया में मालिकों की आधी ज़िंदगी इसी फ़िक्र में गुज़र जाती है कि किसी तरह वो अपने नौकरों को गूँगा कर दें। उस के लिए क़ानून पास किए जाते जाती हैं, अख़बार निकाले जाते हैं, पुलिस और फ़ौज के पहरे बिठाए जाते हैं। सुन लो मगर जवाब न दो। और चन्द्रु तो पैदाइशी गूँगा था। यक़ीनन सिद्धू ऐसा अहमक़ नहीं है कि उसका ऑप्रेशन करवाए। सिद्धू भी दिल का बुरा नहीं था। अपने मख़सूस हालात में, मख़सूस हदूद के अंदर रह कर अपना मख़सूस ज़ाविया निगाह रखते हुए वो चन्द्रु को अपने तरीक़े से चाहता भी था। वो समझता था और इस बात पर ख़ुश था, और अक्सर उसका फ़ख़्रिया इज़हार भी किया करता था कि उसने चन्द्रु की परवरिश एक बेटे की तरह की है। कौन किसी यतीम बच्चे की इस तरह परवरिश करता है। इस तरह पालता-पोस्ता बड़ा करता है। कौन इस तरह उसे काम पर लगाता है। जब तक चन्द्रु का लड़कपन था, सिद्धू उस से घर का काम लेता रहा। जब चन्द्रु लड़कपन की हदूद फलांगने लगा, सिद्धू ने उसकी ख़ातिर एक नया धंदा शुरू किया।
हलवाई की दुकान पर उसके अपने बेटे बैठते थे। उसने चन्द्रु के लिए चाट बेचने का धंदा तय किया। हौले-हौले उसने चन्द्रु को चाट बनाने का फ़न सिखा दिया। जल जीरा और कांजी बनाने का फ़न, गोलगप्पे और दही बड़े बनाने के तरीक़े, चटख़ारा पैदा करने वाले तीखे मसालहे, कुरकुरी पापड़ीयां और चने का लज़ीज़ मिरचिला सालन, ,भटूरे बनाने और तलने के अंदाज़, फिर समोसे और आलू की टिकियां भरने का काम, फिर चटनीयां, लहसुन की चटनी, लाल मिर्च की चटनी, हरे पोदीने की चटनी, खट्टी चटनी, मीठी चटनी, अद्रक की चटनी और प्याज़ और अनार दाने की चटनी।
फिर अन्वा-ओ-इक़साम की चाटें परोसने का अंदाज़। दही बड़े की चाट, कांजी के बड़े की चाट, मीठी चटनी के पकौड़ों की चाट, आलू की चाट, आलू और आलू पापडी की चाट, हरी मूंग के गोलगप्पे, आलू के गोलगप्पे, कांजी के गोलगप्पे, हरे मसालहे के गोलगप्पे ।
जितने बरसों में चन्द्रु ने ये काम सीखा उतने बरसों में एक लड़का एम.ए. पास कर लेता है। फिर भी बेकार रहता है। मगर सिद्धू का घर बेकार ग्रेजूएटों को उगलने की यूनीवर्सिटी नहीं था। उसने जब देखा कि चन्द्रु अपने काम में मश्शाक़ हो गया है और जवान हो गया है तो उसने चार पहीयों वाली एक हाथ गाड़ी ख़रीदी। चाट के थाल सजाये और चन्द्रु को चाट बेचने पर लगा दिया, डेढ़ रुपया रोज़ पर।
जहां चन्द्रु चाट बेचने लगा वहां उसका कोई मद्द-ए-मुक़ाबिल न था। सिद्धू ने बहुत सोच समझ के ये जगह इंतिख़ाब की थी। ख़ार लिंकिंग रोड पर और पाली हल के चौराहे के क़रीब टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज के सामने उसने चाट की पहीयों वाली साईकल गाड़ी को खड़ा किया। ये जगह बहुत बा रौनक थी। एक तरफ़ यूनीयन बैंक था, दूसरी तरफ़ टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज। तीसरी तरफ़ ईरानी की दुकान, चौथी तरफ़ घोड़ बंदर रोड का नाका। बीच में शाम के वक़्त खाते पीते ख़ुश-बाश, ख़ुश-लिबास नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम बहता था। चन्द्रु की चाट हमेशा ताज़ा, उम्दा और कर्रारी होती थी।
वो बोल नहीं सकता था मगर उसकी मुस्कुराहट बड़ी दिलकश होती थी। उसका सौदा हमेशा खरा होता था। हाथ साफ़ और तौल पूरा। गाहक को और क्या चाहिए? चंचन्द्रु की चाट इस नौआबादी में चारों तरफ़ मक़बूल होती गई और शाम के वक़्त उसके ठेले के चारों तरफ़ नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम रहने लगा। चन्द्रु को सिद्धू ने डेढ़ रुपया रोज़ पर लगाया था। अब उसे तीन रुपये रोज़ देता था और चन्द्रु जो डेढ़ रुपये रोज़ में ख़ुश था, अब तीन रुपया पाकर भी ख़ुश था क्योंकि ख़ुश रहना उसकी आदत थी। उसे काम करना पसंद था और वो अपना काम जानता था और अपने काम से उसे लगन थी। वो अपने ग्राहकों को ख़ुश करना जानता था और उन्हें ख़ुश करने में अपनी ख़ुशी महसूस करता था। दिन-भर वो चाट तैयार करने में मसरूफ़ रहता। शाम के चार बजे वो चाट गाड़ी लेकर नाके पर जाता। चार से आठ बजे तक हाथ रोके बग़ैर, आराम का सांस लिए बग़ैर, वो जल्दी जल्दी काम करता। आठ बजे उसका ठेला ख़ाली हो जाता और वह उसे लेकर अपने मालिक के घर वापस आजाता। खाना खा कर सिनेमा चला जाता। बारह बजे रात को सिनेमा से लौट कर अपनी चटाई बिछा कर सीढ़ीयों के पीछे सो जाता और सुबह फिर अपने काम पर।
ये उसकी ज़िंदगी थी। ये उसकी दुनिया थी। वो बेफ़िकर और ज़िंदा-दिल था। न माँ न बाप न भाई न बहन। न बच्चे न बीवी। दूसरे लोगों के बहुत से ख़ाने होते हैं। उसका सिर्फ़ एक ही ख़ाना था। दूसरे लोग बहुत से टुकड़ों में बटे होते हैं और उन टुकड़ों को जोड़ कर ही उनकी शख़्सियत देखी जा सकती है मगर चन्द्रु एक ही लकड़ी का था और लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना था। जैसा वो अंदर से था वैसा ही वो बाहर से भी नज़र आता था। वो अपनी ज़ात में बेजोड़ और मुकम्मल था।
साँवली पारो को उसे परेशान करने में बड़ा मज़ा आता था। कानों में चांदी के बाले झुलाती, पांव में छोटी सी पाज़ेब खनकाती जब वो अपनी सहेलियों के साथ उसके ठेले के गिर्द खड़ी हो जाती तो चन्द्रु समझ जाता कि अब उसकी शामत आई है। दही बड़े की पत्तल तक़रीबन चाट कर वो ज़रा सा दही बड़ा उस पर लगा रहने देती और फिर उसे दिखा कर कहती,
"अबे गूँगे, तू बहरा भी है क्या? मैंने दही बड़े नहीं मांगे थे दही पिटा करी मांगी थी। अब इसके पैसे कौन देगा। तेरा बाप?"
इतना कहकर वो इस बड़े की तक़रीबन ख़ाली पत्तल को उसे दिखा कर बड़ी हक़ारत से ज़मीन पर फेंक देती। वो जल्दी जल्दी उसके लिए दही पटा करी बनाने लगता। पारो उस पटाकरी की पत्तल साफ़ करके उसमें आधी पटाकरी छोड़ देती और ग़ुस्से से कहती,
"इतनी मिर्च डाल दी? इतनी मिर्ची? चाट बनाना नहीं आता है तो ठेला लेकर इधर क्यों आता है? ले अपनी पटाकरी वापस ले-ले।"
इतना कह कर वो दही और चटनी की पटाकरी अपने नाख़ुन की कोर में फंसा कर उसके ठेले पर घुमाती। कभी उसे झूटी पटा करियों के थाल में वापस डाल देने की धमकी देती। उसकी सहेलियाँ हँसतीं, तालियाँ बजातीं। चन्द्रु दोनों हाथों से नाँ-नाँ के इशारे करता हुआ पारो से अपनी झूटी पटाकरी ज़मीन पर फेंक देने का इशारा करता।
अच्छा समझ गई, तेरे चनों के थाल में डाल दूं वो जान-बूझ कर उसका इशारा ग़लत समझती। जल्दी-जल्दी घबराए हुए अंदाज़ में चन्द्रु ज़ोर ज़ोर से सर हिलाता फिर ज़मीन की तरफ़ इशारा करता। पारो खिलखिलाकर कहती,
"अच्छा ज़मीन से मिट्टी उठा कर तेरे दही के बर्तन में डाल दूं?" पारो नीचे ज़मीन से थोड़ी से मिट्टी उठा लेती। इस पर चन्द्रु और भी घबरा जाता। दोनों हाथ ज़ोर से हिला कर मना करता।
बिलआख़िर पारो उसे धमकाती, "तो चल जल्दी से आलू की छः टिकियां तल दे और ख़ूब गर्म-गर्म मसालहे वाले चने देना और अद्रक भी, नहीं तो ये पटा करी अभी जाएगी तेरे काले गुलाब जामुनों के बर्तन में..."
चन्द्रु ख़ुश हो कर पूरी बत्तीसी निकाल देता। माथे पर आई हुई एक घुंगरियाले लट पीछे को हटाके तौलिये से हाथ पोंछ कर जल्दी से पारो और उसकी सहेलियों के लिए आलू की टिकियां तलने में मसरूफ़ हो जाता।
फिर कभी कभी पारो हिसाब में भी घपला किया करती।
"साठ पैसे की टिकियां, तीस पैसे की पटा करी। दही बड़े तो मैंने मांगे ही नहीं थे। उसके पैसे क्यों मिलेंगे तुझे? हो गए नव्वे पैसे दस पैसे कल के बाक़ी हैं...ले एक रुपया।"
गूँगा चन्द्रु पैसे लेने से इनकार करता। वो कभी पारो की शोख़ चमकती हुई शरीर आँखों को देखता। कभी उसकी लंबी लंबी उंगलियों में कपकपाते एक रुपये के नोट को देखता और सर हिला कर इनकार कर देता और हिसाब समझाने बैठता। वो वक़्त क़ियामत का होता था जब वो पारो को हिसाब समझाता था। दही बड़े के थाल की तरफ़ इशारा करके अपनी उंगली को अपने मुँह पर रखकर चुप-चुप की आवाज़ पैदा करते हुए गोया उससे कहता, "दही बड़े खा तो गई हो। उस के पैसे क्यों नहीं दोगी? तीस पैसे दही बड़े के भी लाओ।" वो अपने गल्ले में से तीस पैसे निकाल के पारो को दिखाता।
इस पर फ़ौरन चमक कर कहती, "अच्छा तीस पैसे मुझे वापस दे रहे हो? लाओ..."
इस पर चन्द्रु फ़ौरन अपना हाथ पीछे खींच लेता, "नहीं..."
इनकार में वो सर हिलाकर पारो को समझाता, "मुझे नहीं तुम्हें देना होंगे ये तीस पैसे।" वो अपनी तहदीदी उंगली पारो की तरफ़ बढ़ा के इशारा करके कहता।
इस पर पारो फ़ौरन उसे टोक देती, "अबे अपना हाथ पीछे रख...नहीं तो मारूंगी चप्पल।"
इस पर चन्द्रु घबरा जाता। पारो की डाँट से लाजवाब हो कर बिल्कुल बेबस हो कर मजबूर और ख़ामोश निगाहों से पारो की तरफ़ देखने लगता कि पारो को उस पर रहम आजाता। जेब से पूरे पैसे निकाल के उसे दे देती और बोलती, "तू बहुत घपला करता है हिसाब में। कल से तेरे ठेले पर नहीं आऊँगी।"
मगर दूसरे दिन वो फिर आ जाती। उसे चन्द्रु को छेड़ने में मज़ा आता था और अब चन्द्रु को भी मज़ा आने लगा था। जिस दिन वो नहीं आती थी हालाँकि उस दिन भी उसकी गाहकी और कमाई में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था मगर जाने क्या बात थी चन्द्रु को वो दिन सूना सूना सा लगता था।
जहां पर उसका ठेला रखा था वो उसके सामने एक गली से आती थी। पहले-पहल चन्द्रु का ठेला बिल्कुल यूनीयन बैंक के सामने नाके पर था हौले-हौले चन्द्रु अपने ठेले को खिसकाते-खिसकाते पारो की गली के बिल्कुल सामने ले आया। अब वो दूर से पारो को अपने घर से निकलते देख सकता था। पहले दिन जब उसने ठेला यहां लगाया था तो पारो ठेले की बदली हुई जगह देखकर कुछ चौंकी थी। कुछ ग़ुस्से से भड़क गई थी।
"अरे तू नाके से उधर क्यों आ गया गूँगे?"
गूँगे चन्द्रु ने टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज की इमारत की तरफ़ इशारा किया। जहां वो अब तक ठेला लगाता आरहा था। उधर केबल बिछाने के लिए ज़मीन खोदी जा रही थी और बहुत से काले-काले पाइप रखे हुए थे ।
वजह माक़ूल थी, पारो लाजवाब हो गई। फिर कुछ नहीं बोली। लेकिन जब केबल बिछ गई और ज़मीन की मिट्टी हमवार कर दी गई तो भी चन्द्रु ने अपना ठेला नहीं हटाया। तो भी वो कुछ नहीं बोली। हाँ उसके चंचल सुभाव में एक अजीब तेज़ी सी आगई। वो उसे पहले से ज़्यादा सताने लगी।
पारो की देखा देखी उसकी दूसरी सहेलियाँ भी चन्द्रु को सताने लगीं और कई छोटे छोटे लड़के भी। मगर लड़कों को तो चन्द्रु डाँट देता और वो जल्दी से भाग जाते। एक-बार उसने पारो की सहेलियों से आजिज़ आकर उन्हें भी डाँट पिलाई। तो इस पर पारो इस क़दर नाराज़ हुई कि उसने अगले तीन चार दिनों तक चन्द्रु को सताना बंद कर दिया, इस पर चन्द्रु को ऐसा लगा कि आसमान उस पर ढय् पड़ा हो। या उसके पैरों तले ज़मीन फट गई हो। ये पारो मुझे सताती क्यों नहीं है? तरह तरह के हीलों-बहानों से उसने चाहा कि पारो उसे डाँट पिलाए। लेकिन जब इस पर भी पारो के अंदाज़ नहीं बदले और वो एक मुहज़्ज़ब, मुतमद्दिन, लेकिन चाट बेचने वाले चन्द्रु ऐसे छोकरों को फ़ासले पर रखने वाली लड़की की तरह, उस से चाट खाती रही तो चन्द्रु अपनी गूँगी हमाक़तों पर बहुत नादिम हुआ।
एक दफ़ा उसने बजाय पारो के ख़ुद से हिसाब में घपला कर दिया। सवा रुपया बनता था, उसने पारो से पौने दो रुपये तलब किए, जान-बूझ कर। ख़ूब लड़ाई हुई। जम के लड़ाई हुई। बिलआख़िर सर झुका कर चन्द्रु ने अपनी ग़लती तस्लीम करली और ये गोया एक तरह पिछली तमाम ग़लतीयों की भी तलाफ़ी थी। चन्द्रु बहुत ख़ुश हुआ क्योंकि पारो और उसकी सहेलियाँ अब फिर उसे सताने लगी थीं। बस उसे इतना कुछ ही चाहिए। एक पाज़ेब की खनक औरा एक शरीर हंसी जो फुलझड़ी की तरह उसकी गूँगी सुनसान दुनिया के वीराने को एक लम्हे के लिए रोशन कर दे। फिर जब पारो के क़दम सहेलीयों के क़दमों में गड मड होके चले जाते, वो उस पाज़ेब की खनक को दूसरी पाज़ेबों की खनक से अलग करके सुनता था। क्योंकि दूसरी लड़कियां भी चांदी की पाज़ेबें पहनती थीं मगर पारो की पाज़ेब की मौसीक़ी ही कुछ और थी। ये मौसीक़ी जो उसके कानों में नहीं उसके दिल के किसी तन्हा तारीक और शर्मीले गोशे में सुनाई देती थी। बस इतना ही काफ़ी था और वो उसी में ख़ुश था।
अचानक मुसीबत नाज़िल हुई एक दूसरे ठेले की सूरत में। क्या ठेला था ये! बिल्कुल नया और जदीद डिज़ाइन का। चारों तरफ़ चमकता हुआ कांच लगा था ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं चारों तरफ़ लाल पीले, ऊदे और नीले रंग के कांच थे। गैस के दो हण्डे थे। जिनसे ये ठेला बुक़ा-ए-नूर बन गया था। पत्तल की जगह चमकती हुई चीनी की प्लेटें थीं। ठेले वाले के साथ एक छोटा सा छोकरा भी था जो गाहक को बड़ी मुस्तइद्दी से एक प्लेट और एक साफ़ सुथरी नैपकिन भी पेश करता था और पानी भी पिलाता था। चाट वाले के घड़े के गिर्द मोगरे के फूलों का हार भी लिपटा हुआ था और एक छोटा हार चाट वाले ने अपनी कलाई पर भी बांध रखा था और जब वो मसालेदार पानी में गोलगप्पे डुबोकर प्लेट में रखकर गाहक के हाथों की तरफ़ सरकाता तो चाट की कर्रारी ख़ुशबू के साथ गाहक के नथनों में मोगरे की महक भी शामिल हो जाती और गाहक मुस्कुरा कर नए चाट वाले से गोया किसी तमगे की तरह उस प्लेट को हासिल कर लेता। और नया चाट वाला गूँगे चाट वाले की तरफ़ तहक़ीर से देखकर पर नख़वत आवाज़ में ज़ोर से कहता, "चखीए!"
एक-एक, दो-दो करके चन्द्रु के बहुत से गाहक टूट कर नए ठेले वाले के गिर्द जमा होने लगे तो भी चन्द्रु को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। फिर आजाऐंगे, ये ऊंची दुकान फीके पकवान वाले कब तक चन्द्रु की सच्ची-असली और सही मसालों रची हुई चाट का मुक़ाबला करेंगे? हम भी देख लेंगे। उसने दो एक ग्राहकों को नए चाट वाले की तरफ़ जाते हुए कनखियों से देख भी लिया था और उसे ये भी मालूम हो चुका था कि चिकनी चमकती प्लेटों और होटल नुमा सर्विस के बावजूद उन्हें नए चाट वाले की चाट ज़्यादा पसंद नहीं आरही है।
वो पहले से भी ज़्यादा मुस्तइद हो कर अपने काम में जुट गया। यकायक उसके कानों में पाज़ेब की एक खनक सुनाई दी, उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क गया। उसने निगाह उठा के देखा। गली से पारो पाज़ेब खनकाती अपनी सहेलीयों के संग बरामद हो रही थी, जैसे चिड़ियां चहकें , ऐसे वो लड़कियां बोल रही थीं। कितनी ही बड़ी-बड़ी और शोख़ निगाहें थीं। फ़िज़ा में अबाबीलों की तरह तैरती हुईं और सड़क पार करके उसके ठेले की तरफ़ बढ़ने लगीं।
अचानक पारो की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ़ उठीं ।
वो रुक गई।
उसकी सहेलियाँ भी रुक गईं।
वो सांस लिए बग़ैर पारो की तरफ़ देखने लगा।
पारो ने एक उचटती सी निगाह चन्द्रु के ठेले पर डाली। फिर नख़वत से उसने मुँह फेर लिया और इक अदा-ए-ख़ास से मुड़कर अपनी सहेलियों को लेकर नए ठेले वाले के पास पहुंच गई। तुम भी? तुम भी? पारो तुम भी?
चन्द्रु का चेहरा ग़ुस्से और शर्म से लाल हो गया। रगों और नसों में ख़ून गूँजने लगा। जैसे उसका हलक़ ख़ून से भर गया हो। वो कुछ बोल नहीं सका। मगर उसे देखकर लगता था जैसे वो बोलने की कोशिश कर रहा हो। वो उस मोटी दीवार को तोड़ देगा जो उसकी रूह का अहाता किए हुए थी। उसके चेहरे को देखकर लगता था जैसे वो अभी चीख़ कर कहेगा, "तुम भी! तुम भी? पारो...तुम भी!" मगर ख़ून उसके हलक़ में भर गया था। उसके कान किसी बढ़ते हुए तूफ़ान की आवाज़ें सुन रहे थे और उसका सारा बदन थर-थर काँप रहा था गोया कोई आख़िरी कोशिश किसी लोहे की दीवार से टकरा कर टूट गई थी और वो सर झुका कर अपने ग्राहकों की तरफ़ मुतवज्जा हो गया।
मगर इस बेचैन पाज़ेब की खनक अभी तक उस के दिल में थी। पारो और उसकी सहेलियाँ नए ठेले वाले के गर्द जमा अन्वा-ओ-इक़साम की चाटें खाए चली जा रही थीं और बीच बीच में तारीफ़ें करती जा रही थीं । इन सब में पारो की आवाज़ सबसे ऊंची थी।
"हाय कैसी लज़ीज़ चाट है। कैसे बराबर के मसालहे हैं। उस मुए (नाम न लेकर महज़ इशारा करके) पुराने ठेले वाले को तो चाट बनाने की तमीज़ ही नहीं है। अब तक झूटी पत्तलों में चाट खिलाता रहा है।"
"अरी उसके हात तो देखो..." पारो ने चमक कर चन्द्रु की तरफ़ इशारा किया।
"कैसे गंदे और ग़लीज़...मालूम होता है सात दिन से नहाया नहीं..."
"एक नैपकिन तो नहीं उसके पास। जब हाथ पोंछने के लिए माँगो वही अपना गंदा मैला तौलिया आगे कर देता है।" "उंह..." पारो आग के पतले पतले होंट नफ़रत से ख़म हो गए। "मैं तो कभी इस चाट वाले के ठेले पर थूकुं भी ना।"
इसके आगे चन्द्रु कुछ सुन न सका। एक लाल आंधी उसकी आँखों में छागई। वो गूंगों की सी एक वहशतज़दा चीख़ के साथ अपना ठेला छोड़कर आगे बढ़ा और उसने नए ठेले वाले को जा लिया और उससे गुत्थम गुत्था हो गया। लड़कियां चीख़ मार कर पीछे हट गईं। चन्द्रु नए ठेले वाले और उसके छोकरे दोनों पर भारी साबित हुआ। चन्द्रु एक वहशी जानवर की तरह लड़ रहा था। उसने नए ठेले वाले को मार मार कर उसका भुरकस निकाल दिया। उसके ठेले के सारे कांच तोड़ डाले। छोकरे की पिटाई की। नया ठेला मा अपने साज़ो सामान के सड़क पर औंधा दिया। फिर सड़क के बीच खड़ा हो कर ज़ोर ज़ोर से हांपने लगा।
पुलिस आई और उसे गिरफ़्तार करके ले गई।
अदालत में उसने अपने जुर्म का इक़बाल कर लिया। अदालत ने उसे दो माह क़ैद की सज़ा दी और पान सौ रुपया जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार माह क़ैद बा मशक़्क़त।
सिद्धू हलवाई ने जुर्माना नहीं भरा।
और दूसरा कौन था जो जुर्माना अदा करता?
चन्द्रु ने पूरे छः माह की जेल काटी।
जेल काट कर चन्द्रु फिर सिद्धू हलवाई के घर पहुंच गया। कोई दूसरा उस का ठिकाना भी नहीं था। सिद्धू हलवाई पहले तो उसे देर तक गालियां देता रहा और उसकी हमाक़त पर उसे बेनुक़त सुनाता रहा और देर तक चन्द्रु सर झुकाए ख़ामोशी से सब कुछ सुनता रहा। अगर वो गूँगा भी न होता तो किस से कहता। उसका जुर्म ये नहीं था कि उसने एक ठेले वाले को मारा था। उसका जुर्म ये था कि उसने एक पाज़ेब की खनक सुनी थी।
जब सिद्धू हलवाई ने ख़ूब अच्छी तरह गालियां देकर अपने दिल की भड़ास निकाल ली तो उसने उसे फिर काम पर लगा लिया। आख़िर क्या करता? चन्द्रु बेहद ईमानदार, मेहनती और अपने काम में मश्शाक़ था। अब जेल काट के आया है तो थोड़ी सी अक़ल भी आगई होगी कि क़ानून को अपने हात में लेने का क्या नतीजा होता है। उसने ख़ूब अच्छी तरह समझा-समझा के दो-तीन दिन के बाद फिर से चन्द्रु को उसी अड्डे पर ठेला देकर रवाना कर दिया।
चन्द्रु की गैरहाज़िरी में सिद्धू ने एक अच्छा काम किया था। उसने चन्द्रु के ठेले पर नया रंग रोग़न करा दिया था। कांच भी लगा दिया था। पत्तलों की जगह कुछ सस्ती क़िस्म की चीनी की प्लेटें और कुछ चमचे भी रख दिए थे।
चन्द्रु छः माह बाद फिर से ठेला लेकर रवाना हुआ। आठवीं, दसवीं और ग्यारहों सड़क पार करके लिंकिंग रोड के नाके पर आया। यूनीयन बंक से घूम कर टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज के पास पहुंचा। उसने देखा जहां पर पहले उसका ठेला था अब उस जगह उस नए ठेले वाले ने क़ब्ज़ा कर लिया था। वही छोकरा है, वही ठेले वाला है। उस ठेले वाले ने घूर कर चन्द्रु को देखा। चन्द्रु ने अपनी नज़रें चुरा लीं। उसने नए ठेले वाले से कुछ फ़ासले पर ऐक्सचेंज के एक तरफ़ अपना ठेला रोक दिया और ग्राहकों का इंतिज़ार करने लगा।
चार बज गए, पाँच बज गए, छः बज गए। कोई गाहक उसके पास नहीं फटका। दो एक गाहक आए मगर वो नए थे और उसे जानते नहीं थे। चार छः आने की चाट खा कर चल दिए। अफ़्सुर्दा दिल चन्द्रु सर झुकाए अपने आपको मसरूफ़ रखने की कोशिश करने लगा। कभी तौलिया लेकर कांच चमकाता। डोई डाल कर घड़े में मसालहेदार पानी को हिलाता। अँगीठी में आँच ठीक करता। हौले-हौले आलू के भरते में मटर के दाने और मसालहे डाल कर टिकियां बनाता रहा।
फिर यकायक उसके कानों में पाज़ेब की खनक सुनाई दी। दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। ख़ून रुख़्सारों की तरफ़ दौड़ने लगा। वो अपने झुके हुए सर को ऊपर उठाना चाहता था। मगर उसका सर ऊपर नहीं उठता था...पाज़ेब की खनक अब सड़क पर आगई थी।
फिर जिस्म-ओ-जां का ज़ोर लगा कर उसने अपनी गिरी हुई गर्दन को ऊपर उठायाओर जब देखा तो उसकी आँखें पारो पर जमी की जमी रह गईं। उसके हाथ से डोई गिर गई और तौलिया उसके कांधे से उतरकर नीचे बाल्टी में भीग गया और एक गाहक ने क़रीब आकर कहा,
"मुझे दो समोसे दो।"
मगर उसने कुछ नहीं सुना। उस के बदन में जितने हवास थे, जितने एहसास थे, जितने जज़्बात थे सब खिंच कर उसकी आँखों में आगए थे। अब उसके पास कोई जिस्म न था। सिर्फ़ आँखें ही आँखें थीं।
ये उसका ठेला था। वो चंद क़दम पर दूसरा ठेला था और वो तके जा रहा था। पारो किधर जाएगी? हौले-हौले सरगोशियों में बात करते हुए गाहे-गाहे उसकी तरफ़ देखते हुए लड़कियां सड़क पर चलते हुए उन दोनों ठेलों के क़रीब आरही थीं। जे़रे लब बहस धीरे धीरे साथ साथ चल रही थी ।
यकायक जैसे इस बहस का ख़ातमा हो गया। लड़कियों ने सड़क पार करके नए ठेले वाले के ठेले को घेर लिया। मगर चन्द्रु की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ़ नहीं फिरीं। वो इस ख़ला में देख रहा था, गली और सड़क के संगम पर, जहां आज छः माह के बाद उसने पारो को देखा था। वो सर उठाए दुनिया व माफ़ीहा, गिर्द-ओ-पेश से बेख़बर उधर ही देखता रहा।
वो पत्थर की तरह खड़ा सिर्फ़ ख़ला में देख रहा था।
यकायक बड़ी तेज़ी से अकेली पारो अपनी सहेलियों से कट कर उसके ठेले पर आगई और चुप-चाप उसके सामने एक मुजरिम की तरह खड़ी हो गई।
उसी लम्हा गूँगा फूट फूटकर रोने लगा।
वो आँसू नहीं थे। अलफ़ाज़ थे...शुक्राने के। दफ़्तर थे शिकायतों के... उबलते हुए आँसू... फ़सीह और बलीग़ जुमलों की तरह उसके गालों पर बहते आरहे थे और पारो सर झुकाए सुन रही थी।
अब पारो गूँगी थी और चन्द्रु बोल रहा था। अरे वो कैसे कहे उस पगले से कि पारो ने भी तो छः माह इन्हीं आँसूओं का इंतिज़ार किया था।