चन्ना चरनदास / बलराम अग्रवाल

Gadya Kosh से
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उस आदमी के चेहरे-मोहरे, हाव-भाव और वेशभूषा की बातें करके वक्त बरबाद करूँ, उससे कहीं अच्छा है कि सीधे मुद्दे पर आ जाऊँ। गिरीश के गाँव जाते हुए गर्मी और धूप से परेशान होकर मैं रास्ते में बबूल के एक पेड़ के नीचे बैठ गया था। वैसे तो बबूल, वह भी मई मास में, इस मतलब का पेड़ नहीं होता कि उसके नीचे बैठकर गर्मी से राहत पाई जा सके। लेकिन क्या करता? हारे को हरिनाम वाली बात थी। गाँव की ओर जाने वाली बीस-तीस फुटी रेतीली सड़क के न इस किनारे पर कोई घना पेड़ था और न उस किनारे पर। सिर्फ़ बबूल था, वह भी इक्का-दुक्का—एक यहाँ, दूसरा वहाँ और तीसरा…पता नहीं कहाँ। मैं पस्तहाल था, सो गर्मी और थकान से हताश होकर वहीं बैठ गया।

अभी कुछ ही समय बीता होगा कि चलता हुआ पीछे से वह आ गया। मेरी दिशा में ही जा रहा था। उसने शायद बहुत-पीछे से मुझे देखना शुरू कर दिया था, क्योंकि जैसे-जैसे वह अपेक्षाकृत निकट आता गया—वैसे-वैसे उसने बातें दागनी शुरू कर दीं।

“कौन गाँव जाएगा मास्टर?” उसने पूछा।

मास्टर! मैं चौंका। इसे कैसे पता चला कि मैं अध्यापक हूँ? शायद मेरे कन्धे पर लटके थैले को देखकर इसने यह कयास लगाया हो। लेकिन इस वक्त तो वह भी कन्धे पर से उतारकर मैंने ज़मीन पर रखा हुआ है। तब!!

“लियाक़तपुर जाऊँगा।” मैंने जवाब दिया,“धूप बहुत तेज़ है, सो सुस्ताने थोड़ी देर को यहाँ बैठ गया।”

“तेज़ गर्मी या तेज़ सर्दी के मौसम में लम्बी डगर के राहगीर को कहीं बैठना नहीं चाहिए मास्टर।” वह चलते-चलते ही बोला,“अब तो सुस्ता लिया होवेगा। चल उठ।”

इस बीच उसने मेरी ओर कुछ-और रास्ता तय कर लिया था। सूरज इस कदर तेज़ था कि ज़मीन पर घास जहाँ-तहाँ ही बाकी बची थी, वह भी सूखे तिनकों की शक्ल में। वह इस तरह का आग्रह किए बिना सीधा गुजर गया होता तो बेशक मैं कुछ देर-और वहाँ बैठता। लेकिन उसका उपदेशात्मक हो जाना और साधिकार आग्रह करना मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा। मन की बात कहूँ तो अच्छा ही लगा। परहिताय, परोपकाराय—ऐसे निश्छल अधिकार वाला संस्कार हमारे चरित्र से गायब ही हो गया है। ऐसे में, एक भी आदमी ऐसा मिलता है तो मन शीतल हो ही उठता है। अपना थैला कन्धे पर डालकर मैं खड़ा हो लिया।

“तुम्हारे जितना तेज़ नहीं चल पाऊँगा चौधरी।” मैं उससे बोला,“मुझे साथ लेना है तो चाल थोड़ी ढीली रखना।”

“रखेंगे भाई, वह भी रखेंगे।” मेरा अनुरोध सुनकर वह बोला। हालांकि अपनी चाल उसने तिलभर भी ढीली नहीं की।

“कौन गाँव बताया तूने?” उसने अपना सवाल दोहराया।

“लियाक़तपुर।”

“अरे हाँ।” गाँव का नाम सुनते ही उसे जैसे याद हो आया।

“जेठ की धूप क्या है, पता है?” एक पल चुप्पी के बाद उसने स्वगत ही अपनी बात शुरू की,“मेरा ताऊ कहवे था कि सूरज इन दिनों गरम-गरम सुइयाँ पिरथी पर फेंकता है। जो जितना ज्यादा एक जगह रुकेगा, उसको उतनी ही ज्यादा सुइयाँ चुभेंगी। इसलिए चलते रहना चाहिए।…किसके घर जावेगा?” बोलते-बोलते उसने अगला सवाल किया।

“गिरीश के घर।” मैंने बताया।

“छिद्दा का गिरीस?”

“सो तो पता नहीं।”

“भई दो ही गिरीस हैं लियाक़तपुर में—एक छिद्दा का और दूसरा तेजा का।” वह बोला और तुरन्त ही कहा,“मैं समझ गया…तुझे तेजा के गिरीस से मिलना है।”

“सो कैसे?”

“अरे भाई, एक वही है लियाक़तपुर में, जिसके पास एक-न-एक पढ़ा-लिखा आता रहवे है।” मेरा सवाल सुनते ही वह बोला,“तुझ-जैसा साफ़-सुथरा आदमी छिद्दा के लौंडे के पास भला क्यों आवेगा?…अच्छा, एक बात तो बता—खेतीबाड़ी के अलावा ऐसा और-क्या करे है तेजा लौंडा कि…”

वह गाँव और खेती-बाड़ी से जुड़े आर्थिक मामलों का बहुत-अच्छा लेखक है—मैंने उसे बताना चाहा, लेकिन बताया नहीं। यह बताना मुझे दरअसल जरूरी नहीं लगा, क्योंकि जिस तरह उसने अपना पहला सवाल दोहराया था और मेरे जवाब को सुनकर भी अनसुना करके जिस तरह उसने खुद ही उसका जवाब दे लिया था, मैं समझ गया था कि वह मुझसे कम, अपने-आप से ही ज्यादा बातें कर रहा है।

“खैर, पढ़ा-लिखा लौंडा है…करता होवेगा कुछ।” मेरी ओर से कोई जवाब न पाकर वह पुन: स्वगत ही बोला,“तू बुरा तो मानेगा मास्टर, पर तेजा के छोटे लौंडे ने…तेरे इस गिरीस ने चन्ना के साथ बहुत गलत किया।”

उसकी इस बात को सुनकर मैं हल्के-से सन्नाटे में आ गया। जिस आदमी के पास मैं आदर और विश्वास के साथ जा रहा हूँ, अपने लेखों में जो ग्रामीण जनता के उत्थान के नित नये तरीके सुझाता है, जिन तरीकों में से अनेक को उसके पाठक अनुकरणीय मानने लगे हों—उस आदमी के बारे में ऐसी बतें सुनकर कोई भी सन्नाटे में आ सकता था।

“यह चन्ना कौन है?” मैंने उत्सुकतावश उससे पूछा।

“बड़ा भाई है इसका।” उसने तीखेपन के साथ बताया।

“गिरीश ने क्या किया उसके साथ?”

“क्या किया?…जो गैर भी न करता वो किया। उस कम पढ़े-लिखे, खेती में लगे सीधे-सादे लौंडे को लल्लू बना डाला इसने।…दो-चारों ने उन दिनों कोसिस भी करी थी उसे समझाने की, पर वो नहीं माना। अब पछतावे है।”

“पूरा किस्सा बताओ तो कुछ पता लगे।” गिरीश के बारे में उसके नजरिये से प्रभावित होने से बचने के लिए मैं बोला। किसी भी बारे में, मैं दूसरों के नजरिये की बजाय, अपने नजरिये से देखना हमेशा से ही अधिक पसन्द करता हूँ।

“इसका मतलब है कि तू बिल्कुल ही अनजान आदमी है!” मेरे सवाल पर उसने कहा और किस्सा बयान करना शुरू कर दिया,“इनका बाप डाकखाने में मुलाजिम था। अर्दली-उर्दली कुछ था, क्योंकि पढ़ा-लिखा तो वह बिल्कुल भी था नहीं।”

“वह नौकरी क्यों करता था? ज़मीन नहीं थी क्या उसके पास?”

“किसी के पास जमीन होने-भर से ही वो किसान हो जावे है क्या?” मेरी आशंका पर उसने तीखा सवाल किया और बोला,“अरे भाई, फसल निरे पसीने से नहीं पैदा होती। उसके लिए बीज, खाद और पानी भी चाहिए होते हैं।…उस गरीब के पास हौसला तो था, पैसा नहीं था। इसलिए थोड़ी-बहुत सब्जी-उब्जी से ज्यादा वह कुछ पैदा नहीं कर पाता था।…खाली पड़ी रहवे थी बाकी जमीन…सो बिचारे ने सहर में जाके नौकरी कर ली।…तो एक हुआ क्या, कि खजाना लेकर डाकखाने के एक खजांची के साथ तेजा बैंक से डाकखाने को आ रहा था। पूरा रास्ता तो ठीक-ठाक कट गया, मगर ऐन डाकखाने के सामने कुछ बदमाशों ने खजाना थामे खजांची पर हमला कर दिया। ये दो और बदमाश पाँच। सरकारी रकम को बचाने का मामला था, सो दोनों भिड़ गये बदमाशों से। तेजा में बड़ी ताकत थी।…यों देख कि उस बिचारे पे बैल तक नहीं था और हल की बजाय फावड़े से खोद के बीज डाले था वो जमीन में। दिलेर भी पूरा था और अकलमन्द भी। उसने एक बदमाश को नीचे धर लिया और खजांची पर चीखा—सा’ब, तुम रकम लेकर भाग जाओ। मैं इस साले को छोड़ने वाला नहीं हूँ।

बाकी चार ने उसकी पुकार सुनी तो खजाना छोड़कर अपने साथी को बचाने में जुट गए। खजांची उनसे छूटके खजाने समेत डाकखाने में जा घुसा। उधर बदमासों से तेजा को चाकुओं से गोद डाला और अपने साथी को छुड़ाके भाग गए।”

किस्सा सुनाने का उसका अन्दाज़ ऐसा था कि मुझे लू के थपेड़ों तक का पता न चला। पूरा दृश्य उसके बयान के साथ-साथ आँखों के सामने घटित होता दिख रहा था।

“आगे क्या हुआ?” वह रुक गया तो मैंने पूछा।

“पूरे सहर में वाहवाही हुई उसके इस हौसले की। पर, चाकू इतने लग गये थे कि बिचारा बच नहीं पाया। वहीं मर गया।” उसने आगे बताया,“ये चन्ना है न…गिरीस से बड़ा…असल नाम चरनदास है इसका। तेजा प्यार से इसे ‘चरना’ पुकारे था। जैसा वो पुकारे था वैसा ही बाकी घरवाले भी पुकारने लगे। फिर बाकी गाँववाले भी इसे ‘चरना’ ही पुकारने लगे। बोलते-बोलते चरना का ‘र’ घिसके आधा ‘न’ बन गया और ये ‘चन्ना’ हो गया।”

बातों और हालातों का खुलासा करने का उसका यह अन्दाज़ मुझे बेहद पसन्द आया। किस्सा कहने की यह सिफ़त हर आदमी में नहीं होती। शहरों में तो यह दूर-दूर तक किसी में नहीं होती। नामों तक के बनने-बिगड़ने पर उसकी नजर की बारीकी ने मुझे प्रभावित कर डाला, बेशक।

“गरीबी और भुखमरी के कारण अपने इस लौंडे को ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं पाया तेजा।” उसने किस्से को आगे बढ़ाया,“नौंवीं-दसवीं कराके उठा लिया और खेती में लगा लिया। हम-जैसों ने बहुत समझाया उसे कि भले आदमी, लौंडा तबीयत लगाके पढ़ रहा है तो पढ़ने दे। पर वो नहीं माना। उठा ही लिया। ये सीधा लौंडा है। बाप को बहुत मानता था। बिना चूँ-चाँ किए खेती में लग गया। फिर दोनों ने मेहनत करी। अच्छी फसलें लीं। इस गिरीस को दोनों ने खूब पढ़ाया। ईयस्सी-बीयस्सी पता नहीं क्या-क्या पास करा इसने।”

“एमएससी किया है एग्रीकल्चर से, और…।” मैंने उसे बताना शुरू किया।

“हाँ-हाँ।” वह बीच में ही लापरवाही से बोला। जैसे कि गिरीश की डिग्री का सही-सही जिक्र उसके लिए महत्वहीन हो। उसकी निगाह में उसका इतना बता देना और मेरा इतना जान लेना ही काफी था कि गिरीश काफी पढ़ा-लिखा है।

“तेजा जिस बहादुरी से मरा था, उसे देखते हुए डाकखाने वालों ने उसके एवज दोनों भाइयों में से एक को नौकरी देने की सिफारिश सरकार से करी।” उसने आगे बोलना शुरू किया,“चन्ना तो खेती करे ही था। सबने सलाह दी कि गिरीस का नाम नैकरी के लिए भेज दो। पर पता है क्या हुआ?”

“क्या?”

“इस गिरीस नै पता नहीं क्या पट्टी पढ़ाई अपनी माँ और भाभी को कि नौकरी की अरजी चन्ना से लगवा दी।” इतना कहकर वह मुँह-ही-मुँह में बुदबुदाया—‘साला पढ़ा-लिखा मूरख…जाहिल कहीं का।’ फिर जाहिराना तौर पर मुझसे पूछ बैठा,“सीधे-सादे किसान आदमी से आजादी छीनकै उसे सरकार की अरदली में भेज दिया। क्या इसने यह ठीक किया मास्टर?”

“पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने ऐसा किया होगा।” मैं बोला,“ठीक और गलत का निर्णय तो उनसे बाते करके ही दिया जा सकता है।”

“अरे भाई, डाकखाने में डाकियागिरी मिली उसै।” वह क्षुब्ध स्वर में बोला,“इधर के ही चार-पाँच गाँव मिले हैं। इस धूप में, डगर-डगर और घर-घर डोले है बिचारा। चुप ही रहता सही, न कहता सही किसी सै कुछ। लेकिन दिल तो उस गरीब का दुखता ही है। तू यकीन नहीं करैगा, असल में तो रोवै है बिचारा।”

“रोता क्यों है?” मैंने पूछा।

लम्बे और लू-भरे रास्ते पर इस आदमी का मिल जाना मेरे लिए दुखदायी भी था और सुखदायी भी। दुखदायी इसलिए कि मैं वैसी धूप और गर्म रेत झेलने का आदी नहीं था। पसीना मेरी कनपटियों से होता हुआ गरदन के रास्ते नीचे उतर रहा था। मेरी भवों और पलकों तक में पानी भर आया था। यह अगर मुझे अपने साथ न लेता तो मैं कहीं-न-कहीं बैठकर एक पल-और सुस्ताता जरूर। सुखदायी इसलिए कि इसके होते मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी कि लियाक़तपुर किधर है और लियाक़तपुर में गिरीश का घर किधर है? दूसरे, वह बोलने, या कहूँ कि बोलते रहने वाला आदमी था। इसके रहते मैं क्या, कोई भी खुद को अकेला महसूस नहीं कर सकता था। किसी घाघ ग्रामीण की तरह खोद-खोदकर बातें पूछने और उनकी जड़ तक का हाल बयान करने में वह मुझे माहिर नजर आया। माहिर भी पंचतंत्र के दमनक-करटक या अलिफ़-लैला की उस राजकुमारी जैसा, जो किस्से से किस्सा, किस्से से किस्सा निकालती जाती थी और असल किस्से को जिज्ञासा बनाये रखने के लिए सुरक्षित रखती थी। शहर में मैंने ऐसे सैकड़ों मज़मेबाज़ देखे हैं जो मजमे के बीचोंबीच सड़क पर रखी छोटी-सी पिटारी में सिर्फ़ छ: इंच लम्बा और कनकी उँगली से भी कम मोटाई वाला, उड़कर हमला करने वाला काइया-हरा साँप रखने का दावा करते हैं। भीड़ जुटने लगती है तो वे पता नहीं कहाँ-कहाँ के किस्से उसे सुनाने लगते हैं, और बीच-बीच में उस पिटारी की ओर इशारा करके यह भी कहते रहते हैं कि छोटी पिटारी में बन्द गहरे हरे रंग का वह साँप उस तक्षक-वंश का नाग है जिसने राजा जनमेजय के पिता महा-पराक्रमी परीक्षित को डसा था। मजमा जोड़ने के लिए किस्सा-कहानी सुनाने के अपने क्रम में वे महाभारत का कोई दूसरा भी किस्सा सुना शुरू कर दें तो कोई ताज्जुब नहीं। कुल मिलाकर यह कि मजमेबाज किस्से को अन्तत: दाँतों की उपयोगिता, उनकी खूबसूरती और मज़बूती पर ला पटकेगा और इस सब के लिए अपने या अपने उस्ताद के द्वारा बनाए उस दन्त मंजन के उपयोग की सलाह देगा जिसे बेचते हुए उसकी तीन पीढ़ियाँ बीत चुकी होंगी। अपने बस्ते से वह ‘कुछ बाकी बची’ शीशियाँ निकालेगा। कमजोर दिल या ठस दिमाग ग्राहक उन्हें खरीदेंगे और जिज्ञासु कभी इस तो कभी उस टाँग पर खड़े होते टिके रहेंगे किस शीशियाँ बेच चुकने के बाद वह तक्षक के दर्शन जरूर कराएगा। शीशियाँ खत्म हो जाती हैं और भीड़ में से जिज्ञासुओं को भी सिर खुजाते हुए आखिर खिसक ही लेना पड़ता है। ‘इस साले ने खूब उल्लू बनाया। दो घण्टा बरबाद करा दिये।’ सिर खुजाते और खिसकते हुए वे सोचते हैं और पीछे मुड़-मुड़कर देखते भी जाते हैं कि कहीं उनके जाते ही वह बाकी बचे लोगों को तक्षक तो नहीं दिखा रहा। यह भी होता होगा कि अपने-अपने चौपाल पर पहुँचकर ये ‘उल्लू’ उड़ने वाले साँप को देखने की डींगें हाँकते हों और यह साबित कर डालते हों कि गाँवभर में बस वही है जिसने तक्षक को देखा है।

इस आदमी ने भी बात एक सवाल से शुरू की थी। फिर जवाब की चिन्ता किए बगैर यह गिरीश, तेजा और चन्ना पर आ गया था। मेरी जिज्ञासा थी कि चन्न रोता क्यों है? उसका इसने कोई जवाब नहीं दिया!

“हाँ, बात तो यह अफसोस की ही है।” साँस लिने को उसने बात रोकी तो मैंने कहा, फिर पूछा,“लेकिन चन्ना रोता क्यों है?”

“रोवैगा नहीं तो क्या हँसैगा?” वह व्यंग्य और तीखेपन के मिले-जुले अन्दाज़ में बोला।

“क्यों?”

“ये बात तेरी समझ में नहीं आवैगी।” वह बोला,“अरे भाई, खेती-किसानी में हजार मेहनत के बाद भी आराम है, आज़ादी है। काम निबट जाए तो चैन ही चैन है। सुबह से शाम तक कौड़ियाँ और कंचे। अब, जिस आदमी नै आठ-सात साल खेतों और कौड़ियों-कंचों में बिता दिये हों, उसै लगकै काम करना पड़ जावै…गुलामी करनी पड़ जावै किसी की, तौ वो रोवैगा कै हँसैगा?”

“लोग मारे-मारे फिरते हैं सरकारी नौकरी पाने को।” मैंने प्रतिवाद किया,“खेती छोड़कर नौकरी मिल गई, इसमें रोने जैसी तो कोई बात नहीं है।”

“ये बात इतनी आसानी सै समझ में आने वाली नहीं है मास्टर।” मेरे ऐतराज़ पर वह पुन: अपने पूर्व-अन्दाज़ में बोला।

यह कहकर उसने मेरी बात को काटा था या अपनी बात कट जाने पर प्रतिक्रिया दी थी, मैं नहीं समझ सका। तभी, सामने से एक बैलगाड़ी आती दिखाई दी।

“ऐसी दुपहरिया में बैलों कू लेकै कहाँ चला मास्टर?” हाथ उठाकर उसने दूर से ही गाड़ीवान से पूछा। अब मेरी समझ में आया कि उसने मुझे यूँ ही ‘मास्टर’ कह दिया था, अपनी आदत के अनुसार, न कि मुझे आँककर ।

“सयर कू जाऊँ हूँ, यूरिया लेनै।” गाड़ीवान बोला,“गनपत कहवै था कि थोड़े ही कट्टे बचे हैं सेन्टर पै।”

“हाँ भैया, जा।” उसने प्रोत्साहित किया,“ये सरकारी बाबू साले बदमास होवैं हैं। हुए पै भी मनै कर देवैं हैं, जल्दी जा।”

गाड़ी जब गुजर गई तो वह पुन: मुझसे मुखातिब हुआ,“गाँव के डाकियों का हाल ये रहवैं है कि एक-एक डाकिए के जिम्मे गाँव के गाँव होवैं हैं। अब, जिस गाँव की एकाध चिट्ठी बाँटने कू होवै है, उसमें तो ये जावैं ही ना हैं। फिर दो-चार दिन में जब दो-चार चिट्ठी-और जुड़ जावैं हैं, तब जाकै एक-साथ सारी चिट्ठियों कू दे आवैं हैं। लेकिन ये लियाक़तपुर, उसका अपना गाँव, ऐसा है यहाँ दस-बारह चिट्ठियाँ रोज़ तो अकेले गिरीस की ही आनी जरूरी हैं।”

यह कहकर वह चुप हो गया। लगता था कि चन्ना के रोने की कोई सटीक वज़ह न बता पाने के कारण वह फँस गया था। गाँव के लोग उसकी बातों को बिना किसी तर्क के रस ले-लेकर सुनते रह्ते होंगे। इसलिए उसने कही जाने वाली बात को सिद्ध कर दिखाने के ऐसे मौके के बारे में कभी सोचा ही नहीं होगा।

“बड़ी आग बरस रही है।” सिर पर से तितर-बितर लटक आए साफे-जैसे कपड़े को ठीक-से सँवारते हुए वह बड़बड़ाया,“ऐसी आग में गाँव सै सैर, सैर सै गाँव… गाँव सै सैर, सैर सै गाँव—चार चक्कर रोज़ लगाने पड़ैं तो कौन है रो नहीं जावैगा!”

जिस धीमेपन के साथ वह बड़बड़ाया था, उससे जाहिर था कि अपनी बातों पर किसी का तार्किक हो पड़ना उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं। मैंने महसूस किया कि मैं चूँकि बाहरी आदमी था, इसलिए वह धीरे-से भुनभुना-भर रहा था। गाँव का कोई जान-पहचानवाला ऐसे सवाल करता तो जरूर ही वह आक्रामक हो उठता।

“कैसे हो घंसा चाचा?” अचानक पीछे से आवाज़ आई।

मैंने गरदन घुमाकर देखा। एक हट्टा-कट्टा नौजवान पुरानी-सी एक दुपहिया साइकिल पर चला आ रहा था।

“अच्छा हूँ बेटा।” चलते-चलते ही पीछे देखे बगैर घंसा ने जवाब दिया। उसकी यह उदासीनता पीछे वाले के प्रति उपेक्षाभाव न होकर गाँव की राहों पर चल रहे राहगीरों का सामान्य व्यवहार था। इन राहों पर लोग एक-दूसरे को पुकारते तो जरूर हैं, उनके लिए रुकते नहीं हैं। साइकिल-सवार इस दौरान हम लोगों से आगे निकल गया था। मैंने देखा कि उसकी साइकिल के कैरियर पर कागजों का एक पैकेट कसा हुआ था।

“सीधा सैर सै आ रहा है क्या?” मेरे साथ चल रहे घंसा ने पीछे से उसे टोका।

“नहीं चाचा, नंगले से आ रहा हूँ।” साइकिल-सवार ने जाते-जाते ही जवाब दिया,“अब खेड़े को जा रहा हूँ।”

“अरे भाई, खेड़े को बाद में जाइयो।” घंसा ने पुन: पुकारा,“पहले लियाक़तपुर हो आ। देख, ये मास्टर गिरीस सै मिलनै कू आया है।”

यह बात सुनते ही साइकिल-सवार ने एकदम से ब्रेक लगा दिये। वह ज्यादा आगे नहीं पहुँचा था। जब तक वह साइकिल से उतरकर नीचे खड़ा हुआ, हम लोग उसके निकट पहुँच गये।

“राम-राम जी।” मुझे देखते ही वह बोला,“मुझे चन्ना कहते हैं, चन्ना चरनदास।” यह कहते हुए उसने साइकिल के कैरियर पर लगा कागजों का बंडल निकाल लिया।

मैंने देखा कि वह दरअसल चिट्ठियों, रजिस्ट्रियों और मनीऑर्डर फार्मों का बंडल था। स्वभाव की दृष्टि से मुझे उसमें ग्रामीण-कच्चापन नजर आया। ऐसा कच्चापन जिसे शब्द नहीं दिए जा सकते। वह चौड़ी हड्डियोंवाला नौजवान था और किसानियत अभी भी उसके बदन में मौजूद थी। अपने कच्चेपन के साथ मुझे वह सहज और हँसमुख भी लगा। तो यह है चन्ना!—मैंने उसे भरपूर देखते हुए सोचा…यह रोता-सा तो नहीं दिखता!!

“आप कैरियर पर बैठिए। मैं आपको ले चलता हूँ।” वह मुझसे बोला।

“इस गर्मी में मुझे खींचोगे! नहीं-नहीं।” मैं संकोच के साथ बोला,“तुम अपना काम निबटाओ। मैं इनके साथ आता हूँ।”

“ये तो अगले मोड़ पर बाएँ घूम जाएँगे।” चन्ना बोला,“इन्हें लियाक़तपुर नहीं, खेड़े जाना है।”

उसकी इस बात पर मैं उसके साथ ही चलने को विवश हो गया।

“ठीक है। लाओ, लैटर्स का यह बंडल मेरे थैले में डाल दो।”

चन्ना ने वैसा ही किया और साइकिल पर सवार हो गया। मैंने हाथ जोड़कर घंसा को नमस्कार किया और चन्ना की साइकिल के पीछे कैरियर पर टिक गया। अपनी बातों के खिलाफ मेरी टिप्पणियों से घंसा शायद कुछ ज्यादा ही उखड़ गया था। मेरे नमस्कार का उसने कोई जवाब नहीं दिया।

धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते गए। घंसा पीछे छूटता गया।

“मैं आपका नाम जान सकता हू?” साइकिल खींचते चन्ना ने मुझसे पूछा।

“हरीश…हरीश पाठक।”

“हरीश पाठक!…कानपुर वाले?”

“तुम्हें कैसे मालूम?”

“गिरीश के पास आए आपके सभी खत पढ़ रखे हैं मैंने।” चन्ना बोला,“गिरीश की तरफ से उनमें से कुछ के तो जवाब भी आपको मैंने ही लिखे हैं।”

“अच्छा!” उसकी बात पर मेरे मुँह से निकला।

“ये घंसा आपको कहाँ मिल गया?” चन्ना ने पूछा।

“यहीं, रास्ते में ही।” मैं बोला,“इसकी वजह से ही इतना रास्ता आराम से कट गया।…अच्छा, एक बात तो बताओ—तुम्हें खेती करना पसन्द है या नौकरी करना?”

“क्यों?”

“यों ही।”

“घंसा ने आपसे ऐसा कुछ कहा क्या?”

मुझ सत्तर किलो वज़नी आदमी को साइकिल पर बैठाकर रेतीले रास्ते पर खींच ले जाना कोई आसान काम नहीं था। साँस चन्ना के नथुनों की बजाय मुँह के रास्ते आने-जाने लगी थी। धोंकनी इतनी तेजी से चल रही थी कि शब्द उसके मुँह से तरल प्रवाह की बजाय कंकड़ों की तरह रुक-रुककर, एक-एक टूटकर बाहर आ रहे थे। मैंने पीछे को नजर दौड़ाई। घंसा अब बिल्कुल भी नजर नहीं आ रहा था।

“हाँ, उसने कहा कि नौकरी करते हुए तुम खुश नहीं हो।”

“जरा उतरेंगे?” फूली साँस वाले चन्ना ने एक झटके के साथ शब्दों को गले से बाहर फेंका। मुँह से साँस लेने की उसकी आवाज़ मुझे साफ-साफ सुनाई देने लगी थी। मैं तुरन्त साईकिल पर से कूद गया। चन्ना भी उतर गया। काफी दूर तक वह चुपचाप पैदल ही चलता रहा। शायद साँस के सामान्य हो जाने के इन्तजार में। फिर बोलना शुरू किया,“जिन मुसीबतों के साथ पिताजी ने हमें पाला, वे सब-की-सब हमें अच्छी तरह याद हैं पाठक जी। इसलिए मेरी पढ़ाई को रोककर जब उन्होंने मुझसे खेती कराना शुरू कर दिया तो मैंने बिल्कुल भी मना नहीं किया। उन दिनों वही घर की जरूरत थी। मैंने मेहनत के साथ खेती की। दो आदमी कमाने लगे तो घर की हालत कुछ सुधरी। यही वजह रही कि गिरीश को पढ़ने दिया गया।”

इतना बताकर चन्ना जैसे अतीत में खो गया। मैंने उसके चेहरे की ओर निहारा, उस पर हल्का-सा खिंचाव आ गया था। उसे देखते हुए मैंने उससे आगे की कहानी जानने का आग्रह करना उचित नहीं समझा।

“पिताजी दिनभर दफ्तर में रहते थे पाठक जी…” कुछ देर बाद चन्ना ने स्वयं ही कहानी शुरू की,“…और मैं गाँव में। गाँव का माहौल कुछ अलग तरह का होता है। खाली समय में ताश पीटने वाले, जुआ खेलने वाले, गाँजा-चरस चढ़ाकर बड़ी-बड़ी और बुरी-बुरी बातें बनाने वाले—अलग-अलग तरह के गुट-से बने होते हैं यहाँ। ऐसे ही एक गुट में मैं फँस गया और जुआ खेलने लगा। पिताजी मेरी इस हरकत पर बहुत नाराज हुए और दुखी भी। उन्होंने मुझे मारा-पीटा भी। पर जुआ और जुआरी दोस्त मुझसे न छूट पाए। गाँव में रहते हुए उन लोगों से बच पाना मुमकिन भी नहीं रहा। मैं पूरे-पूरे दिन घर से गायब रहता था और रात को भी देर से ही घर में घुसता था। परेशान होकर अम्मा ने मेरी शादी कर देने का फैसला किया। शादी हो गई, पर पुराने दोस्तों और जंजालों से मेरा पीछा न छूटा। दरअसल, खेतों पर काम के बाद वे और मैं—सब, खाली-ही-खाली होते थे। पैसों तक से जुआ खेलने की लत लग गई थी।”

“सब-कुछ जानते-समझते हुए भी?” मैंने पूछा।

“हाँ। गिरीश तो बाहर रहकर पढ़ रहा था। अम्मा, पिताजी और पत्नी—सब-के-सब मेरे खर्चों और ऐबों से परेशान हो उठे।”

“फिर?”

“फिर!…दुर्भाग्य से पिताजी की हत्या हो गई। गिरीश उन दिनों बीएससी पास कर चुका था। पिताजी के एवज़ में किसी एक को नौकरी देने की बात आई तो इसने जो समझदारी और हिम्मत दिखाई उसे मैं ज़िन्दगीभर नहीं भूल सकता।”

“क्या?” मैंने पूछा।

“इसने कहा—भैय्या, मैं तो नौकरी पाने लायक पढ़ ही गया हूँ और मेरी अभी उम्र भी काफी बाकी है नौकरी के लिए एप्लाई करने को। तुमने दसवीं पास कर रखी है। आराम से पोस्टमैन हो जाओगे। दिनभर घर से और गाँव से बाहर रहोगे तो गाँव के लफंडरों से भी दूर रहोगे। कुछ अम्मा ने मुझे समझाया और कुछ मेरी पत्नी ने। बस, मैंने एप्लीकेशन लगा दी और नौकरी पा ली।”

“अब कैसा महसूस करते हो?”

“शुरू-शुरू में तो कुछ दिन मैं वाकई काफी परेशान रहा। बँधकर काम करने की आदत नहीं थी। दोस्तों और पत्तों के बिना मन नहीं लगता था। लेकिन अब सब ठीक हो गया है। इस काम में भी गिरीश ने ही मेरी काफी मदद की।”

“कैसे?”

“उसने खेती का काम सँभाल लिया।” चन्ना बोला,“दरअसल मेरा नौकरी पर जम जाना और गिरीश का खेती को सँभाल लेना—ये दोनों ही काम ऐसे हुए कि गाँव वाले हम भाइयों के बीच आशंका और ईर्ष्या के बीज बोने में लग गये। गाँव के इस गणित से आप पता नहीं वाकिफ हैं या नहीं, और अगर हैं तो कितने! लेकिन मैंने यह अब ही जाना कि गाँव में जमीनें हड़पने में बड़ी लम्बी और गहरी साजिशें चलती हैं।…आप थकान तो महसूस नहीं कर रहे?” उसने बात बदलकर मुझसे पूछा।

“नहीं।” मैं बोला,“मैंने भी पहली ही बार जाना है कि आदमी यात्रा में अगर अकेला हो तो जल्दी थकता है और दुकेला-तिकेला हो तो बिल्कुल भी नहीं।”

मेरी इस बात पर चन्ना हँस-सा दिया।

“गिरीश ने खेतों को सँभाल लिया तो उन पर नीयत रखने वालों ने मुझे भड़काने की कोशिश की। बोले, कि यह शहर का पढ़ा-लिखा तुझे हजार रुपल्ली की नौकरी में धकेलकर सारी जमीन हड़प रहा है। इसे बोल कि नौकरी इसे ही मुबारक़। लेकिन गिरीश में मुझे ऐसी बदनीयती कभी भी दिखाई नहीं दी। वैसे भी, वह मुझसे छोटा है और मेहनत करके पिताजी के साथ-साथ मैंने भी उसे पढ़ाया है। मैं उस पर शक नहीं कर सकता।”

“ठीक बात है।” मैं बोला।

“गिरीश जब खेती-किसानी से जुड़ी अर्थ-नीतियों पर लेख लिखता है तो मुझसे भी राय लेता है।” चन्ना गर्वसहित बोला,“लेख छपता है तो मेरा भी सिर उठता है। इज्जत-सी महसूस होती है। इस सब की वजह से बुरी आदतें और बुरे दोस्त छूट गये हैं। सोचने का तरीका बदल गया है। रहन-सहन में भी फर्क आया है। हमारी इस सुधरी हुई हालत को देखकर कपटी लोगों को काफी दुख होता है और वे इधर-उधर यह कहने से नहीं चूकते कि गिरीश ने खेत हड़प लिए और नौकरी पाकर चन्ना रोता है। असलियत में तो उन लोगों को दुख है कि चन्ना रोता क्यों नहीं है! और पढ़-लिखकर भी गिरीश गाँव में क्यों पड़ा है, शहर क्यों नहीं चला जाता!!!”

मैंने नजर उठाकर एक बार फिर चन्ना की ओर देखा। सालों तक गाँव, खेत, जुआ और जुआरियों में खटता रहा यह नौजवान मौका मिलते ही भीतर से कितना सुलझा हुआ निकला है! मौका न मिला होता तो एक-न-एक दिन अपनी ज़मीन, अपना घर, अपना सुख-चैन यह जुए के हवाले जरूर कर बैठता। नियति सँभलने का एक मौका हर आदमी को ज़रूर देती है। उस मौके पर वह सँभल गया तो सँभल गया, न सँभल पाया तो मिट गया।

बातें करते हुए हम गाँव के मुहाने पर पहुँच गये थे। बिटौरों और कूड़ियों के पास उपले उलट रही एक युवती ने कनखियों से निहारकर मुझ अजनबी की अगवानी की। नंगे बदन बच्चे मुझे गाँव में घुसता देख, खेल रोककर खड़े हो गये। मैं और चन्ना चलते रहे और गाँव में घुस गये। ढलान पर होकर भी सूरज दोपहर जितना ही गर्म था। हवा का नामोनिशान नहीं।

“ऐसे तापभरे दिन इधर आने का प्रोग्राम बनाया…बड़ी हिम्मत की आपने!…” चन्ना अचानक बोला।

“हाँ, लेकिन इस तरह एक बेशकीमती फॉर्मूला हाथ लग गया।” मैंने कहा।

“क्या?”

“यही कि आगे से कोई घंसा अगर मुझसे कभी कहेगा कि फलां चन्ना बहुत दुखी है…रोता है अपनी किस्मत पर, तो उस पर विश्वास कर लेने से पहले मैं यह जरूर जान लेना चाहूँगा कि वाकई चन्ना ही रोता है या यह बताने वाला…घंसा।”

मेरी इस बात पर चन्ना मुस्कराभर दिया और सामने संकेत कर बोला,“वह देखो, हमारा घर। गिरीश बाहर बैठा है। माफ करना पाठक जी, मैं अब शाम के बाद ही आप से मिलूँगा। डाक बाँटना भी जरूरी है।”

“हाँ-हाँ,” मैं बोला,“तुम अब जाओ।”

“मेरा बंडल?”

“ओह!” मैं हँसा और अपने थैले में पड़ा चिट्ठियों का उसका बंडल निकालकर उसे थमा दिया। चन्ना ने साइकिल के कैरियर में उसे दबाया और वापस बाहर की ओर घूम गया। मैं उसे जाते देखता रहा। किस धूर्त ने इस अफवाह को पैदा किया होगा—मैं सोचने लगा—इस जीवट का आदमी कभी रो नहीं सकता।