चमनलाल की मौत / विजय कुमार सप्पत्ति
चमनलाल मर गए। वैसे तो एक दिन उन्हें मरना ही था। हर कोई मर जाता है । इस फानी दुनिया का और जीवन का यही दस्तूर है, सो जैसे सब एक न एक दिन मर जाते है, वैसे ही वो भी एक दिन मर गए। वैसे कोई ख़ास बात तो नहीं थी उनके मरने में| वो एक औसत और आम आदमी थे। उन्होंने एक औसत और आम आदमी की तरह ही जीवन जिया और करीब 80 साल की उम्र में मर गए। वैसे शायद उनकी उम्र 65 की ही थी | लेकिन अपने जीवन की कठिनाईयों की वजह से वो समय से पहले ही बूढ़े दिखते थे। सच कहा जाए तो जब वो 40 -45 के थे तब ही वो बूढ़े से नज़र आने लगे थे।
कल रात को वो मर गए। रात को सोये तो सुबह नहीं उठे। लोग ऐसा कह रहे थे- भगवान सबको ऐसी ही मौत दे। कोई ये नहीं सोचता है कि इंसान का मन ही कुछ ऐसा है कि वो अंत समय तक नहीं मरना चाहता ।
उनकी नौकरानी रमा रोज सुबह आ जाती थी| रोज चमनलाल सुबह उठकर तैयार हो जाते थे। जब से उन्होंने होश संभाला है, सुबह उठकर स्नान करना और फिर पूजा करके दिनचर्या में शामिल हो जाना उनकी पुरानी आदत थी। उनकी नौकरानी उनके घर की सर्वे-सर्वा यानी कि आल इन वन थी, साफ़ सफाई और खाना बनाना, थोड़े बहुत कपडे धोना इत्यादि सब उसके ही काम थे| चमनलाल अकेले ही रहते थे। रमा रोज सुबह आ जाती थी, तो चमनलाल को वो खाना बना देती थी और फिर घर के सारे काम करके जो कि कोई विशेष नहीं थे, कर जाती थी| खाने में चावल और दाल बना जाती थी। यही चावल और दाल चमनलाल दिन में तीन बार खा कर जीवन जी रहे थे। शाम के वक़्त यही दाल- भात कभी नींद की गोली के साथ तो कभी थोड़ी सी शराब के साथ खा लेते थे|
आज भी जब रमा घर आई देखा तो घर का दरवाजा खुला ही था। अमूनन वो बंद ही रहता था। जब वो अन्दर गयी, तो देखा कि चमनलाल अपनी आराम कुर्सी पर लेटे हुए थे और उनकी गोद में एक फोटो एल्बम था जो कि उनका फॅमिली अल्बम था; जो कि खुला हुआ था . जो पेज खुला हुआ था उसमे उनके बच्चो और दोस्तों की तस्वीरे लगी हुई थी .उनके हाथो में उनकी पत्नी का एक अच्छा सा बड़ा सा फोटो था जो कि पिछले साल ही गुजर गयी थी| चमनलाल की आँखे मुंदी हुई थी और उनके चेहरे पर एक असीम सा संतोष था; जैसे कह रहे हो कि सावित्री अब मैं भी तेरे पास आ रहा हूँ ; तुम अकेली नहीं हो।
नौकरानी ने पहले समझा कि वो सो रहे है| क्योंकि वो अक्सर नींद की गोलियों का सहारा लेकर सोते थे। उन्हें बहुत आवाज दी जोर से पर वो न उठे। उन्हें हिलाया पर उनकी आँखे न खुली, तब नौकरानी को समझा कि शायद कुछ गलत हो गया है| वो दौड़कर पडोसी चोपड़ा जी के घर गयी, उन्हें बुलाया, वो जब आये तो देख कर ही समझ गए कि चमनलाल नहीं रहे। उन्होंने फिर भी दुसरे दोस्त मिश्रा जी को बुलाया, उन्होंने भी देखकर सर हिलाया और कहा कि, "अब चमन नहीं रहा|" सो मोहल्ले के और लोगो को भी बुलाया गया| सब ने अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू कर दी|
चमनलाल को हालांकि कई तकलीफे थी, शारीरिक रूप से कमजोर थे। कमर में हमेशा ही दर्द रहा करता था। हाथ पैर भी दर्द में तकलीफ देते रहते थे। अब चूंकि उनका मन पहले ही खराब हो गया था सो शरीर तो खराब होना ही था। सो एक तो बुढापा ऊपर से ढेर सारी बीमारियाँ और एक अनंत एकांत| पता नहीं किस सोच में डूबे रहते थे। कभी कभी हंस देते थे। और कभी तो बस चुप चाप रहते थे। ज़िन्दगी भर शरीर और मन की तकलीफे रही | कभी कराहे तो कभी रोये, पर जब मौत आई तो शायद नींद में ही चुपचाप चल बसे| पर आज उनके चेहरे पर एक परम शान्ति थी|
नौकरानी का रोना रुक ही नहीं रहा था। उसे चमनलाल अपनी बेटी की तरह ही देखते थे। चोपड़ा ने चमनलाल की एक डायरी को ढूंढा, उन्हें पता था कि चमनलाल अपनी कुछ बाते जो कि महत्वपूर्ण हो, उसमे लिखा करते थे। उसमे उनके तीनो बच्चो और दुसरे परिजनों तथा दोस्तों के नाम और पते लिखे हुए थे। और एक कागज़ पर छोटी सी वसीयत लिखी हुई थी| चमनलाल ने अपना सबकुछ [ वैसे भी अब कुछ बचा ही नहीं था| ये घर भर बच गया था उनकी पत्नी की मेहरबानी से ; वरना ये भी चला जाता था दुनिया को बांटने में . चमनलाल ने जीवन भर सबको बांटा ही जो था ] तीनो बच्चो में बाँट दिया गया था| और कुछ रुपया इस नौकरानी को दे देने की बात थी| चोपड़ा ने तीनो बच्चो को और चमन के दो दोस्तों को और चमनलाल के भाई बहन को फ़ोन कर के इस मृत्यु की सूचना दे दी और उन्हें तुरंत आने को कहा| बड़ा लड़का तो ये सुनकर ही सुन्न हो गया, उसने कहा कि जब तक वो न पहुंचे| दाह संस्कार न करे। और बाकी के कार्यकर्म को यथोविधि पूरा करे,वो पहुँच रहा है| चोपड़ा ने हामी भर दी| वो बड़े लड़के का चमनलाल से प्रेम जानते थे। चमनलाल के बच्चो में ये बड़ा लड़का ही था, जिसका बहुत अनुराग था अपने पिता के लिए।
मिश्रा जी ने कुछ और लोगो के साथ मिलकर चमनलाल के शव को कुर्सी से नीचे उतारा । मिश्रा जी ने कुछ लोगो से घास और पुआल मंगवाया और उस पर एक चादर बिछा कर शव को रख दिया| शव के सर के पास एक दिया जला दिया गया| मोहल्ले के कुछ लोग अंत्येष्टि का सामान खरीदने चले गए| मिश्रा जी ने उन्हें खास तौर से दो बांस, खपच्चियाँ, सफ़ेद कपडा,मटकी , रस्सी, जौ, कंडे, कपूर,काला तिल, गुलाल तथा अन्य जरुरत की चीजे लाने को कहा| मिश्राजी ने अपने एक पंडित मित्र को बुला लिया जो कि अंतिम संस्कार की विधि करवाते थे। घर में अब अंतिम संस्कार की विधि को पूर्ण किया जाने लगा|
चमनलाल के तीन बच्चे थे। जो उनके और उनकि पत्नी के जीवनकाल में ही उनसे अलग हो गए थे। शादियाँ हो गयी थी, सबकी अपनी अपनी नौकरी थी। अपना अपना जीवन था। कभी नौकरी के बहाने और कभी साथ न निभने के बहाने से सब अलग हो गए थे। चमनलाल खुश रहना जानते थे। उनकी पत्नी सावित्री को ये सब [ बच्चो का अलग होना और साथ न देना ] न भाया और वो इस दुःख को न सहकर भगवान के पास चली गयी| अंतिम समय में उसने बहुत दुःख झेले, बुढापा अपने आप में दुखदायी होता है| वो हमेशा ही बीमार रहती थी, कुछ और बीमारियों ने अंत समय में उसका दामन पकड़ लिया| अंत समय में चमनलाल उसका हाथ पकड़कर बैठे ही रह गए और वो परमात्मा के पास चली गयी|
मिश्रा और चोपड़ा ने मिलकर कुछ और मोहल्ले वालो के साथ अंतिम यात्रा की तैयारिया शुरू कर दी। चोपड़ा ने जाकर पास वाले शमशान घाट में जाकर सारी औपचारिकताये पूरी करके आ गए, शाम को दिवगंत चमनलाल को ले जाना तय हुआ| मिश्रा ने कहा कि सूरज के डूबने के पहले ही अग्नि देनी होंगी| मोहल्ले के लोग जमा होने शुरू हो गए थे।
चमनलाल के बच्चे न तब आते थे और न ही अब|| एक बेटी थी जो कि शादी के बाद हमेशा अपने धन की कमी को रोती रहती थी | जो हमेशा ही ये सोचती थी उसे दहेज़ में कुछ मिला ही नहीं| जब भी समय मिलता, और जब भी वो इस घर में आती, कुछ न कुछ सामान जरुर ले जाती| चमनलाल कभी न रोकते| बस घर खाली होता गया| दरअसल बेटी को पिता से गुस्सा था । चमनलाल उसे अपने ही एक दोस्त के घर ब्याह करवाना चाहते थे पर बेटी ने प्रेम विवाह किया । चमन ने मना किया, पर उसने एक न सुनी और जब से ब्याह हुआ है, कुछ न कुछ मांगकर ले जाती थी, ये कहकर कि उसे दहेज़ नहीं मिला, उसका भी हक है इस घर पर । चमन ये समझ नहीं पाए आज तक कि वो खुद से होकर ये सब मांगती थी या उसके ससुराल वाले उसे भेजते थे । बड़ा बेटा जरुर मदद करता था । लेकिन उसकी पत्नी लड़ाकू स्वभाव की थी | बस फिर क्या था, उन्हें तो अलग ही होना था। वो फिर भी अपनी पत्नी को न बताकर चमनलाल की हर महीने कुछ मदद जरुर कर देता| छोटा बेटा सोचता था कि उसके साथ अन्याय हुआ है, उसे ठीक से पढाया लिखाया नहीं गया,क्योंकि उसे विदेश में भेजने के लिए चमनलाल के पास पैसे नहीं बचे थे।| इसलिए वो गुस्से में अलग हो गया । पर हाँ, छोटे की बीबी, जब भी घर आती तो पति की नज़र बचाकर कुछ रुपये चमनलाल के पास छोड़ जाती| उसे चमनलाल में अपने पिता की सूरत दिखायी देती थी| उसके खुद के पिता के भी यही हाल है ...क्या करे भई, ये तो घर घर की कहानी है ....वो भी बड़े बेटे की ही तरह चुपचाप चमनलाल की मदद करती जाती| जो भी हो, चमनलाल ने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा, बस जो मिला उसी में खुश हो गए|
मिश्रा जी ; चोपड़ा और मोहल्ले के दुसरे लोगो को कह रहे थे : जातसंस्कारैणेमं लोकमभिजयति मृतसंस्कारैणामुं लोकम्। अर्थात जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; और मृत-संस्कार, "अंत्येष्टि" से परलोक को। चमनलाल हमेशा ही एक अच्छे आदमी रहे है हमें उनके लिए अच्छा अंतिम संस्कार करना चाहिए|
चमनलाल ने अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी कमाया सब कुछ बच्चो को ही दे दिया, खुद के लिए कुछ न रखा| लोगो की मदद की| गरीबो में बांटा| बहुत सा रुपया दोस्तों ने ले लिया और जब चमनलाल पर मुसीबत आन पड़ी तो सबने किनारा कर लिया| पर इन सब बातो का और दूसरी दुनियादारी की बातो का चमनलाल पर कोई असर नहीं होता था| वो मनमौजी किस्म के बन्दे थे| और अब जब उनके पास कोई नहीं रहता था, तो जैसे तैसे बड़े बेटे और छोटी बहु के दिए हुए पैसो से ज़िन्दगी गुजार रहे थे। चूँकि कम में ही जीना उन्हें आता था, इसलिए इस बात का उन्हें कोई ज्यादा दुःख भी नहीं था। ये घर बचा रहा गया था| इसी में बस चुपचाप जी रहे थे|
चोपड़ा जी ने मिश्रा जी को बताया कि उन्होंने चमनलाल के बच्चो को बुला लिया था। उनके दोस्तों को खबर कर दी थी| बच्चे शायद शाम तक पहुंचे| दोस्त भी कल तक ही पहुँच पायेंगे| भाई और बहन को भी बता दिया गया था, वो भी शायद कल ही पहुंचेंगे| मिश्रा जी ने सर हिलाकर कहा यार चोपड़ा शाम तक कोई न पहुंचे तो हम ही चमनलाल का अंतिम कार्य करेंगे| कोई हो न हो उनका, हम तो है यार……ये कहते हुए मिश्रा जी की आँखों में आंसू आ गए|
जिन जिन को खबर मिल रही थी वो सब घर पर जमा होते जा रहे थे। मोहल्ले की औरते थोड़ी थोड़ी देर में सुबक उठती थी|
चमनलाल खासे प्रसिद्द थे मोहल्ले में| सब लोग उन्हें पसंद करते थे| उनकी पत्नी सावित्री खूब बतियाती रहती थी मोहल्ले के औरतो में| औरतो के अपने दुःख सुख होते है| सो सारी औरते मिलकर वजह और बेवजह की बाते करती थी और अपनी औलादों के अपने साथ नहीं रहने की खाली जगह को इन सब बातो से भरती थी| सावित्री भी इन्ही में से एक थी| जब तक पत्नी जीवित रही, चमनलाल उसे डांटते रहे कि तुम ये काम ठीक से नहीं कर पाती, वो काम अब तक नहीं हुआ। घर का और मेरा ध्यान नहीं रखती हो, साफ़ सफाई नही रख पाती और इसी तरह की और भी बहुत से बेवजह की बाते| कभी अपनों को लेकर और कभी परायो के लेकर| लेकिन एक बात थी,सावित्री को उन्होंने कभी कोई कमी नहीं होने दी, उसे उसका मान, प्यार और जीवन में जो स्थान था, वो दिया . लेकिन जैसे कि अक्सर दाम्पत्य जीवन में होता है . दोनो का झगडा होते रहता था और आज देखो तो उन्ही सब कारणों को चुपचाप सूनी आँखों से देखते रहते थे और सावित्री को याद करते थे | अक्सर रमा से अपनी पत्नी की बाते करके रो उठते थे| मिश्रा जी और चोपड़ा दोनों अक्सर शाम को चमनलाल के साथ बैठकर दो दो घूँट शराब के पीते और अपनी बीबियो के अपने साथ नहीं होने के दुःख को शराब के साथ पी जाते| जीवन भी अजब है| क्या क्या रंग दिखाता है| सब कुछ इसी जन्म में नज़र आता है| यही मिल जाता है|
मिश्रा जी ने जिस पंडित मित्र को बुलाया था, उसने गरुड़ पुराण का पाठ शुरू कर दिया| मिश्रा जी कह रहे थे कि धर्म शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि गरुड़ पुराण के पठन और श्रवण से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है और हम सभी तो बस यही चाहते है कि चमनलाल की आत्मा को पूर्ण शांति मिले और उसे मोक्ष मिल सके। गरुड़ पुराण के अनुसार हमारे कर्मों का फल हमें हमारे जीवन में तो मिलता ही है परंतु मरने के बाद भी कार्यों का अच्छा-बुरा फल मिलता है। मिश्रा जी कह रहे थे कि धर्म शास्त्रों में सारी ही बाते लिखी गयी है|पर वो मन से जानते थे कि चमनलाल ने जीवन भर दूसरो को सुख ही बांटा, पर उसके हिस्से में बहुत ही कम सुख आये, पर चमनलाल हमेशा ही खुश रहते थे| मिश्रा जी से कहते थे कि यार छोडो तुम भी ये धर्म -पुराण ; बस अपना कर्म हमेशा सही रहना चाहिए| सारे के सारे शास्त्र चमनलाल के तर्कों के आगे कुछ भी नहीं थे| और मिश्रा जी और चोपड़ा जी हमेशा ही चमनलाल की बातो से सहमत रहते थे।
चमनलाल के दो भाई बहन थे। जब तक चमनलाल के हाथो में धन की खनक रही, सब उनके आसपास मंडराते रहे और जैसे ही चमनलाल मंदी के दौर में चले गए, सब दूर हो गए, खैर ये सब तो इस कलयुग में होते ही रहता है| सो उनके साथ भी हुआ| भई वो कहते है न सुख के सब साथी और दुःख में न कोय ! कुछ दोस्त भी थे| कुछ पहले ही भगवान के पास चले गए थे कुछ बुढापे की उदास ज़िन्दगी को जी रहे थे| बस कभी कभी कहीं मुलाकात हो जाए तो ठीक, वरना दिन में कभी कभी बाते हो जाती थी| यही पूछ लिया करते थे कि भाई, अब तक जिंदा हो और खूब ठट्टा मारकर हँसते थे|
लोगो ने अंत्येष्टि का सामान ले आया था| दोपहर हो चली थी| कुछ लोगो ने दो-दो ईंटें को कुछ दूरी पर रखकर उस पर दो लम्बे बांसों को रखा, फिर जो खपच्चियाँ लायी गयी थी, उन्हें एक निश्चित दूरी पर रखकर बांधना शुरू किया| पूरी तरह से बाँधने पर उस पर घास को रखा गया|और फिर एक सफ़ेद कपडे को एक बांस के दोनों सिरों में छेदकर के फंसा दिया| मिश्रा जी ने कहा , भाई शव को नहलाया जाए| अब उनके रिश्तेदार तो यहाँ अब तक नहीं आ पाए थे| इसलिए फिर से कुछ लोगो ने चोपड़ा और मिश्रा के साथ मिलकर चमनलाल को नहलाया| चोपड़ा और मिश्र के आँखों में आंसू आ गए थे| क्योंकि वो दोनों, करीब करीब रोज ही चमनलाल के साथ बैठते थे और खूब बाते करते थे| तीनो में खूब दोस्ती थी।
घर के फ़ोन की घंटी बजी। नौकरानी ने उठाया तो उधर से एक बूढी औरत ने पुछा, चमन है ? नौकरानी ने आवाज पहचानी| ये आवाज़ उस स्त्री की थी जो कभी कभी चमनलाल को फ़ोन करती थी| नौकरानी जानती थी उन्हें| चमनलाल ने उसे बताया था कि ये उनकी एक पुरानी मित्र है| लेकिन जिस उत्साह से ये दोनों बात करते थे, नौकरानी को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा था कि दोनों ही कभी प्रेमी थे और अब भी बाते करके एक दुसरे का मन रखते है| ये एक विधवा औरत थी, जो चमन को प्रेम करती थी और वो भी चमन की तरह ही एकांत में जी रही थी, दोनों बस बाते करके ही अपने अकेलेपन को दूर करते थे| नौकरानी ने रोते हुए कहा , “नहीं अम्मा, चाचा नहीं रहे|” ये सुनकर फ़ोन के उस तरफ सन्नाटा छा गया, फिर एक धीमी सी आवाज आई - अच्छा | और फिर सुबकने की आवाज| और फिर फ़ोन बंद हो गया। हमेशा के लिए ! उस औरत का चमन ही एक ही सहारा था, जिससे वो सुख दुःख बांटा करती थी, अब वो भी नहीं रहा|
शाम हो रही थी| तैयारियां पूरी हो गयी थी| बस बच्चो की राह देखी जा रही थी| बच्चे भी आ गए, थोड़ी देर का रोना हुआ| फिर बेटी ने धीरे से चोपड़ा जी से पुछा कि पापा ने वसीयत में क्या लिखा है| चोपड़ा जी ने उसे घूर कर देखा| बड़ा बेटा लगातार रो रहा था| छोटी बहु भी नौकरानी के कंधे से टिक कर रो रही थी| कुछ और लोग भी रो रहे थे| शव को उठाकर बाहर लाया गया और उसे दर्शन के लिए आँगन में रखा गया| चमनलाल का कमजोर शरीर मरने के बाद और कमजोर हो गया था| लोग देख रहे थे| रो रहे थे,सुबक रहे थे ,बाते कर रहे थे| मिश्रा जी ने धीरे से कहा, “चलो भाई देर हो रही है|”
मिश्रा जी लोगो से कह रहे थे कि बौधायन ने कहा है : जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्। तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत्। अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति। तस्माज्जातं मृञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतस:। अर्थात जो भी मनुष्य जन्मा है वो जरुर मरेंगा| इसीलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिए। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् ही कहीं चला जाता है। इसीलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए, इसलिए मित्रो आओ चले, और चमनलाल को विदा करे| ये कहते हुए मिश्रा जी की आँखों में आंसू आ गए|
लोगो ने शव को उठाया| राम नाम सत्य है की गूँज उठी और चमनलाल अपनी अंतिम यात्रा पर चल दिए|
.....उपसंहार ...
चमनलाल को बहुत समय पहले कविता -कहानी लिखने का शौक था और काफी हद तक बहुत सी पत्रिकाओ में भी छपे। कुछ किताबे भी छपवा ली। लोगो को अपनी कविता सुनाते और खुश हो जाते थे मन ही मन में। समय बीतता गया और अब वो बात न रही । भाई ,वक़्त तो ऐसे ही चलता है,कभी किसी का तो कभी किसी और का। यही तो दुनिया है। खैर अब मन हो रहा है कि चलते चलते ; आप सभी को उनकी लिखी एक कविता सुना दूं ; क्योंकि ये उनकी अंतिम कविता थी, जो कि उन्होंने किसी को नहीं बतायी थी ....
आज मैंने एक आदमी की लाश देखी,
यूँ तो मैंने बहुत सी लाशें देखी है,
पर ;
इस लाश की तरफ़ मैं आकर्षित था,
यूँ लगा कि;
मैं इस आदमी को पहचानता था,
इस आदमी की जिंदगी को जानता था
इस लाश के चारो तरफ़ एक शांति थी
एक युग का अंत था ....
एक प्रारम्भ था .....
मैंने लाश को गौर से देखा!
इस लाश के पैरो को देखा,
उसमे छाले थे और पैर फटे हुए थे...
कमबख्त जिंदगी भर जीवन की कठिन राहों पर चला होंगा
मैंने लाश की कमर को देखा,
कमर झुक गई थी और उसमे दर्द उभरा हुआ था;
कम्बखत ने जिंदगी भर जीवन का बोझ ढोया होंगा.
मैंने लाश के हाथों को देखा,
हाथो की लकीरें फटी हुई थी;
कम्बखत ने जिंदगी भर जीवन को सवांरा होंगा.
मैंने लाश के चेहरे को देखा,
उस पर एक अजीब सा सुख छाया था;
भले ही कम्बखत ने जीवन के मौसमो को सहा होंगा;
ज़िन्दगी भर दुःख सहा होंगा,
पर उसके चेहरे पर एक शान्ति थी.
मैंने फिर चारो और देखा,
उसके चारो तरफ़ उसके रिश्तेदार थे;
वो सब थे,जिनकी खातिर वो जिया,
और एक दिन मर गया;
कोई दुखी था,कोई सोच रहा था,कोई रो रहा था, कोई हंस रहा था
सच में हर कोई जी रहा था और ये ही मर गया था ...
अब मैं लाश को पहचान गया था
वो मेरी अपनी ही लाश थी
मैं ही मर गया था!!
जी हाँ दोस्तों, मैं ही चमनलाल हूँ और अब चूँकि बिना अपनों के प्यार के जीना, सहज नहीं रह गया था, इसलिए मैंने कल रात को ढेर सारी नींद की गोलियों को खा लिया था और मर गया| वैसे मैं आत्महत्या करने वालो में से नहीं हूँ| ज़िन्दगी भर मैंने लोगो से यही कहा कि आत्महत्या नहीं करना चाहिए| लेकिन ये बात कोई नहीं समझ पाता कि हम बुढो को पैसो से ज्यादा प्यार चाहिए. अपनों का अपनापन चाहिए. हमें ज़िन्दगी नहीं मारती; बल्कि एकांत ही मार देता है| कृपया आप यदि बूढ़े हो तो एकांत से बाहर निकलो और यदि आपके पास कोई बुढा है तो उसे एकांत मत दो. हमें भी जीना है, हमने बहुत सा जीवन बनाया है, बहुतो को जीवन दिया है; अब अंत समय में कम से कम हमारे हिस्से का जीवन हमें दो| लेकिन ये बात काश कोई समझ पाता अच्छा अब चलता हूँ| सावित्री शायद मेरा इन्तजार कर रही हो| नमस्कार|