चम्पा गाछ, अजगर और तालियाँ / रणेन्द्र

Gadya Kosh से
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यह कहानी एतवारी खड़िया उर्फ सरस्वती बागे की है या लाठी सिंह दरोगा की, ठीक-ठीक नहीं मालूम। यह हीरापुर कहाँ है, कहाँ है खड़िया-घाट, बीरू परगना कहाँ है, कहाँ है बरवे राज, यह भी नहीं मालूम। कोयल, कारो, शंख, ईब और ब्राह्मणी नदियाँ किन इलाकों में बहती हैं, इसकी भी ठीक जानकारी नहीं है। हातमा बस्ती की तिर्की चाय दुकान पर टुकड़ों में जो गप्प सुने हूबहू वही रखने की कोशिश कर रहा हूँ। अपनी समझ से नाम-धाम, गाँव-पता सब बदलने की कोशिश की है। फिर भी किन्हीं साहब-सुबहा को लगे कुछ भी उनसे मिलता जुलता है, तो पहले ही हाथ जोड़कर माफी माँग लेता हूँ। क्षमा माई बाप ! इस गरीब कथाकार को माफ कर दीजिए। अब चमड़े की उँगली है और लोहे की कलम, थोड़ी-बहुत इधर-उधर फिसल गई होगी, सो माफी।

राजधानी : रंगरंग के रिझरंग

राजधानी के रहवासियों की जिन्दगी में हर क्षण का आनंद। हर कोई इस कोशिश में कि रूटींड लाइफ को एक खूबसूरत-सा टर्निंग पॉइंट दे। जिए तो क्वालिटी लाइफ। ऐसे-वैसे जीने में क्या रखा है? यहाँ हर तरह के शौक के लिए पर्याप्त स्पेस। द स्काई इज अनलिमिट। अगर पीने-पिलाने का शौक है तो तरह-तरह के क्लब मौजूद। खेलने-खाने का शौक हो तो उसका इंतजाम-बात भरपूर। लेकिन बात इतनी भर नहीं थी। यह टर्निंग पॉइंट का शगल तेज नशे-सा था। और इस नशे के इतने-इतने रूप, इतनी वेराइटी कि क्या कहने? कुछ को साइबर कैफे में रंगीनी तलाशने का शगल था तो कुछ को सचिवालय के गलियारों की धूल से चमेली के तेल निकालने का नशा।

यहाँ के बुद्धिजीवी-मसिजीवी समाज के मिजाज को समझना और भी कठिन। इनका एक ग्रुप ऐसा था, जो विद्या मंदिरों का सारा बोझ अपने कंधे पर उठाए फिरने का भ्रम पाले था। एक ग्रुप को छात्रों के भविष्य की इतनी ज्यादा चिंता थी कि पूछिए मत। वे येन-केन-प्रकारेण उन्हें डाक्टरेट की डिग्री दिलाने को आतुर थे। विषय कोई भी हो, चन्द दिनों में थीसिस तैयार। यह ऐसे उ‌द्भट विद्वानों का समूह था कि साहित्य का प्राध्यापक भी फिजिक्स का थीसिस लिखने की कूवत रखता था। इसलिए शक की कोई गुंजाइश ही नहीं। बस इनके पैकेज का ध्यान रखना था। बाकी सारा कुछ वे ध्यान में रखते थे, यूनिवर्सिटी, विषय, एक्सपर्ट आदि-आदि सब कुछ।

राजधानी में बुद्धिजीवियों की एक और खास किस्म पाई जाती थी। ये अपने को एक्टिविस्ट कहलाना पसंद करते थे। इनके टाइम पास करने का ढंग और भी निराला। जब तक रोज घंटा-आधा घंटा इन्हें अपनी विद्वत्ता के वमन का मौका नहीं मिलता तब तक इनका खाना नहीं पचता। पेट में गैस होने लगता। बेचैनी पूरी देह से प्रकट होने लगती। लेकिन राजधानी इनका भी खूब खयाल रखती थी। प्रतिदिन कहीं न कहीं कॉन्फ्रेंस सेमिनार, विमर्श-संगोष्ठियों का सिलसिला चलता रहता। यह ग्रुप इन विमर्शो-सेमिनारों का स्थायी चेहरा था। चिन्तन-वमन उनका स्थायी भाव। ललाट से बौद्धिकता टपकती रहती। इनमें से कुछ अध्यापक-प्राध्यापकनुमा प्राणी थे तो कुछ पूर्व क्रांतिकारी पत्रकार, कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के कर्ता-धर्ता-कार्यकर्ता, तो कुछ राजनीतिक दलों के बौद्धिक- सांस्कृतिक प्रकोष्ठों के अधिकारी। शेष कुर्सियों को कुछ कवि-लेखक-मीडियाकर्मी भरा करते। इन कार्यक्रमों के संयोजक अधिकांशतः किसी मल्टीनेशनल, मल्टीस्टेट या मल्टीडिस्ट्रिक्ट एन.जी.ओ. के सचिव अध्यक्ष-निदेशक आदि हुआ करते। इनमें से अधिकांश के बायोडाटा में यह बात सम्मिलित रहती कि उन्होंने पूर्व में कोई न कोई सम्पूर्ण क्रांति या समूल क्रांति सम्पन्न की है। साथ ही भविष्य में भी एक-दो क्रांतियाँ सम्पन्न करने की प्रबल संभावना।

इन क्रांतिवीरों की एक कॉमन पहचान थी। इनके चेहरों पर हलकी-गाढ़ी दाढ़ियाँ पाई जातीं। इन लोगों ने भूतपूर्व क्रांति की याद में दाढ़ी बढ़ा रखी थी कि किन्हीं चेतना पारीख की याद में नहीं मालूम। हाँ ! कवि ज्ञानेन्द्रपति को लगता है कुछ-कुछ मालूम था क्योंकि उनकी कविता चेतना पारीख से पूछ रही थी कि चेतना पारीख कैसी हो? अब भी पहले जैसी हो, अब भी लाइब्रेरी जाती हो, जिससे प्यार करती हो उसे दाढ़ी रखाती हो।

राजधानी के लिए क्रांति भी अजीब शै थी। हरितक्रांति, श्वेतक्रांति, नीलीक्रांति आदि-आदि कई क्रांतियाँ आकर गुजर गई थीं या गुजरने की तैयारी में थीं। अब तो बड़े-बड़े घरानों के बड़े-बड़े अखबार भी क्रांति करने पर उतारू थे। उन्होंने पूर्व क्रांतिकारी दाढीधारी विप्लवी पत्रकारों को अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया हुआ था। अखबारों के अन्य पृष्ठों की तो नहीं पर पिछले पृष्ठ पर जिस प्रकार देशी-विदेशी अभिनेत्रियाँ अपने अधोवस्त्र में काबिज रहतीं, उनके नजले- जुकाम, ब्यॉयफ्रेंड गर्लफ्रेंड की सूचनाएँ जितने जलजले तेवर से परोसी होतीं, उनसे कोई न कोई क्रांति होने की संभावना प्रबल हो गई थी।

दरअसल जब से मनोज कुमार ने क्रांति फिल्म बनाई थी तब से यह लफ्ज बहुत ही पॉपुलर हो गया था। आज भी जब यह लफ्ज सुनाई पड़ता तो खोपड़ी के पीछे उसी फिल्म का साइनिंग ट्यून बजने लगता.... क्रांतिऽऽऽऽ... क्रांतिऽऽऽऽ...। आँख मूँदने पर पानी में भीगी, रस्सी में जकड़ी हेमामालिनी लोट-पोट करते दिखने लगती। सच कहा जाए तो इसी दृश्य ने इस फिल्म को और इस लफ्ज को हिट कर दिया था।

बहरहाल, बात सेमिनारों-गोष्ठियों की चल रही थी, उनके विषय बहुत गंभीर हुआ करते, जैसे-विस्थापन, पलायन, जल, जंगल, जमीन आदि- आदि। आयोजक-प्रायोजक थोड़ा ज्यादा ही गंभीर दिखते। किन्तु श्रोता कितने गंभीर रहते, यह कहना मुश्किल।

यह अखिल भारतीय पोटा हटाओ मंच का कॉन्फ्रेंस था। वातावरण एकदम गरम। व्यवस्था को सौ-सौ किलो की लानतें भेजी जा रही थीं। वामन पंडित माइक पर थे — ”भयभीत शासक बिना दमनकारी कानून के रह नहीं सकता। चाहे वह राल्ट एक्ट हो चाहे पोटा। सबका एक ही मतलब-नैसर्गिक न्याय बराबरी का मौका जैसी थ्योरियों को उलट देना। सत्ता जिसे खतरनाक समझती है, उसके लिए न्याय की नौटंकी भी क्यों करे? बस उठाया और बंद कर दिया। हाजत ने देह की सारी हड्डियाँ तोड़ दी। पोटा में पुलिस कस्टडी 24 घंटे के बदले तीस दिनों की। अग्रिम जमानत का कोई चांस नहीं। न्यायिक हिरासत एक सौ अस्सी दिनों की। यह छोटा-सा राज्य पूरे देश में इस मामले में अनोखा है कि यहाँ कश्मीर से भी ज्यादा लोग पोटा में नामजद किए गए। साढ़े छह सौ लोगों पर प्राथमिकी दर्ज की गई है। बत्तीस सौ लोग नामजद हैं। दो सौ से ज्यादा गिरफ्तारियाँ हो चुकी हैं। नामजद लोगों में अधिकांश आदिवासी, दलित, पिछड़ी जातियों के भूमिहीन मजदूर हैं। इस खतरनाक कानून के तहत स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियाँ, चरवाही करने वाले बच्चे, बूढ़े-बुजुर्ग गिरफ्तार किए गए। बारह-चौदह वर्ष के बच्चों को पुलिस आतंकवादी मानती है। कहती है कि ये नक्सलियों के इन्फार्मर हैं। गिरफ्तारियों के डर से गाँव-के-गाँव खाली हो रहे हैं। अपने खेत- खलिहान छोड़कर लोग पंजाब-हरियाणा भाग रहे हैं। ऐसा कब तक चलेगा? हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे?” वामन पंडित की आवाज फटने लगी थी। चेहरा लाल-भभूका, देह थरथरा रही थी। लेकिन पिछले तीन घंटों से इन्हीं बातों को सुनते-सुनते श्रोता ऊब चले थे। खासकर जिन्हें माइक पर खुजली मिटाने का मौका नहीं मिला था, वे ज्यादा बेचैनी दिखा रहे थे। निगाहें वामन पंडित की भंगिमाओं के बदले घड़ी की सूइयाँ निहार रही थीं। हॉल के बाहर कॉरीडोर में लंच व्यवस्था की खटर-पटर चल रही थी। श्रोता अब भाषण के बदले पूर्णतया राशन-उन्मुखी लग रहे थे। मंच की अनुभवी आँखें यह भाँप रही थीं। समेटने की तैयारी शुरू हुई। तय हुआ एक तथ्य- अन्वेषी समिति का गठन किया जाए। यह दल पूरे राज्य में घूमकर पोटा की गिरफ्तारियों की सच्चाई परखेगा। उसके बाद आगे की कार्रवाई तय होगी। आखिरी बार जोरदार तालियाँ बजाने का आग्रह हुआ। भोजन के पहले इतनी मेहनत जायज थी।

कृष्णमृगी, कस्तूरी गन्ध और आहट

एतवारी खड़िया को अपने गाँव पर बड़ा गुमान था। शंख नदी की एक धारा उसके गाँव पुरनापानी को घेरकर बहती, जो आगे बढ़कर दो जगहों से पहाड़ियों से गिरती। इन झरनों का नाम सुग्गाकटा घाघ और पेरवा घाघ रखा गया था।

घाघ यहाँ झरनों को कहते हैं और पेरवा कबूतरों को। दोनों घाघों की ओट में कई गुफाएँ थीं। उनमें से एक में तोतों ने बसेरा किया हुआ था और दूसरे में कबूतरों ने। बरसात के दिनों में झरनों से गिरते धार-धार पानी में जब तोते और कबूतर गिरह मारकर गुफाओं में घुसते तो नजारा बहुत ही खूबसूरत हो जाता। इन दोनों झरनों ने एतवारी के गाँव को एक अलग पहचान दी थी। एक अलग सा नाम दिया था। हाट-बाट में पेरवा घाघ वाला पुरनापानी कहने पर लोगों की नजरों में थोड़ी-सी जलन की बू मिलती। ऐसा नहीं था कि लोग झरनों के बहुत शौकीन थे या कबूतरों के बल्कि गाँव को घेरकर बहता पानी उनके दिलों की आँच बना हुआ था, जो खेतों को साल भर हरा-भरा रखता। इन खेतों की गोद हमेशा भरी-भरी रहती। धान, गेहूँ, ईख, अरहर और हर किस्म की सब्जियाँ। जिन फसलों को नजर भर देखने को आन गाँव के लोग तरसते, वे फसलें यहाँ लहराती रहतीं। इलाके में सबसे ज्यादा पढ़ने वाले लड़के पुरनापानी के। नौकरीयाहा लोग, सबसे ज्यादा पुरनापानी के। सबसे तेज खिलाड़ी पुरनापानी के। सब हाटों में भारी किसान पुरनापानी के।

एतवारी जब मिडिल स्कूल पहुँची तो बड़े भाई (दादा) ने उसका नाम सरस्वती लिखवाया। टाइटिल में खड़िया की जगह बागे गोत्र का नाम। दादा ने भी तो नाम बदला था, तेलंगा खड़िया से रवीन्द्र बागे। बागे यानी हिरण, उनका गोत्र था। पुरनापानी में सारे खड़िया लोग इसी गोत्र के थे। हिरण से ही उनके वंश की शुरुआत हुई। वह उनके लिए पवित्र और पूजनीय था। आदिवासियों ने सारे पशु-पक्षियों, सारी वनस्पतियों को अपना पूर्वज मान रखा था। यह एक बहुत ही खूबसूरत एहसास था। प्रकृति के साथ जुड़ाव का खूबसूरत फलसफा। आजा (पितामह) बताते हैं कि हजारों-लाखों साल पहले अफ्रीका और एशिया महादेश को जोड़ने वाली जगह लेमुरिया से खड़िया लोगों ने यात्रा शुरू की थी। फारस में बसने के बाद जनसंख्या बढ़ी तो पूरब की ओर बढ़े। हिमालय की चढ़ाई, हाथों का भी सहारा लिया। दबाते हुए आगे बढ़े। हाथों से इस तरह दबाने की क्रिया खड़िया में तिबःतना कहलाती है। इसी तिबःतना से तिब्बत बना। वे डेलऽअपुर (दिल्ली), अजोड्ऽअपुर (अयोध्या), पअटोपुर (पटना) और रोःऽअपुर (रोहतास) होते हुए हीरापुर पहुँचे। अलग-अलग गोत्रों के अलग-अलग गाँव बसे। धीरे-धीरे बीरू परगना के चार सौ चौरासी गाँव जगर-मगर हुए। सरस्वती के आजा ये कहानियाँ बड़े चाव से सुनाया करते। रिटायर्ड लोगों का शगल। वैसे पूरा रिटायर्ड कैसे कहिएगा। खेती-किसानी में अब भी जान अड़ाए रहते। हाँ! जवानी के दिनों की बात ही कुछ और थी। बहुत काम किया। मास्टर प्यारा केरकेट्टा के दाहिना हाथ थे। पूरे खड़िया इलाके में, अपना जानते स्कूलों का जाल बिछा दिया इन लोगों ने। प्यारा मास्टर को अपने समाज पर बहुत भरोसा। बिना पढ़ाई के खड़िया समाज बढ़ नहीं सकता। प्यारा मास्टर के साथ-साथ आजा का भी खूब नाम। खूब काम किया। खूब मास्टरी की। यही सब संस्कार बच्चों में डालना चाहते हैं आजा। समाज के लिए जीना, समाज के लिए मरना। आदिवासी अगर केवल अपने लिए सोचने लगा तो समझो वह आदिवासी नहीं रहा। अगर यही चलन बढ़ा तो समझो आदिवासी समाज नहीं रहेगा। आजा खूब साफ-साफ बोलते।

सरस्वती के बाबा (पिता) रमेश बागे, अपने जमाने के टॉपर छात्र हुआ करते। इंटर करते रेलवे की नौकरी। जाने किसकी नजर लग गई। रवीन्द्र अभी मैट्रिक में ही पहुँचा था कि एक दुर्घटना में गुजर गए। जवान बेटे की मौत ने आजा को उदास कर दिया। देह-समाँग एकाएक बैठ गया। लेकिन पोते का नाम आजा ने यूँ ही तेलंगा नहीं रखा। तेलंगा खड़िया, वीर शहीद, जिनकी ’जोड़ी पंचैत’ (पंचायत) की बैठकों की खबर से ब्रिटिश साम्राज्य थरथरा गया। 1850-60 में जिन्होंने अंग्रेजों और उसके जमींदारों के खिलाफ उलगुलान (क्रान्ति) की मशाल जलाई। छापामार युद्ध लड़ा। जेल गए। पन्द्रह साल। लौटे फिर लड़ाई शुरू।

’जोड़ी पंचैत’ भी गजब हथियार। न जाने किस-किस देवताधन-पुरखामन ने यह सोच दी। हर गाँव के अखड़ा में पहले बेड़ो (सूर्य भगवान), पोनोमोसोंर (परमेश्वर) और पितर-पुरखों की पूजा, फिर तीर-धनुष, गँड़ासा-कुल्हाड़ी का अभ्यास। तब बैठकर गाँव-समाज की हालत पर बातचीत। भुइंहर जमीन, बाप- दादा, पुरखा-पूर्वज की जमीन, जंगल काटकर धनहर बनाई गई जमीन, जमींदारों की कैसे ? धरती माई और किसानों की कमाई के बीच पर्चा-पट्टा कैसा? कैसी मालगुजारी? बेगारी, रुआब, मारपीट, धान-धन-बेटियों की लूट अब नहीं। बस उलगुलान ! हो उलगुलान !

प्यारा मास्टर और उनके साथियों ने आजादी के दिन देखे। लेकिन खाली आजादी का क्या हो? पेट तो वैसे ही खाली। आगे भी बस अँधेरा। दोन, टाँड़, टुंगरी की खेती के भरोसे बस चार-छह महीना। ज्यादा-से-ज्यादा आठ महीना। बाकी दिन? फिर गाँव-गाँव बैठक। कुछ-कुछ वही 'जोड़ी पंचैत' । गाँव-समाज जुटा। एका की ताकत। स्कूल खुलने लगे। समाज के भरोसे स्कूल। समाज के भरोसे पढ़ाई।

लेकिन तेलंगा उर्फ रवीन्द्र बागे को कई-कई तरह से सोचना पड़ता है। गाँव-गाँव की गैरमजरूआ जमीन, तालाब-पोखरा पर पहिलका जमींदारों के लगुआ-भगुआ, लठैत-बराहिलों का कब्जा कब तक? जंगलों पर गुंडा-ठेकेदारों का राज, केन्दु पत्ता तोड़ाई की मनमाना मजदूरी, बिना लाइसेंसी क्रेशर-साथ और न जाने क्या-क्या। एक ठो बात हो तो बताई जाए। सबसे ज्यादा टेंशन थाना और ब्लॉक से। ठीक गाता है रामावतार चौकीदार, जब से ई बिलौक बनल, गरीबन के जमलोक बनल।’

फिर वही गाँव-गाँव, अखड़ा अखड़ा बैठकी। फुटबॉल मैच एक औजार। नौजवानों को एकजुट करने का सहज उपाय। जोड़ा खस्सी टूर्नामेंट। सालों भर। कभी इस गाँव, कभी उस गाँव। मैच के बाद बैठकी। ’जोड़ी पंचैत’ का नवा रूप। धीरे-धीरे गाँव के गैरमजरूआ पर गाँव का कब्जा।

सरस्वती यही सब देख-सुन बड़ी हो रही थी। बिन बाबा (पिता) की टूअर बेटी। सोना-रूपा-सी प्यारी, पर उदास-उदास। माँ तो जैसे गूँगी। मुँह में जबान ही नहीं। पहले भी चुप्पा ही थी। सिर झुकाकर खटते रहने वाली। बाबा के गुजरने के बाद तो एकदम गूँगी ही हो गई। दिन भर में एकाध बार नजर उठाकर बेटी को देख लेती। स्कूल भेजते समय चोटी गूँथना जैसे मजबूरी। अब तो बड़ी हो रही थी खुद गूँथ लेती। बेटा हॉस्टल से एतवार-एतवार आता तो पसन्द का खाना राँधकर परोस देती। बाकी सब आजा देख लेते वही बोलते-बतियाते, दुलारते- पुचकारते ।

सरस्वती सुबह-शाम आजा के साथ खेत-खलिहान, जंगल-पतार घूमते रहती। घूमते-घूमते भी आजा कुछ न कुछ बताते रहते। जंगल-टुंगरी में जड़ी-पत्ती से जान-पहचान। यह तुतमलंगा है फोड़ा पकाने में, चिरैता, काढ़ा बुखार उतारने में। वनतुलसी, साँपगन्धा, कुकरौंधा, नीम, करंज। शाम से आजा के पास बैठकर स्कूल की पढ़ाई।

सरस्वती हाईस्कूल पहुँची। गोत्र का लक्षण दिखने लगा। हिरणी जैसी बड़ी-बड़ी चंचल आँखें। पैरों में उड़ान। स्कूल के रास्ते जहाँ खाली-सुनसान पाती, कुलाँचें भरने लगती। स्कूल खेलों में चार सौ मीटर तक के सारे मेडल्स पर स्थायी कब्जा।

दसवीं पहुँचते-पहुँचते आजा ने एक और जिम्मेवारी डाली। टोले के एकदम छोटे बच्चे-बच्चियों को अक्षर-ज्ञान कराने की जिम्मेवारी। स्कूल जाने से पहले सबेरे-सबेरे दो घंटे की ड्यूटी। लेकिन इतवार के इतवार आजा के साथ वैद्यकी करने का शौक तो खुद जागा था। जड़ी-बूटी, गाँठ-पत्ती सब सूखाने-कुटने का काम मगन हो कर करती। ऐसा कोई भी नहीं मिला, जिसकी टूटी हुई हड्डी को सरस्वती ने सीधा किया हो और हड़जोरी की पत्तियाँ बाँधी हो और वह ठीक नहीं हुआ हो। जादू था लड़की के हाथों में।

सरहुल पर्व की छुट्टी। रवीन्द्र संगी संग गाँव। संगी रामेश्वर, रामेश्वर गंझू। बगल के जिले का। दोस्त कम, भाई ज्यादा। सरस्वती को एक दादा और मिले। जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी एक सुगन्ध सी फैल रही थी सरस्वती के आस-पास। दादा हँसी करते। माँ के पेट से नहीं आई है सरस्वती, यह तो चम्पा फूल के घड़े से निकली थी। सिवान पर चम्पा फूल का छतनार गाछ। खूब फूल खिलते। बचपन में बिछकर लाता और घड़े में भरता। एक दिन सबेरे-सबेरे उसी घड़े में थी सरस्वती। कभी रोती, कभी किलकारी भरती। माँ ने तो बस पाला।

बचपन से ही चिढ़ाने के लिए यह किस्सा सुनाया करते दादा। शुरू-शुरू में तो खूब बुरा लगता। पैर पटक-पटककर रोती। लोटती। माँ से बार-बार पूछती। माँ खूब प्यार से चुप कराती। खाने के लिए लड्डुआ देती। लेकिन सच-झूठ नहीं बताती। खैर ! वे बचपन की बातें। अब तो सरस्वती सयानी हो गई। सब समझती थी। दादा कितना भी चिढ़ाते अब थोड़े चिढ़ने वाली।

हर बार की तरह रवीन्द्र शाम को ब्लॉक हाईस्कूल फील्ड में। वह जोड़ा टूर्नामेंट। खत्म होते-होते अँधेरा हो गया। पर्व-त्योहार का माहौल। साथियों का हड़िया पीने का मने। पर्व-त्योहार में अनुशासन-बंधन थोड़े ढीले पड़ते। थाना और ब्लॉक कॉलोनी के बीच लोहराटोली में घरे-घर हड़िया-दारू की बिक्री। लोहरा, कारीगर जाति पर गाँव-घर में खेती-बारी नहीं। केवल लोहा की कारीगरी के बल पर अब जिन्दगी काटनी मुश्किल। हर हाट-बाजार में टाटा कम्पनी की कुदाल- खुरपी बिक रही हो तो लोहरा लोगों का कुदाल कौन ले? हारकर पेट पालने का यही तरीका।

लेकिन रवीन्द्र लोग का हड़िया पीने जाना काल हो गया। पहले से थाना का एक जवान बैठा पी रहा था। शायद महुआ दारू। ज्यादा ही पी ली थी। छह फुटा कद, कड़ियल मूँछें और लाल-लाल आँखें। गजब लग रहा था। एक भय का माहौल। दरवाजे पर पैर पसारकर बैठा जिसको-तिसको गालियाँ दे रहा था। शुरू-शुरू में इन्हें भी झिझक हुई। यहाँ बैठे कि नहीं बैठे। लेकिन रवीन्द्र को लगा वे लोग भी भयभीत होकर किनारे हो जाएँगे तो इनके सामने खड़ा कौन होगा? सो इन छह-सात जवानों का झुंड भी वहीं जम गया। थोड़ी देर तक वह सिपाही थोड़ा सावधान रहा। गाली-गलौज बन्द । पैर समेटकर बैठ गया। लेकिन पन्द्रह-बीस मिनट के बाद फिर पुराने हाल में। शायद नशा पूरे चढ़ गया था। रवीन्द्र-रामेश्वर ने अपने साथियों को इशारा कर दिया था कि ज्यादा नहीं पीना है धीरे-धीरे पीना है। हर हाल में होश बनाए रखना है। सहमी हवा कह रही थी कुछ होगा। कुछ अनहोनी। अघट।

सही में अघट घट गया। सिपाही ने फिर एक बोतल माँगी। लोहारिन अभी-अभी बाहर निकली थी। चिंचियाने लगा सिपहिया। हारकर जवान बेटी बोतल लेकर कोठरी से निकली। पास आते ही छाती पकड़ ली और गोदी में खींचने लगा। डरकर चिल्लाने लगी बच्ची। रवीन्द्र को आव न सूझा ताव पास रखा काँसे का लोटा सिपाही के माथे पर। फिर तो पटकम-पटकी। मारपीट। इतनी पिटाई हुई सिपाही जी की कि नशा फट गया। दौड़कर थाने की ओर भागा।

ये लोग भी समझ गए अब रुकने पर खैर नहीं। मिनटों में पूरा थाना उलटने वाला है। खाकर पसरो, मारकर ससरो, है पुरानी कहावत किन्तु बिलकुल व्यावहारिक। सो वे अँधेरे में ससर गए।

पाँच मिनट के बाद लोहराटोली का जो गंजन हुआ कि वे बरसों-बरस दारू-हाड़ी बेचना भूल गए। इतनी मार, इतनी लूटपाट कि चंगेज भी शरमा जाए। सारा छप्पर लाठियों से पिटाकर धूल हो गया। बर्तन-बासन सब चूर-चार दिए गए। किसकी बेटी कब उठी, किसकी पतोहू गायब हुई कौन कहे? पूरे टोले की यही कहानी। सबेर में सब नुची-चुथी बिसुरते आईं। यह तो होना ही था। लेकिन थाना प्रभारी लाठी सिंह उर्फ आर.के. बड़ा हैरत में थे। घोर आश्चर्य। उनका इलाके में इतना रुआब, इतना नाम। हिम्मत कैसे पड़ी, उनके थाना के जवान को हाथ लगाने की। ठीक है, इस थाने में आए हुए अभी दो ही महीने हुए थे। किन्तु इन्हीं दो महीनों में जो धाक जमाई थी कि लोग साल-भर में नहीं जमा पाते। निकलते तो बाजार में सन्नाटा छा जाता। कुत्ते तक दुम दबाकर किनारे हो लेते। गाड़ियाँ एक साइड होकर पास होने लगतीं। इस रुआब के पीछे मेहनत थी। योजना थी। ऐसे ही नहीं रुआब जमता है और न लक्ष्मी कृपालु होती हैं।

चार्ज लेते देर नहीं की थी लाठी सिंह ने। तुरन्त अभियान पर निकले। फोर्स तैयार करवाया। जीप जिला मोड़ पर। सारे ओवरलोडेड बस, ट्रैक्टर, चार सौ सात रुकवाए गए। सीट से ज्यादा यात्री नीचे। अब सब कानून-कायदे से चलेगा। लाठी सिंह चिंघाड़ रहे थे।

उधर मुच्छड़ हवलदार बड़ी जुल्फी वाले लड़कों को एक लाइन में खड़ा कर रहा था। लौंडियों जैसे कपड़े-बालों वाले लड़कों से लाठी सिंह को भारी चिढ़ थी। दरअसल पूरे औरत जात से ही चिढ़ थी। सारे जुल्फी वाले लौंडे-लपाड़ों से थूक चटवाई गई। कान पकड़ कर उठक-बैठक करवाया गया। हज्जामों से बाल कटवाए गए।

दूसरा दिन खान क्रेशर मालिकों और केन्दु पत्ता के ठीकेदारों के लिए काल बन कर आया। कागज दिखाइए, पत्तर दिखाइए। लीज एरिया से बाहर काम काहे हो रहा है। काम बन्द कीजिए। पोल्यूशन बोर्ड का एन. ओ.सी. है कि नहीं। पहले एन.ओ.सी. लाइए फिर क्रेशर स्टार्ट होगा।

माने कि पूरे इलाके में आतंक। हर हाट-बाजार, चाय-गुमटी में लाठी सिंह की चर्चा। एतना कड़ियल, एतना जानकार दरोगा ! ई जिनगी में तो नाय देखे थे बप्पा! जनता अस-अस कर रही थी।

दस दिन-पन्द्रह दिन में सब रास्ते पर। थाना का नया रेट फिक्स। बीसों साल से धन्धा कर रहे लोग इतना टाइट रेट थाना को कभी नहीं दिए थे। लेकिन क्या करें, देना पड़ा। इसी थाने से रोटी कमानी है तो बड़ा बाबू से तो राड़ लिया नहीं जा सकता।

आर. के. उर्फ लाठी सिंह की यही स्ट्रेटजी। हैबोक क्रियेट करो फिर रेट टाइट कर दो। ऊपर तक खिलाओ। महीने-दो महीने में इनकाउंटर करते रहो। ऊपर के अफसर भी खुश।

ऐसे नहीं हुआ करते थे आर०के०। औरतों से चिढ़ते भी नहीं थे। माँ से तो कितना-कितना लगाव था। बड़े होने पर भी माँ रात में कौर-कौर करके खिलाती। खेल-कूदकर आते और पढ़ते-पढ़ते सो जाते। कुछ माँ की मजबूरी, कुछ दुलार। जगाती नहीं, नींद में ही कौर-कौर खिलाती। यही आदत बनी रही, जब तक माँ जिन्दा रही। बहन पाँच-छह साल छोटी। उनसे कभी झगड़ा हुआ ही नहीं। खूब प्यारी दुलारी बहन। लेकिन साथ कहाँ रही।

आर०के० मैट्रिक में थे, जब माँ टी०बी० से मरी। पिता ओवरसियर थे। बस, पैसा कमाने की धुन में। इधर ही पोस्टिंग थी हीरापुर में। बैचलर रहते खाना पकाने के लिए दाई रखे हुए थे। माँ के मरने के एक-दो साल के बाद उसे ही सौतेली माँ बनाकर ले आए। तब तक आर०के० कॉलेज में पहुँच चुके थे। बहन ननिहाल रहने लगी थी। आर०के० ने कभी उसी साँवली-बाँस-सी लम्बी औरत को माँ नहीं माना। इस औरत ने भी तो उसे बेटा कहाँ माना? पिता ने अपना ट्रान्सफर भी गाँव वाले जिले में करवा लिया था। साथ रहना मजबूरी थी। आर.के. ने अपना कमरा दलान वाली कोठरी में आँगन से बाहर कर लिया। तब भी खाने-ऊने के समय भेंट होनी मजबूरी थी। आर. के. को देखते उनके चेहरे का रंग बदल जाता। चिड़चिड़ाने लगती। आर० के० की हर बात में ग़लती निकालती। पिता से रोज़ डाँट, मार-पीट का सिलसिला बन गया।

कितनी उमर रही होगी उस औरत की? मुश्किल से आर.के. से तीन-चार साल बड़ी। पिता से आधी उमर से भी छोटी। जो पिता माँ के सामने बिना मतलब अकड़ते रहते। सीधे मुँह बात नहीं करते। टी०बी० जैसी बीमारी को यूँ ही सर्दी-खाँसी है, कहकर टालते रहे, वही अकडू पिता इस औरत के सामने भीगी बिल्ली बने रहते। हाँ-हूँ के अलावा बेसी नहीं बोल पाते। जायज-नाजायज हर माँग पूरी करते। उसके नाम से शहर में जमीन लिया जा रहा था जिस पर तीन मंजिला मकान बनने की योजना थी। जिसमें छह फ्लैट होते, किराया उस औरत के नाम जमा होगा। शायद इसी शर्त पर शादी हुई हो।

यह सब कुछ हुआ। खूब सुन्दर-मजबूत मकान, हर महीने मुटाता बैंक खाता, सब कुछ। उस औरत के लिए सब चाक-चौबन्द, दुरुस्त । केवल पिता टूटने लगे। उन्हें लगने लगा कि फँस गए। नहीं होनी चाहिए थी यह शादी। बेटे को देखते क्यों खौंखियाती है? जवान धांगड़ को देखकर क्यों खुश हो जाती है? यह सब समझते थे। लेकिन क्या करते? बात हाथ से निकल चुकी थी।

आर० के० ग्रेजुएशन के बाद कमीशन की तैयारी में लगे ही थे कि पिता गुजर गए। घर से खर्चा-पानी उठ गया। हारकर यह नौकरी जॉइन करनी पड़ी। कहाँ आई०ए०एस०, आई०पी०एस० बनने का ख्वाब, कहाँ दरोगा की नौकरी। मन बुझ गया। तब से ही औरतों से चिढ़ होने लगी। मन मर ही गया। भावुकता, वह नमी, माँ के संग ही चली गई। शादी सीनियर डी०एस०पी० के दबाव में करना पड़ा। पुलिस अफसर की इकलौती बेटी। जनम की नकचढ़ी। बचपन से ढेर-ढेर रुपया देखने वाली। रुपए की नजर से सबको देखती। हसबैंड भी बस रुपया कमाने की मशीन। विशेष कोई मतलब नहीं। पोस्टिंग पर कभी साथ नहीं आई। मैके के पास ही फ्लैट पापा ने दिया था, वहाँ से हिली ही नहीं। अब बच्चों को भी शहर ही अच्छा लगता। मम्मी ने अपने हिसाब से ढाल लिया। परिवार का सुख, नेह-दुलार कुछ नहीं मिला आर० के० को। आर० के० भी इन चीज़ों को भूलता लाठी सिंह में ढल गया।

पढ़ने की आदत बनी हुई थी दरोगा लाठी सिंह की। जिस थाने में जाते वहाँ की फाइल, रजिस्टर, पूर्व का इन्सपेक्शन रिपोर्ट सब खोद-खोदकर पढ़ जाते। यूँ ही इलाके पर पकड़ नहीं बनती। किन्तु जवान की पिटाई का मामला सुलझ नहीं रहा, कोई बताने को तैयार नहीं कि कौन लोग थे? अगर नक्सली भी होते तो अब तक पता चल जाता। हर नक्सल पार्टी में इनका अपना सोर्स था। यूँ ही डिपार्टमेंट में इनकी धाक नहीं थी। लैंड माइंस इनके इलाके में बिछें और घंटा-दो घंटा में सेल फोन पर एस०एम०एस० नहीं आ जाए, ऐसा हो नहीं सकता। अब तक जितना इनकाउंटर किए थे उनमें से कम-से-कम पचास परसेंट की मुखबिरी पार्टी के अन्दर के लोगों ने की थी। लेवी का पैसा और लम्पट तत्व वहाँ भी खलबली मचा रहे थे। यह मामला नक्सलियों का हो नहीं सकता।

आखिर थाना के चश्मल्लू मुंशी पर उनका ध्यान गया। यह मुंशी तो दसों साल से इसी थाने में कलम घिस रहा था। इससे कोई बात छिपी नहीं होगी। यह बात अब तक ध्यान में क्यों नहीं आई? वैसे प्रोटोकॉल खूब मेंटेन करते हैं लाठी सिंह। जूनियर स्टाफ अफसर से कम-से-कम बातचीत। एक खास दूरी बनाए रखना। पूरी वर्दी में डेरे से बाहर निकलना, पूरे फोर्स के साथ फील्ड में जाना, सीनियर्स की प्रॉपर रिगार्ड एवं परसेंटेज देना-यह सब उनकी आदत में शामिल था।

मुंशी जी डेरा बुलाए गए। कई नए रहस्य खुले। रवीन्द्र बागे और उसके फुटबॉल टूर्नामेंटों का राज खुला। पुराने थाना प्रभारी के सस्पेंशन के कारणों का पता चला। डेरा की दाई की बारह-तेरह साल की बच्ची को रगड़ दिया था पुराने दरोगा ने। उसकी यह पुरानी बीमारी थी। डिपार्टमेंट पूरा वाकिफ था। पहले भी इसी बिना पर सस्पेंड हुए थे किन्तु आदत जाती नहीं थी। खून से लथपथ बच्ची जब डेरा से गिरती-पड़ती निकली तो रवीन्द्र के संगी फुटबॉल खेलने उसी रास्ते जा रहे थे। वे बच्ची को उठाकर ब्लॉक अस्पताल ले गए। डॉक्टर डेरा से निकले ही नहीं मटिया दिए। कम्पाउंडर लोकल था। उसने ही टाँका-वाँका देकर खून रोका। तब तक रवीन्द्र पहुँच गया। ट्रक रुकवाकर बच्ची संग सीधे एस. पी. कोठी। एस.पी. साहब को सन्देह नहीं था फिर भी मुकम्मल कार्रवाई करना चाहते थे। सो पिछले दरवाजे से गाड़ी निकलकर सीधे बीस-बाईस किलोमीटर पुरनापानी थाना। थाना भी नहीं सीधे बड़ा बाबू के दरवाजे गाड़ी लगी।

घटना घटे एक घंटा से ज्यादा नहीं हुआ था। बड़ा बाबू थाना के करीबी स्टाफ के साथ मुड़ी जोड़कर रास्ता ढूँढ़ने में लगे थे। तभी बड़ा साहब धड़धड़ाते अन्दर। सब खिड़की-दरवाजे से कूदते-फाँदते भागे। साहब का बॉडीगार्ड बड़ा बाबू को तो पहचानता ही था। दौड़ाकर पकड़ लिया।

एस०पी० साहब ने खून सना बेडशीट, तौलिया, बच्ची का सलवार अखबारों में लपेटा और गिरफ्तार थाना प्रभारी के साथ वापस। ऐसा कड़ा लिखकर गए कि आज तक सस्पेंशन नहीं टूटा।

जिला मीटिंग में भी और लोगों ने मुंशी की कहानी को सही बताया। खबर देने पर पुराने बड़ा बाबू भेंटाए। मुँहमाँगा देने की बात कही अगर रवीन्द्र पर एक्शन हो तो। पच्चीस हजार तो पेशगी देकर गए। पेशगियों की तो जैसे बरसात हो गई हो। क्रेशर मालिकों ने, माइंस ऑनर, जंगल ठेकेदार, तेन्दु पत्ता के एजेंट जिसको पता चला सबने आ-आकर बंडल थमाया। अंधा क्या चाहे दो आँख।

बस, कच्चा काम नहीं होना चाहिए।

लाठी सिंह ने फुल प्रूफ तैयारी की। कई देसी कट्टा, वर्दी, माओवादी साहित्य जुटाए। इतवार को रवीन्द्र बागे घर पर ही था। दो बजे रात को छापा पड़ा। फिर भी पूरा टोला जुट गया। चौकीदार को हिम्मत नहीं पड़ी घर में सब सामान रखने की। जाँच का नाटक कर वापस आना पड़ा। सारा गुस्सा चौकीदार पर उतरा।

लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती? बड़ा दिन की छुट्टी तक रवीन्द्र, उसके संगी-साथी सब भूल-भुला गए। फिर गाँव आना-जाना शुरू। फुटबॉल मैच शुरू। बड़ा दिन में तो लीग मैच।

फाइनल मैच के दिन थोड़ा ज्यादा देर हो गई। अँधेरा घिरने लगा। लेकिन साथियों का गप्प खत्म नहीं हो रहा था। मैदान के उस पार हाईस्कूल के हॉस्टल मेस से चाय आने वाली थी। रवीन्द्र-रामेश्वर सारा ग्रुप ही था। तभी एकाएक पुलिस की कई गाड़ियों ने आकर घेर लिया। छिटककर जो थोड़ा दूर बैठे थे, वे अँधेरे का फायदा उठाकर भागने में सफल रहे। रवीन्द्र-रामेश्वर के साथ और तीन लड़के धर लिये गए। थाना की ओर मुड़ने के बदले गाड़ियाँ जंगल की और बढ़ गईं।

मुश्की बँधे पाँचों लड़के अब पार्टी की वर्दी में थे। पैरों के पास कट्टा भी रखा गया था। पॉकेटों में माओ की छोटी लाल किताब। फायरिंग की आवाज के पहले ही रामेश्वर लुढ़क गया। लुढ़कता हुआ ट्रेंच में जा गिरा। बिना देरी किए जंगल के अन्दर।

इलाके में हाहाकार मच गया। जिसने उँगली उठाने की कोशिश की वही पोटा में नामजद। नक्सल के नाम पर घर में छापा। एकदम आतंक । आजा जो खटिया पर गिरे तो देह उठने लायक नहीं रही। क्या सोचकर पोते का नाम शहीद तेलंगा के नाम पर रखा, वैसी ही शहादत। वैसा ही दोषी। कुछ महीने तक सरस्वती का कॉलेज छूट गया। खाना-पीना भी नहीं के बराबर। आजा के बाद घर में बस गूँगी माँ थी, जो और पत्थर हो चली थी। तभी खबर दी गई कि गाँव के सिवाने वाले जंगल में पार्टी दस्ता रुका है। हर घर से खाना भिजवाना है।

बहुत महीनों बाद भात राँधने बैठी। जैसे-तैसे तियन (सब्जी) राँधा। माँ जाने की स्थिति में नहीं थी। पड़ोस की काकी-चाची के साथ खाना पहुँचाने गई। अरे! ये तो दादा थे। रामेश्वर दादा। दोनों मिलकर पहले खूब रोए। पहली बार इतना खुलकर रोई सरस्वती। घर में आजा-माँ को सँभालने में अपना दुख भी भूल गई। थी आज रामेश्वर दादा को अकेले देखा। बगल में अपने दादा का जगह खाली देखी तो अजीब हूक-सी उठी। लगा कलेजा फटा। कोई बाँध टूटा। रुलाई जोर से फूट पड़ी। लड़का होकर रामेश्वर दादा भी जार-जार रो रहा था। उस दिन दोनों ने एक-दूसरे से कुछ नहीं कहा। आँसू ही सब कुछ कहते रहे। सुनते रहे। आँसुओं ने दिल की बातें समझी भी, समझाई भी।

उसके बाद धीरे-धीरे सरस्वती न केवल कॉलेज जाने लगी बल्कि खेत- बजार का भी समाचार लेना शुरू किया। बटाई पर खेतों को उठाया। समय पर बिचड़ा, समय पर रोपाई भी हुई। कुछ गोतिया-दियाद को सुरसतिया की खेती अब खटकने लगी।

रामेश्वर दादा से अब महीना-दो महीना पर मुलाकात होने लगी। पेरवा घाघ के गुफा के मुहाने वाले चट्टान पर दोनों घंटों बतियाते। सरस्वती को लगता कि वह बस अपना दादा है। किन्तु समाज को लग रहा था कि वह गंझू है, छोटी जाति। खड़िया अपनी रक्तशुद्धता नहीं भूल सकते।

लेकिन सरस्वती मानने के लिए तैयार नहीं। वह रवीन्द्र दादा और रामेश्वर दादा में फर्क नहीं करती। उसकी देह से फिर से चम्पा गन्ध फूटने लगी। आँखें चपल और चमक भरी। चेहरे पर झरने-सा पानी छलछलाता रहता। चाची-काकी समझाती चम्पा फूल भरे घड़े से निकलने वाली बहन से उसके भाई ने ही शादी की थी। सो वह रामेश्वर दादा से दूर ही रहे। लेकिन रामेश्वर दादा से मिलकर, जो एहसास होता, जो अलग तरह की खुशी होती, वह बता नहीं पाती थी सरस्वती। दादा की बातें और उनकी दी हुई किताबें उसके लिए नई दुनिया खोल रही थी। कैसे समझती काकी-चाची। वह कैसे समझाती। उन किताबों में डूबने के बाद जागते हुए सपना देखने लगी सरस्वती। कभी उसे लगता की महाश्वेता की द्रौपदी वही है, कभी उसे लगता कि वही है हजार चौरासी की माँ। कभी-कभी दादा पेरवा घाघ के सुर में सुर मिलाकर कविताओं का पाठ करते। अजीब दुनिया ! नई दुनिया। किताबों की दुनिया, जमीन पर उतारने की तैयारी। धरती माँ फिर उम्मीद से थी।

अपनी ही कस्तूरी गन्ध में डूबी हिरणी को कहाँ मालूम कि गोतिया- दियाद उसकी हर बात की खबर थाना को पहुँचा रहे। बगल के गाँव का जल्लाद चौकीदार उस पर नजर रखने लगा था। यह अच्छा हुआ कि रामेश्वर दादा पार्टी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया।

लगता है, छह-सात महीने बाद आया रामेश्वर दादा। थोड़ा उदास, खुश नहीं दिख रहा। इतने दिनों बाद मिलने का कोई उमंग नहीं। चुपचाप बैठा रहा। बहुत खोदने पर बताया कि ट्रेनिंग में नहीं जाता तो ही अच्छा रहता। कॉमरेड समरथ की बातें आँखें मूंदकर मानता आया था। आगे भी मानता रहता। कुछ पैसा मैं भी बना लेता। कलकत्ता-पटना में घर ले लेता। क्या हर्ज था? यही ट्रेंड चल रहा है। कहाँ है दो लाइनों का संघर्ष। आलोचना-आत्मालोचना के जरिए निरन्तर कमी दूर करने का प्रयास। कहाँ राजनीतिक शिक्षा, नेतृत्व पर कार्यकर्ताओं की चौकसी। केवल केन्द्रीयता ही है। केन्द्रीय नेतृत्व का तानाशाह रवैया। समरथ जी से राजनीतिक प्रशिक्षण की बात छेड़िए तो हँसकर टाल जाएँगे। कहाँ इन ढोर- मँगरुओं को पढ़ाने के चक्कर में पड़े हैं। जो पढ़ता है वो सड़ता है। यही रटा रटाया जवाब। अगली कतारों की आलोचना को व्यक्तिगत आलोचना समझ लिया जाता है। फिर व्यक्तिगत चरित्र हनन पर उत्तर आता है नेतृत्व।

लड़ाई में भी बिलकुल सैनिक दृष्टिकोण, घुमन्तू विद्रोही आचरण। छापामार इकाइयों एवं जनता के सशस्त्र दस्तों का, हथियारबन्द समूह और निहत्थे जनसमूह का जो एका होना चाहिए वह एकदम भुला दिया गया है। पी०डब्लू०जी० के साथ एका का मन बना लिया है। ऊपर के नेतृत्व ने किन्तु समरथ जी को यह बात नहीं सुहा रही।

हर स्तर के नेतृत्व के आचरण का पाखंड अब छुपा नहीं है। लेवी की इतनी आमद है कि नेतृत्व भ्रष्ट होने से बच नहीं पा रहा। जब देखिए कॉमरेड समरथ को, रूम बन्द कर नोट की गड्डियाँ गिनते मिलेंगे। कॉमरेड राजेन्द्र के कितने डम्पर ट्रक कोयलरी में चलते हैं उसका हिसाब नहीं। दामाद सारा कारबार देखता है। कॉमरेड की बेटी की शादी में डेढ़ सौ गाड़ियाँ दरवाजे पर लगीं।freyt शहर की सारी गाड़ियाँ एक फोन पर हाजिर। क्या है यह सब? यही क्रान्ति है? जिसके लिए हजारों लोग भूखे-प्यासे हथियार उठाए घूम रहे हैं। सैकड़ों शहीद हो गए। रोज हो रहे हैं। इन्हीं के टुच्चे सपनों को पूरा करने के लिए रोज गरम खून बह रहा है। बोलते-बोलते आवेश में आ गए दादा। लगा, फिर 'अँधेरे में' कविता का पाठ कर रहा है। केवल शब्द अलग थे। भाव तो वही। हूबहू वही।

कृष्णमृगी की आखिरी उड़ान

हाट में न जाने कौन सरस्वती के कानों में फुसफुसाया-नवाटोली में सतीश की बहन की शादी में आया हुआ रामेश्वर दादा। लाठी सिंह को इसकी खबर है। सरस्वती ने घूमकर भी नहीं देखा कि किसने खबर दी। सीधे नवाटोली की डहर पर। साँझ ढलने वाली थी। सो डहर सुनसान होते उसके अन्दर की हिरणी जाग गई। हवा में उड़ती-सी अँधेरा होते-होते नवाटोली। रामेश्वर दादा हाव-भाव देखते भाँप गया। खिसक लिये दोनों। सरस्वती अपने गाँव के रास्ते, दादा पेरवा घाघ की गुफा की तरफ। लेकिन भोली मृगी को क्या मालूम कि यह तो जाल था। सरस्वती घर पहुँचने के पहले पुलिस जीप में उठा ली गई। रामेश्वर को खुद लाठी सिंह ने उसी पत्थर पर इन्काउंटर किया जिस पर दोनों ने नई दुनिया गढ़ने के सपने देखे थे।

जब से लाठी सिंह ने सरस्वती को देखा था तब से उसका मन कैसा-कैसा हो रहा था। हूबहू सौतेली माँ। नाक-नक्शा, लम्बाई-मोटाई सब कुछ वैसी ही। पहली बार छापा में जो खाली हाथ लौटना पड़ा, ठीक है चौकीदार ’सामान’ घर में नहीं रख पाया लेकिन लाठी सिंह होश में रहता तो तुरन्त दूसरा उपाय ढूँढ़ता। किन्तु सौतेली माँ को वहाँ देख उसके होशो-हवास उड़ गए। फिर वह हाईस्कूल वाला लड़का हो गया। भक-भक मुँह ताकता रह गया। अब बाबूजी भी अन्दर कोठरी से निकलेंगे। अब पिटाई होगी और न जाने क्या-क्या। छोटा बाबू ने जब टहोका दिया तो होश आया। सीधे मूड़ी घुमाकर वापस। उधर ताकने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

शुरू के दिनों स्कूल-कॉलेज जाती सरस्वती जब भी दिखती लाठी सिंह की हालत वही हो जाती-पत्थर की मूर्ति जैसी। धीरे-धीरे ही वह सामान्य हो सके। सरस्वती को सरस्वती समझने लगा सौतेली माँ नहीं। तभी अचानक लगा कि उसके मन में सौतेली माँ के लिए केवल भय नहीं, अपार घृणा भी है। क्यों नहीं उस समय कुचल सका। एक दिन जोर से डपटता अपनी औकात में आ जाती वह औरत। उसी के कारण उसे और उसकी बहन को घर रहते बेघर होना पड़ा, पिता के रहते टूअर होना पड़ा। सारी जमीन-जायदाद, खानदान की इज्जत-प्रतिष्ठा सब पर ग्रहण बनकर आई थी वह औरत। बहन की शादी मामा लोगों को करनी पड़ी। पिता के जाने के बाद तो चुटकी भर नमक भी नहीं देने का संकल्प कर लिया था। उसी धांगड़ को रख लिया था डाइन ने। कुचल क्यों नहीं सका उस नागिन को। बहुत प्रायश्चित्त में डूब जाते लाठी सिंह।

आज पकड़ में आई थी नागिन। डायरी-वायरी, हाजत-वाजत बाद में। पहले पीछे के खाली क्वार्टर में ले चलो। सुनसान क्वार्टर में पहुँचते पहले सरस्वती के मुँह में कपड़ा दूँसा गया फिर दोहत्थे लाठी से पिटाई शुरू। खुद लाठी सिंह लाठी चला रहा था। लाठी चलाते-चलाते कब उसकी देह को रौंदने लगा इसका होश नहीं। सर पर लाठी लगने से बेहोश-सी हो गई थी। घने अँधेरे में सारे पुलिसिए भूत-प्रेत-राकस से ही लग रहे थे।

जब तक होश रहा, गुहारती रही। बेड़ो सुरुज भगवान, पितर-पूर्वज सब देवताधन को गुहारा। कोई नहीं सुन रहा। रानी-राजकुमारियों के गुहारने पर ही शायद भगवान सुनते रहे हों। सरस्वती के शरीर को नाली बना दिया। लाठी सिंह कब उठा? खिसका? कौन ध्यान दे? वहाँ तो सारा थाना लाइन लगाए खड़ा। सरस्वती को लगा उसे अजगर निगल रहा है। अनगिन मुँह वाला अजगर। उतना ही लिजलिजा, उतना ही घिनौना, दुर्गन्ध भरा। कथाओं में निगलते अजगर से बचने के लिए बहिन गुहारती तो सात भाई तीर-धनुष लेकर आ जाते। यहाँ रोम-रोम गुहार रहा। संग-संग हवा गुहार रही। पत्तियाँ-पेड़-पौधे गुहार रहे किन्तु कोई नहीं आ रहा।

दरअसल रवीन्द्र और उसके साथियों के मारे जाने के बाद इलाके की कमर टूट गई थी। बची-खुची ताकत पोटा में नामजदगी, एफ.आई.आर. और गिरफ्तारियों ने तोड़ दी। जवानी इलाके से गायब थी। वैसे भी उस ढलती रात और सुनसान-भुतहा क्वार्टर की ओर कौन जाता ? दिन में भी उस ओर कोई जाता नहीं था।

भेड़ियों ने काली हिरणी के मांस झंझोर-झंझोर कर खाए। हड्डियाँ भी नहीं छोड़ीं। कमर के पास की कोई हड्डी टूटी थी। दूसरे दिन धूप लगने पर जब सरस्वती को होश आया तो पैर हिला नहीं पा रही थी। हाजत में थी। साड़ी-वाड़ी देह पर लपेटा हुआ था। काफी भीड़-भाड़ लग रही थी। दूर से ही उसके फोटो उतारे जा रहे थे। टी.बी. कैमरे भी दिख रहे थे। लाठी सिंह कहीं दिख नहीं रहा, छोटा बाबू ही चहक चहक इस दुर्दान्त लेडी नक्सलाइट के किस्से सुना रहा था। पार्टी के कौन-कौन से एक्शन इस एतवारी खड़िया के नेतृत्व में हुए उसका विशद वर्णन। कहाँ इसने लैंड माइंस बिछाकर पुलिस की गाड़ी उड़ाई, कहाँ बैंक को लूटा, कहाँ रोड के ठेकेदारों को बंधक बनाया सारा केस मुँह-जबानी याद। इतनी भयावह तस्वीर कि दर्शकों को झुरझुरी छूट जाए। भोर का अखबार उलटे तो चाय का प्याला छलछला जाए। तेज चैनलों के संवाददाताओं की आवाज और बयान-बखान में छोटा बाबू से दस-बीस गुना ज्यादा भयावहता- ज्यादा सनसनी।

एकाध घंटे बाद मुँह लटकाए आया लाठी सिंह। न जाने क्या हुआ धीरे-धीरे थाना खाली। छोटा बाबू को भारी फटकार। खैर ! जो होना था सो हो चुका। रामेश्वर की लाश पोस्टमार्टम के लिए ट्रैक्टर से भेजी गई थी। छोटा बाबू को भी पीछे से रवाना किया गया।

योजना के उलट सरस्वती पर आठ-दस केस नहीं लादे गए। हाँ, पोटा लगाया गया। नक्सली रामेश्वर के साथ सम्पर्क, पनाह और खाना-पानी देने का आरोप। उसे भी दस बजते-बजते कोर्ट के लिए रवाना। लाठी सिंह फिर अपने क्र्वाटर में।

जेलर गुप्ता उत्तेजना में। इतनी दुर्दान्त नक्सलाइट उसके जेल में। छोटा बाबू की चहक ने रंग दिखाया था। सारे अखबारों के मुखपृष्ठ एतवारी खड़िया के फोटो और कारनामों से भरे थे। तेज चैनल तो रात से ही लगातार प्रसारण कर रहे थे। जेलर साहब को अजीब सनसनी हो रही थी। एक थ्रिल। तुरन्त जेल का राउंड लिया। महिला वार्ड का खासकर । सुरक्षा का जायजा लेना जरूरी। जेलर गुप्ता बाबा श्यामदेव के परम भक्त। बाबा के योगासनों के सारे सी०डी०, सारी किताबें उनके पास। आश्रम की पत्रिकाओं के नियमित पाठक। सबेरे का दो घंटा आसन-प्राणायाम में बिताते। शहद के साथ बाबा के कामशक्ति चूरन और पुत्रवती आसव का पान करते तब जाकर सूखे मेवों को हाथ लगाते। किन्तु पत्नी महीने में बीस दिन राजधानी के फ्लैट में बच्चों के पास रहती। बच्चों की पढ़ाई के लिए यही सही व्यवस्था थी।

लेकिन बाबा के आसनों-दवाओं का असर तो होना था। सो जेल का महिला वार्ड की गोद हरी-भरी हो गई। वहाँ बच्चों की किलकारियाँ गूंजने लगीं। जिन महिलाओं के फूल सूख गए थे आश्चर्य कि उनके भी गोद हरे हो गए। यह प्रसिद्धि इतनी बढ़ी की महिला वार्ड के बाहरी दीवार के पास शहर की महिलाएँ हर सोमवार पूजा करने आने लगीं। धीरे-धीरे सिन्दूर से पोते हुए कई पत्थर वहाँ शोभने लगे। देखते-देखते छोटी-सी मन्दिरी शिव भगवान की वहाँ शोभने लगी। बाजाब्ता सोमवार को वहाँ पंडित बैठने लगा। प्रसाद, पत्र-पुष्प चढ़ने लगा।

गम्भीरता से भक्ति में डूबी भक्तिनों को भुईफोड़ महादेव का पता गुप्त तरीकों से बताया जाता। असली महादेव वही थे। जेलर साहब के बेडरूम में ईशान कोण वाले कोने में। भक्तिनें गुप्त रूप से वहाँ पहुँचाई जातीं। उनकी गोद हरी भी होती। बाबा श्यामदेव और महादेव बाबा की महिमा तो अपरम्पार थी। जेलर गुप्ता मरणासन्न पड़ी एतवारी खड़िया को भी देखकर बौराने लगे। डॉक्टर हाजिर करवाए गए। डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए। बिना एक्सरे के कुछ कह नहीं सकता। जाँच से लग रहा है कि कमर के पास की रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर है। छोटी-सी हड्डी मुड़कर नर्क्स को दबा रही है। प्रापर इलाज नहीं हुआ तो पैरालाइसिस की संभावना है।

लेकिन जेलर गुप्ता दो-चार दिनों से ज्यादा बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। बीवी भी छुट्टियों में बच्चो के संग आने वाली थी। इस इलाके में आके काली मृगी का शिकार नहीं किया, काली शीशम का फर्नीचर नहीं बनवाया तो जनम अकारथ।

लगातार धमकियों से डॉक्टर टूट गया। नौकरी तो करनी थी। ऐसे सारे लोगों की एक ही आदत। कमर के पास लोकल एन्सिथिसिया देकर काली मृगी का मांस तैयार हुआ। फिर से भूखे भेड़िए ने जी भरकर झिंझोरा। हालत सीमा के बाहर चली गई। लकवा ने पूरी ताकत से हिरणी पर आक्रमण किया। मरे हुए पर ही सब ताकत दिखा रहे थे।

सरस्वती को शुरू में लगता रहा कि घिनौना-लिजलिजा अजगर केवल उसे ही कुंडली में लपेटे हुए। किन्तु कुछ ही हफ्तों में यह एहसास हुआ कि केवल वह ही नहीं पूरी स्त्री जाति इस अजगर के गुंजलक में पिस रही है। धीरे-धीरे होश सँभला। पढ़ा हुआ याद आने लगा तो यह लगा कि हजारों मुँह वाले इस अजगर ने पूरी पृथ्वी को, पूरी प्रकृति को अपने गुंजलक में लपेट रखा है। धीरे-धीरे उसे निगलता जा रहा है, कहीं कोई बचाने वाला नहीं।

बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे?

अखिल भारतीय पोटा हटाओ मंच के सारे पदाधिकारी गद्गद थे। उनकी तथ्य-अन्वेषी समिति की रिपोर्ट पर सरकार सक्रिय हुई थी। गृह सचिव ने पूरी गम्भीरता से उस पर अमल किया था। सरकार ने माना था कि गलतियाँ हुई थीं। गिरफ्तार लोगों में से अधिकांश पोटा की धाराओं के अनुरूप अपराधी नहीं थे। उन पर पोटा हटाने का निर्देश भेजा गया था। अब जमानतें मिलने लगी थीं। कमर से नीचे एकदम सूनापन लिये अपंग सरस्वती घर वापस आ गई। जर्जर-ठठरी। आजा उसकी गैरहाजिरी में जैसे-तैसे घर-बार सँभाल रहे थे। मंच वालों ने मुक्त हुए साथियों और उनके अभिभावकों को सम्मानित करने राजधानी बुलाया था। आजा ही गए थे। सरस्वती अर्द्धनिद्रा में खाट पर लेटी रहती। माँ तरह-तरह के तेल मलती रहती। पत्तियों का रस गरम कर लगाती। तरह-तरह की जड़ी बाँधती। लेकिन लकवा हटने का नाम नहीं ले रहा। सोच से अजगर की कुंडली भी नहीं हट रही। देह से दुर्गन्ध आती रहती। अजगर की आँत में सड़ते मांस की दुर्गन्ध।

आजा को मन के अन्दर का गुस्सा राजधानी ले गया था। सोचे थे कि पढे- लिखे लोग हैं, निर्दोष बच्चे बच्चियों पर अत्याचार करने वालों के खिलाफ कुछ करेंगे। लाठी सिंह के खिलाफ क्यों नहीं कुछ होना चाहिए? हीरा जैसा पोता, सोने जैसी पोती खा गया वह राकस। लेकिन वहाँ चादर-माला के सिवा और कुछ हाथ नहीं आया। क्या तो सरकार को दर्खास्त दिए हैं कि इन पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई की जाए। आजा ने कम दुनिया थोड़े देखी है क्यों कार्रवाई करेगी सरकार। उसको क्या पड़ी है? उसका घर थोड़े उजड़ा है, घर तो इन शहरी बाबू लोगों का भी नहीं उजड़ा था। ये लोग उनका दर्द क्या जानें? जी उचट गया। आजा वापस चल दिए।

घर पर खटोली पर लेटी सरस्वती के जिम्मे सूखती बड़ियों की निगरानी का भार देकर माँ खलिहान की ओर निकल गई। दौनी-ओसौनी चल रही थी। लेटे-लेटे सरस्वती की आँखें लग गईं। ढेर सारे कौओं की फड़फड़ाहट से उसकी नींद खुली। देखा सूखती बड़ियों पर लुझते कौए बिना उसके हँकाय, उड़ रहे थे। किसने हँकाया? चिन्ता में पड़ गई सरस्वती। अभी सोच ही रही थी कि आजा थके-माँदे आते दिखे। आते पास के खटिया पर अधलेट गए। काँधे की नई चादर को एक कोने में फेंका। हाल समाचार लेने के पहले बिना हँकाए उड़ते कौओं के बारे में पूछा। यह कैसे हुआ उनकी दिमाग में नहीं अट रहा। आजा ने ठीक समझाया वहाँ राजधानी में बाबुओं ने भाषण-राशन पर तालियाँ बजाई होंगी। पशु-पंछी ज्यादा संवेदनशील होते हैं उन्ही तालियों की गड़गड़ाहट से कौए भागे होंगे। लेकिन यूँ ही बेमतलब वे लोग तालियाँ बजाते रहे तो कुछ दिनों के बाद कौए भी नहीं भागने वाले।

गहरी निराशा में थे आजा। उठकर अन्दर लेटने चले गए। निराशा में डूब गई सरस्वती भी। भर पृथ्वी लपेटे अजगर का अन्त कैसे हो? काश! वह काट पाती अजगर की कुंडली। तभी उसे लगा कि उनके सूने पैरों में हरकत हो रही है। पैर तना में बदलने लगे। उँगलियाँ जड़ों में तब्दील हो भूमि में समाने लगीं। देखते-देखते सरस्वती एक छतनार गाछ में बदल गई। चम्पा फूल के घने गाछ में। अब उसकी टहनियों से हजार-लाख धनुष बनने थे। हजार-लाख माँदर। इन्ही माँदरों पर युद्धनाद बजना था.... जाने कब... जाने कौन?