चरण कमल बंदौ..! / ओशो
उन्हें आज शर्मा जी के विद्यालय का उद्ंघाटन करने आना है। समारोह का उदघोषक बार-बार घोषणा कर रहा है- मंत्रीजी के चरण कमल शीघ्र ही पड़ने वाले हैं। उदघोषक मंत्रीजी के आने में विलंब का कारण बता रहा है, मंत्रीजी किसी आवश्यक मीटिंग में व्यस्त हैं। वह शाश्वत सत्य का उच्चारण कर रहा है। नेता मीटिंग, चीटिंग, डेटिंग में ही व्यस्त रहा करते हैं! मंत्रीजी अपने जीवन में पहली बार ही किसी विद्यालय में प्रवेश करेंगे। इससे पूर्व उन्होंने कभी निगम की प्राइमरी पाठशाला में भी प्रवेश प्राप्त करने की जहमत नहीं उठाई। अब विद्यालयों में आना-जाना उनकी मजबूरी है, क्योंकि वे शिक्षामंत्री हैं। शिक्षामंत्री न भी होते तो भी शर्मा जी के उद्घाटन समारोह में तो उन्हें आना ही था, क्योंकि शर्मा जी इलाके के बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट हैं। यह भी एक शाश्वत सत्य है कि नेता के इंडस्ट्रियलिस्ट, जर्नलिस्ट, पामिस्ट्रों से ही प्रगाढ़ संबंध होते हैं। मंत्रीजी पधार चुके हैं। उदघोषक बता रहा है, मंत्रीजी अब अपने करकमलों से फीता काट कर विद्यालय का उदघाटन करेंगे। मंत्रीजी ने चांदी की थाली में रखी चांदी की कैंची उठाई, चांदी का रिबन काटा और विद्यालय छात्रों को समर्पित कर दिया। वे जब से राजनीति में आए हैं, तब से उनकी चांदी ही चांदी है। थाली भी चांदी की, कैंची भी चांदी की ही, रिबन भी चांदी का ! मंत्रीजी चांदी से चांदी काट रहे हैं! उदघोषक बता रहा है, मंत्रीजी अब अपने कमल मुख से शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालेंगे! इसके साथ ही उदघोषक महोदय आज के इस शुभ दिन का महत्व का बखान करते हुए एक रहस्योदघाटन भी करता है। वह बता रहा है कि मंत्रीजी की कृपा से आज ही के दिन शर्माजी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी। मंत्रीजी कमल नयनों से छात्रों को निहारते हैं और फिर कमल मुख से शिक्षा के महत्व पर बोलना शुरू करते हैं। मंत्रीजी बोलना शुरू करते हैं और हम विचार करना, 'निरक्षर रहकर शिक्षामंत्री बनना लाभप्रद है अथवा साक्षर हो कर शिक्षामंत्री का दरबारी बनना?' शर्माजी को पुत्ररत्न प्राप्ति में मंत्रीजी की कृपा का योगदान हमारे विचार-मंथन का दूसरा विषय था। हमारे लिए विचारणीय तीसरा प्रश्न था, 'मंत्रीजी का यकायक कमल-कमल हो जाना।' वास्तव में जब से वे राजनीति में आए हैं, उनके शरीर में कुछ जैविक परिवर्तन होने लगे हैं। इंसान तो वे पहले भी नहीं थे। इंसान के रूप में कुछ और ही थे, मगर अब तो उनका संपूर्ण शरीर ही कमल हो गया है। वे कमल स्वरूप हो गए हैं। हां, उनके चरण कमल हो गए हैं। कर कमल हो गए हैं। नयन भी कमल हो गए हैं और मुख भी कमल! चरण कमल, कर कमल, नयन कमल, मुख कमल। कुल जमा वे 'चरण कमल बंदौ रघुराई' हो गए हैं। हमारा मन भगवान राम का स्तुति-गान करने लगता है, 'श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन हरण भवभय दारुणं। नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारूणं॥' हम आश्चर्यचकित हैं कि कल तक जिनका स्वरूप कैक्टस के माफिक था, यकायक वे कोमलांग कैसे हो गए, कमल कैसे हो गए? कल तक जो हाथ बबूल की लकड़ी से कर्कश थे, वे यकायक कमल-ककड़ी हो गए, जिन पैरों की आहट से बस्ती कांपती थी, वे अब कमल-शाख हो गए हैं, भय का प्रतीक मुख मंडल, भवभय दारुणं हो गया है और ज्वाला उगलते नयन कमल से निर्मल किस प्रकार हो गए! आश्चर्य-घोर आश्चर्य, कैक्टस से गुलाब हो जाते तो भी गनीमत थी, फूल के साथ कम से कम कांटे तो होते। बस समानता इतनी शेष बची है कि कल तक वे हाथ में खंजर लिए समारोह का समापन करते थे। आज हाथ में कैंची लिए घूमते हैं, लाल-लाल फीते काटते हैं, उदघाटन करते हैं। हम सोच रहे हैं कि क्या राजनीति क्षीर सागर हो गई है? उसमें जो भी गोता लगाता है, विष्णु भगवान का अवतार हो जाता है! नीर- क्षीर विवेक का लेक्टोमीटर हो जाता है! हमने जीव विज्ञानी अपने एक मित्र से जैविक इस परिवर्तन का कारण पूछा। वे बोले, दोष उस चित्रकार का है जिसने श्रद्धावश भगवान विष्णु को कमल पर बिठा दिया। भगवान को कमल सदृश्य बना दिया। पता नहीं उसे कीचड़ में उगने वाले कमल से क्या प्रेम था कि अपने इष्ट को उसी पर बिठा दिया? वह दूरदर्शी नहीं था! उसने नहीं सोचा कलियुग में उसी का अनुसरण किया जाएगा। जब लोकतंत्र आएगा तो नेता आदमी न होकर जलचर हो जाएगा। कीचड़ में पैदा होगा, उसमें ही वृद्धि को प्राप्त होगा, उसी में फले-फूलेगा, कमल हो जाएगा! चित्रकार ने विष्णु को कमल पर केवल बैठाया ही था। शायद उसे मालूम नहीं था, नेता स्वयं ही कमल बन जाएगा, संपूर्ण कीचड़ में धंस जाएगा! हमारे मित्र बोले, लोकतंत्र में नेताओं ने विष्णु और गणेश दो ही देवताओं को तो स्वीकारा है। विष्णु को स्वीकार कर कमल हो गए और गणेश को स्वीकार कर लंबोदर हो गए हैं। कलियुग अंतिम चरण में है, सतयुग का स्वागत करना है। अत: शंकर के अवतार की आवश्यकता है!