चरित्र आस-पास के / सुशील यादव
जिसे लोग नरेंद्र महाराज के नाम से जानते हैं, वो हमारे लिए मात्र नरेंद्र या अरे –अबे शर्मा था।
साथ में पढने वालो के नाम, बिना अरे, अबे, स्साले के कहो तो बहुत बुरा लगता है।
कभी-कभी ठीक –ठीक नाम से बुला दो तो लगत्ता है, बन रहे हैं।
कई बार स्तिथी बदल भी जाती है। कई इतने हैसियत वाले हो जाते हैं कि लगता है, कम बात करे तो ही अच्छा है।
मेरे मित्रों में से एक जज, एक कालिज का प्रिंसिपल, एक मंत्री, एक सांसद,एक पंडित बन बैठा है। मेरी हैसियत मात्र एक ठेकेदार तक की है। इंजिनियरिंग करने के बाद सोचा नौकरी क्या करना . अपना ही कुछ किया जावे, सो ठेकेदारी शुरू कर दी।
कभी –कभार पुराने, हैसियत वाले दोस्तों से मिलना हो जाए, तो वे मजे से कह देते हैं, क्या सुशील, कैसा है तू?
मुझे लगता है जवाब दू, अच्छा हूँ स्साले, तू बता, तू कैसा है? मगर मै मुश्किल से दुविधा में सकुचाए हुए कह पाता हूँ, अच्छा हूँ भाई, आप कहो क्या चल रहा है?
ये सब वो लोग हैं जो मेरे नोट्स लेकर, मेरे बताए नुस्खो, तरीको को आजमा-आजमा के आज हैसियत वाले हो गए।
इनकी ऊँची आवाज में अब वो दब्बूपन जाने कहाँ खो गया, जिसको निकालने के लिए हमने इनको रेगिंग कैसे करना है, सिखाया था।
कालिज के वो अजीब से दिन थे। पिकनिक –पार्टी मेरे बिना या तो बनाती न थी या इसके आयोजन की कोई सोचता भी न था।
लडकियां जो अब शादी -शुदा हो अपने –अपने ठिकाने लग गई, उनको बीच में लाने का, अब बनता नहीं, वरना कई किस्से इन साहबानो के साथ जुड़े थे।
इन-दिनों जब ये मुझसे मिलते हैं, सीधे –सीधे पूछने में उनको हिचकिचाहट सी महसूस होती है, वो घुमा-फिरा के पूछते , रेखा-राधिका , अगरवाल-सबरवाल के क्या हाल हैं?
मै सब के बारे में बरी-बारी बता देता । किसके दो बच्चे हैं, किसका आदमी बैंक में, किसका बैंकाक में है।
बस उनके मतलब की जानकारी को दबा के कहता, आप जिस के चक्कर में थे, उसका बहुत दिनों से कुछ पता नहीं चला। मै टच में हूँ, बताउंगा। मै ज्यादा बात करने से बच जाता। वो अपनी राह निकल लेते ।
एक बार जज साहब से, किसी दोस्त की पार्टी में मुलाक़ात हो गई, दोस्तों-परिचितों के साथ घिरे गप-शप कर रहे थे, मुझे अनदेखा कर रहे हैं ऐसा मुझे लगा । सीधे –सीधे आमना –सामना होने पर उसे कहना पडा, और सुशील कैसा है तू?, मैंने कहा अच्छा हूँ मैंने भी तात्कालिक पूछ लिया, तुम कैसे हो?
मुझसे ‘तुम’ सुनकर, भिन्नाए, अच्छा हूँ, बोलते हुए, वो एक इज्जतदार आदमी की तरह, एक तरफ खिसक लिए....।
विकास देशमुख, अब विकास –योजना मंत्री हैं, मेरे बेटे का इंटर-व्यू आया, घर वालो की जिद के चलते उनसे मिलना हुआ।
हम कई-कई रात कंबाइंड स्टडी में बिताते। कहीं रात में चाय पीने निकल जाते तो अक्सर उनकी जेब खाली रहती।
खैर, उनसे मिला। बा-हैसियत उनके स्पेशल मिलने वालो में मेरा नाम, मेरे इस बयान से कि मै उनका ख़ास मित्र हूँ, लिख लिया गया।
किसी ने बताया कि बिना एप्वाइन्टमेन्ट के उनसे मुलाकात कराने पर मंत्री जी खफा होते हैं और मना भी कर रखा है।
यहाँ सब अपने को ख़ास ही बता कर घुसना चाहते हैं।
मुझे बुरा भी ख़ूब लगा। मैंने कहा, मै मोबाइल से बात किए लेता हूँ, बस उनको मोबाइल आन करने को कह दें आप लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी।
उनके कार्यकर्ता नर्म हुए। मेरा बुलावा भी आ गया। अन्दर का माहौल मेरे लिए नया था, कभी यूँ मिलना पडेगा सोचा न था। वो तपाक से मिले, मेरी झिझक को भापते हुए, तात्कालिक दूसरो को बाहर भेज दिया। बोले, इत्मिनान से कहो, आज इतने दिनों बाद कैसे आना हुआ? यू क्यों नहीं करते, हम कल या परसों अपने फार्म –हाउस में मिले. साथ लंच लें। खैर अभी, ज़रा जल्दी बताओ, कैसे आना हुआ। उसकी व्यस्तता और मेरे संकोच ने, बेटे के इंटरव्यू को बीच में लाना उचित नहीं जाना। मैंने कहा, लंच में मिलकर बात कर लेंगे। उसने हाथ मिलाया, उसके लंच के नाम पर दो दिनों तक मै देर-देर से खाना खाया। बुलावा उधर से आया ही नहीं।
घर वालो को, बेटे के इंटरव्यू निकाल लेने पर, मेरे बेटे की क़ाबलियत से ज्यादा, मेरे मंत्री के रिश्ते पर विश्वास होता है।
कभी-कभी दोस्तों की बेदिली से, जब उब सा जाता हूँ तो नरेंद्र –निवास की तरफ रुख कर लेता हूँ। इत्मीनान से अकेले में बीते दिनों को याद कर हम दोनों ख़ूब हंस –बोल लेते हैं।
हम लोग किसी भी राज की बात बे-तकल्लुफ पूछ लिया करते हैं। हमारा एक दूसरे के प्रति, अबे-अरे के संबोधन में अब तक कोई फर्क नहीं आया है|एक दिन मैंने पुछा, अबे नरेंद्र, बता तू पंडित कैसे हो गया?
उसने कहा –यार क्या करता ग्रेजुएशन के बाद नौकरी के लिए भटका –घुमा, चप्पल घिसे, मगर काम नहीं बना। पिताजी के साथ पंडिताई में जाते –जाते काम के लायक कुछ सीख गया, उसी के भरोसे चल रहा है।
पंडित गिरी में सब अंदाज का होता है, यजमान की सुविधा में मुहूर्त, यजमान के रिश्तेदारों की सुविधा में सब नेग-नियम,हमलोग तात्कालिक बना देते हैं और वही सुविधा देने वाला पंडित सबसे अच्छा पंडित होता है।
पिताजी तो गुजर गए पर उनके गुरु मन्त्र से रोजी –रोटी अच्छे से चल रही है। बाहर इज्जत, मान सम्मान भी बहुत है। और चाहिए भी क्या?
अचानक उसने कहा, बहुत दिन हो गए, यार , एक-आध पेग लेगा क्या, दरअसल, बिना कम्पनी के लेना जमता नहीं। वो मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर, बोतल उठा लाया। हम कालिज के दिनों में खो से गए। फिर एक-एक दोस्त खबर ली, उनको जी भर के गालियाँ दी, जो चोचले बघारते आजकल बाहर फिरते हैं।