चरित्र गढना और चरित्रहीनता मे रमना / जयप्रकाश चौकसे

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चरित्र गढना और चरित्रहीनता मे रमना
प्रकाशन तिथि : 14 मार्च 2011


जापान में आई आपदा पूरे विश्व के लिए प्रकृति द्वारा दी गई चेतावनी है और इस वक्त सभी देशों को जापान की सहायता करना चाहिए। दूसरे विश्वयुद्ध के विनाश के बाद मात्र दो दशकों में जापान फिर से खड़ा हो गया था। कितना भी बड़ा भूकंप आए, जापान के राष्ट्रीय चरित्र को नहीं तोड़ सकता और यही उसकी सबसे बड़ी संपदा है। भारत को प्रकृति ने खूब नवाजा है, ढेरों उपहार दिए हैं, परंतु राष्ट्रीय चरित्र मनुष्य को विकसित करना पड़ता है। इस क्षेत्र में हमसे ज्यादा कोई कंगाल नहीं। हमारे यहां घपलों की सुनामी सतत विद्यमान रहती है और इसे झेलने की हमारे पास अद्भुत शक्ति है।

यह माना जाता है कि संकट की आग में तपकर चरित्र निखरता है। बाहरी देशों से युद्ध के समय भारत की एकजुटता और साहस देखने को मिलता है, परंतु सामान्य परिस्थितियां होते ही हम अपने टुच्चेपन पर लौट आते हैं। इसका यह अर्थ है कि हमारी नैतिकता केवल संकट के समय उभरती है, गोयाकि हमें केवल कोई तरंग ही जगा सकती है। वर्तमान समय में राष्ट्र को अनेक चीजों से खतरा है, वह एक तरह से सोए हुए ज्वालामुखी पर बैठा है। परंतु भीतर सतत प्रवाहित खतरों की इस तरंग को हम नकार रहे हैं। अनैतिकता हमें विचलित नहीं करती। जापानी मनुष्य के स्वभाव में देशप्रेम है, अत: प्राकृतिक आपदाओं को वे झेल लेते हैं। इस भूकंप-सुनामी के जो चित्र प्रकाशित हुए हैं, उनमें से एक चित्र में हम देखते हैं कि आधी ध्वस्त सड़क पर घायल का इलाज किया जा रहा है। यह चित्र ही जापान की जुझारू प्रवृत्ति को प्रकट करता है - यह एक तरह से आक्रामक निर्मम प्रकृति को ठेंगा दिखाना है या कहें कि देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में हैं। हमारी नई सड़कों पर शीघ्र ही बनते गड्ढे हमारे राष्ट्रीय चरित्र को उजागर करते हैं।

जापान और भारत के राष्ट्रीय चरित्र में अंतर की तरह दोनों देशों के सिनेमा भी अलग-अलग हैं। अकिरा कुरोसावा की पांचवें दशक में बनी फिल्म 'सेवन समुराई' और उससे प्रेरित रमेश सिप्पी की 'शोले' में विशाल अंतर है। 'सेवन समुराई' मनुष्य के विकास में विभिन्न ताकतों के संघर्ष को प्रस्तुत करती है और 'शोले' एक जबरदस्त मसाला फिल्म है। अकिरा कुरोसावा अपनी कथा में तीन अंग प्रस्तुत करते हैं- गांव अर्थात सभ्यता, दूसरा अंग दानवनुमा डाकू या बर्बर शक्तियां और तीसरी शक्ति है उन जांबाज वीरों की जिन्होंने कभी अपराध किए हैं। जब गांव पर डाकुओं का खतरा मंडराता है, तब वे समाज के हाशिए पर खड़े जांबाज लोगों को सहायता के लिए बुलाते हैं। जब ये जांबाज डाकुओं को मार देते हैं, तब भयमुक्त गांव वाले इन्हें अस्वीकार करके अपनी खेतीबाड़ी में लग जाते हैं।

संकट टल जाने के बाद यह हमारे अपने टुच्चेपन पर लौटने की तरह है। अकिरा कुरोसावा सभ्यता के विकास और विनाश की शक्तियों के द्वंद्व को अपने देश की महान समुराई परंपरा से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। रमेश सिप्पी का लक्ष्य केवल बॉक्स ऑफिस है। अकिरा कुरोसावा की नायिका योद्धा समुराई को नकारकर वर्षा में खेती में बुआई का काम करने लगती है, परंतु 'शोले' में वीरू और बसंती का प्रेम जारी रहता है।फिल्म में अगर अमिताभ बच्चन बच जाते तो हमारा दकियानूसी समाज उनका विधवा से चल रहा प्रेम प्रसंग रोक देता। दरअसल इसी कुरीति के कारण सलीम-जावेद ने फिल्म में उस पात्र को मरवाकर जया को दोहरा वैधव्य दिया। जहां 'सेवन समुराई' गंभीर सामाजिक दस्तावेज की तरह प्रस्तुत है, वहीं 'शोले' एक मसाला प्रहसन की तरह रची गई है।

दुनियाभर के समालोचक समुराई के सामाजिक संदर्भ की व्याख्या कर रहे हैं, वहीं हमने गब्बर सिंह को किंवदंती बना दिया और 'शोले' को लोक कथा की तरह पाल लिया। वो चरित्र गढ़ते हैं, हम चरित्रहीनता में रमते हैं।