चरित्र शोधन / बालकृष्ण भट्ट
मनुष्य के जीवन को शोभा या रौनक चरित्र है। आदमी के लिये यह एक ऐसी दौलत है जिसे अपने पास रखने वाला कैसी ही हालत में हो समाज के बीच गौरव और प्रतिष्ठा पाता ही है वरन् सबों के समूह में जैसा आदर नेक चलन वाले का होता है वैसा उनका नहीं जो धन और विभव से सब भाँत रंजेपुंजे और खुशहाल हैं। ऐसे को कोई ऊँचा सन्मान या बड़ी पदवी पाते देख किसी को कभी डाह या ईर्ष्या नहीं होती। धनियों के बीच जैसा उतरा-चढ़ी और परस्पर की स्पर्द्धा रहा करती है उसका शिष्टता के सूत्र में सर्वथा प्रतिबंध है। चरित्र पालन सभ्यता का प्रधान अंग है कौम की सच्ची तरक्की तभी कहलावेगी जब हर एक आदमी उस जाति या कौम के चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए अपने को प्रगट कर सकते हों। भले लोगों के चले हुए मार्ग या ढंग पर चलने ही का नाम कानून, व्यवस्था या मोरालिटी है। कहा भी है-
"यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजना:।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते।"
इल्म और लियाकत में हम चाहे उत्कृष्ट विद्वान न हों अधिक धन भी पास न हो पर चरित्र की कसौटी में यदि कसे हुए हों तो हम चाहे जैसी दशा में हों हमारी मातबरी सबों से अधिक समझी जायगी। इसमें संदेह नहीं कि विद्धान और सुयोग्य की लोकोत्तर बुद्धि पर मोहित हो लोग चाहे उसे देवता समान पूजते हों पर एतबार या विश्वास एक ऐसी बात है जिसमें इल्म और लियाकत से अधिक कोई बात आवश्यक है और वह यही चाल-चलन की कसौटी है। दिमाग बिना दिल, विद्या और ज्ञान बिना आचरण, चतुराई बिना सुचाल, निस्संदेह मनुष्य में एक प्रकार की शक्ति हैं किन्तु वे सब ऐसी शक्तियाँ है जो केवल हानि पहुँचाने वाली अलबत्ता पाई जाती हैं। इस प्रकार की शक्तियाँ दिल-बहलाव के लिए जरूर हो सकती हैं। कभी-कभी उनसे हम कुछ सीख भी सकते हैं पर समाज को उनसे कुछ फायदा पहुँचा हो कभी किसी ने देखा या सुना न होगा। जैसे किसी गाँठ काटने वाले की अकल और चालाकी पर हमें तअज्जुब और कभी-कभी एक प्रकार का दिल-लगाव भी उससे है पर उसकी यह चालाकी चतुराई और अकल संसार के उपकार के लिए है कोई इसे न मानेगा।
सच्चाई, खारापन और मन, वच, कर्म से भलाई की ओर झुकाव, दया, न्याय और उचित का दृढ़ पक्षपात, मैला काम, मैली वासना से निपट घिन, उदारभाव लेन देन में सफाई, दियापतदारी इत्यादि कई एक और दूसरे-दूसरे मनुष्य में चरित्र संशोधन के मुख्य अंग है। कौल का सच्चा होना और काम में खरापन चरित्र संशोधन का बड़ा भारी सहारा है जैसा हमारे मन में हो वैसा ही मुख पर भी जो मुख पर है वह हम अपने कामों से प्रगट कर दिखावें। मन, वचन और काम में आपस का मेल होना ही महत्व या चारित्र्य है-
"मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यत वचस्यन्यत कर्मण्यन्यद्दरात्मनाम्।।"
और वह बात उसी से होगी जिसने बनावट और नुमाइश को कभी पहिचाना ही नहीं और जो सदा इस बात के लिए चौकस है कि जाहिरा भी हमारा उतना और वैसा ही रहे जो कुछ बातिनी हममें है। सच मानिये ऐसों को जन-समाज में निरादर अप्रतिष्ठा तथा हेठापन जो समझदार के लिए प्राणान्तिक कष्ट है सहने का कभी मौका ही न मिलेगा।
चरित्र शोभन मनुष्य मात्र के जीवन का एक मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। ऐसी चलन से रहें जिसमें हमारी भी शरीफ और भले मनुष्यों में गिनती हो। इसकी एक थोड़ी-सी फिकिर भी हमारे में शराफत पैदा कर देने के लिए काफी है-
"अनुग्न्तं सतां वर्त्म कृत्स्नं यदि न शक्यते।
स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं मार्गस्थो नावसीदति।।"
भले लोगों के चले हुए रास्त्ो पर जो हम पूरी तरह पर न चल सकें तो जितना हो सके उतना ही अमल में लावें। जो एक सीधे रास्ते पर जा रहा है वह कभी नहीं भटकने का दु:ख सहेगा। ऊँची श्रेणी के लोगों में जो कुछ बर्ताव है हम उसी को अनुकरण करते रहैं तो कभी संकट में न पड़ै। अंगरेजी के एक विद्वान का मत है कि वह जो ऊँचे की ओर नहीं ताकता अवश्य नीचे को देखेगा। जो ऊँचे पर चढ़ रहा है चाहे पूरी बलन्दी तक न पहुँचै तो उस स्थान से कुछ ऊँचाई पर अवश्य ही पहुँचेगा जहाँ से वह चला था। जैसे दिन का उजाला एक छोटे से छेद से भी पैठ अँधियार को दूर हटाता है वैसे ही भलाई की एक छोटी-सी बात भी आदमी की नेक चलनी का पूरा पता दे सकती हैं। वृत्तपालन से परलोक का साधन प्रासंगिक फल है। यहाँ संसार में रहकर जो एक बात में भी चलित वृत्त हैं वे अपनी बाकी चालचलन को भी नहीं सुधरी हुई रख सकते जो साफ और उजला कपड़ा पहने हैं वही मैली-कुचैली जगह में बैठने से सकुचायेंगे। मैले कपड़े वाले को मैली जगह में बैठने का क्या संकोच है जो शिष्ट और नेक चलन हैं उन्हीं को अपनी नेकचलनी के हिफाजत का ख्याल होता है बदचलन बेहया की क्या? हमारा नित्य का बर्ताव हमारे लिए एक स्कूल है जिसमें दृढ़ रहकर हम अपने आप बिना किसी को गुरू किये ऊँचे दरजे की शिष्टता और भलमनसाहत सहज ही में सीख सकते हैं। कचलपटी से बचे रहना लेन देन में सफाई और ईमानदारी बात का धनी होना अपने असरइतों पर दया और मुलाइमीयत सुस्ती वा निरुद्यमता का अभाव इत्यादि पाँच चार बात ऐसी हैं जो उजाले की भाँति बहुत ही थोड़े में आभिजात्य का भलमनसाहत की परख करा देती हैं। इसलिए जिन्होंने इन बातों पर अच्छी तरह अमल कर छोड़ा है वे ही ऊँची श्रेणी में गिने जा सकते हैं पर असिधाराव्रत का निबाहना कोई सहज काम नहीं है। बिरले जन निभानेवाले हैं।
जनवरी, 1892 ई.