चरैवेति-चरैवेति / यशपाल जैन
निराशा से हाथ-पर-हाथ रखकर बैठना हार को बुलावा देना है। गतिहीनता मौत का नाम है। कहावत है-गतिशील पत्थर पर काई नही लगती। काम मे आने वाले लोहे पर जंग नही लगती। यह बात सोलहों आने सही है। रूका पानी सड़ जाता है। मेहनत से बचने वाला आदमी निकम्मा हो जाता है।
वेदों मे एक बड़ा सुन्दर गीत है-‘चरैवेति-चरैवेति’। इसका मतलब होता है—चलते रहो, चलते रहो। गीत मे कहा गया है, "जो आदमी चलता रहता है, उसकी जाघों मे फूल फूलते है, उसकी आत्मा मे फल लगते है।…बैठे हुए आदमी का सौभग्य पडा रहता है ओर उठकर चलने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।"
गीतकार आगे कहता है, "चलता हुआ आदमी ही मधु पाता है, मीठे फल चखता है। सूरज की मेहनत को देखों, जो हमेशा चलता रहता है, कभी आलस नही करता। इसलिए चलते रहो, चलते रहों।
आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है आलस। वह हर घडी दॉँव देखता हैं। आदमी का मन जहॉँ ढीला पड़ा कि वह आकर उसको दबोच लेता है। आलसी आदमी हमेशा हैरान रहता है। उसके सामने काम करने को पड़े रहते है और वह इस उलझन मे रहता है कि उन्हे कैसे निबटायें। काम पूरे नहीं होते तो वह तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसमें बहुत-से दुर्गुण पैदा हो जाते है। इसलिए बुद्धिमान आदमी आलस को कभी पास नही फटकने देते।
गांधीजी आगा खॉँ महल से छूटकर आये थे। उन्हें कस्तूरबा ट्रस्ट का विधान बनाया था। उन्होने एक साथी से कहा कि सवेरे प्रार्थना के समय वह उन्हें याद दिला दें। अगले दिन जब सब प्रार्थना के लिए इकटठे हुए तो उन सज्जन ने गांधीजी को याद दिलानी चाही, लेकिन वह कुछ कहे कि उससे पहले ही गांधीजी ने विधान निकालकर सामने रख दिया। बोले, "तुमसे मैने याद दिलाने को कहा था, पर बाद मे मुझे लगा कि भगवान दिन का काम देते है तो उसे करने की शक्ति भी देते है। यदि हम उस काम को उसी दिन नही कर डालते तो भगवान की दी हुई शक्ति का पूरा उपयोग नही करते। यही सोचकर मै रात को बैठ गया और विधान को पूरा करके सोया।"
गांधीजी ने अकेले इतना काम किया, उसका रहस्य यही था कि उन्होने आलस को हमेशा दूर रखा। जिस समय जो काम करना था, उसी समय उसे पूरा किया।
प्रकृति हर घड़ी अपने काम करती रहती है। जरा सोचिए, सूरज आलस करके थोड़ी देर को सो जाय तो क्या होगा? दुनिया मे हाहाकार मच जायेगा। हवा एक पल को रूक जाय तो इस धरती पर कोई भी जीता बचेगा? समय पर वर्षा न हो तो सूखा पड़ जायेगा ओर लोग भूखो मर जायेंगें।
उद्योग सफलता की कुंजी है। मिस्त्र के पिरामिडों का देखकर हम आज भी अचरज करते है। चीन की दीवार को देखकर दॉतो तले उँगली दबाते है। तेनसिंग के एवरेस्ट की चोटी पर चढने की बात याद करके रोमांच हो आता है। ये काम कैसे हुए? बराबर मेहनत करने से। यदि अदमी परिश्रम से बचता तो दुनिया का पता कैसे चलता? समुद्र कैसे पार होते? पहाड़ो की चोटियों पर लोग कैसे पहुँचते? आदमी पृथ्वी की परिक्रमा कैसे कर पाता? रेल, मोटर, हवाई जहाज कहाँ से चलते? दुनिया के हर क्षेत्र मे आज जो चमत्कार दिखाई देते है, वे कहाँ से होते?
अंग्रेजी मे कहावत है-"रोम एक दिन मे नही बन गया था।" हिन्दी मे भी हम कहा करते है-"हथेली पर सरसो नही जमती।" बडे-बडे कामों के पूरा होने मे समय लगता ही है। अग्रेजी के विश्वकोश को पूरा करने मे वैब्सटर को छब्बीस साल लगे। टॉल्स्टॉय ने अपना सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘युद्ध और शान्ति’ सात बरस मे पूरा किया। इतिहासकार गिबन को अपने रोम साम्राज्य के पतन की रचना मे बीस वर्ष लगे। जार्ज स्टीफेंसन रेलगाड़ी का सुधार करने मे पन्द्रह बरस जुटा रहा। शरीर की रक्त-संचालन क्रिया का पता लगाने मे हारवे के आठ वर्ष खर्च हुए। बड़े कामो के लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है। जितना गुड़ डालोगे, उतना ही मीठा होगा, यह कहावत बिल्कुल सही है।