चलत मुसाफिर मोह लिया रे... / जयप्रकाश चौकसे

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'चीट इंडिया' की 'मार्कशीट'
प्रकाशन तिथि : 17 दिसम्बर 2018


'तनु वेड्स मनु' और अन्य फिल्मों के गीतकार राजशेखर ने बताया कि 17 दिसंबर 1918 को बिहार के पूर्णिया में फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेन्द्र को आदरांजलि प्रदान की जाएगी। मुझे भी आमंत्रित किया गया था परंतु लंबी यात्रा की इजाजत डॉक्टर ने नहीं दी। किसी समारोह में मौजूद होकर भी व्यक्ति वहां से गायब रहता है और किसी समारोह में नहीं जा पाने पर भी वहां आपकी मौजूदगी दर्ज हो जाती है। फणीश्वरनाथ रेणु 4 मार्च 1921 को महात्मा गांधी के संघर्ष काल में जन्मे, सक्रिय रहे और 11 अप्रैल 1977 को उनका निधन हुआ। आपातकाल की संध्या का समय था। शैलेन्द्र का जन्म 30 अगस्त 1923 को हुआ और देहावसान हुआ 14 दिसंबर 1966 को। शैलेन्द्र की मृत्यु के प्रमाण-पत्र में सिरोसिस ऑफ लीवर को मौत का कारण बताया था परंतु मृत्यु प्रमाण-पत्र हमेशा असली कारण बता नहीं पाते। मसलन पंडित नेहरू की मृत्यु हृदयाघात नहीं वरन् चीन द्वारा किए गए विश्वासघात के कारण हुई थी। इसी तरह शैलेन्द्र सिरोसिस से नहीं वरन् उनके रिश्तेदार द्वारा फिल्म निर्माण में खर्च किए गए धन में चोरी के कारण दिवंगत हुए। फणीश्वरनाथ रेणु का सरनेम 'मंडल' था परंतु उन्होंने स्वयं रेणु लिखा, जिसका अर्थ है यमुना के किनारे की मिट्‌टी। कोई आश्चर्य नहीं है कि 'मैला आंचल' उनका श्रेष्ठतम उपन्यास माना जाता है।

धरती पर निरंतर होते जा रहे अतिक्रमण के दुख को उन्होंने अपने उपन्यास 'परती परिकथा' में अभिव्यक्त किया। फणीश्वर नाथ रेणु को यह भय था कि मशीन के साथ आई जीवन प्रणाली और तीव्र गति से हो रहा औद्योगीकरण मनुष्य की संवेदनशीलता को कम कर देगा। रेणु को यह भी भय था कि परिवर्तन की प्रक्रिया में भारत अपनी पहचान खो सकता है। दरअसल, रेणु के भय वर्तमान दौर में पूरी तरह उजागर एवं सत्य सिद्ध हो गए हैं। उन्होंने जिन बीजों को रोपित होते देखा था या उस भयावह बीजारोपण का पूर्व अनुमान लगा लिया था। यह कहना कठिन है कि साहित्यकार समय को पढ़ता है और उसे भयावह भविष्य का अनुमान लगाना भी आता है। साहित्कार सामाजिक मौसम की भविष्यवाणी कर सकता है। शैलेन्द्र का जन्म तो रावलपिंडी में हुआ था परंतु उसके पिता दादा, परदादा सब बिहार में जन्मे थे। शैलेन्द्र ने 'इप्टा' के लिए गीत लिखे थे। 1949 से 1966 तक उन्होंने फिल्मों में गीत लिखे। यह पंडित जवाहरलाल नेहरू के समाजवाद एवं आशावाद का कालखंड रहा और इसी कालखंड में भारत में सच्ची वैचारिक आधुनिकता की आधारशिला रखी गई थी। शैलेन्द्र को भय था कि भारतीय सिनेमा से भारतीयता नदारद हो सकती है।

उन्होंने अपनी चिंता 'सीमा' के लिए लिखे गीत में इस तरह अभिव्यक्त की- 'घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार/ पंख है कोमल, आंख है धुंधली, जाना है सागर पार/ अब तू ही हमें बता कि जाए कौन दिशा से हम' उपरोक्त पंक्तियों में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद शैलेन्द्र कहते हैं कि 'सदियों की गुलामी के कारण मन है घायल और आंख है धुंधली' और उनके लिए 'सागर पार' का अर्थ था समानता और न्याय आधारित समाज की रचना।

शैलेन्द्र ने रेणु का कथा संकलन पढ़ा और 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम' पढ़कर उन्हें महसूस हुआ कि प्रेरित फिल्म नहीं बना पाया तो जीवन अकारथ ही जिया। यही जज्बा 'जान जोखिम में डालने वाले कार्य मनुष्य से कराता है, क्योंकि उसे यकीन है कि 'मरकर भी याद आएंगे किसी आंसुओं में मुस्कुराएंगे'। जीवन तो 'मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने की तरह है और पेट्रोल की जगह बाइक की टंकी में आंसू भरे हुए हैं या बिना पैराशूट हवाई जहाज से कूदने की तरह है या सर्कस में बिना सुरक्षा जाली के करतब दिखाना है। 'तीसरी कसम' में शैलेन्द्र ने अपनी माटी का दर्द महसूस हुआ।

फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेन्द्र के भय एवं चिंताएं समान थीं मानो उन्होंने वर्तमान हुक्मरान के उदय का अनुमान उसके उदय के बहुत पहले ही लगा लिया था कि सामाजिक सहिष्णुता और संवेदनशीलता का पतन होने वाला है और भारत से भारतीयता मिटा दी जाएगी तथा सिनेमा भी परिचय पश्चिम का अंधानुकरण हो जाएगा। बिमल रॉय के फिल्मी अंगना अर्थात मोहन स्टूडियो में 'तीसरी कसम' का आकल्पन किया गया और राज कपूर का हीरामन अभिनीत करना एक तरह से मुंबई के अंधेरी (मोहन स्टूडियोज) और चेंबूर(राजकपूर) के बीच एक सेतु बनाता है। इस तरह कभी-कभी फिल्म भी सेतु बनाती हैं, जिन पर यात्रा करने के लिए कोई चुंगी नहीं देनी पड़ती।

कुछ युवा लोगों को विश्वास नहीं होता कि महात्मा गांधी नामक यथार्थ व्यक्ति कभी रहा है जिसने उस ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त किया, जहां कभी सूर्य अस्स नहीं होता था। इस तरह हीरामन भी उसी जमीनी भारतीयता का प्रतीक है, जिसका लोप हो रहा है। सीमेंट के जंगलों में छतों से पानी रिसता है परंतु खबर प्रकाशित हुई है कि मिट‌्टी से बने मकान बारिश से नष्ट नहीं होते। शैलेन्द्र के गीत इसी मिट्‌टी में अंकुरित हुए हैं। 'पतिता' के लिए गीत लिखा 'मिट्‌टी से खेलते हो बार-बार किसलिए टूटे हुए खिलौनों का शृंगार किसलिए' दरअसल रेणु जो कार्य कर रहे थे, उसी काम को शैलेन्द्र भी अपने फिल्म गीत लेखन में कर रहे थे और अंतर यह था कि रेणु के प्रयास महाकाव्यात्मक रहे और शैलेन्द्र ने उसी के सार को दोहा और चौपाई के माध्यम से किया। दोनों ही भारत से भारतीयता के लोप होने की भयावह संभावना से चिंतित थे।

लगभग तीस पृष्ठ की कथा हर पंक्ति से प्रेरित होकर नवेंदु घोष ने 'तीसरी कसम' की पटकथा लिखी जिसे इस क्षेत्र का पाठ्यक्रम ग्रंथ माना जाना चाहिए। यहां तक कि मूल कथा में दिए गए भूखंडों के ही अंतरे गीतों में उपयोग किए गए हैं। केवल महुआ घटवारन का गीत उसकी घोर आंचलिकता के कारण नहीं लिया गया है परंतु उसकी जगह गीत बनाया है 'दुनिया बनाने वाले काहे को तूने ये दुनिया बनाई' परंतु इस गीत के मुखड़े और अंतरे के बीच हीरामन 'महुआ घटवारन' की कथा कहता है। आज का यथार्थ यह है कि माटी की महुआ घटवारन को पश्चिम का सौदागर खरीदकर ले जा चुका है।