चलो, प्रकृति-पारायण हो जाये हम सब / अमित त्यागी
मनुष्य एक बुद्धिजीवी है और एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मानव का यह परम कर्तव्य है कि वह अधीनस्थ असहाय, निरीह प्राणियों के कल्याणार्थ एवं पर्यावरण के सेवार्थ भी अधिक से अधिक समय व्यतीत करे। प्रकृति ने हमें संसाधनो के रूप मे अमूल्य उपहार दिये हैं। इन उपहारों का दोहन एवं उपभोग करना तो उचित है किन्तु प्रकृति के अनैतिक दोहन की स्थिति मे प्रकृति द्वारा चेतावनी के तौर पर समय-समय पर प्राकृतिक व दैवीय प्रकोप की घटनाओं के माध्यम से सचेत करने के संकेत मिलने शुरू हो जाते हैं। प्रकृति धैर्यवान है। क्षमाशील है किन्तु अपने साथ हो रहे अन्यायों को प्रकृति ज़्यादा देर तक सहन नहीं करती है। पर्यावरण के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ की स्थिति मे प्रकृति प्राकृतिक आपदाओ के रूप मे मानवता के अस्तित्व को चुनौती दे ही देती है।
ये ब्रह्मांड जिसमे हम निवास करते हैं उसमे प्रकृति एक विशिष्ट आवरण है एवं पृथ्वी उसकी आकृति है। हमारे चारों तरफ प्राकृतिक सुन्दरता, विकटता, विभिन्नता एवं विषमता यत्र तत्र सर्वत्र विद्यमान है। अपने चारों तरफ के विहंगम एवं विभिन्नता से परिपूर्ण दृश्यों को ही प्राकृतिक सौन्दर्य कहते है। जो ब्रहम स्वरूप हैं और स्वतः व्याप्त् है। जिसमें कृत्रिमता का कोई समावेश नहीं है। भू-मण्डल में फैले मैदान, रेगिस्तान, चट्टान, हिमाच्छादित पर्वत, नदी, झील, जंगल आदि सभी प्रकृति का फैला हुआ साम्राज्य है जिसका समागम पर्यावरण कहलाता है। सृष्टि निर्माण के दौरान ईश्वर का परमोद्देश्य भी शायद यही रहा होगा कि वह समस्त जीवों, प्राणियों के जीवनानुकूल रहते हुए उनका मार्ग प्रशस्त करे। शायद इसलिए ही मानवता को जीवन की आवश्कतानुसार प्रकृति ने अथाह प्राकृतिक संसाधन दिये हैं और उनका दोहन कर उपभोग करने का अधिकार भी। अधिकारों को प्रदान करने के साथ ही प्रकृति हमसे अपना संरक्षण एवं संवर्धन सम्बन्धी कर्तव्यों का निर्वहन भी चाहती है।
जिस पर्यावरण के सानिध्य मे हम आनंद की अनुभूति प्राप्त करते हैं उसके संरक्षण के लिए हमें अपना कर्तव्य भी समझना होगा। जैसे लोग कर्तव्य पारायण होते हैं वैसे ही हमें स्वयं को प्रकृति-पारायण बनाने पर विचार केन्द्रित करना चाहिए। जैसे जैसे हम उत्पत्ति के स्रोत को स्वीकृति एवं सम्मान देते हैं। ब्रह्माण्ड की अदृश्य शक्तियाँ आशीर्वाद के रूप मे प्राकृतिक संपदाओं से हमें फलीभूत करने लगती हैं। ये एक प्रकार का प्राकृतिक चक्र है जो यदि नियंत्रित है तो सर्वत्र खुशहाली है और अगर एक बार यह अनियंत्रित हो गया तो इसके भयावह परिणाम की कल्पना करना भी आसान नहीं है। जैसे मुझे अक्सर महसूस होता है कि “प्रकृति अपने साथ हुई क्रूरता का बदला क्रूरतम तरीके से लेती है। “
कंक्रीट के जंगलों मे विचरण करते करते हममे से कुछ लोगों की भावनाएँ भी कंक्रीट हो गयी हैं किन्तु कुछ मानवों की मानवता उन्हे प्रकृति का कर्ज़ उतारने को प्रेरित करती रहती हैं। शायद ऐसी मानवता के द्वारा ही प्राकृतिक संतुलन बरकरार है। प्रदूषण का प्रभाव बढ़ने की स्थिति मे पर्यावरणीय संतुलन विचलित हो जाता है। ऐसे मे सिर्फ मानव के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राणी-जगत के सम्मुख स्वस्थ जीवन जीने का प्रश्न खड़ा हो जाता है। ऐसे मे एक बड़ा सवाल है कि हम पर्यावरण के संरक्षण के लिए क्या कर सकते हैं ? इसके लिए हमें इस कान्सैप्ट को समझना होगा।
जहाँ मानवता कार्य क्षमता एवं प्राणी प्रेम के आधार पर एक नर है, वहीं प्रकृति उस सुन्दर आवरण, आकृति तथा उत्पादन क्षमता के आधार रूत्री स्वरूपिणी नारी समान है। नर का नारी के साथ का परिणाम संतानोंत्पत्ति है। इसी प्रकार मानवता का प्रकृति के साथ विलय निरन्तर प्रगतिशीलता का घोतक है।
मनुष्य स्वभाव सदैव सुंदरता की और आकर्षित होता रहा है। हर नेसर्गिक सुंदरता के निर्माण मे कुछ समय लगता है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि जिस सुंदरता को हम अभी देख रहे हैं उसके निर्माण मे तो बरसों का समय लगा है और जो हम नष्ट कर रहे हैं उसकी भरपाई भी बरसों मे ही संभव है। यदि आज से हम प्रकृति पारायण बनेंगे तब आने वाली पीड़ियों के लिए मनभावन नैसर्गिक सुंदरता का अस्तित्व रह पाएगा। जो हम पाना चाहते हैं उसके बीज़ बोने का आरंभ तो आज से ही कर देंना होगा। यही बीज मंत्र है “पर्यावरण संरक्षण” का। आज हम जिन पेड़ों के फल खा रहे है क्या हमने इन्हें लगाया था ? यह पेड़ हमारे पुरखों द्वारा बीजारोपित किये गए, उनके द्वारा ही अभिसिचिंत किए गए और संभाले गए। हम तो उनके प्रयास को प्रसाद के रूप में पा रहे हैं। अपनी आने वाले वंश के लिए वन - वनस्पतियों एवं जड़ी - बूटियों को बोना चाहिए। यह पेड़-पौधे ही जड़ी बूटियाँ हैं। रोग निवारण का स्तम्भ हैं। हमारे स्वस्थ जीवन का आधार हैं। प्राकृतिक संसाधनों को भी समय समय पर नवसृजन की आवश्यकता होती है। सिर्फ दोहन कि स्थिति मे तो बड़े से बड़े भण्डार भी समाप्त् हो जाते है।
मैंने कहीं पढ़ा था कि “हमारे पास संसाधनों के संरक्षण का बीज मंत्र है। इस मंत्र को समझने की आवश्यकता है। शरीर, बुद्धि और भावनाएं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ हम सबमें ही नैसर्गिक रूप से पाई जाती है। धन तथा भौतिक संसाधनों को हम अर्जित करते हैं अर्थात वह स्वउपार्जित होता है। पूर्वजों के द्वारा पूर्व संचित धन-संसाधन हमें उत्तराधिकार में मिलते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में आज हम स्वउपार्जन से विमुख हुए हैं। हम संसाधनों को उत्तराधिकार में अधिकता से पा रहे है किन्तु हम इनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं। तभी तो अपने कर्तव्य से विमुख है और संसाधनों की बर्बादी कर रहे है।“ यदि हम पेड़ काटते रहे, वन विनाश करते रहे किन्तु हमने नये पेड़ नहीं रोपे तो एक ऐसी रिक्तता आ जाएगी जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल होगी। इसके निवारण के लिए आवश्यक है कि हम संसाधनों का समय समय पर मूल्यांकन और अंकेक्षण करते रहें।
हमारी जीवन शैली भी दो चक्रों पर आधारित है। एक चक्र है परम्परा, जिसमें आस्था-विश्वास रहता है, दूसरा चक्र है वैज्ञानिक सोच जिसमें विकास रहता है किन्तु शायद हम विकास एवं विनाश की सही विभाजक रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रहे है और यही वर्तमान समस्या का कारण है। हमें इन दर्शनों मे सामंजस्य बनाना है। बौद्धिकता तथा नैतिकता मे तालमेल बैठाना है।
जैसे जीवन मे स्पर्श का बड़ा महत्व है। माँ का स्पर्श बच्चे का दर्द खत्म कर देता हूँ। कष्टों को हरने मे सहायक होता है। हमें अपने आने वाले वंश के लिए प्रकृति माँ को संरक्षित करना चाहिए। अगर बच्चा बिगड़ जाए तो भी माँ उसे पूरी तरह से नष्ट नहीं करती। समय समय पर कुछ नसीहत देकर सचेत अवश्य करती है। प्रकृति का स्पर्श मानवता को संतुलित रखता है। मानवता के कार्यों से प्रकृति माँ नाराज़ तो अवश्य है किन्तु माँ तो माँ है। मान भी जाएगी। सिर्फ एक कोशिश ही तो हमें करनी है।