चलो कहीं घूम लेते हैं / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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आज नीलेश को ऑफिस से निकलते-निकलते फिर देर हो गयी थी। हालाँकि उसे आज घर जल्दी पहुँचना था। उसी ने तो आज शाम को अपनी बेटी के होने वाले ससुराल के लोगों से मिलने का समय तय किया था। नीलेश के समधि और समधिन दोनों ही आ रहे थे नीलू की शादी की तारीख तय करने। नीलेश जब भी किसी ज़रूरी काम के लिए समय तय करता, उसके मन में यह शंका पलने लगती कि आज कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर घटेगा कि वह खुद तय किये गये समय पर नहीं पहुँच पायेगा। ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हो चुका था।

बहुत कोशिश करने पर भी वह ऑफिस से सात से पहले नहीं निकल सका। घर तक पहुँचने के लिए उसे एक घण्टा तो लग ही जायेगा। उसने उन्हें आठ बजे का समय दिया था। आठ बजे तक आयेंगे क्या वे लोग? नीलेश ने उन्हें ताक़ीद भी की थी कि उस रात वे खाना भी उसी के घर खाएँ और अब वह खुद ही लेट हो रहा था। नीलेश के मन में उधेड़बुन जारी थी। अपने देश में कोई लड़के वाला भला लड़की वालों के यहाँ समय पर पहुँचता है। उसे अपनी शादी का वक़्त याद आ गया। उसकी शादी सुधा से होनी थी तो वह अपने परिवार सहित हर अवसर पर हमेशा समय से ही पहुँचता था। यहाँ तक कि उसकी बारात भी निश्चित समय से पहले ही लड़की वालों के द्वार पर थी। वह ‘लड़के वाले’ का मिथ तोड़ना चाहता था। उसने मिथ तोड़ा भी। उसके लिए उसे अपने परिवार के अनेक लोगों के उपहास का पात्र भी बनना पड़ा। उसने किसी की भी परवाह नहीं की थी, लेकिन सारे लड़के नीलेश तो नहीं हैं न! यह सोचते-सोचते नीलेश स्वयं को दूसरों से कुछ अलग समझने लगा था।

आज जब नीलेश खुद ही लेट हो रहा था तो वह अन्दर से कहीं यह चाह रहा था कि उसके होने वाले दामाद कपिल के माता-पिता कुछ देर से ही पहुँचें। यही सोचते हुए उसने अपनी गाड़ी पार्किंग से निकाली और स्टार्ट करने से पहले सुधा को फोन मिलाया।

“हाँ बोलो” उधर से सुधा ने फोन उठाते ही पूछा।

“देर हो रही है सुधा, बहुत कोशिश करने पर भी यह हाल है...उनका कोई फोन था?” यह पूछकर नीलेश आश्वस्त हो जाना चाहता था।

“नहीं”

“ठीक है, चल रहा हूँ” कहकर नीलेश अपना मोबाइल बन्द करके अपनी गाड़ी समेत दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर एक अनजान चेहरे की तरह शामिल हो गया।

सर्दियों के दिन थे। जनवरी की ठण्ड। पाँच बजे ही अँधेरा घिरने लगता है। सात बजे लगता है, बहुत रात हो चुकी है। दिल्ली की भीड़-भाड़, लाल बत्तियाँ, चिल्ल-पों, भागम-भाग और कहीं भी ट्रैफिक जाम। आई टी ओ, आश्रम चौक, राजा गार्डन चौक, नारायणा टी पॉइंट, अधचिनी यानी दिल्ली की कोई भी ऐसी दिशा नहीं बची थी, जहाँ कभी भी ट्रैफिक जाम न हो सकता हो।

नीलेश केन्द्रीय सचिवालय से चला था और टैगोर गार्डन में उसे अपने घर पहुँचना था। यही कोई बारह किलोमीटर का रास्ता। पहले वह बस पर भी यह रास्ता तीस-पैंतीस मिनट में तय कर लिया करता था, लेकिन अब एक घण्टा...कम से कम। अधिक की तो कोई सीमा नहीं।

नीलेश ने इन्द्रपुरी का रास्ता पकड़ा कि इस रास्ते वह भीड़ से बचता हुआ जल्दी पहुँच जायेगा। उसका अनुमान ग़लत निकला। नारायणा की लोहा मंडी में जाम लगा हुआ था। माल ढुलाई करने वाले ट्रकों ने सड़क पर उत्पात मचा रखा था।

‘शिट’ नीलेश ने ख़ुद से कहा और सोचने लगा ‘फिर देर’। गाड़ी के डैश-बोर्ड पर अपने सामने लगी घड़ी को देखा। आठ बज चुके थे। वह तो सुधा से कहकर आया था कि आज वह दफ्तर से जल्दी आकर और काम में उसका हाथ बँटा देगा। क्या करे नीलेश! अंडर सेक्रेटरी की मुसीबत। वह सेक्शन ऑफिसर और डिपुटी सेक्रेटरी के दो पाटों के बीच पिसता रहता है फिर उसे खुद भी तो डिपुटी सेक्रेटरी बनना है और इसके लिए उसकी सी.आर. बिगड़नी नहीं चाहिए।

गाड़ियाँ धीरे-धीरे रेंग रही थीं। गाड़ी के अन्दर टेम्परेचर बढ़ने लगा था। उसने अपनी जाकेट उतारकर गाड़ी की सीट के पीछे टाँग दी और दाये-बायें देखते हुए अपनी गाड़ी सरकाता रहा।

आठ बज चुके थे। फोन बजा। सुधा थी-”हाँ, बोलो”

“वे लोग आ गए हैं”

“मैं नारायणा रेड लाइट पर फँसा हूँ...अभी पहुँचता हूँ...उन्हें बिठाओ...ग्रीन...”, मोबाइल सिग्नल गायब हो गया।

इससे पहले कि नीलेश टी पॉइंट से दायें मुड़ पाता, रेड लाइट फिर हो गयी। कम से कम दो-ढाई मिनट और।

“ठक...ठक...ठक...” नीलेश ने झुँझलाकर अपनी बायीं ओर देखा। अक्सर भिखारी या हिजड़े आकर इस तरह से “ठक...ठक...” करके भीख माँगते हैं। पर नहीं...यह तो कोई महिला थी। नीलेश ने उसे इशारे से अपने बायें ओर बुला लिया और गाड़ी का शीशा नीचे करते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछा-”हाँ?”

“मुझे थोड़ा आगे छोड़ देंगे”

“कहाँ?”

“बस थोड़ा आगे, बहुत देर से यहाँ खड़ी हूँ...”

सफ़ेद सिल्क की साड़ी, हाथों में सोने की दो चूड़ियाँ, माथे पर चमकती लाल बिंदिया...सिर के सफ़ेद बाल...कुल मिलाकर नीलेश को वह एक सम्भ्रान्त महिला लगी थी।

नीलेश दिल्ली में ही पला-बढ़ा था और आये दिन तरह-तरह के किस्से भी सुनता-पढ़ता था कि किस तरह से सुनसान रास्तों पर खड़ी लिफ्ट माँगती सुन्दर-असुन्दर लड़कियाँ अक्सर काल-गर्ल्स या लुटेरी होती हैं। उसी के दफ्तर का एक बाबू तो इनका शिकार भी हो चुका था और पाँच-सात हज़ार की चपत खा चुका था।

“मुझे सिर्फ़ टैगोर गार्डन तक जाना है” नीलेश ने कहा।

“ठीक है...मुझे मोड़ पर छोड़ दीजिए...वहाँ से बस मिल जायेगी।”

नीलेश के दिमाग में कई-कई बातें एक साथ दस्तक दे रही थीं। फिर भी उसने बायाँ दरवाज़ा खोलते हुए कहा-”आइए बैठ जाइए।”

उस सम्भ्रान्त महिला के अन्दर बैठते ही ग्रीन लाइट हो गयी और नीलेश ने अपनी गाड़ी मोड़कर रिंग रोड पर डाल दी।

“पीक आवर्स” थे। ट्रैफिक धीरे-धीरे सरक रहा था। नीलेश ने कनखियों से उस महिला की ओर देखा। उसके बाल ज़रूर सफेद हो गये थे, लेकिन चेहरे पर दूर-दूर तक कोई झुर्री नहीं थी। रंग गोरा। चेहरा एकदम सपाट और चिकना। हाँ उसके चेहरे पर अन्यमनस्कता भरा सौम्य भाव तैर रहा था। गाड़ियों के हुजूम में अपनी गाड़ी की जगह बनाते हुए नीलेश ने एक्सीलेटर दबा दिया। गाड़ी पुल की चढ़ाई पर भी तेज़ भागने लगी।

“आप गाड़ी बहुत तेज़ चलाते हैं” उस महिला ने अपने स्वर में अतिरिक्त कोमलता उँडेलते हुए कहा।

“हाँ, ऐसे ही चलाता हूँ” नीलेश जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहता था।

“क्या करते हैं आप?”

“सरकारी नौकर हूँ...और आप?”

“मैं एक फैक्टरी में काम करती हूँ...गाड़ी ज़रा धीरे चलाइए न।”

नीलेश ने एक्सीलेटर से पाँव हटा दिया। अपने मोमेंटम में भागती गाड़ी की रफ़्तार खुद ही कम होने लगी।

नीलेश ने इस बार गर्दन घुमाकर उस महिला के चेहरे को ध्यान से देखते हुए कुछ पढ़ने की कोशिश की। उसे वह किसी भी कोण से फैक्ट्री में काम करने वाली महिला नहीं लगी।

“चलो कहीं घूम लेते हैं” महिला ने सीधा प्रस्ताव रखा।

नीलेश को लगा जैसे शून्य में कोई लपक दिखी और गायब हो गयी। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने पूछा-”क्या मतलब?”

“मतलब क्या...गाड़ी इतनी तेज़ मत चलाया करो...आराम से घूमते हैं न!”

“आप कहाँ उतरेंगी?” नीलेश ने अपना पासा फेंका।

“थोड़ा आगे छोड़ दो न! चलो पहले कहीं घूम लेते हैं।”

नीलेश के हृदय-सागर में एक के बाद एक लहरें उठने लगीं। पहली लहर किनारा छोड़ती तो दूसरी लहर आ जाती। दूसरी छोड़ती तो तीसरी। न जाने कितनी-कितनी स्मृतियों, चाहतों और आशंकाओं की लहरें। एक-दूसरे को काटती हुईं। अख़बारों में पढ़े किस्से और कुछ लोगों के अनुभवों के बीच कहीं मन में दबी-छिपी चाहत कि कभी उसे भी दूसरी औरत का अनुभव मिले। नीलेश के अन्दर एक सिक्का खनखनाया कि यह अवसर मिलना भी था तो आज...जब उसे घर जल्दी पहुँचना है। दूसरे कोने से दूसरी आवाज़ कि नहीं यह ठीक नहीं है...वह सुधा के प्रति अन्फेथफुल नहीं हो सकता...और अगर वह उसे एक बार कहीं ले भी जाये तो कहां...यह लूट ले...मार दे या मरवा दे...मेरे से सब कुछ छीन ले...और फिर कई-कई तरह के डर विष-बेल की तरह से उसके मन में लिपटने लगे। धीरे-धीरे डर नीलेश पर हावी हो गया और उसने उस महिला से कहा-”आप अगली रेड लाइट पर उतर जाइए।”

“वो पीछे आ रहा है” उस महिला ने कहा। यह बात इस घटना का एक और आयाम थी। इस छोटे से वाक्य से नीलेश का डर और गहरा गया। फिर भी साहस बटोरकर नीलेश ने पूछा-”वो...वो कौन...”

सामने रेड लाइट थी। गाड़ियाँ वहाँ पहले से ही रुकी हुई थीं। नीलेश ने भी अपनी गाड़ी रोककर रियर ग्लास में देखा। गाड़ी के ठीक पीछे एक स्कूटर खड़ा था और उस पर सवार था एक मुस्टंडा।

गर्दन घुमाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। नीलेश को लगा आज वह बुरी तरह से फँस गया है। अकेली महिला होती तो वह उससे निपट लेता...पर यह पहलवान! हो सकता है उसके पीछे कोई और भी हो। नीलेश की सोच की परतें एक-दूसरे से उलझते हुए खुल रही थीं। वह सोच रहा था कि अगर उसने उस महिला को मना कर दिया तो वह अपने कपड़े फाड़कर, शोर मचाकर उसे बुरी तरह से फँसा सकती है। उसके कहने के मुताबिक चलता है तो वह न जाने उसे कहाँ ले जायेगी और उसके साथ क्या करेगी।

वह खुद को कोसने लगा कि क्यों उसने उस महिला को लिफ्ट दी, जबकि वह कभी भी किसी लड़की को लिफ्ट नहीं देता था। शायद वह उस महिला के प्रौढ़ चेहरे पर फैले आभिजात्य को देखकर न नहीं कर सका या कहीं मन के किसी गहरे कुएँ में डूबा उसके पौरुष का वह हिस्सा ऊपर आकर तैरने लगा था, जिसे दूसरी की तलाश थी। दूसरी औरत यानी दूसरी औरत का जिस्म।

ग्रीन लाइट होते ही ट्रैफिक फिर रेंगने लगा। नीलेश ने अपनी हथेलियों में गीलापन महसूस किया। कानों से गर्मी रिसने लगी थी। उसने सोचा थोड़ी ही दूर तो राजौरी गार्डन का पुलिस थाना है। सीधा वहीं जाकर गाड़ी खड़ी कर देगा और पुलिस की मदद लेगा...स्मृति-कूप से फिर एक आवाज़ आयी...पुलिस और मदद...वो भी ऐसे केस में...भूल जाओ...याद नहीं उस्मान क्या हुआ था...वह भी इसी तरह से फँसा था...पुलिस की मदद लेनी चाही...मदद तो दूर, पुलिस ने उसकी ही जेबें खाली करवा ली थीं...उस्मान ने बताया था उसे कि पुलिस ने उसकी तलाशी लेते हुए कहा था पैसे दे दो वरना आतंक फैलाने के जुर्म में लाक-अप में जाओगे। कितना घबरा गया होगा उस्मान और जिस लड़की को उसने लिफ्ट दी थी...वह खिलखिलाती हुई चली गयी थी। इस महिला की भी तो पुलिस से वैसे ही साँठ-गाँठ होगी जैसे उस लड़की की थी...बिना पुलिस की मदद के यह सब हो सकता है भला...।

इसी ऊहापोह में उसकी गाड़ी की रफ़्तार कम हो गयी थी। क्या करे...क्या न करे...मन का एक हिस्सा कर रहा था कि सभी पुलिस वाले एक से नहीं होते तो दूसरा कह रहा था कि माना कि यह सच हो तब भी हुज्जतबाज़ी तो होगी न! पहले एफ आई आर करवाओ, जो वे आराम से दर्ज करेंगे नहीं और लिख भी लें तो गवाह जुटाओ...कहाँ से लाऊँगा गवाह...और इस औरत ने मुझ पर कोई इल्ज़ाम लगा दिया तो? और पुलिस स्टेशन पहुँचने से पहले ही पीछे आते मुस्टंडे ने चाकू मार दिया तो? इस तरह के कई तो? उसके दिमाग़ पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ने लगे। उसे लगा जैसे कई ‘तो’? गाड़ी के अन्दर तैर रहे हैं।

उसने ट्रैक बदलते हुए सहानुभूति का रास्ता चुनते हुए उस महिला से कहा-”यह आप ऐसा क्यों...?”

इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी करता, उस महिला ने कहा-”मुझे कौन पूछता है...मेरे साथ चलो तो दिखाती हूँ...बहुत ही सुन्दर लड़की है...मुश्किल से बीस की होगी...डरने की कोई बात नहीं...दरअसल मेरी बेटी बीमार है न!”

पहले तो नीलेश को दोनों बातें कुछ अटपटी लगीं, फिर उसे दोनों बातों के सिरे कुछ जुड़ते हुए लगे। उसने पूछा-”कितनी बड़ी है आपकी बेटी?”

“आप मुझे आप क्यों कह रहे हैं” फिर उसने पीछे मुड़कर देखा और बोली-”आ रहा है...मेरी बेटी है कोई बीस साल की।”

नीलेश की नज़र बार-बार डैश-बोर्ड पर लगी घड़ी पर जा रही थी...छोटी सुई नौ के करीब पहुँच रही थी, फोन बजा।

“किसका है?” उस महिला ने पूछा।

“मेरी पत्नी का”

“बजने दो, उठाना नहीं...वो पीछे आ रहा है...”

अब तो नीलेश के पसीने छूटने लगे लेकिन उसने ख़ुद को सँभालते हुए बात जारी रखी-”दरअसल मेरी भी एक बेटी है...कोई तेईस साल की।”

वह महिला खामोश बैठी रही। फोन बज-बज कर खामोश हो गया। नीलेश ने उस महिला के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की...उसे लगा उसके चेहरे पर बड़ा सा शून्य तैर रहा है।

“मैं यहीं से मुड़ जाता हूँ...आप यहीं उतर जाइए...” कहते हुए नीलेश गाड़ी एक ओर पटरी के साथ लगाने की कोशिश की।

“नहीं...नहीं...यहाँ नहीं...राजा गार्डन चौक के उधर”

फिर पंजाबी बाग...फिर पीरागढ़ी...फिर पता नहीं किधर...ऐसा नीलेश ने सोचा और मन ही मन कुछ करने की हिम्मत जुटाने लगा।

“वो पीछे आ रहा है” एक बार फिर यह कहकर उस महिला ने उसकी हिम्मत को तोड़ने की कोशिश की।

“कौन है वो?”

“पता नहीं...बस वो है...”

नीलेश की असमंजसता और गहरी होती जा रही थी।

राजा गार्डन चौक पर उसे हरी बत्ती मिली। वह चौक से मुड़ने के बजाय रिंग रोड़ पर सीधा ही बढ़ गया।

आगे पेट्रोल पम्प और उसी के पास से बायीं ओर मुड़ती हुई सड़क पुलिस स्टेशन की ओर जाती थी।

“टू बी आर नाट टू बी” वाली हालत में था नीलेश।

तभी फोन फिर बजा। सुधा ही थी। इस बार नीलेश ने फोन उठा लिया और कहा-”हाँ, बस आ रहा हूँ”

अचानक जाने कहाँ से नीलेश के मन में टनों के हिसाब से हिम्मत आ गयी और उसने मोड़ से दस कदम पहले ही गाड़ी में ज़ोर से ब्रेक लगा दी। अपनी सीट पर बैठ-बैठे ही उसने हाथ बढ़ाकर बायीं ओर का दरवाज़ा खोल दिया और अपनी पूरी ताकत से चिल्लाया-”गैट डाउन”

वह महिला इतनी सहम गयी कि एकदम गाड़ी से उतर गयी। पीछे स्कूटर पर सवार वह मुस्टंडा भी खड़ा था। महिला के उतरते ही नीलेश ने दरवाज़ा ज़ोर से बन्द किया और गाड़ी सीधे दूसरे गेअर में डालकर एक्सीलेटर को दबा दिया। अन्दर कहीं एक सिक्का उछला, “आप गाड़ी बहुत तेज़ चलाते हैं।”

घर पहुँचने से पहले उसने हीरामन की तीसरी कसम ही तर्ज़ पर पहली कसम खाई कि भविष्य में कभी किसी महिला को लिफ्ट नहीं देगा। अगले ही क्षण उसके कानों में गूँज सुनाई दी-‘चलो कहीं घूम लेते हैं’

जब रात को सब खाना खाकर चले गये तो नीलेश और सुधा अपने बेड-रूम में लेटे थे। सुधा ने पूछा आज इतनी देर क्यों कर दी। तब नीलेश ने सुधा को सारा किस्सा सुनाया। सुधा ने थोड़ा शोख देते हुए कहा-”चलो न कहीं घूम लेते हैं” और वे दोनों एक-दूसरे में घूमने लगे। कमरे का पूरा आकाश भी उन दोनों के साथ झूम रहा था।