चलो हाथ मिलाएँ / गार्गी
यूँ तो नये साल की सुबह बहुत टैंशन ले कर आई थी, सभी की पेशानियों पर बल थे पर सान्या बहुत बेहाल थी। टी.वी. के सारे चैनल एक ही ब्रेकिंग न्यूज़ दिखा रहे थे बार-बार---फिर हुई दागदार मुम्बई! शर्मसार मुम्बई!
इकतीस दिसम्बर की रात को नये साल का ज़श्न मना कर लौट रही लड़कियों को होटल के बाहर वहशी भीड़ ने घेर लिया था। उनके साथ बदतमीजी की, उनके कपड़े फाड़ डाले। लड़कियां अकेली नहीं थीं, उनके साथ उनके दोस्त लड़के भी थे। पर सभी बेबस हो गये थे उस वहशी भीड़ के सामने। भीड़ भी कोई दस-पांच की नहीं थी, चालीस-पचास दरिंदों का हज़ूम था। शिकार पर निकले थे एक साथ इतने सारे ‘मादा-खोर’ शिकारी नये साल में।
एक ही सवाल सब दोहरा रहे थे -कहाँ से आये इतने सारे वहशी एक साथ? ज़ाहिर है किसी दूसरे ग्रह से आये ‘एलियन’ तो थे नहीं। मुम्बई को घेरते समुन्द्र में से पाताल फोड़ कर निकले राक्षस भी नहीं लगते थे। न ही आसपास के घने जंगलों से निकले चौपाये जानवर थे भीड़ में, फिर कौन थे जिनसे बनी थी वहशी भीड़? सान्या ने सोचा।
टी.वी पर दिखाये जा रहे पतले-मोटे, लम्बे-नाटे, दो हाथ-दो पैर वाले रोज़ सुबह-शाम दिखाई पड़ते आदमज़ात ही थे सब! हाँ, आंखें अजीब सी थीं सबकी---अजीब सी खौफनाक कौंध थी उनमें। पर वे सब आये कहाँ से? इतने सारे एक साथ! फिर कहाँ गये? आकाश में उड़ गये, पाताल में घुस गये या घने जंगलों में छुप कर बैठ गये? सान्या सोच रही थी।
-अजी लाहोलविला कूवत! क्या ज़माना आ गया? हद हो गई बेशर्मी की, आधी रात को छोकरों के साथ घूमती हैं बदज़ात छोकरियां!
-और क्या जी इतने छोटे-छोटे कपड़े पहनतीं हैं कि बस! फिर बदनाम होते हैं मर्द! हमारा ज़माना होता तो मजा चखा देते- पड़ोसी बड़े मियां की ‘हाँ में हां’ मिलाते, मुंडी हिलाते बूढ़े दादू की दलील सान्या को सिर से पैर तक सुलगा गई।
- छोटे-छोटे कपड़े पहनती हैं बेशर्म लड़कियां, आधी रात को आवारागर्दी करती हैं आवारा लड़कियां तभी तो होते हे ये हादसे- यही कहतें हैं न आप दोनों तजुर्बेकार बुजुर्ग- कल ही सात महीने की जिस गर्भवती औरत से चार लोगों ने बलात्कार किया वह क्या आवारागर्द थी? बेशर्म थी? उसने छोटे-छोटे कपड़े पहन रखे थे? कैसे बेज़्जत किया उन भेड़ियों ने उस मां बनने वाली औरत को? और वो जो पिछले दिनों चार साल की बच्ची से बलात्कार किया था सौतेले बाप ने- वह बच्ची आवारा थी? बेशर्म थी? छोटे-छोटे कपड़े पहनती थी? आधी रात को आवारागर्दी करने निकली थी?
- घर में थी अबोध बच्ची! बाप के महफूज़ साये में छोड़ कर गई थी मां- पर बाप ही कमीना हो गया- दबोच लिया उसे- बेचारी समझ भी नहीं पाई होगी कि उसके साथ हुआ क्या? हर बात पर ‘ अजी लाहोलविलाकूवत! क्या ज़माना आ गया?’ कहने वाले बड़े मियां और उनकी हर बात पर ‘हां में हां’ मिला कर मुंडी हिलाने वाले बूढ़े दादू को जैसे लकवा मार गया था। हमेशा चबड़-चबड़ करने वाली उनकी ज़ुबान खामोश थी। दोनों के पास कोई जवाब नहीं था सान्या की बात का।
-और दादू मैं भी तो कई बार साँझ ढ़ले लौटती हूँ दफ्तर से। लोकल छूट जाती है तो अंधेरा घिर जाता है। घर लौट के खाना पका के सबको खिला के मंदिर जाती हूँ मंगल-शुक्रवार को- रास्ते में भीड़ होती है- वही भीड़ मुझे घेर ले तो?
लकवा खाये दोनों बुज़ुर्ग हिले थोड़े से। बहुत मामूली सी हरकत हुई बेज़ान बुतों में। पर वही हरकत उनके भय से कांपते अंतर्मन की हालत साफ बयां कर गई थी। सान्या का मन भी भय के बवंडर में फंस गया था। कई सवाल उसे कौंच रहे थे। दफ्तर से लौटते मुझे कोई घेर ले तो? दफ्तर में कुल छप्पन लोग हैं- पचास मर्द हैं और छ: औरतें हैं। अगर कभी पचास मर्द हम छ: औरतों को घेर ले तो?
- तो! तो? तो? लगातार सोच रही थी सान्या। ‘तो’ का विशाल अजगर उसे निगलता ही जा रहा था। खौफ से उसका चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। यही हालत उन बेज़ुबान बुतों की भी थी। सान्या को आज भी याद है कि कुछ साल पहले दिल्ली में दो लड़कियों के साथ हुये हादसे पर दोनों ने क्या कहा था। पहले तो दोनों कबीलदार, उम्रदराज़ बुजुर्ग ठठा कर हँसे थे। फिर हंसते-हंसते ही बोले थे- होना ही था हादसा- आधी रात ढ़ाबे पर चाय पीने गई थीं लड़कियां!
पर आज उनकी हँसी गायब थी। ठिठोली गुम थी। अपनी पोती की सुरक्षा का सवाल उन्हें भीतर तक हिला गया था। सान्या का ध्यान दोनों बुज़ुर्गों पर गया। दोनों बूढ़े हैं। मुँह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं। पर हैं तो पुरूष! हाथ-पैर नहीं चलते तो ज़ुबान से ही औरतों को ज़लील कर खुश हो लेते हैं। हर दुर्घटना पर उन का रवैया एक सा ही था- पीड़ित औरतों का मज़ाक उड़ा कर पीड़ा देने वाले पुरूषों के वहशीपन का समर्थन करता रवैया!
सान्या सोचने लगी- पुरूष स्त्री को शिकारी की नज़र से क्यों देखता है? क्यों ज़लील करता है इस तरह? क्यों औरत सहती है इतनी ज़िल्लत? मान लिया भीड़ में फंसी औरत बेबस हो जाती है, लेकिन उस बेबस को देखने वाली सारी औरतें चुप क्यों रहती हैं?
दिमाग में कुलबुलाते सवालों को सान्या ने पड़ोसी बड़े मियां की बहू ताहिरा के सामने रखा तो वह बोली- पता नही बीबी! कारण तो मैं नहीं जानती पर छुटपन से यही सब-कुछ देख रही हूँ- बाहर भी और घर में भी- यही कुछ!
-भाभीजान, सान्या हैरान हो कर बोली- घर में भी? हाँ बीबी! तुम जानती नही हो क्या अपने भाई जान को? मौका छोड़ते हैं कभी? साली हो या नौकरानी। -भाभी जान! आप जानती हैं यह सब? सान्या ने हैरान हो कर पूछा। सान्या अकरम की हरकतों से वाकिफ है। उम्र में छोटा होने और ‘सान्या आपा’ कहने के बावजूद अकरम हमेशा उसे छूने-सहलाने की कोशिश करता है। उसकी आंखों से कैसे लार सी टपकती रहती है हरवक्त!
-जानती हूँ बीबी! सब जानती हूँ। छोटी बहिन ने मेरे घर आना छोड़ दिया है। नौकरानी कोई टिकती नहीं- ताहिरा बोली।
- आप रोकती क्यों नहीं?
-क्या रोकूँ बीबी! बचपन में जब बाप को देखती थी किसी औरत के साथ गुस्ताखी करते हुये तो भभकती थी मैं। मां को आकर बताती तो मां होंठ भींच लेती थी बस! कहती कुछ नहीं थी। क्या करती बाप को रोकना-टोकना किसी के बस का नहीं था। इतना मारता था मां को सब के सामने! एक बार मैंने उसकी करतूत सबके सामने कह दी तो उसने मुझे इतना पीटा कि जहन्नुम याद आ गया। पहले मुझे पीटा, फिर मां को।
-बाप की देखा-देखी भाई भी उसी राह चला। सब मर्द एक से हैं। औरतों के मुकद्दर में यहीं जहन्नुम लिखे हैं परवरदिगार ने! क्या टोकूँ अकरम को? मारेगा तो सह लूँगी- हमेशा सहती ही आई हूँ पर निकाल देगा घर से तो कहाँ जाऊंगी सान्या बी? है कोई ठिकाना मेरे लिये?
फिर प्रश्न सुलगता हुआ! प्रश्नों से हलकान सान्या हल्की होने गई थी ताहिरा के पास। हल्की क्या होना था, और बोझ लाद लाई दिलो-दिमाग पर।
भड़ाक से दरवाजा खुला तो सान्या चौंकी। महरी थी। हमेशा बिखरे रहने वाले उसके बाल आज सलीके से बंधे थे। धोती लिपटी नही थी शरीर से, बांधी गई थी अच्छी तरह। -अब आ रही है इतनी देर से, कल कहाँ थी? सान्या ने मन को रौंदते सवालों की तल्खी को महरी पर निकालते हुये कहा।
-बीबी! आ गई न अब, निपटा दूंगी सब काम- हँसते हुये महरी बोली।
-क्या बात है? आज तेरा हुलिया बदला हुआ है, पहली बार हँसते हुये देख रही हूँ। अपने शराबी-कबाबी पति से पिटती, कभी फूटा माथा तो कभी सूजे हाथ और कभी लंगड़ाते पैर को घसीटती महरी आज बिलकुल बदली हुई लग रही थी। -इतना बदलाव एक दिन में कैसे? सान्या ने पूछा।
-वो जी मेरा मर्द रोज पीता था, मारता था, मैं पिटती थी- सोचती थी- औरत हूँ- यही मेरा भाग है- मर्द का हक है चाहे मारे, चाहे दुलारे- राम जी ने शरीर दिया है औरत का तो सहना तो पड़ेगा- मार-पीट- जोर-जबरदस्ती सब सहना पड़ेगा- नहीं सहूँगी तो मुँह मारेगा इधर-उधर- मेरा ही घर बिगड़ेगा- क्या फायदा?
-कल लौटते साँझ हो गई। बीमार बहिन को देखने गई थी। वहाँ देर लग गई। लौटते अंधेरा घिर गया था। मुझे कुछ घुटी-घुटी सी आवाजें सुनाई दी। देखा तो दो-तीन मुस्टंडे एक बच्ची सी छोकरी को हलकान कर रहे थे। छोकरी ‘छोड़ दो-छोड़ दो’ करती मिमिया रही थी। मुझसे रहा नहीं गया जी, अपनी बिटिया का ध्यान आ गया। मैंने अपनी चप्पल उतार हाथ में ली और गाली देती उधर लपकी तो जैसे फनियर नाग देख लिया! उन मुस्टंडों में मेरा घरवाला भी था। बस जी मुझे तो चंडी चढ़ गई- निखट्टू, आवारा साँड! न काम का न काज का! अपनी बेटी जैसी छोरी पर आँख धरी तूने, लाज नहीं आई? मेरा चप्पल वाला हाथ दनादन पड़ता रहा उस पर।
-उसने तुझे रोका नहीं?
-रोका जी, कई हाथ छोड़े मुझ पर, लात भी चलाई पर मुझे रोक नहीं सका- मेरे अंदर तो जैसे भवानी आ गई थी साच्छात! इतनी चप्पल जड़ी कि नाक से लहू चूने लगा कमीने के।
-और उसके बाकी साथी?
-भाग रहे थे कमीने! पर मेरी पकड़ो-पकड़ो की आवाज से इक्कठे हुये लोग पिल पड़े सूअरों पे। धर दबोचा सब को। -फिर?
-फिर क्या जी, बच्ची को मैं घर ले आई। डर के मारे बेहोश थी बेचारी! थोड़ा पानी छिड़का तो हाथ-पैर हिले उसके। फिर सुबक-सुबक के पता बताया उसने। पास की कलोनी की थी छोरी। अगवा के लाये थे कमीने! बात फैली तो उसके मां-बाप भागते आये। मां का तो रो-रो के बुरा हाल था। छोरी को उसके मां-बाप के हवाले किया तो जैसे छाती ठंडी हो गई मेरी!
-और वो तेरा मर्द?
-कैसा मर्द जी? बेटी जैसी छोरी पे हाथ डाले वो काहे का मर्द? भड़वा कहो जी उसे! ले गई पुलिस कमीने को। -पुलिस!
-हां जी पुलिस! आसपास के लोग कहने लगे कि अब छोड़, क्यों पुलिस-थाना करती है? भतेरी कर ली तूने मन की। पर मैं न मानी जी। क्यों मानती जी? आज किसी की बेटी पर आंख मैली की है तो कल अपनी पे करेगा। बुरी आदत रोकनी तो पड़ेगी न जी? मैं नहीं रोकूंगी तो दूसरा कौन रोकेगा? अब देखूँ कैसे आयेगा घर में लौट के! -क्या करेगी तू?
-लात मारूंगी दो और किवाड़ भेड़ लूंगी घर के। मैं न रह सकती किसी भड़वे के साथ!
-कैसे रोकेगी? तेरा मर्द है, ब्याह के लाया है तुझे! तुझ पे हक है उसका।
-मुझ पे हक! मैं क्या भाटा हूँ जी? जब वो ब्याह के लाया था तो मर्द था, मैं औरत थी। गैया बनी रही जिनगी भर। लात-घूंसे खाये पर खूंटा नहीं तोड़ा। कभी किसी दूसरे पर आँख ना धरी। पर अब वो मर्द नहीं रहा। किसी दूसरे की बहन-बेटी पे आंख धरने वाला वो---थू है उस पर! अब वो मेरा घरवाला ना है, मैने छोड़ दिया है उसे। अब नहीं घुसने दूंगी उसे घर में। मेरे जीते जी वो मेरे घर में पैर ना धर सकेगा कभी। -तेरा घर!
-हाँ जी मेरा घर! घर औरत से बनता है जी। छड़े मर्द के बसेरे को घर नहीं कहा जाता। यूँ ही नही कहा जाता कि बिन घरनी घर भूत का डेरा। संकल्प के ओज से महरी का मुँह दमक रहा था। उस दमक ने सान्या के बंद दिमाग को खोल दिया जैसे- औरत से पैदा होकर, औरत के बनाये घर में पल-बढ़ कर औरत का ही शिकार करते हैं ये मादा-खोर दरिन्दें और फिर वापिस लौट कर घर में बैठी औरत के हाथ की रोटी खाते हैं, तृप्ति की डकार मारते हैं और चैन से सो जाते हैं बेखौफ! क्यों?
क्योंकि घर से बाहर निकाल दिये जाने के खौफ से औरत डर जाती है। इसीलिये घर में घुसते ही उन्हें रोटी भी देती है और सोने की जगह भी चाहे वह कर्म करके आयें, चाहे कुकर्म करके घर में घुसें। हर हाल में उन्हें मां, बहिन, बेटी या बीवी के रूप में औरत का सुख मिल ही जाता है। अपने किये का कोई पछतावा नहीं होता उन्हें कभी। पर आज जरूर कुछ बदलेगा। क्योंकि आज से महरी के मर्द को न घर में खाने को रोटी मिलेगी न चैन से सोने की जगह।
महरी ने ठान लिया है कि आज से उसके भड़वे मर्द को घर नहीं मिलेगा- घर की रोटी नहीं मिलेगी- सोने की जगह नहीं मिलेगी- ब्याहता बीवी नहीं मिलेगी। मिलेगी तो सिर्फ सजा!
-मैं भी महरी के साथ हूँ- सान्या ने अपने-आप से कहा- मेरे घर के किसी भी पुरूष ने यदि कभी किसी बहिन-बेटी को ज़लील किया तो मेरे घर का दरवाज़ा भी कभी नहीं खुलेगा उसके लिये।
महरी और सान्या अब दो हैं। आपका क्या ख्याल है? साथ देंगे?