चवन्नी नहीं चली / गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'

Gadya Kosh से
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एक भिखारी ने दूसरे भिखारी को मोबाइल पर कहा-‘यार, पिछले दो तीन दिन से दिखाई नहीं दिया।' उसने जवाब दिया-‘ऊपर वाला देता है तो छप्‍पर फाड़ के देता है। पिछले दो तीन दिन में दो बोरी भर के पैसे मिले हैं। उन्‍हें गिन रहा था, पूरे पाँच लाख और कुछ हैं। मैंनें तो यार, अपनी पहले की जमा पूँजी से घर को ठीक करा लिया है, एडवांस दे कर डबल बैड, कूलर, कलर टी0वी0, वाशिंग मशीन, एक पुराना स्‍कूटर भी खरीद लिया है। बस अब अपनी गरीबी दूर ही समझो। इन्‍हें बैंक जा कर रुपयों में बदलवा कर और थोड़ा बहुत चुका कर कोई छोटा-मोटा बिजनस शुरु करना है।'

‘अरे तू कहीं चवन्नियों की बात तो नहीं कर रहा है। पिछले दिनों मुझे भी लगभग पाँच हजार की चवन्नियाँ भीख में मिली थीं।'

'हाँ, वो ही तो, मुझे तो बहुत माल मिला है यार।’

'अबे, भूल जा, उन्‍हें कैश कराने की तो तारीख ही निकल गयी।'

'कब?’ उसने धड़कते दिल से पूछा। जवाब मिला-‘कल।' उसने आगे कहा-‘मेरे भी पाँच हजार मिट्टी में ही गये। बैंक वालों ने एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी।' तभी फोन कट गया।

दो दिन बाद भीख के कटोरे ले कर फटेहाल अवस्‍था में दोनों फि‍र मिले। लाखों चवन्नियों वाले भिखारी से पहले वाला बोला-‘क्‍या हुआ यार, ये कैसी हालत बना रखी है? उसने जवाब दिया-‘क्‍या बताऊँ यार, तकाजे वालों ने सब लूट लिया, झौंपड़ी भी गयी। जमा पूँजी भी खाक हो गयी। अब समझा, अमीर ज्‍यादा अमीर और गरीब ज्‍यादा गरीब कैसे बन जाता है?’