चश्मे बद्दूर बनाम चश्मे बद्दूर / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
चश्मे बद्दूर बनाम चश्मे बद्दूर
प्रकाशन तिथि : 03 अप्रैल 2013


निर्माता गुल आनंद के लिए सई परांजपे ने 'चश्मे बद्दूर' बनाई थी। फिल्म में फारुख शेख, दीप्ति नवल, सईद जाफरी आदि कलाकारों ने काम किया था। सई परांजपे अत्यंत प्रतिभाशाली फिल्मकार रही हैं और उनकी नसीरुद्दीन शाह अभिनीत फिल्म 'स्पर्श' एक दृष्टिहीन व्यक्ति के संघर्ष की कथा थी। उनकी 'कथा' खरगोश और कछुए की दौड़ की लोककथा से प्रेरित थी, जिसमें अहंकारी खरगोश दौड़ में आगे रहने पर अपनी विजय से आश्वस्त होकर झपकी लेता है, जिसके नींद में बदलने के कारण मेहनती कछुआ जीत जाता है।

यह कथा आज भी ताजा है, परंतु मेहनती कछुए अब इसलिए नहीं जीत पाते कि तेज खरगोश जहां सो जाता है, उसे ही जीत के लिए तय स्थान माना जाता है। जीत का मार्क बदल देने के कालखंड में सारे कछुए मेहनत ही करते रहेंगे और अगर विजय चिह्न तक पहुंचने लगे तो उसे आगे खिसका दिया जाएगा और निर्णायक स्वयं सोते हुए खरगोश को उठाकर जीतने के लिए प्रेरित करेंगे।

बहरहाल, सई परांजपे ने अपनी सारी फिल्में स्वयं ही लिखी थीं और अपने लेखन में वे सहज हास्य व मासूमियत का संरक्षण कायम रखती रहीं। यह ज्ञात नहीं हो सका कि उनकी धर्मेंद्र अभिनीत 'बिच्छू' क्यों नहीं बन पाई और उस पटकथा पर किसका अधिकार है। यह अफसोस की बात है कि आज सई परांजपे को उनके योगदान के लिए उस तरह याद नहीं किया जाता, जैसे ऋषिकेश मुखर्जी या बासु चटर्जी को किया जाता है, जिन्होंने दूसरों से अपनी पटकथाएं लिखवाईं, जबकि सई परांजपे स्वयं लिखती थीं और फिल्म क्राफ्ट भी उनका बेहतर ही था।

बहरहाल डेविड धवन और उनके निर्माता ने गुल आनंद की पत्नी से 'चश्मे बद्दूर' बनाने की आज्ञा ली, परंतु सई परांजपे से मिलने का कष्ट नहीं किया। निर्माता ने अधिकार बेचकर प्राप्त धन से अपनी फिल्म के निगेटिव की मरम्मत कराकर उसे पुन: जीवित किया है, परंतु कुछ धन सई परांजपे को मिलना चाहिए था। सुना है कि पांच अप्रैल को डेविड धवन की फिल्म के साथ ही सई परांजपे की फिल्म के भी प्रदर्शन की योजना है। बिना डेविड की फिल्म देखे ही यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि सई-सा सहज हास्य व मासूमियत उनके बूते की बात नहीं है। उनकी गोविंदा कादरनुमा फूहड़ता बॉक्स ऑफिस की आवश्यकता है, परंतु बात दरअसल फिल्मकार की संवेदना और सौंदर्यबोध की है। डेविड और सई परांजपे के बीच तीन दशकों का नहीं, सदियों का फासला है। सई परांजपे एक अंधे व्यक्ति के जीवन में स्पर्श के महत्व की फिल्म बनाती हैं तो डेविड धवन की एक फिल्म में कादर खान अभिनीत पात्र सूर्यास्त के पश्चात अंधा हो जाता है और सूर्योदय पर वह देख सकता है। काश, इस तरह की सुविधा धृतराष्ट्र को होती तो वे बचपन से ही उद्दंड हो रहे अपने पुत्र दुर्योधन को सुधारने का प्रयत्न करते। डेविड धवन यह सफाई दे सकते हैं कि आज के युवा में वह मासूमियत ही नहीं, जो सई परांजपे के युग में थी। शायद यही कारण है कि सई परांजपे का पान-सिगरेट बेचने वाला पात्र जिसे सईद जाफरी ने अत्यंत कुशलता से निभाया था, अब बदन पर अनेक गुदने गुदवाकर पॉवर मोबाइक चलाता है। डेविड ने घटनास्थल भी गोवा कर दिया है, जबकि सई की फिल्म में दिल्ली शहर था। यह संभव है कि इन परिवर्तनों के साथ डेविड की फिल्म भी खूब सफल रहे, क्योंकि ताउम्र वे यही करते आए हैं। वक्त के साथ बदलने और जीवन में 'खरगोश' बने रहने की शक्ति उनके पास है। बेचारी सई परांजपे जीवन की दौड़ में वह कछुआ है, जिसे जीत के निकट आते देख निर्णायक विजय चिह्न बदल देता है। क्या सचमुच आज मासूमियत का लोप हो गया है? सात-आठ की उम्र तक पहुंचते ही बच्चे इंटरनेट का उपयोग करने लगते हैं और अब उनके खिलौने भी बदल गए हैं। टेक्नोलॉजी ने उनके लिए नए खिलौने गढ़े हैं और अब वे बड़ी जल्दी अपनी उम्र से अधिक बुद्धिमानी प्राप्त कर चुके हैं। गोया कि टेक्नोलॉजी ने उम्र में पोल वॉल्ट का इस्तेमाल उन्हें सिखा दिया है। बहरहाल 'चश्मे बद्दूर' के दोनों संस्करणों में आप बदलते हुए समय का आकलन भी कर सकेंगे। सई परांजपे की फिल्म में गरीब युवा नायक अपनी प्रेमिका क लेकर एक रेस्त्रां में जाता है, जहां वेटर के यह पूछने पर कि खाना कब तक लाऊं, नायक कहता है कि कोई जल्दी नहीं है, इंटरवल के बाद ले आना और इसी दृश्य पर फिल्म में इंटरवल होता है। सई की सादगी और डेविड की सजावट में बहुत अंतर है।