चश्मे / विमल चंद्र पांडेय

Gadya Kosh से
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जब उसकी टैक्सी बाहर आकर रुकी तो सवेरा हो जाने के बावजूद अभी शक्ल दूर से न पहचाने जाने लायक अँधेरा था। उसने अपने घर के गेट के सामने टैक्सी रुकवाई और सामान उतार कर उसका बिल अदा किया।

टैक्सी जाने के कुछ देर बाद तक वह अपना सामान लिए वहीं खड़ा रहा। उसके घर वाली पंक्ति में तीन नए मकान और बन गए थे। दो मकानों के बनने की खबर तो उसने सुनी थी पर यह तीसरा प्लॉट कब बिका और मकान भी तैयार हो गया? उसने कॉलबेल बजाई।

माँ गेट खोलने के बाद आश्चर्य से उसे घूरने लगी। क्या माँ उसे पहचानने की कोशिश कर रही है? पहचान का ऐसा संकट? वह डर गया। क्या डेढ़ सालों में वह इतना बदल गया है? बाल कुछ ज्यादा सफेद हो गए हैं पर वह तो असमय ही...। शायद मोटा ज्यादा हो गया है। पर फिर डर जाता रहा।

‘आ... अंदर आ।’

‘प्रणाम माँ।’ उसने पैर छुए।

घुसते ही पहली नजर बिस्तर पर पड़ी। पिताजी मौजूद नहीं थे।

‘पिताजी क्या इतनी ठंड में भी...?’

‘और क्या, नियम धरम के पक्के हैं...।’ माँ मुस्कराई।

माँ रजाई में पैर डाल कर बैठ गई। वह भी कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गया। माँ उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी। वह माँ को ध्यान से देखने लगा। पिछली बार एक बार भी फुरसत से माँ के पास नहीं बैठ पाया था। माँ कितनी बदलती जा रही है। हर बार वह दूसरी माँ को पाता है। चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ती जा रही हैं।

‘माँ, तुम तो बूढ़ी होती जा रही हो।’ उसने मुस्करा कर कहा।

‘जब मेरा जाया बूढ़ा होने लगा तो मैं तो बूढ़ी होऊँगी ही।’ माँ उसके निकलते जा रहे पेट की ओर देखकर मुस्कराई।

वह शरमा गया और नजरें हटाकर कमरे की ओर देखने लगा। अलमारियों में नए शीशे लगे थे। ऊपर वाले खाने से गुलदस्ते हटा दिए गए थे और वहाँ भगवान की कुछ तस्वीरें और मूर्तियाँ रखी हुई थीं। नीचेवाले खाने पर कुछ किताबें और बीचवाले खाने पर दो मढ़ी हुई तस्वीरें रखी हुई थीं। एक तस्वीर माँ और पिताजी की थी। जवानी के दिनों की जब पिताजी थोड़ी मोटी मूँछें रखते थे जो ऊपर की ओर तनी रहती थीं। दूसरी फोटो परिवार की थी जिसमें माँ और पिताजी आगे कुर्सियों पर बैठे थे और वह और छोटे पीछे कुर्सियों की पीठ पर हाथ रखे खड़े थे।

‘ये भगवान की तस्वीरें और मूर्तियाँ यहाँ ड्राइंगरूम में क्यों रखी हैं?’ उसने आलमारी की ओर देखते हुए पूछा।

‘तेरे पिताजी रोज पूजा करते हैं सुबह।’ माँ बताती हुई हँसने लगी।

‘क्या...? पिताजी और पूजा?’ उसे सुनकर एक अजीब सा गाढ़ा आश्चर्य हुआ जिसमें वह देर तक डूबा रहा। पिताजी तो शुरू से ही महानास्तिक किस्म के आदमी रहे हैं जो माँ के पूजा-पाठ और व्रतों के विरोध में अक्सर लंबे-लंबे लेक्चर पिलाया करते थे। और अब खुद पूजा...?

‘और सुन, मांस-मछली भी खाना छोड़ दिया है। कहते हैं तुम नहीं खाती हो तो मुझे भी नहीं खाना चाहिए। मांसवाले सारे बर्तनों को स्टोर में रख दिया है।’ माँ उसी रौ में बता रही थी।

उसकी समझ में पिताजी का कायांतरण बिल्कुल नहीं आया। उन्हें क्या हो गया है? उसके सामने पिताजी का रोबदार चेहरा घूम गया। उसे अपने बचपन के, पुराने दिन याद आने लगे, जब पिताजी घर में तानाशाह की हैसियत रखते थे। इतने कड़क कि सामने जाने में डर लगे और इतने अनुशासनवाले कि घर के पेड़-पौधे भी हिलने से पहले उनकी इजाजत लें। पुरूष होने का दंभ उन्हें विरासत में मिला था। दादाजी गाँव के खाँटी जमींदार थे और उन्होंने पूरी जिंदगी में दादी से एक बार भी प्रेम से बात नहीं की। पिताजी उनसे भी दो कदम आगे थे। वे माँ की हर बात, चाहे वह सही हो या गलत, इतनी तेजी से डपटकर काटते कि माँ सहम जाती।

कारण शायद रहे होंगे अवचेतन में बैठ गईं कुछ बातें और कुछ संस्कार। दादाजी और उनकी मंडली आपस में बैठकर बातें करती तो तेज आवाज में कुछ शिक्षाएँ निकलतीं जो अप्रत्यक्ष रूप से पिताजी के लिए होती थीं। जनानियाँ पाँव की जूती होती हैं, उन्हें ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए। मरदों को औरतों की कोई बात नहीं माननी चाहिए। लुगाइयों को खाना पकाने और बच्चा जनने से ज्यादा कुछ नहीं सोचना चाहिए। इत्यादि इत्यादि।

माँ ने सारी बातें दादी से सुनकर और फिर अपने अनुभवों से सबक प्राप्त कर अपने लिए एक सीमा खींच ली थी। माँ बताती थी कि पिताजी शादी के बाद कई-कई दिनों तक माँ से बोलते ही नहीं थे। माँ शाकाहारी थी और वे उन्हीं बरतनों में मछलियाँ और अंडे वगैरह खाते। कभी बाजार से खरीद कर लाते और कभी लाकर माँ को बनाने का हुक्म देते। माँ नाक बंद करके रोती हुई बनाती। उस समय उसे मांसाहार बनाना भी नहीं आता था हालाँकि बाद में वह बहुत अच्छा बनाने लगी थी, बल्कि उसके थोड़ा बड़ा होने के बाद तो माँ खुद कभी-कभी बाजार से अंडे लाकर बनाकर उसको और पिताजी को प्रेमपूर्वक खिलाती।

चूँकि पिताजी पढ़े-लिखे थे और शादी के डेढ़-दो साल बाद ही शहर में नौकरी के लिए आ गए थे, इसीलिए किसी की सीखों ने ज्यादा दिनों तक काम नहीं किया। कुछ समय बाद वह माँ से ठीक से बर्ताव करने लगे थे। ठीक से बर्ताव का मतलब कतई यह नहीं था कि वह माँ के कामों हाथ बँटाने लगे थे या माँ के कहने पर फैसले लेने लगे थे। हाँ, माँ को बात-बेबात डपटना छोड़ दिया था और उसकी बातें एक बार सुन जरूर लेते थे, भले ही आखिरी फैसला खुद ही लेते थे। माँ बताती थी कि सुनने में भले ही ये परिवर्तन छोटे लगें पर उन जैसे इनसान के लिए बहुत क्रांतिकारी थे।

‘चाय पियेगा?’ माँ ने बिस्तर से उतरते हुए पूछा।

‘अं... हाँ... बनाओ।’ उसकी तंद्रा टूटी।’ माँ किचन में चली गई और वह टहलने लगा।

‘परसों रात टीवी पर तेरा कार्यक्रम देखा था। बहुत अच्छा लगा।’ माँ किचन में से बोली।

‘अच्छा...। पिताजी ने भी देखा?’ उसने आवाज थोड़ी ऊँची करके पूछा।

‘हाँ, हाँ, उन्होंने भी देखा।’

उसका जी चाहा कि वह पूछे कि पिताजी को कार्यक्रम कैसा लगा मगर चुप रहा। माँ को खुद बताना चाहिए। वह जानती तो है इस रिश्ते के बारे में। पिताजी कभी उसकी तारीफ नहीं करेंगे और वह कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि पिताजी उसके बारे में जो भी सोचते हैं, उसे जानने की उसके अंदर कोई इच्छा या उत्कंठा है।

माँ चाय लेकर बिस्तर पर आ गई। वह बहुत प्रफुल्लित दिख रही थी। हाल के घटनाक्रमों को जैसे उस पर कोई असर ही न हुआ हो। क्या माँ छोटे की वजह से बिल्कुल भी दुखी नहीं है? जब उसने बिरादरी के बाहर शादी की थी तो सुना था कि माँ ने हफ्तों अन्न-जल त्याग रखा था। छोटे ने तो दूसरी धर्मवाली से शादी कर ली है। फिर माँ इतनी खुश कैसे दिख सकती है, वह भी सिर्फ सात-आठ महीनों में ही...?

‘बहू कैसी है? और रिंकी...?’ माँ ने चाय पीते हुए पूछा।

यही विषय है जिस पर माँ या पिताजी के बात करते ही वह खुद को अपराधी समझने लगता है। पिताजी ने तो खैर इस मुद्दे पर एक-दो बार के बाद बात ही नहीं की पर माँ...? उसने भी जैसे अपने आप को सँभाल लिया है।

‘ठीक हैं दोनों।’ उसने खिड़की की ओर देखते हुए जवाब दिया।

‘रिंकी तो अब बड़ी हो गई होगी?’ माँ ने वात्सल्य से मुस्कराते हुए पूछा।

‘हाँ, अब स्कूल भी जाने लगी है।’

‘अच्छा...। मुझे उसे देखने का मन करता है पर...।’ माँ कुछ-कुछ कहती-कहती रुक गई।

‘सच...? तो चलो न मेरे साथ। जब मन करे फिर यहाँ छोड़ दूँगा।’ वह चहक उठा।

‘अरे... पिताजी अकेले हो जाएँगे यहाँ।’ माँ ने ठंडी साँस ली।

‘माँ, कुछ दिन के लिए चलो न...। पिताजी से कहो वह भी चल चलें।’ उसने माँ के घुटने पर हाथ रख बात का भावनात्मक वजन बढ़ाते हुए कहा पर तुरंत अहसास हुआ कि उसने एक असंभव बात कह दी है और फिर उसने एक संभव विकल्प रखा।

‘तुम चलो माँ। पिताजी अकेले रह सकते हैं कुछ दिन। मैं उनसे बात करूँगा।’

‘अरे नहीं, वह मुझे भी नहीं...।’

‘क्यों, तुम्हें क्यों नहीं जाने देंगे? क्या मेरा इतना भी हक नहीं बचा...?’

माँ परेशान होकर कुछ सोचने लगी। फिर अचानक मुस्कराती हुई बोली, ‘अरे उनका कुछ पता नहीं। मुझे नहीं जाने देंगे। पता है क्या कहते हैं? पहले कहते थे जब हमारे बच्चों को हमारी परवाह नहीं तो हम उनकी क्यों करें और अब...।’

‘अब क्या कहते हैं?’ वह जानने को उत्सुक हो उठा क्योंकि ये पहलेवाली बातें तो वह जानता था पर अब पिताजी क्या सोचने लगे हैं?

‘अब...? अब बच्चों पर कोई गुस्सा नहीं। कहते हैं बच्चों को अपनी जिंदगी जीने दो सुमन। हमने अपना फर्ज पूरा कर दिया बस। हमें अब उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। हम कोई व्यापारी हैं जो हर बात का बदला खोजें? अरे वो कुछ करते हैं हमारे लिए तो ठीक, हमें याद करते हैं, हमारे पास आते हैं तो ठीक वरना हम एक दूसरे का अकेलापन बाँट सकते हैं। हमें ज्यादा मोहमाया नहीं बढ़ानी चाहिए। और तो और मुझे गीता के पता नहीं क्या-क्या श्लोक सुनाकर उनके अर्थ बताया करते हैं।’ माँ मुस्कराती हुई बताती जा रही थी। वह माँ को खुश देखकर खुश था।

‘अच्छा, ऐसी बातें करने लगे हैं वे...?’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी जिद को हमेशा सही समझने वाले और जिंदगी में कभी हार न माननेवाले इनसान के बारे में सुनकर भी उसका दिल इन बातों के सच होने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।

‘अरे बहुत बदल गए हैं...।’ माँ को जाहिर है खुशी हुई थी। खुश वह भी था, हालाँकि इसके पीछे की ठोस वजह नहीं समझ पा रहा था।

‘ऐसा परिवर्तन कब से आया है उनके भीतर...? क्या छोटे के शादी कर लेने के बाद से...?’ उसके मन में जो संदेह था, वह उसने सामने रख दिया।

माँ थोड़ी देर के लिए खामोश हो गई। फिर अचानक ही जैसे उसे कुछ याद आया हो।

‘हाँ पर एकदम से उसी के बाद नहीं...। परिवर्तन तो तेरी शादी के बाद से ही आने शुरू हो गए थे।

‘कैसा है छोटे...?’ उसने पूछा।

‘अच्छा है। हर दो-तीन दिन पर फोन करके हाल-चाल पूछता रहता है। महीने-डेढ़ महीने में घर भी आ जाता है। इस बार तो अपनी पत्नी को भी लेकर आया था। वह भी अच्छी है। बहुत जल्दी सारे हिंदू संस्कार सीख लिए हैं उसने। तेरे पिताजी से खूब बातें करती है। तेरे पिताजी भी उसकी बड़ी तारीफ कर रहे थे।’

उसे घोर झटका लगा। पिताजी बातें करते हैं अपनी बहू से, वह भी वह बहू जो दूसरे धर्म की है, जिसके लिए बेटे ने घर का विरोध करके शादी की। उनका नजरिया इतना विस्तृत हो गया है। उसे पिताजी से मिलने की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी।

‘तूने तो जैसे सारे संबंध ही खत्म कर लिए हैं। आता है साल-साल भर पर और चला जाता है दो दिन में। बहू और बच्ची को भी नहीं लाता। कितनी बार कहा तुझसे कि बहू और बच्ची को गर्मियों की छुटि्टयों में यहाँ पहुँचा दे, दस दिनों के लिए ही सही। लेकिन नहीं तेरी तो अपने पिताजी से ही ठनी रहती है।’ माँ ने जैसे शिकायतों का पुलिंदा ही खोल लिया था।

‘पिताजी ने ही कहा था कि इस औरत को अपने घर में घुसने नहीं देंगे। अब जब तक वह खुद नहीं कहेंगे, तब तक मैं उसे नहीं लाऊँगा।’ उसने माँ की आँखों से आँखें मिलाए बिना कहा। यह बात उसने बहुत पहले तय कर ली थी। आखिर उसका भी तो कोई स्वाभिमान है।

‘और तूने मान लिया? अरे उन्होंने गुस्से में कह दिया था। याद नहीं तेरे और छोटे पर कितना गर्व किया करते थे। देखा नहीं था, जब तुम्हारे चाचाओं से झगड़ा हुआ था तो उन्होंने सबके सामने क्या कहा था। मुझे किसी भी मतलबी रिश्तेदार की जरूरत नहीं, मेरे दो बेटे दो करोड़ के हैं। और तुम लोगों ने आज तक उनकी कोई बात नहीं मानी। कभी उनके मन लायक कोई काम नहीं किया। गुस्सा आना तो स्वाभाविक है।’

सच ही कहती है माँ। पिताजी वाकई उसे और छोटे को गजब मानते थे। वह शुरू से ही बहुत यारबाश किस्म के आदमी थे और सभी यारों के बीच अपना स्थान बहुत ऊँचा रखना चाहते थे। किसी दोस्त की लगातार तीन लड़कियाँ होने पर उन्होंने उसके दु:ख को बाँटने के लिए अपने दोनों बेटों की शादी उनकी दो लड़कियों से बचपन में ही तय कर दी थी। एक दोस्त जो पुलिस में काफी ऊँचे ओहदे पर था, से काफी पहले से उसकी नौकरी के लिए बात कर रखी थी। मकान बनवाते समय छोटे के लिए आगे की जगह दुकान, शोरूम या ऑफिस खोलने के लिए सुरक्षित कर रखी थी। एक बेटे का पुलिस की वर्दी में देखने का उनका पुराना सपना था। एक बेटा हमेशा घर में रहना चाहिए, ऐसी उनकी अटल मान्यता थी। लेकिन उनके बेटे उनकी छोटी-छोटी उम्मीदें भी कहाँ पूरी कर पाए। उसने पढ़ाई पूरी करते ही एक दोस्त के साथ मुंबई का रुख कर लिया और अब स्ट्रगल करते-करते अब अच्छा नाम बना लिया था। वहीं अपनी सहकर्मी के साथ शादी कर ली। छोटे दिल्ली निकल गए और शादियों के कांट्रैक्ट लेने लगे। काफी पैसा बनाने के बाद उससे भी दो कदम आगे निकले और एक गैर हिंदू से शादी कर ली। पिताजी की प्रतिक्रिया तो ठीक ही थी। उनके लड़कों ने लायक होने के बावजूद उनकी बात नहीं मानी। गुस्सा तो आएगा ही। लेकिन उसके और पिताजी के मानसिक संघर्ष में माँ बेकार ही पिस रही है। अबकी वह जरूर मीता और रिंकी को ले आएगा। अगर पिताजी एक बार खुद लाने को कह दें तो जरूर...।

पिताजी के टहलने जाने का नियम बहुत पुराना था। वह जब काफी छोटा था, तब पिताजी उसे भी टहलने ले जाते थे, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, पिताजी की लगाई सारी आदतें छूटती गईं।

थोड़ी देर में कॉलबेल बजी। दरवाजा खोलने वही गया।

‘अरे तुम...?’

‘प्रणाम पिताजी।’ उसने पैर छुए।

‘खुश रहो, जीते रहो।’

उसे लगा जैसे पिताजी के चेहरे पर वही भाव आएँगे जो उसे पहले देख कर आते थे पर उनका चेहरा एकदम शांत था। वह अंदर जाकर सोफे पर बैठते हुए बोले, ‘आओ बेटा, अंदर आ जाओ।’

उसे शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। पिताजी ने न जाने कितने अरसे बाद उसे बेटा कहा था। वह जाकर उनके सामने बैठ गया। यह एक साधारण घटना कतई नहीं थी।

‘कब आए ?’

‘जी, एक डेढ़ घंटे पहले...।’ वह बात करते हुए खुद को असहज पा रहा था।

‘पेट कैसा रह रहा है आजकल ?’

घोर आश्चर्य। उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो। पिताजी उसकी सेहत के बारे में पूछ रहे थे। पेट का रोगी वह बचपन से था। वह बहुत सँभलने के बाद बोल पाया, ‘ जी... आजकल ठीक है।’

‘चलो बढ़िया है। और सब...?’

‘जी सब अच्छा है।’

‘बहू और रिंकी बिटिया?’

‘जी... दोनों ठीक हैं।’ उसने आँखें फाड़ कर इस सच पर विश्वास करने की कोशिश करते हुए कहा।

पिताजी थोड़ी देर के लिए चुप हो गए। माँ नाश्ता बना कर लाई थी। नाश्ता बीच में रख कर पिताजी की बगल में बैठ गई। पिताजी चाय उठाते हुए बोले।

‘तुम कैसे होते जा रहे हो दिन-प्रतिदिन? जैसे पैंतालिस साल के अधेड़ हो। बाल इतने सफेद होते जा रहे हैं और तोंद...? ऐसा लगता है जैसे हलवाई हो। देख रही हो सुमन? मेरी लगाई टहलने की आदत को इसने अपनाया होता तो आज पैंतीस की उमर में पचपन का न लगता। ...थोड़ा सेहत का खयाल रखा करो बेटा।’

वह मुस्कराने लगा। पिता भी मुस्करा रहे थे। माँ दोनों को इस तरह बातें करते देख खुश थी। थोड़ी देर में वह उठ कर फिर किचेन में चली गई।

‘अभी रहोगे न कुछ दिन?’ पिताजी ने मुलायमियत से पूछा।

‘जी, सिर्फ एक दिन का काम है दूरदर्शन में। ...कल शाम को चला जाऊँगा।

पिताजी थोड़ी देर तक उसे देखते रहे, फिर आवाज ऊँची करके माँ से बोले।

‘सुमन, मुझे सब्जियाँ दे दो। मैं मंजन करने के बाद सब्जियाँ काट दूँगा ओर तुम आटा गूँथ लेना।’

वह मंजन करने आँगन में चले गए थे। उसे पिताजी से मिलकर, उनका यह रूप देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई थी पर पता नहीं क्यों, एक और अजब सी भावना भी मन में घुमड़ रही थी। उदासी, निराशा, क्रोध, आत्मग्लानि या इनमें से कई भावनाओं से मिश्रित कोई नई भावना ही जिसे न पहचान सकने के कारण वह कोई भी संज्ञा दे सकने में असमर्थ था। यह भावना उसकी खुशी को रोक रही थी। इसमें इतना खुश होनेवाली भी बात नहीं। सच तो यही है कि पिताजी का जो रूप वह शुरू से देखता आया था, उसमें एक सौ अस्सी अंश का परिवर्तन उसे बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लग रहा था। वह शुरू से ही एक तानाशाह की तरह रहे हैं। उनका इस कर हँसकर उसके बराबरी में बैठकर बात करना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। वह माँ के कामों में भी हाथ बँटाने लगे हैं। उनका नजरिया निश्चित ही बदला है पर क्यों? वह सचमुच माँ की सहायता करना चाहते हैं या उन्हें डर है कि माँ भी उन्हें उनके बेटों की तरह अकेला न छोड़ दे?

पिताजी मंजन करके आ गए। सोफे पर बैठकर उन्होंने अखबार उठाया ओर कुर्ते की जेब से चश्मा निकालकर लगा लिया और इत्मीनान से अखबार के पन्ने पलटने लगे।

वह सनाके में था। उसका सिर जैसे चकराने लगा था। पिताजी उसका चश्मा लगाए हुए थे। वही चश्मा, जिस तरह के चश्मों से उन्हें सख्त चिढ़ थी। जब एक बार वह अपने पॉवर के शीशे उसे नए फ्रेम में लगवा कर लाया था तो पिताजी बहुत गुस्सा हुए थे।

‘ये फिल्मी फैशनवाले चश्मे पहनोगे तुम? इतने छोटे-छोटे शीशे जिनमें से आँखें बाहर झाँकती रहती हैं? उठा कर बाहर फेंको इसे। जाकर बड़े शीशेवाला चश्मा ले आओ जो कायदे का लगे, चश्मे जैसा। जैसा विद्यार्थी लगाते हैं...।’ पिताजी दहाड़ कर बोले थे। और उसने वाकई डरकर उस चश्मे को छिपा दिया था और दूसरा चश्मा ले आया था।

बाद में वह उस तरह के चश्मे पिताजी के सामने नहीं लगाता था। यह चश्मा वह गलती से छोड़ गया था जब पिछली बार आया था।

‘पिताजी, यह चश्मा... ?’ वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में था, बहुत परेशान और बहुत कन्फ्यूज्ड।

‘अरे यह तुम्हारा ही है।’ पिताजी ने चश्मा निकालकर एक बार देखा और फिर लगा लिया।

‘आपका वाला...?’

‘वह? वहाँ आलमारी पर रखा है। मुझे लगता है इससे ज्यादा साफ दिखता है।’

‘अच्छा...।’ वह फिर चकित था।

‘तुम फ्रेश-व्रेश होना हो तो हो लो। फिर साथ में खाएँगे।’ पिताजी फिर अखबार पढ़ने में मशगूल हो गए।

वह बेचैन हो उठा और उठकर टहलने लगा। पिताजी से इस तरह के मित्रवत व्यवहार की न उसने कभी उम्मीद की थी और न उसे अच्छा लग रहा था। एक चट्टान का इस तरह से दरकना, एक पर्वत का झुक जाना उसे बहुत अखर रहा था। जो कभी किसी के सामने नहीं झुका, भगवान के सामने भी नहीं, आज वह इतना नरम पड़ गया है। पूरे परिवार का, पूरे अनुशासन ओर कठोरता से नेतृत्व करनेवाला सुल्तान आज खुद को ही हार गया है। इस समझौते के लिए उन्हें किसने विवश किया, उनकी संतानों ने ही तो। इतना असुरक्षित स्वयं को उन्होंने अपने बेटों की ही वजह से तो महसूस किया है। वह लगातार अपराधबोध में धँसता जा रहा था।

टहलता हुआ वह आलमारी के पास गया और पिताजी का पुराना चश्मा उठाकर देखने लगा। वह चश्मा लगाने पर उसे लगा जैसे उसे पहले से ज्यादा साफ दिखाई देने लगा है। उसके खुद के चश्मे से ज्यादा साफ। थोड़ी देर तक चश्मे को लगाए घूमता रहा फिर आकर पिताजी के सामने बैठ गया।

‘इस बार मीता और रिंकी को भी ले आऊँगा पिताजी।’ चश्मा उसको एकदम फिट आया था।

‘हाँ बेटा, इस बार छुटि्टयाँ भी कुछ ज्यादा दिन की निकाल कर आना।’ पिताजी ने अखबार पढ़ते हुए ही कहा।

माँ ने शर्बत बनाया था और पीने के लिए दोनों को अंदर बुला रही थी।