चाँदी का जूता / राजकिशोर
बलात्कार के हरजाने पर श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी और सुश्री मायावती के बीच जो कर्कश विवाद हुआ, वह चाहे कितना ही दुर्भाग्यपूर्ण हो, पर एक वास्तविक मुद्दे को सामने लाता है। कैसे? यह स्पष्ट करने के लिए मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाना चाहता हूँ। संभव है, यह एक लतीफा ही हो, पर है बहुत मानीखेज। एक अमीर आदमी ने किसी व्यक्ति पर जूता चला दिया था। उस पर अदालत में मुकदमा चला। जज ने जूता फेंकने वाले पर सौ रुपए का जुर्माना किया। इस पर उस अमीर आदमी ने अदालत में दो सौ रुपए जमा कर दिए और शिकायतकर्ता को वहीं खड़े-खड़े एक जूता और रसीद किया। फर्ज कीजिए कि जज ने अगर उसे हफ्ते भर जेल की सजा सुनाई होती, तब भी क्या उस धनी व्यक्ति ने शिकायतकर्ता को एक और जूता लगाया होता और अदालत से प्रार्थना की होती कि अब आप मुझे दो हफ्ते की जेल दे दीजिए?
हमारे देश में बलात्कार, सामूहिक हत्या, दुर्घटना आदि के बाद सरकार द्वारा रुपया बाँटने की जो नई परंपरा शुरू हुई है, वह गरीब या दुर्घटनाग्रस्त लोगों में पैसे बाँट कर अपना अपराधबोध कम करने और पीड़ितों के कष्ट को कम करने का तावीज बन कर रह गया है। दिल्ली में सिखों की सामूहिक हत्या के बाद भी पीड़ित परिवारवालों के लिए कुछ सुविधाओं की घोषणा की गई थी। लेकिन इससे उनके मन की आग शांत नहीं हुई है। हर साल उनकी ओर से जुलूस-धरने का आयोजन होता है कि हमें न्याय दो। पैसा देना न्याय नहीं है। यह आँसू पोंछना भी नहीं है। यह किसी की जुबान को खामोश करने के लिए उसे चाँदी के जूते से मारना है।
पैसा लेना भी न्याय नहीं है। इंडियन पीनल कोड की बहुत-सी धाराओं में लिखा हुआ है कि इस अपराध के लिए कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। यहाँ तक कि बलात्कार, हत्या करने की चेष्टा, राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन, पूजा स्थल पर किए गए अपराध, मानहानि, अश्लील कार्य और गाने तथा ऐसे दर्जनों अपराधों के लिए भी कैद के अलावा या उसके साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। यह कानून सन 1860 में बनाया गया था। इस पर सामंती न्याय प्रणाली की मनहूस छाया है। सामंती दौर में राजा जिससे कुपित हो जाता था, उसकी सारी संपत्ति जब्त कर लेता था, ताकि वह दर-दर का भिखारी हो जाए। ब्रिटिश भारत में और स्वतंत्र भारत में दंडित व्यक्ति से धन छीनने पर यह सामंती आग्रह बना रहा। अरे भाई, किसी ने अपराध किया है तो उसे सजा दो, उसके पैसे क्यों छीन रहे हो? राजाओं और सामंतों का पैसे के लिए लालच समझ में आता है। लूटपाट करने के लिए वे कहाँ से कहाँ पहुँच जाते थे। उपनिवेशवादियों ने भी ऐसा ही किया। पर स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत अपराधी से पैसे क्यों वसूल करता है?
जुर्माना लेने के पीछे जो भावना है, वही भावना आर्थिक हरजाना देने के पीछे है। किसी कारवाले ने धक्का दे कर मुझे गिरा दिया और फिर मेरी मुट्ठी में पाँच सौ रुपए रख कर चल दिया। क्या इसे ही इन्साफ कहते हैं? ज्यादा संभावना यह है कि अदालत भी कारवाले की यही सजा देगी। यह कुछ ऐसी ही बात है कि एक भाई किसी लड़की के साथ बलात्कार करे और दूसरा भाई उसकी मुट्ठी में कुछ नोट रखने के लिए वहाँ पहुँच जाए। यह शर्म की बात है कि अनुसूचित जातियों से संबंधित एक कानून में अनेक अपराधों के लिए सरकार द्वारा पैसा देने का प्रावधान है। यह गरीबी का अपमान है। कोई भी स्वाभिमानी आदमी ऐसे रुपए को छूना भी पसंद नहीं करेगा। जो रुपया दुनिया में अधिकांश अपराधों का जन्मदाता है, उसे ही अपराध-मुक्ति का औजार कैसे बनाया जा सकता है? हरजाना देने का मुद्दा तब बनता है जब अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष की कमाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने के आद उसकी पत्नी, बच्चों तथा अन्य प्रभावित परिवारियों को आर्थिक सुरक्षा देना न्याय व्यवस्था तथा राज्य व्यवस्था दोनों का कर्तव्य है। दूसरी ओर, बलात्कार की वेदना और उससे जुड़े कलंक का कोई हरजाना नहीं हो सकता।
पुस्तकालय में किताब देर से लौटाना, देर से दफ्तर आना, गलत जगह गाड़ी पार्क कर देना - ऐसी छोटी-मोटी गड़बड़ियों के लिए जुर्माना ठीक है। इसका लक्ष्य होता है ऐसी चीजों को निरुत्साहित करना। लेकिन जिस हरकत से किसी को या सभी को नुकसान पहुँचता है या नुकसान पहुँच सकता है, उसके लिए तो कारावास ही उचित दंड है। दिल्ली में कानून द्वारा निर्धारित स्पीड से ज्यादा तेज गाड़ी चलाने की सजा पाँच सौ रुपए या ऐसा ही कुछ है। यह न्याय व्यवस्था सड़क पर चलनेवालों का अपमान है। जिस कृत्य से एक की या कइयों की जान जा सकती है, उसके लिए तो कुछ दिनों के लिए जेल की मेहमानी ही उचित पुरस्कार है। जब बलात्कार या ऐसे किसी अपराध अथवा दुर्घटना के लिए सरकार पीड़ितों में पैसा बाँटती है, तो वह दरअसल अपने पर ही जुर्माना ठोंकती है। कायदे से सरकार को अपने को दण्ड़ित करना चाहिए यानी जिस सरकारी कर्मचारी की गफलत से ऐसा हुआ है, उसके खिलाफ मुकदमा चलाना चाहिए। यह एक मुश्किल काम है, क्योंकि हर सरकार अपने कर्मचारियों का बचाव करने की कोशिश करती है। इससे आसान है जानता के खजाने से थोड़ी रकम निकाल कर पीड़ित को दे देना। यह रकम अगर मंत्रियों और अफसरों की जेब से वसूल की जाती, तब भी कोई बात थी।