चांद तारों तले सिनेमाई घोंसला / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 मई 2017
कथा वाचकों और श्रोताओं के अनंत देश भारत में सिनेमा प्राचीन आख्यानों की तरह स्थापित हो गया है। दिन-प्रतिदिन टेक्नोलॉजी नए आविष्कार कर रही है। सिनेमा अब कुटीर उद्योग की तरह भी विकसित हो रहा है। मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और कोलकाता में फिल्म निर्माण के साथ ही अब अनेक मध्यम एवं छोटे शहरों में युवा वर्ग फिल्में बनाने लगा है। उन्होंने विधा की शास्त्रीय शिक्षा ग्रहण नहीं की है परंतु वे इस माध्यम में स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व केरल में साधारण से उपकरणों से बनाई फिल्मों के कैसेट बेचकर उन फिल्मों की लागत पर आंशिक मुनाफा कमाया जाता था। ये फिल्में आम जीवन में घटने वाली साधारण बातों से प्रेरित थीं। उनमें गीत-संगीत, पात्रों द्वारा पहनी पोशाकें और संवाद ठेठ देशी ढंग के मोहल्ला संस्कृति से ओत-प्रोत होते थे।
इंदौर में कुटीर उद्योग की तरह विकसित हो रही निर्माण संस्था का नाम 'चित्रांकन' है। बंटी ठाकुर अपने मित्रों के साथ 5 मिनट से 45 मिनट तक की कथा फिल्में बना रहे हैं, जिसे वे अपना होमवर्क मानते हैं गोयाकि स्वयं को फिल्म निर्माण के लिए तैयार कर रहे हैं। इस तरह के जोश के सामने सबसे बड़ी कठिनाई अपनी रचनाओं को दर्शक तक ले जाने की है। ये सिताराहीन फिल्में सिनेमाघर में नहीं दिखाई जा सकती, क्योंकि उसके पहले करोड़ों रुपए प्रचार पर खर्च करना होता है। वितरण-प्रदर्शन का दुरुह लौह-कपाट खोलना अत्यंत कठिन है। लोकल केबल ऑपरेटर की मदद से इन फिल्मों के प्रदर्शन की पतली गली खोजी जा सकती है। यह भी संभव है कि बहुमंजिला इमारतें अपनी छत पर एक छोटा-सा सिनेमाघर रचें, जहां इस तरह के प्रयास दिखाए जा सकते हैं। भविष्य में भव्य बजट की सितारा सज्जित फिल्में भी ऐसी ही दिखाई जा सकती हैं। ढीले सुरक्षा तंत्र के कारण घर से दूर सिनेमाघर जाने में परिवारों को डर लगता है। अत: अपनी छत पर सिनेमाई घोंसला रचा जा सकता है।
अपनी बैठक में फिल्म देखने का अनुभव और अन्य लोगों के साथ बैठकर फिल्म देखने का अनुभव अलग-अलग होता है। सामूहिक प्रतिक्रिया का मनोविज्ञान अलग है। एक आम आदमी अपने परिवार के बीच बैठा हुआ अत्यंत प्रेमल हृदय और संवेदनशील नज़र आता है परंतु जब यही व्यक्ति आम सड़क पर जाता है तो भीड़ का हिस्सा बनकर आक्रोश की मुद्रा अख्तियार कर लेता है और यही व्यक्ति संसद तथा विधानसभाओं में अलग व्यवहार करने लगता है। मनुष्य मन मानसरोवर की झील के पानी की तरह विविध रंगों का होने का प्रभाव देता है, क्योंकि पहाड़ों के पीछे से सूर्य की किरणें उस पर यह जादू उत्पन्न करती है। मनोज कुमार की 'शोर' का गीत इस तह है 'पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो उस जैसा।'
बंटी ठाकुर की फिल्म 'मां' में गांव का युवा शहर के सपनों के प्रभाव में अपना घर और जमीन बेचकर महानगर जाते हुए अपनी मां को एक बस अड्डे पर छोड़ देता है। वह अपनी बूढ़ी मां के बोझ के साथ महानगर नहीं जाना चाहता। बस की छत पर बैठा, वह यादों में खो जाता है कि किस तरह स्वयं भूखी रहकर उसकी मां ने उसे पाला है। यादों की जुगाली उसे उसके अपराध का बोध कराती है और वह अपनी मां के पास लौट आता है। 'देर आयद, दुरुस्त आयद' इस फिल्म का गीत-संगीत भावना को धार प्रदान करता है। हम हर शहर और कस्बे में मकानों के नामों पर ध्यान दें तो 'मातृ छाया', 'मातृ कृपा,ममता, इत्यादि नाम मिलते हैं। लगता है कि हम मां को बहुत आदर देते हैं परंतु यथार्थ जीवन में उम्रदराज लोगों के लिए नित्य ही खुलते आश्रम कुछ और ही बयां करते हैं। हर क्षेत्र में विरोधाभास मौजूद है। ताज़ा खबर है कि ग्राहक के अभाव में किसान अपनी पैदावर को मंडी में छोड़कर वापस लौट रहा है। इसके साथ ही कुपोषण से हो रही मौत के आंकड़े भी डराते हैं। सरकार हमेशा ही संवेदनहीन थी परंतु अब तो अवाम भी वैसा ही हो रहा है।
लोप होती संवेदना के दौर में फिल्म का कुटीर उद्योग की तरह फैलना अत्यंत आशावादी बात है। यह किस्सागोई के बने रहने का संकेत है। हमारा कथा वाचक और श्रोता स्वरूप ही अनंत है। हमने हमेशा कल्पना को यथार्थ के ऊपर रखा है। हमारे आख्यान ही कहते हैं कि हमारा जीवन भगवान विष्णु द्वारा देखा गया एक स्वप्न है। अत: हम स्वप्न में जीवित हैं और स्वप्न में ही मरेंगे भी। याद आती है 'अनुराधा' के लिए लिखी शैलेंद्र की पंक्तियां, जिसका संगीत रविशंकर ने- 'हाय रे वो दिन क्यों न आए/ सूनी मेरी संगीत बिना/ सपनों की माला मुरझाए।' ज्ञातव्य है कि फिल्म का पहला प्रदर्शन 28 दिसंबर 1895 को फ्रांस के एक होटल के 'इंडिया सलून' नामक कक्ष में हुआ था।उस कक्ष में उस दिन कोई भारतीय व्यक्ति वहां मौजूद नहीं था परंतु सिनेमा की कुंडली में भारत ऐसा बैठा कि आज फिल्म का हर सातवां दर्शक भारतीय है और हम सबसे अधिक संख्या में फिल्में बनाते हैं। विज्ञान की इस विधा को शीघ्र ही यहां अपनाया गया, क्योंकि कथावाचन-पाठन हमारे जीवन और सोच का हिस्सा है। सरकारें केवल रोड़ा अटकाती हैं और उनकी नकारात्मकता के बावजूद फिल्म कुटीर उद्योग की तरह स्थापित हो रही है।