चाची / वंदना मुकेश

Gadya Kosh से
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'गंगा पास्ड अवे ' ई-मेल की अगली पंक्ति धुंधला गई। टप्प! टप्प! आँसू निकलने के पहले सीने में एक ऐसा तेज खरोंचता-सा दर्द हुआ कि मैं तड़पकर रह गई। आज चाची मुक्त हो गईं। हाँ, मुक्त हो गईं। यों सांसारिक रिश्तों से तो उनका बंधन न जाने कब का छूट चुका था। आज देह के बंधनों से भी मुक्त हो गईं। चाची और मेरा रिश्ता कब मित्रता में बदल गया था मुझे याद नहीं। लेकिन होश सँभालने के बाद कभी भी चाची को मम्मी से अधिक निकट पाया।

चाची की बद्किस्मती थी या चाचा की, पता नहीं... लेकिन, चाचा से उन्हें वह सम्मान कभी न मिल पाया जिसकी वे हकदार थीं। चाची ने अपने जीवन में कितने ही दुख भोगे, चाचा के अत्याचारों को सहा, लेकिन कभी उफ़ तक न की। यदि लोगों ने देखा तो उनका मुस्कुराता चेहरा। किंतु उनकी मूक पीढ़ा की प्रतिपल की साक्षी रही मैं। चाचा से निरंतर मिलते अपमान के कड़वे घूँटों ने उनकी गोरी कनपटियों की रेखाओं को गहरा नीला और जबड़ों को कठोर बना दिया था। मैं सोचती थी चाची कमज़ोर हैं, चाचा को कभी उलटकर जवाब क्यों नहीं देती, तलाक देकर स्वतंत्र क्यों नहीं हो जाती। लेकिन यह मेरी नासमझी थी, कच्ची उम्र की कच्ची समझ थी। चाची की निगाहों में मैंने कभी कातरता या याचना नहीं देखी। देखी तो बस एक अद्भुत दृढ़ता। चाची कमज़ोर नहीं थी। चाची तो गंगा और हिमालय थीं। जिनके संसर्ग में चाचा के कुछ पाप तो अवश्य धुले होंगे।


सुबह-सुबह मेरी आँख खुली, दादाजी की तेज़ आवाज़ से। वे चाचा पर बुरी तरह बरस रहे थे। चाचा, दादी के पीछे। दादी सोफ़े पर नीचे मुँह किये बैठी थी। पापा उसी कमरे में एक कोने में खड़े थे। परदे के पीछे मम्मी। चाची सदा की तरह मेरे और अपने टिफ़िन के लिये परांठे सेंक रही थीं। मुझे भयभीत-सा देख, शीला को काम बताकर चाची मुझे लेकर स्कूल के लिये तैयार करने ले गईं। चाची का चेहरा एकदम शांत। मानो, वे मुझे उसी शांति का हिस्सा बनाना चाहती हों।

चाची ने धीरे से कहा, "नहाकर जल्दी निकलो, आज हमें ऑटो से खुद ही जाना है। मेरी कार का कल रात एक्सीडेंट हो गया।"

मुझे यकायक सबकुछ समझ में आ गया। कि कल चाचा रात के खाने पर घर में नहीं थे। मैं रात ग्यारह बजे तक चाची के कमरे में होमवर्क करती रही थी फिर कब नींद आई पता नहीं, उठी तो अपने कमरे में ही पाया खुद को। तो क्या चाचा से हो गया एक्सीडेंट? मैं मन ही मन सवाल किये जा रही थी। चाची मुझे स्कूल छोड़ती हुई बैंक चली गईं! ...

चाची के साथ घूमने जाने का, उनके पास बैठने का जितना सुख मिलता था उससे ज़्यादा तकलीफ़ मेरे मन को तब होती थी जब चाची मुझे बाय कह कर चली जातीं। मैं तो चाहती थी कि चाची को एक पल के लिये भी न छोड़ूँ।


लेकिन इस बार तो चाची बाय कहकर भी नहीं गई और चली गई महायात्रा पर। चाची ने मुझे याद तो जरूर किया होगा। एक बार फिर बिना पूछे आँखों के समंदर में बाढ़ आ गई। कितनी स्मृतियाँ

चाचा-चाची के सम्बंध कभी भी सामान्य नहीं रहे। चाचा-चाची के बंद कमरे से अचानक आती चटाक सिसकी चटाक फिर लंबी चुप...बाहर भी एक असहज चुप्पी... अक्सर यह बात समझकर भी, कि कुछ ठीक नहीं है उनके बीच, दादा-दादी उनके सुखी दांपत्य का भ्रम पाले रहे और मम्मी-पापा अपने सुखी दांपत्य के परचम लहराते रहे। चाची के साथ ऊपरवाले ने बहुत नाइंसाफ़ी की थी। चाची को लेकर चाचा के मन में सदा ग्रंथि रही। चाची की खूबसूरती, उनका मिलनसार व्यवहार उनके लिये गर्व का विषय नहीं, जलन का विषय था। चाची की सहज निश्छल मुस्कान... जो उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी, चाचा की आँख की किरकिरी थी। चाची का बैंक अधिकारी होना उन्हें खुद अपनी कबिलियत पर शक करने को मजबूर कर देता। चाची मितभाषी, किंतु मधुरभाषी थीं। चाचा से हर बात में इक्कीस! चाचा अक्सर किसी न किसी बात को लेकर चाची पर क्रोधित होने के बहाने ढूँढते रहते। पता नहीं, चाची पर जब-तब एकाध हाथ छोड़ कर अपने अहम की तुष्टि करते थे कि अपनी कुंठा छिपाते थे। लेकिन चाची न जाने किस मिट्टी की बनी थी, कमरे से बाहर मुस्कुराती हुई ही निकलती। चाची ने कभी किसी किस्म का रोना नहीं रोया, लाचारी नहीं दिखाई। यह बात और है कि कभी-कभी उनकी पीठ पर पड़े नीले निशान अचानक ही सच्चाई बयान कर देते थे। समझ तो नहीं थी मुझमें, लेकिन चाची के सरल, धीर-गंभीर और गरिमामयी व्यक्तित्व के आगे चाचा का व्यक्तित्त्व मुझे बौना ही लगा। वैसे भी चाची मेरी आदर्श थीं। हमारे घर-खानदान की पहली वर्किंग वूमन! चाची के व्यक्तित्त्व में एक ऐसी मोहिनी थी कि जो एक बार उनसे मिल ले, ताउम्र उन्हें न भूल पाए।


मैं शायद पाँच साल की थी जब चाचा की शादी हुई। चाची मुझे क्या, सभी से बहुत प्यार से बात करती थीं। मम्मी ने प्रत्यक्ष तो कभी कुछ न कहा लेकिन मैं महसूस करती थी कि वे चाची के इतने गुणों और प्रेमपूर्ण व्यवहार के बावज़ूद भी वह उनसे थोड़ी दूरी बनाए रखती हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है कि संभवतः असुरक्षा की भावना रही होगी मम्मी के मन में, आखिर वे जिठानी थीं और चाची के गुणों को देखकर उन्हें अपने सिंहासन के हिलने की चिंता हुई होगी। कई बार चाची के आस-पास घूमते रहने के कारण मुझे बेवजह डाँट देती थी मम्मी तब। लेकिन मम्मी और चाची के सम्बंधों में बहुत सालों बाद वह बात आई जिसकी मैं कल्पना किया करती थी। यहाँ तक कि अंत समय में चाची मम्मी के पास थीं। ... मेरी आँखों से फिर दो आँसू टपक गये।


शायद दस साल की रही होऊँगी, जब दादाजी ने चाचा को महेश नगर वाला मकान में जाकर रहने को कहा। चाची ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। चाचा-चाची वहाँ रहने लगे। स्वाभाविक था कि उनके मिलने-जुलनेवाले भी वहीं जाने लगे। नेहा आंटी, चाचा के साथ काम करती थीं। कभी-कभार बार घर पर आती तो मेरे लिये चॉकलेट जरूर लाती। इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगती थीं, वैसे भी दस-बारह साल की उम्र में चॉकलेट लानेवाले अंकल-आंटी किसे अच्छे नहीं लगते? ऐसा लगता था कि जब तक वह घर पर रहें मैं उनके आगे से हटूँ नहीं। वस्तुतः मैं अनजाने में उनकी तरफ खिंची जा रही थी। लेकिन वह कैसे भेड़ की खोल में भेड़िया निकला यह सोच कर मेरा मन आज भी वितृष्णा से भर जाता है। इतना कि आज भी मुझे अनावश्यक अपनापन दिखानेवाले लोगों से डर लगता है।


मैं तब नौंवी कक्षा में थी, शायद चौदह साल की। लेकिन देखनेवाले समझते थे कि मैं सातवीं-आठवीं में हूँ। अक्सर शनिवार को चाची मुझे स्कूल से अपने घर ले जातीं और फिर शाम को छोड़ देती। उस शनिवार मेरा आधे दिन का स्कूल था मैं चाची से कहना भूल गई। छुट्टी हुई तो मैंने सोचा कि मैं ही चाची के घर चली जाती हूँ।

मैं दरवाजे पर पँहुच कर बेल बजाने ही वाली थी कि देखा दरवाजा भिड़ा हुआ है लेकिन चटकनी नहीं लगी थी। सो सहज ही चाची को डराने की बात मन में आ गई। मैं दबे पाँव घुसी, बाहर के कमरे में कोई न था। मैंने जूते, बैग कुछ न उतारा। फिर धीरे से रसोई में झाँका, चाची वहाँ भी न थीं। 'चाची अपने कमरे में होंगी' , सोचती हुई मैं एक-एक कदम सावधानी से रखते हुए बढ़ी। कमरे का परदा हमेशा की तरह लटका था, मैं हटा कर उन्हें जोर से डराने ही वाली थी कि अचानक नेहा आंटी की दबी खिलखिलाहट सुनकर मेरे कदम जड़! और उड़ते परदे की झिरी में से एक क्षण में जो अनपेक्षित दृश्य देखा, मेरे होश उड़ गये। मैं बुरी तरह डर गई। डर के मारे मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गये। चाचा और नेहा...

मैं बौखलायी-सी किसी तरह अपनेआप पर काबू कर अपने शरीर को पूरी ताकत से खींचती हुई बाहर की तरफ भागी। दरवाजा धड़ाक! लेकिन न मैं रुकी न पीछे मुड़कर देखा। मैं न जाने कब तक भागती रही। जब साँस एकदम उखड़ने लगी तो देखा कि अपैल की उस दोपहर में सड़क पर मैं अकेली ही खड़ी थी। जैसे-तैसे साँसों को संभालते हुए मैं घर की ओर चल पड़ी। रास्ता कैसे कटा, कब क्या आया कुछ पता नहीं। ऐसा लग रहा था कि मुझसे ही गलती हुई है और जब सबको पता चलेगा तो डाँट भी मुझे ही पड़ेगी। चाची कहाँ थी...? अब मम्मी को तो पता चल ही जाएगा...

अनेकानेक आशंकाओं और बुरे ख्यालों में कब घर आया मुझे पता ही न चला। मम्मी दरवाजें पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा ही कर रहीं थीं। उन्होंने मेरे हाथ से बैग लिया और गाल थपथपा कर पुचकारते हुए बोली, "अरे धूप में कैसी टमाटर हो गई मेरी बच्ची, कैसे चेहरा उतर गया हें..."

मैं उनसे नजरें न मिला पाई। मुझे लग रहा था कि अगर मैं मम्मी को देखूँगी तो बिना कहे ही उन्हें सब कुछ पता चल जाएगा और फिर मुझे डाँट... हो सकता है मार... मैं यह नहीं समझ पाई कि अपराध मेरा था या नहीं। लेकिन मेरा मन चाची के लिये तड़प रहा था। ... मम्मी कह रही थी, "अरे मैं तुझे कहना ही भूल गयी, गंगा बंबई गई है आज सुबह, उसने तो कल रात ही बता दिया था लेकिन बस ध्यान में ही नहीं आया। पर तू कैसे जल्दी आ गई?"

मैंने मरी-सी आवाज में कहा, "मम्मी, 'हाफ-डे' था"।

मुझे अभी भी याद है, मैं चुपचाप जाकर सो गई, उस शाम जब मम्मी मुझे उठाने आईं तो मैं तेज बुखार से तप रही थी। फिर कई दिनों में बीमार रही। चाचा को देखते ही मुझे डर और घृणा के मिले-जुले भाव घेर लेते थे। चाची से भी कहने की हिम्मत इसलिये नहीं पड़ती थी कि मुझे लगता था कि इस बात पर तो डाँट मुझे ही पड़ेगी। कभी लगता था कि चाची की अग्निपरीक्षा तो आजीवन चलेगी, मैं यह बताकर उन्हें और दुख क्यों पँहुचाऊँ? ...और आज सोचती हूँ तो लगता है कि सबसे बड़ा सच यह था कि उस समय मेरे मुँह से उस घृणित घटना का बयान करना असंभव कार्य था।

मुझे देखने नेहा आंटी भी आईं, मेरी पसंद की चॉकलेट का बड़ा-सा डिब्बा लेकर। लेकिन मैंने उस डिब्बे की तरफ देखा तक नहीं। उनको देख कर मेरे तनबदन में आग लग गई। मैं इतना तो समझने ही लगी थी कि जो वह और चाचा कर रहे थे वह बहुत गलत था। चाचा पहले ही क्या कम अत्याचार कर रहे थे चाची को धोखा।

मैं अचानक बदल गई। मेरे भीतर एक गहरी गंभीरता ने घर कर लिया। मम्मी मेरे लिये चिंतित रहने लगीं। मुझे हर व्यक्ति के व्यवहार पर संदेह होने लगा और मैं अनजाने ही लोगों के स्वभाव का अध्ययन करने लगी। उसका असर मेरी पढ़ाई पर भी दिखा। घर में सब यही समझते रहे कि बीमारी के कारण मेरी पढ़ाई पर भी परिणाम पड़ रहा है।

चाची के यहाँ जाने का क्रम टूट गया। हृदय की व्याकुलता कम नहीं न हुई। मन में निरंतर ग्लानि और अपराध-बोध। चाचा-चाची का आना भी कम हो गया। लेकिन चाची जब भी आतीं अपने स्नेहपूर्ण व्यवहार की बौछार से हम सभी को भिगो जातीं।


चाची के बच्चे न होना दादी की नज़र में उनकी बहुत बड़ी कमी थी। उनकी शानदार नौकरी, समाज-शहर में उनके कारण सारे परिवार की इज़्जत... स्नेहिल स्वभाव ...सारे गुण केवल उनके बच्चे न होने की कमी पर भारी थे। उसके लिये भी चाची ही दोषी थीं। कभी-कभी मन दादी और मम्मी के प्रति आक्रोश से भर उठता। लेकिन तब मैं क्या कर पाती?

एक बार कहा था दादी से, "दादी हमें साईंस में बताया कि बच्चा होने के लिये पुरुष और स्त्री ..." बात पूरी भी न हो पाई थी कि तड़-तड़! *! * मम्मी ने एकदम जोर से दो थप्पड़ मारे सिर पर।

सिर भन्ना गया। मुझे समझ में ही नहीं आया पल भर कि थप्पड़ क्यों पड़े और मम्मी आई कहाँ से? लेकिन यह जरूर समझ आ गया कि मेरा प्रजनन-सम्बंधी-ज्ञान चर्चा के लिये निषिद्ध है। यह बच्चों का विषय न था। मेरे बड़े होने के मापदंड अक्सर उन लोगों की सुविधानुसार बदल जाया करते थे। लेकिन चाची उनसे अलग थीं, उनकी अपनी सोच थी। वह मेरी बात हमेशा बहुत धैर्य के साथ सुनती थीं। फिर समझाती थीं। स्थितियों का आकलन करने का उनका अपना तरीका था। वे बड़ी सहजता से सरल शब्दों में अपना मत प्रस्तुत कर देती थीं और यही बात दादी के गले नहीं उतरती थी। शायद इसी कारण दादी के लिये चाचा का पलड़ा भारी था। एकाध बार उन्होंने चाची का दिल दुखाने की बातें भी की थीं। लेकिन चाची के मुँह से कड़वी बात कभी नहीं निकलती थी।

...एक बार... शायद मैं बारह-तेरह की रही हूँगी, तब की बात याद आ रही है। शाम का समय था, मैं चाची के कमरे में अपना होमवर्क करने जा रही थी। चटाक्! चाचा ने चाची को थप्पड़ मारा था। मैंने देखा तो नहीं, किंतु आवाज़ सुनी। सदा की तरह। मेरा मन रो उठा। मैं सहम कर दरवाज़े के पीछे ही रुक गई। चाचा तीर की तरह बाहर चले गये। बाद में मैंने चाची से वह कहने की हिम्मत जुटा ली जो अब तक नहीं कही थी, मैंने भरे गले से मुश्किल से कहा, "चाची, चाचा बहुत गंदे हैं..."

चाची ने मुझे लिपटाते हुए मेरे मुँह पर उँगली रख दी, "नहीं, इंदू, ऐसा नहीं कहते, चाचा गंदे नहीं हैं उन्हें समझ नहीं है इसलिये उनकी सोच गंदी है। ध्यान रहे, इंदू, इंसान की सोच उसे अच्छा या बुरा बनाती है। चरित्र-निर्माण इंसान को बड़ी से बड़ी मुश्किल का सामना करने का हौसला देती है।"

चाची खुद भी बहुत पढ़ती थीं और अक्सर मुझे भी अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ने के लिये लाकर देती थीं। अमर चित्र कथा की कोई ऐसी पुस्तक न थी जो मेरे पास न हो। चाची की दी हुई महापुरुषों की जीवनियाँ, विज्ञान, इतिहास, कहानी, देश-विदेश की जानकारियों वाली रंगबिरंगी पुस्तकों से मेरा कमरा भरा पड़ा था। किताबों से मेरी गहरी दोस्ती चाची के कारण ही हुई थी। चाची मुझे बहुत प्यार करती थीं। मैं चाह कर भी कभी चाची से यह नहीं कह पाती थी कि तुम चाचा को छोड़ क्यों नहीं देतीं, शायद उसमें मेरा स्वार्थ छिपा था। ...

फिर कई सालों बाद एक बार मम्मी और दादी की फुसफुसाहट से यह समझ आया कि नेहा आंटी चाचा के घर ही रहने लगी हैं। "अरे यों सुना है कि..."

फिर उनकी दबी-दबी हँसी! मैं आगे सुन न सकी। चाची के बारे में ऐसी बात सुनकर मेरे तनबदन में आग लग गई। मुझे बहुत गुस्सा आया अपने परिवारवालों पर। घटनाओं का तटस्थ दर्शन करनेवाले लोग। तथाकथित पढ़े-लिखे लोग और सबसे ज्यादा गुस्सा आया चाची पर। अच्छी पढ़ी-लिखी, नौकरी करती चाची को क्या जरूरत थी यह समझौता करने की? कितनी कमज़ोर हैं चाची? क्या सचमुच चाची भी... मेरा मन चाची का विरोधी होने लगा। मैं दिखने में शांत थी लेकिन मेरे भीतर के तूफ़ान को कोई समझ नहीं पाया। मम्मी भी नहीं। चाची से तो अब मैं भीतर ही भीतर नाराज हो गई थी।


खुद से बहुत बरसों की जद्दोजहद के बाद मैंने निर्णय ले लिया। ...डाँटेंगी तो डाँट लेंगी। आखिर मेरी भी शादी हो चुकी है। स्त्री-पुरुष सम्बंधों के मायने समझती हूँ अब मैं। स्वयं पूछूँगी... वरना चाची की जो प्रतिमा अब तक निरंतर निखरती रही है वह धूमिल...

"चाची तुमसे मिलना चाहती हूँ, ... अकेले में...कुछ बात करनी है।" मैंने उनके ऑफिस ही फोन घुमा दिया। "

मेरे स्वर की गंभीरता को नज़रअंदाज करते हुए बोली, "अरे मैं तुझे ही याद कर रही थी। चल इंडिया कॉफी हाउस चलें?"

गर्मी की दोपहर, इंडिया कॉफी हाउस के फैमिली रूम में चाची और मेरे अलावा ए.सी. की सतत घूँ-घूँ... दो कोल्ड कांफी आर्डर करदी थी और वेटर को ताक़ीद कि जरूरत होने पर हम खुद बुला लेंगे।

"बोलो इंदू, क्या बात है..."

मैंने दिमागी तौर पर चाची पर गोलाबारी करने की कई बार रिहर्सल की थी लेकिन ऐन वक्त पर जबान लड़खड़ा गई।

"चा...ची...तुम्हारे बारे में बात बनाते ...मैं बोल ही नहीं सकी, रोना आ गया। ..."

मैंने किसी तरह काबू किया, "चाची... सच क्या है बताओ। मैं घुल रही हूँ लगता है...लगता है... मेरे दिमाग की नसें फट जाएंगी!"

मुझे पता नहीं था कि चाची पर इस प्रश्न की क्या प्रतिक्रिया होगी और शायद उसी से मैं डर रही थी। मैं अपनी चाची, अपनी प्यारी चाची पर, जो मेरी आदर्श थीं उन पर आक्षेप।लगा रही थी... शर्म और ग्लानि से मैं रो पड़ी।

चाची उठ खड़ी हुईं और मेरा आँसू भरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भरकर मुझे चूमा। उनके हाथों का स्पर्श हमेशा की तरह गुनगुना था। बोलीं, "इंदू आज तू सचमुच बड़ी हो गई। मेरी बच्ची, मुझे अच्छा लगा कि तूने औरों की तरह मन में कहानियाँ नहीं बनाईं। इंदू, इस दिन की तो मैं तो कब से प्रतीक्षा कर रही थी कि अपनी बात कहने का साहस तुझमें आ जाए। इंदू अब मैं तेरे प्रति निश्चिंत हूँ। आज मैं तेरे उन सभी कहे-अनकहे सवालों का जवाब दूँगी जो मैंने बरसों से तेरी आँखों में तैरते देखे हैं"

वे कुर्सी सरका कर मेरे पास बैठ गईं और बोली, "इंदू, पहले प्रश्न का उत्तर पहले।" चाची का स्वर गंभीर हो गया। "इंदू, मेरा चरित्र ही मेरे व्यक्तित्व का सबसे सबल पक्ष है। मेरा मन और तन दोनों साफ़ हैं। मैंने इसी के सहारे अब तक की लड़ाईयाँ लड़ी हैं। तेरे मन में इसे लेकर किसी प्रकार का संशय नहीं हो। मैंने अपनी सफाई में कभी किसी को कोई दलीलें पेश नहीं की इसलिये तूने वही सुना है जैसा सब कहते हैं। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं, उनकी समझ। ...अपेक्षाएँ खत्म हो जाएँ तो जिंदगी आसान हो जाती है। तेरे चाचा व्यभिचार का खेल खेलना चाहते थे। वह मेरे संस्कारों से भिन्न था। सच कहूँ तो जो कर्म मेरे लिये धार्मिक, पवित्र और पूजा के समान था। वह तुम्हारे चाचा के लिये भोग-लिप्सा का साधन। तेरे चाचा ने अपने रंग में ढालने की कोशिश की। असफलता मिलने पर आक्रोश। स्त्री-पुरुष, नर-मादा का परस्पर आकर्षण सहज है। लेकिन अपेक्षाएँ पूरी न होने के कारण मेरा शरीर उनके लिये प्रताड़ना का साधन और मेरे लिये शरीर अब सिर्फ मांस का लोथड़ा। जिसमें छूने पर तरंगें पैदा नहीं होती। निर्जीव। निर्जीव सम्बंध ढो रहे हैं। इंदू, तुझे लगा है न मैंने तलाक क्यों नहीं ले लिया! तलाक तो मैं तब भी ले सकती थी और आज भी। किंतु मैंने तलाक लेनेवालों की फजीहतें भी देखी हैं। यह समाज बड़ा विचित्र है। अकेली औरत देखकर अनेक पुरुष हितैषी पैदा हो जाते हैं। मुझे घिन आती है पुरुषों की इस मानसिकता पर। तू जानती है कि तेरे चाचा बाहरी तौर पर यही दिखाते हैं कि हमारे बीच सब सामान्य है। वे डरपोक हैं। उन्हें डर है कि लोग उनकी हँसी उड़ाएंगे और मुझे सबकी सहानुभूति मिलेगी। ..."

चाची रुकीं, गिलास उठाकर गटगट पानी पी गईं।

"...सीता का वनवास कभी खत्म ही नहीं हो सका। हम सब मर्यादाओं में बँधे हैं। तेरे चाचा और मैं एक-दूसरे के लिये बने ही नहीं थे। किसी दूसरी औरत का तेरे चाचा के जीवन में आना अटल था। नेहा न होती तो कोई और होती... क्योंकि तेरे चाचा मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं, मुझे टूटते हुए देखना चाहते है। ... मैंने कभी किसी से कुछ कहा नहीं, मैं जिनसे कहना चाहती थी वे मुझसे बहुत दूर थे और जो तमाशे का मज़ा लेना चाहते थे, उनसे मैं कहना नहीं चाहती थी। ...तेरे चाचा ने मुझे पहले दिन से नीचा दिखाया, शुरुआती दिनों में मैंने प्यार, मोहब्बत से हर वह कोशिश की कि मेरी जिंदगी में प्यार की बहार छा जाए। लेकिन वाह रे नसीब! मैं सोचती रही... अपने प्रेम से उनके मन की गांठें खोल सकूँगी। लेकिन मेरा हर प्रयास व्यर्थ। अन्य सम्बंधों की तरह अंतरंग सम्बंधों का निर्वाह किया जाने लगा। इंसान अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगता है। तन के घाव सूख तो जाते हैं। लेकिन उनके निशान अक्सर वे अप्रिय बातें याद दिला देते हैं। यदि आज मैं इस परिस्थति में भी खुश रह सकती हूँ तो इसके पीछे मेरे संस्कार, मेरी आस्था और मेरे अपने फ़ैसले हैं... वरना मैं कब की बिखर जाती। मेरे मन के घाव कभी नहीं सूख पायेंगे, इंदू... कभी नहीं! इंदू, जानती है, बच्चा पैदा न करने का फैसला मेरा था। तेरे चाचा मुझे जब तब मारपीट कर, नेहा को घर में रखकर, अपमानित कर के अपनी कुंठित मानसिकता को तुष्ट तो सकते थे लेकिन मुझसे जबरदस्ती बच्चा पैदा नहीं करवा सकते। उन्हें लगता है कि कहीं पीठ-पीछे लोग उन्हें नामर्द तो नहीं कहते। लेकिन वे इस बात को जानते तक नहीं कि उनमें पिता बनने की क्षमता है। वे स्वयं को दोषी समझते हैं। लेकिन डॉक्टरी जाँच तक कराने की हिम्मत नहीं हैं उनमें। शायद वह झेल नहीं पाते कि उनके कारण... जबकि सच तो यह है कि मैंने दो बार गर्भपात करवाया, अपनी मर्ज़ी से, मैंने तेरे चाचा के अंश को नकार दिया! ... मैंने। इतना आसान नहीं था... वह निर्णय ले पाना। इंदू तू नहीं जानतीं कि अपने मातृत्व की हत्या करना कितना कठिन है... एक लंबी लड़ाई लड़ी हूँ... अपने आपसे... शायद तेरा बचपन मेरे सामने न होता तो शायद मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती। ...पहली बार चाची की आवाज़ रूँध गई... लेकिन वे बोलती रहीं।" ... दो-दो अजन्मे शिशुओं की हत्यारी माँ हूँ मैं। इंदू मैं तो तभी आत्महत्या कर चुकी थी जब मैंने अपने मातृत्व को नकार दिया था ...लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि बेटे के रूप में एक और चाचा पैदा हो! ...या बेटी हो जाती तो क्या पता उसे भी मेरी तरह यातना सहनी पड़ती...? इंदू मैंने सह लिया लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि बेटी या किसी और की बेटी... चाची की पीड़ा का बाँध आँसुओं के रूप में भरभरा कर बहने लगा... वे कुछ क्षण रुकी... और फिर भावनाओं पर काबू पाने के पश्चात भरे गले से बोली,

"तेरे चाचा ने मुझे तन और मन से इतना प्रताड़ित किया है कि अब मैं शिला बन गई हूँ... और चाचा इस हार से हारे हैं। वह मुझे रोते-गिड़गिड़ाते, बिलखते पैर पकड़ते देखना चाहते थे उनकी यह साध अधूरी रह गई। मुझे हराते-हराते खुद से हार गये हैं, यही उनकी सबसे बड़ी पीड़ा है और मेरे जीने का कारण..." ...उन्होंने अपने आँसू पोंछ दिये थे हमेशा की तरह। फिर ठहर कर बोलीं, " इंदू इस जिंदगी ने बहुत कुछ दिखाया-सिखाया है। कभी-कभी व्यक्ति को अपने किसी निर्णय की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, बहुत पीड़ा भोगनी पड़ती है लेकिन अपनी ही नज़रों में गिरने की पीड़ा से शायद बहुत कम।

चाची मुझे विशाल, धवल, निर्मल, अचल नगाधिराज हिमालय-सी लग रही थी। जो किसी भी प्रलय को शांति से झेल लेता है और फिर दमकने लगता है। मैं चाची से लिपट गई।

मेरी चाची कमज़ोर नहीं थी। चाची वास्तव में गंगा थीं। बस चाची की वही छवि मेरे मानस-पटल पर सदा-सदा के लिये अंकित हो गई।