चाबी, घर और अंधेरा / ज्योति चावला
दौलतराम ने जब पेशावर के अपने घर के दरवाजे पर ताला लगाया था तो उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही वे उसे खोलने भी आएंगे। हाँ, यह जल्द कितनी जल्द आएगा उन्हें भी नहीं पता था। सब अंधकार था।
उस रात दौलतराम को नींद नहीं आ रही थी। सत्तर बरस बीतने को आए इस घटना को लेकिन जैसे वह आज भी उनके दिल में कहीं सुलग रही थी। आज भी अचानक वह आंखों में ऐसे उतर आती जैसे सब कुछ अभी बिल्कुल अभी घट रहा हो और दौलतराम भीतर तक सिहर जाते। आज उनकी सांसें बहुत तेज चल रही हैं। उम्र के बयानवेवें बरस को पूरा करते-करते उनकी सांसें साथ छोडने को आतुर हैं ऐसे जैसे कह रही हों कि और कितना साथ दें तुम्हारा! जब आग से पूरा पंजाब धधक रहा था, जब चारों तरफ मनहूस मातम छाया हुआ था तब भी मैं तुम्हारे साथ बनी रही, जब रेलगाडियों पर लदकर लाशें एक सरहद से दूसरी सरहद आ जा रहीं थीं, जब आंखों के सामने कितनी औरतों को सिर्फ़ शरीर में तब्दील होते देख रहे थे तुम तब भी मैंने तुम्हारा साथ नहीं छोडा और वहाँ से हिंदुस्तान आकर, कैम्पों में ज़िन्दगी काटते और फिर सडकों पर जब रुल रहे थे मासूम अनाथ, तब भी मैं बनी रही तुम्हारे साथ। अब और कितना साथ चाहते हो दौलतराम!
आज जैसे दौलतराम और मौत के बीच जंग चल रही थी और लगता था पहली बार मौत जीत जाएगी। दौलतराम को कोई अफसोस नहीं था। भरा-पूरा परिवार उनकी आंखों के सामने था। बंटवारे के समय ही उन्होंने अपने एक बेटे को खो दिया था। खुशकिस्मत मानते थे दौलतराम तब भी खुद को कि खुदा कि मेहर है कि उसने उन्हें बेटी नहीं दी नहीं तो बेटे से न जाने कितनी खौफनाक मौत मरना नसीब होता उसे। वह समय ही ऐसा था। पागलपन सवार था लोगों पर। कल तक साथ रहने वाले आज एक-दूजे के दुश्मन बन गए थे। कल तक जो बहन-बेटियाँ थीं वे केवल शरीर हो कर रह गईं थीं। अजीब हैवानियत का दौर था वह। उस रात जो ताला लगाकर निकले दौलतराम तो फिर न लौट सके वहाँ। कभी नहीं। लेकिन वह घर, वह दहलीज, वह वेहडा ज़रूर उनके साथ चले आए थे इंसानों द्वारा खींची हुईं सरहदों को लांघकर। वह वेहडा, वह मोहल्ला, वह बाज़ार, वे चैक, वे चैराहे, वे इक्के, वे घोडे आज भी उनके जेहन में जिंदा हैं। समय और काल की सारी सीमाओं को लांघकर वे आज भी उन्हें वैसे ही पुकारते हैं।
कितना कुछ याद आ रहा था इस पल दौलतराम को। प्रकाशो यानी प्रकाशवंती से उनका ब्याह, किस तरह डोली लेकर वे विदा हुए थे रात के तीसरे पहर। पूरा कुनबा साथ था लेकिन तब भी उन्हें लग रहा था कि प्रकाश की जिम्मेदारी सिर्फ़ उनकी ही है... और वही प्रकाशो उन्हें अकेला छोडकर चली गई। नौ बरस होने को आए उसे गए हुए। प्रकाशो का निधन क्या हुआ लाला दौलतराम एकदम अकेले हो गए। वैसे तो उनका भरा पूरा परिवार है और उनके बेटे-बहू ने भी उन्हें सर-माथे पर रखा लेकिन पत्नी का साथ न होना आदमी को खाली कर ही देता है।
बडा-सा कमरा। सादगी से भरा। कमरे में एक पलंग, एक अल्मारी, एक टी.वी और दीवार से सटी एक छोटी-सी मेज़ पर करीने से रखा गुरु ग्रंथ साहब। पलंग के ठीक पीछे एक खिडकी जो सदा खुली रहतीं। परदे थे तो सही खिडकी पर सिर्फ़ रवायत निभाने को। परदे के दोनों सिरों को मिलने का मौका शायद ही कभी मिला हो। वहाँ से आती ठंडी हवा से कोई पुराना रिष्ता था शायद दौलतराम का। ऐसे जैसे कोई संदेसे आते हों कहीं दूर देस से और खिडकी बंद देख कहीं लौट न जाएँ। यहीं पलंग पर बैठ अपना मोटा-सा चश्मा लगाए दौलतराम गुरु ग्रंथ साहब का पाठ करते आए थे बरसों से और आज यहीं इसी बिस्तर पर वे लेटे हैं और उन्हें चारों ओर से घेरे खडा है उनका अपना भरा-पूरा परिवार। इस घर को अपनी मेहनत की कमाई से सामने खडे होकर बनाया था दौलतराम ने। अपने मन मुताबिक पीछे हवादार बड़ी-सी खिड़की रखी ताकि एकदम ठंडी हवा आ सके। लेकिन ज्यों-ज्यों यह शहर विकसित होता गया सघनता भी बढ़ती गयी। पीछे का घर बन गया तो हवा का रास्ता रुक गया। दौलत राम ने घर के उपर एक मंजिल और डाल दी। कुछ वर्षों में पीछे का घर बराबर उठ आया तो एक बार फिर से लाला जी की खिडकी से आने वाली हवा रुक गयी। फिर मौका मिलते ही लाला जी ने पीछे वाले घर-जमीन को खरीद लिया। यह बडा-सा घर जो दो मंजिल बना हुआ था-चार कमरे नीचे और चार कमरे ऊपर। जिस दिन घर अपने नाम हुआ लाला जी ने पहला काम किया कि मजदूर लगवा कर इन सारे कमरों को गिरवा दिया और दस-पंद्रह दिन के अंदर सारा मलबा हटा कर उसे एक बगीचे के लिए तैयार कर लिया। अब इस बगीचे मेें अमरूद, आम और ढेर सारे अशोक के पेड़ हैं। दो नींबू के पेड़ हैं। नींबू के पौधे को छूकर जब हवा आती है तब उसमें नींबू की गन्ध भी होती है। उपर की मंजिल में जो आखिर वाला कमरा है जिसकी खिड़की उस बगीचे की तरफ खुलती थी वह कमरा लाला जी का था। उस खिड़की से ठंड़ी हवा को लाला जी अपने बदन पर महसूस करते तो उन्हें अपना बचपन याद आता। बगीचे में जाना, पेडों पर चढना, गिरना फिर चढना और खूब दौडना। खुला-खुला बेहड़ा और बडा-सा घर।
आज उनकी आंखों के सामने उनकी तीन बेटियाँ, बेटियों के परिवार, एक बेटा और उसका बेटा और बेटी सब थे। पूरा भरा-पूरा परिवार था आज उनका। एक बेटा गंवाया था उन्होेने और हिंदुस्तान आकर इन चार बच्चों के पिता बने वो। प्रकाषो के जाने के बाद यह पलंग, यह खिडकी जैसे सब अधूरे से लगने लगे थे दौलतराम को। उन्हें लगने लगा था कि हवाएँ जो संदेसे लेकर आएंगीं, प्रकाशो को वहाँ न पाकर वापस लौट जाएंगीं। लेकिन उनके बच्चों ने उन्हें कभी अकेला होने नहीं दिया। सब ने मिलकर उन्हें सर माथे पर रखा ऐसे जैसे न जाने कोई धरोहर हो उनके माथे। बेटे ने बेटे से बढकर फर्ज निभाया। दामादों ने खूब सत्कार किया उनका। आज अंतिम घडी में सब उनके साथ हैं। उनके बच्चे, उनका परिवार, प्रकाशो और पेशावर का वह घर, वह मोहल्ला। दौलतराम की आंखों से दो आंसू लुढके और उन्होंने अपना हाथ अपने कुर्ते की दाहिनी जेब की ओर बढ़ाया। पुरुषोत्तम समझ गए कि बाउ जी का अंतिम वेला आ गया है। जिस चाभी को वे उम्र भर अपने सीने से लगाए घूमते रहे, जो पलभर भी उनसे बिछडती तो उन्हें लगता कि उनकी जडें ही कटती जा रही हैं, आज वह चाभी उनके हाथ में है और उसे उन्होंने मनोहर की तरफ बढ़ा दिया है।
पुत्तर ऐ चाबी नहीं ऐ-ऐ मेरी जमीन मेरे पुरख्याँ दी पहचान ऐ! ऐनू सांब के रखीं पुत्तर...
दौलतराम की आंखों से आंसू बह रहे थे और उन आंसुओं के साथ पूरा परिवार जैसे नदी हो गया था। सबकी आंखें भीग गईं थीं। पिता के अंतिम वाक्य, उनका घर छूट जाने का दर्द और एक बुजुर्ग पिता को खो देने का भय...सबने मिलकर माहौल को बेहद उदास बना दिया था।
मनोहर पुत्तर...तेरा प्यो ते कदे समझ नहीं सकया पर मैंनू पता ऐ ... तूं मेरी गल नहीं टाल सगदा। बेटा इक वार बस इक वार तूं जाईं ज़रूर। ऐ चाबी... ओ ताला...
दौलतराम की सांसें उखड रही थीं लेकिन चेहरे की बेबसी सब कुछ कह रही थी। मनोहर सब समझ रहा था कि दादा जी क्या कहना चाह रहे हैं। वही जो वे सालों से अपने बेटे यानी पुरुषोत्तम से कहते रहे और जिसे बरसों से पुरुषोत्तम टालते रहे। दादा जी को उनके पुरखों की जमीन की यात्रा करवाने का।
पुरुषोत्तम जो आज तक पिता कि उस इच्छा को इतने बरसों में पूरा न कर पाए, आज पहली बार मनोहर की हथेली पर इस चाबी का वज़न वे खुद महसूस कर पा रहे थे। उन्होंने महसूस किया कि यह चाबी इतनी हल्की भी नहीं है जितना हल्के में वे उसे लेते रहे। आज उन्हें भी पिता कि तरह चाबी के पीछे एक ताला नजर आने लगा था। ताला जो शायद आज भी किसी पहचाने हाथ के स्पर्श का इंतजार कर रहा था...
पिता कि आंखें मुंद चुकी थीं और वह चाबी अब मनोहर के हाथ में थी।
लाला जीवनलाल एंड सन्स पेशावर वाले
पुरुषोत्तम लाला दौलतराम का इकलौता बेटा है। लाला दौलतराम जब पूर्वी पंजाब के पेशावर से उजडकर हिंदुस्तान पंहुचे तो उनके साथ थी उनकी पत्नी, पत्नी के कांधे से टंगी एक पोटली और दिल में टंगी एक पांच साल के बेटे को गंवा देने के दर्द की गठरी, लाला दौलतराम की जेब में चंद रुपये जिन्हें वे न जाने कैसे-कैसे बचा लाए थे और एक चाबी जिसके साथ था एक छल्ला जिस पर लिखा था लाला जीवनलाल एंड सन्स पेशावर वाले। बस इतनी ही कुल जमा पूंजी थी उनके पास। हिंदुस्तान में न कोई जानने वाला था उनका, न कोई सगा। एक अनजान देश था यह उनके लिए। अनजान देश, अनजान लोग, अनजान हवाएँ। यहाँ तक कि यहाँ की खुशबू भी अनजान थी उनके लिए। सोने-चांदी के व्यापारी लाला दौलतराम की पत्नी प्रकाशो की देह पर तब एक गहना तक नहीं था। बस गले में एक ताबीज़ था जो पीर की दरगाह से मिला था उन्हें परिवार की सुख-सांद (शंति) के लिए।
लाला दौलतराम ने जिस शहर को एक दिन बेबसी से देखा था उसी शहर को उन्होंने जीत लिया था।
लाला जी अक्सर अपने बच्चों को बताते थे कि उन्होंने इस शहर में तिनके से जीवन शुरू किया है। अनजाने से भटके कई दिनों तक उस अनजान शहर में। बस प्रकाशो का साथ था और वे फिर एक नजर प्रकाशो की तरफ देखते और कहते-भागवंती तेरा साथ न होता तो आज मैं खाक हो चुका होता। तूं ही थी जिसने मुझे तिनका-तिनका संजो लिया। लाला दौलतराम के इस वाक्य से प्रकाशो भीतर तक भीग जाती और उनकी आंखें हमेशा कि तरह झुक झातीं।
बेटा, हमने इस शहर में मजदूरियाँ की हैं। गारे के तसले ढोए हैं अपने सिर पर। सडक पर बैठ सब्जियाँ बेची हैं, क्या नहीं किया जिंदा रहने के लिए हम दोनों ने। यह मेरी प्रकाशो जो सेठानी बनकर राज करती थी, गहनों से जिसकी देह थक-थक जाती थी उसी प्रकाशो को दाने-दाने के लिए मोहताज देखा है मैंने। दोनों हाथों से जिसने पीरों-फकीरों को दान दिए, लंगर लगाए, उन्हीें हाथों में छाले देखे नहीं जाते थे पुत्तर जी। लेकिन फिर भी उस घडी में भी इसने मुझे टूटने नहीं दिया। यह कहते हुए दौलतराम की आंखें भीग जाती थीं और आदतन वे कांपने लगते थे और उसी तरह आदतन प्रकाशो यानी प्रकाशवंती उनके कांधे पर हाथ रख देती थी ऐसे जैसे इसी स्पर्श को पाने के लिए उनके कांधे कांपे थे।
और फिर पाकिस्तान के पंजाब के पेशावर से सुनार लाला दौलतराम ने यहाँ शून्य से फिर जीवन शुरू किया। करीब बीस साल की अटूट मेहनत के बाद आज वही अनजान शहर उनका अपना हो गया था। शरणार्थियों के कैम्पों से निकलकर सरकार द्वारा मिली जमीन पर एक नए आशियाने की शुरुआत की। मेहनत की, मजदूरी की, अपने घर की नींव से लेकर ईंट तक सब खुद जुटाए इन्हीं हाथों से और वैसे भी ऐसा करने वाले वे अकेले थोडे थे। न जाने कितने लोग आए थे अपने छूट चुके घरों की टीस आंखों में लिए। मर कर फिर-फिर जिंदा होना था सबको।
कितने तो उजड गए इसमेें। अपनी जमीनों से कटकर आए ये पेड फिर नई जमीन में जम ही नहीं सके। कितनों की किस्मत में छत तक न आई। लेकिन दौलतराम इस मामले में खुशनसीब थे कि सरकार के पास उपलब्ध शरणार्थियों की लिस्ट में उनका नाम था।
लाला दौलतराम को हिंदुस्तान के एक राज्य के एक छोटे शहर में शरणार्थी कोटा से ज़मीन का एक टुकडा मिला था। यह शहर चंडीगढ था, कुरुक्षेत्र था, पटियाला था, रोहतक था या कोई और इससे इस कहानी का कोई वास्ता नहीं है। वह बस हिंदुस्तान का एक छोटा शहर था। वह इन शहरों में से कोई हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता।
जिस दिन उन्होंने अपनी सुनार की दुकान फिर से खोली तो उसका नाम रखने को लेकर उनके मन में कोई द्वंद्व नहीं था। लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्स पेशावर वाले का बोर्ड देखकर उनकी आंखें भर आईं। बाउ जी के नाम से ही उनकी दुकान पेशावर में थी और अब अपने इस नए कलेवर में फिर से बाउ जी जिंदा होकर उनके सामने खडे थे। लाला दौलतराम उस समय तक तीन बेटियों और एक बेटे के पिता हो चुके थे। लेकिन दुकान का नाम उनके जेहन में पहले से ही स्पष्ट था। लाला जीवनलाल एंड संस।
लाला दौलतराम को सरकार की तरफ से जिस जमीन का टुकडा मिला, उसे उन्होंने कण-कण संजो लिया। मकान के अगले हिस्से में उन्होंने दुकान खोली और पिछले हिस्से में दो कमरों का एक घर। यही कुल मिलाकर एक छोटा-सा आशियाना था उनका। धीरे-धीरे जैसे काम-धंधा बढता गया, दुकान को बढ़ाकर पीछे तक कर लिया और साथ वाला प्लाॅट खरीदकर नीचे बडा-सा शोरूम और उपर बडी-सी रिहायश। अब शहर के बडे बाज़ार के बीचों-बीच उनका शोरूम और घर दोनों थे। बडे रसूख वाला परिवार।
इसी दुकान को सजाने-संवारने और बढ़ाने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया और आज पूरे शहर में लाला जीवनलाल एंड संस की तूती बोलती है। इतने बरसों में उन्होंने इतना नाम कमाया कि तीनों बेटियों का रिष्ता बिना किसी मेहनत के हो गया। बच्चे खूब पढे लिखे और तीनों बेटियाँ शहर के रसूखदार लोगों के बीच ब्याही गईं।
लाला जीवनलाल एंड संस को चार चांद लगा दिए पुरुषोत्तम ने। लाला जी ने जब उसे दुकान की गद्दी पर बैठाया तब एक ही बात कही थी-पुत्तर जी ऐ दुकान सिर्फ़ साड्डा रोजगार ही नहीं है ऐ साड्डी पहचान है। ऐनू दाग न लाणा।
और सच, पुरुषोत्तम ने कभी दाग लगने भी नहीं दिया इस नाम को। उल्टा चंार चांद ही लगाए। आज उस दुकान के आगे दो सिक्योरिटी गार्ड खडे होते हैं हाथ में बंदूक लिए, दरवाजे पर दरबान सलाम ठोकता है और पूरे शोरूम में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। करोडों के गहने, सोना, चांदी, हीरे जवाहरात हैं उस शोरूम में।
और ऐसा बडा शोरूम कोई अकेले थोडे ही था उस रोड पर। पूरा रोड ही दोनों तरफ शोरूमों से पटा पडा था। इसी के चलते शायद इस बाज़ार का नाम बडा बाज़ार रख दिया गया था। लाला जी ने जब दुकान खोली थी तो यह बिल्कुल भी विकसित इलाका नहीं था। अब इसे लाला जी की किस्मत ही कह लीजिए कि आने वाले समय में यह बाज़ार बन गया और फिर यह बाज़ार चल निकला। आज यह उस शहर का सबसे बड़ा और महंगा बाज़ार था। शोरूम के आगे चालीस फुटा सडक थी जिसे बीचोंबीच से बांटता डिवाइडर उस शहर की पहचान बतलाता था। पूरा डिवाइडर दोनों तरफ से लोहे की ग्रिलों से घिरा था और बीच में किस्म-किस्म के पेड-पौधे लगे थे। दोनों तरफ बाज़ार की आपाधापी और बीच में शांति और सुकून का संदेष देते हरे-भरे पौधे। यह एक लम्बी लेकिन सीधी सडक थी जिसमें बीच-बीच में तीन चैराहे थे और हर चैराहे को छोटे-छोटे पत्थरों से घेरकर उसमें खूब सुसज्जित फूल-पौधे लगाए गए थे। कुछ इस तरह कि उस सडक पर आप आगे बढें तो कुछ दूरी पर चलकर पहला चैराहा आता। इस चैराहे को बीच में गोलाकार में घेरा गया था जिसमें हाथी और उसके दो बच्चों के लोहे के खांचे लगे थे जिनके बीच में पौधे लगाए गए थे। पूरा हाथी परिवार हरा-भरा था। दूर से देखने पर ऐसा लगता जैसे हरी घास से ही काटकर उसे बनाया गया है। उसी के चारों ओर ट्रेफिक के सिग्नल्स बडी सादगी से लगे थे। फिर सीधा ही आगे बढने पर बडा बाज़ार आ जाता है। दोनों तरफ चहल-पहल, बडे-बडे शोरूम, दुकानें, रेस्तरां आदि। फिर लगभग एक-डेढ किलोमीटर बढने पर दूसरा चैराहा। इसे चैकोराकार में घेरा गया है जिसमें सुखी परिवार की आकृतियाँ बनी हैं। ठीक वैसी ही हरे पौधों से ढंकी। चारों तरफ की चहल-पहल से दूर सुकून से खेलते बच्चे, बडे और खाना बनाती औरतें। थोडा आगे बढने पर तीसरा चैराहा आता है जिस पर शहर का नक्षा बना है और उसे पेड-पौधों से सुसज्जित किया गया है। आप उस शहर में पहली बार आ रहे हों तो आपकी इच्छा होगी हर चैराहे पर उतरकर तस्वीरें खिंचवाने और सेल्फी ले लेने की। दिन-त्यौहारों पर तो इस सडक पर जैसा मेला लग जाता है। रोशनी से नहाए इस पूरे बाज़ार में खरीददारों की मारामारी होती है। इसी चैराहे से लगभग आधा किलोमीटर पहले दांये हाथ पर यह शोरूम है लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्स: पेशावर वाले।
लाला जी सुबह अंधेरे उठते और इसी सडक पर पैदल चलते। घुटने तक लम्बा कुर्ता और सलवार लाला जी की पहचान थी। हाथ में एक छड़ी। यह छड़ी अमृतसर से खरीदी थी आज से कोई दस साल पहले। यह रास्ता एकदम सीधा था, एक तरफ से लगभग दो किलोमीटर। जिस छोर से लाला जी इस सड़क पर चलना शुरू करते थे वहाँ से आगे-पीछे मिलाकर तीनों चैराहे दिखते थे। तीसरे चैराहे से रास्ता घूम जाता था और लाला जी भी वहीं अपनी यात्रा को मोड़ देते। जब लाला जी घूमने निकलते तब तक वहाँ चहल-पहल नहीं होती। सड़क के दोनों ओर की बड़ी-बड़ी दुकानें अलसायी हुई होतीं। कोई चमकदार रोषनी नहीं। सब के शटर गिरे होते। उन शटरों के उपर प्रायः शोरूमों में शीशे लगे होते। जब रात को उन शोरूमों में ढेर सारी बत्तियाँ जलतीं तो भीतर की शानो-शौकत बाहर से दिखती। ढेर सारी चमक और ढेर सारी खुशियाँ। लेकिन उन्हीं शीषों के भीतर दिन की रोशनी में कुछ नहीं दिखता। ऐसे शीशे वाले शोरूम इस रास्ते में कई थे लेकिन जो एक सबसे आकर्षक था वह था गाड़ियों की एक बड़ी कम्पनी का शोरूम। नीचे से तीन तल्ले का यह शोरूम शीशे से पैक था। यह शोरूम लाला जी के शोरूम के लगभग ठीक सामने पड़ता। जब लाला जी अपनी यात्रा को खत्म करते तब तक सूरज की रोशनी अपनी तपिश पा चुकी होती। लाला जी सड़क की दूसरी ओर से इस शोरूम के शीशे पर सूरज की रोशनी को देखते और बहुत खुश होते।
पूरे रास्ते इन बड़े-बड़े शोरूमों के सामने एक सन्नाटा रहता और कुछ रिक्शा चलाने वाले उन शोरूमों के बाहर सोए होते। लाला जी तेज कदमों से इन तीनों चैराहों को पार करते। तेज कदमों से जब लाला जी इस सीधी सड़क को नाप कर लौटते तो पसीने से भीग चुके होते। वहाँ से लौटने के बाद अपने बगीचे में जाते और उस हरियाली को महसूस करते। सुबह-सुबह हरियाली उनका इंतजार कर रही होती। कम से कम एक घंटा वे इस बगीचे में अपने को झौंके रखते। खुरपी लेकर बेवजह उग आई घास को हटाते, पौधों में पानी देते, माली से बातें करते, उसे कुछ एहतियात देते, हाथ से नन्हे-नन्हे पौधे रोपते और फिर अपने कमरे में चले आते।
लाला जीवनलाल की कोई तस्वीर तो नहीं थी दौलतराम के पास लेकिन पिता का अक्स दिल में खुदा हुआ था। जब दुकान खोली तो अंदाज से ही पिता का स्कैच बनवाया था उन्होंने और उसी को फ्रेम में जडवाकर दुकान की सामने की दीवार पर टंगवाया था। तबसे लेकर अब तक फ्रेम तो कई बदले लेकिन लाला जीवनलाल की तस्वीर वैसी की वैसी ही है।
इस शोरूम में जब आप प्रवेश करेंगे तो सीढियों पर दो दरबान दिखाई देंगे। वही ब्रिटिश अंदाज के कपडे पहने लेकिन उन्होेंने सिर पर कुल्ले वाली पगडी पहनी होगी। यह कुल्ले वाली पगडी इस शोरूम की पहचान है। लाला जीवनलाल की तस्वीर में वे भी यही पगडी पहने हैं और लाला दौलतराम भी जीवन भर ऐसी पगडी पहनते रहे। पुरुषोत्तम यह पगडी रोज तो नहीं पहनते लेकिन खास मौकों पर पहनने के लिए उनके पास भी ऐसी पगडियाँ हैं। फिर आगे बढने पर दरवाजे के दोनों तरफ हाथों में बंदूक लिए गार्ड खडे होंगे। गेट पर ही सीसीटीवी कैमरा आपका स्वागत करेगा और फिर दरवाजा खोलने के लिए एक दरबान ठीक वैसी ही वेषभूषा में। अंदर प्रवेश करते ही सामने बडी-सी दीवार पर गोल्डन फ्रेम में जकडी लाला जीवनलाल की तस्वीर। बडा-सा हाॅल, दीवारों पर टंगे शोकेसों में करीने से सजे सोने, चांदी, हीरे के गहने, उन गहनों की चमक को और दोगुना-चैगुना करने के लिए लगे शीशे, झक्क सफेद रोशनियाँ और छत के बीचों-बीच लगा बडा-सा फानूस। आपको देखने और एंटरटेन करने के लिए ढेर सारा स्टाफ। आलीशान शोरूम और फिर थोडा आगे बढने पर सीधे हाथ पर बडा-सा काउंटर जिसमें दो कुर्सियाँ लगी हैं जिनमें से एक पर बैठते हैं पुरुषोत्तम और दूसरी कुर्सी खाली है जिस पर लाला दौलतराम बैठते थे और जिसे पुरुषोत्तम पुरखों के आशीर्वाद की तरह सम्मान से रखते हैं। उनका मानना है कि यह जगह दौलतराम जी की है जिसे उनके जीते जी कोई नहीं ले सकता।
बडा बाज़ार में लाला दौलतराम की अपनी एक इज्जत है। लाला दौलतराम की इस इज्जत को उनके बेटे पुरुषोत्तम ने बढ़ाया इसलिए धीरे-धीरे अब लाला जी की जगह पुरुषोत्तम की पहचान होने लगी थी। लेकिन सच कहें तो लाला जी की पहचान को लाला जी में समाहित रखने में उनके बेटे को भी मजा आता था। वे अक्सर कहते 'अरे कैसे लाला जी। लाला जी तो एक ही हैं। हम तो उनके बस हिस्से हैं।' लाला जी और प्रकाशो की इन सड़कांे और इस बाज़ार के पूरे माहौल से ढेर सारी स्मृतियाँ जुड़ी थीं। इसी बड़ा बाज़ार में पुरुषोत्तम का बचपन बीता और पुरुषोत्तम के बच्चों का भी बचपन बीता। इस लम्बे समय के इतिहास में काफी कुछ बदल गया था यहाँ। कहाँ यह सड़क एक समय में सिर्फ़ इस इन दो-चार दुकानों के लिए जानी जाती थी। वहीं लाला जी का यह शोरूम तो खैर बाद में इतना बड़ा रूप ले पाया लेकिन इस सड़क, इस बाज़ार को अपने सामने बनते और चढते उन्होंने अपनी आंखों से देखा। उनके सामने यह सड़क बनी, ये चैराहे बने और ये शीशों और रोशनी का चमत्कार तो खैर बहुत पुराना है ही नहीं। नजदीक की स्मृतियों में भी मनोहर और छोटी का हाथ पकडकर इसी सडक पर लाला जी उन्हें बुढिया के बाल खिलाया करते थे। जब प्रकाषो पूरी हुई उस समय छोटी सिर्फ़ तीन बरस की थी। इन बच्चों के साथ, इनकी तोतली बातों और लाला जी के परिवार ने उन्हें टूटने से बचा लिया। नहीं तो प्रकाशो को खोने का क्या अर्थ हो सकता है उनके लिए यह सिर्फ़ उनका परिवार ही समझ सकता है।
उसकी रूह में है वह इलाका, वह मिट्टी, वह हवा, वह रवायत
पुरुषोत्तम सही मायनों में दौलतराम के बेटे थे। लाला दौलतराम ने अपनी ज़िन्दगी में जितना संघर्ष किया, जितने दुख-तकलीफें झेली थीं पुरुषोत्तम ने उनमें से किसी को भी बर्बाद नहीं जाने दिया। वे पिता के नक्षेकदम पर थे और दिन रात मेहनत करके उन्होंने पिता कि गद्दी को संभाल लिया था। पिता का वह वाक्य कि पुत्तर जी ऐ दुकान सिर्फ़ साड्डा रोजगार ही नहीं है ऐ साड्डी पहचान है। ऐनू दाग न लाणा को शायद गांठ बाँध लिया था उन्होंने। सही मायनों में देखा जाए तो दौलतराम ने ऐसे ही बेटे की कल्पना कि होगी अपने जीवन में। कोई ऐब नहीं, कोई बुराई नहीं, काम के प्रति सम्मान और समर्पण। लाला दौलतराम को कोई शिकायत नहीं थी बेटे से सिवाय एक शिकायत के।
पिता के संघर्ष को पुरुषोत्तम ने कितना देखा था यह तो पता नहीं लेकिन उसे समझा ज़रूर था। उन्होंने समझा था कि पिता ने इस अनजान शहर में तिनके से शुरुआत की है, यह भी कि उनकी माँ पिता के साथ हमेशा सहारा बनकर खडी रही है, यह भी कि आज जो कुछ भी उनके पास है, वह उन दोनों की अटूट लगन का परिणाम है, यह भी कि पिता के दिल में अपनी जमीन, अपनी छूट चुकी जडों को लेकर टीस उठती है, नहीं जानता था तो बस यह कि यह टीस बहुत गहरे उठती है।
दौलतराम ने इस नए शहर, नई जमीन पर आकर बहुत मेहनत की थी। अपना वजूद फिर से बनाने के लिए, अपने बच्चों के लिए इज्जतदार ज़िन्दगी की व्यवस्था करने के लिए... वे भूल गए थे कि उनके अपने भी कुछ ख्वाब हैं, वे अपने पिता के नाम को फिर से रोैशन देखना चाहते थे, अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देना चाहते थे, अपनी बेटियों को अच्छे घरों में ब्याहना चाहते थे और इस सबमें वे इतना रम गए कि अपनी इच्छाओं की कोई सुध ही न रही उन्हें। न जाने कितने बरस बीत गए इस सब में। पीछे पलट कर देखने का वक्त ही नहीं मिला उन्हें। बस एक इच्छा मन में रह-रह कर टीस मारती रही कि एक बार वापस फिर उसी जगह जाना है जहाँ से घुप्प अंधेरे वे प्रकाशो का हाथ थामे चोरों की तरह भाग आए थे। वे फिर से उस जमीन को छूना चाहते थे, वे उस ताले को छूकर खोल देना चाहते थे, वे उसी आंगन में पलभर सुस्ता लेना चाहते थे, वे अपने उस घर के भीतर के कमरे में रखे पलंग के नीचे पडे़ संदूक को खोलकर उसमें सिमटी अपने बचपन की यादों को टटोल लेना चाहते थे।, वे कमरे के भीतर वाली खिडकी को खोलकर उससे आने वाली ताज़ी हवा को अपने चेहरे पर एक बार फिर महसूस करना चाहते थे...प्रकाशो ने उस घर के दरवाजे पर एक घंटी टांग रखी थी जिसकी रुनझुन की आवाज़ से दौलतराम को नींद आती थी। बस प्रकाशो चुनरी से हवा झलती रहती और उस घंटी की रुनझुन लाला दौलतराम के कान में संगीत घोलती रहती और वे चैन से, सुकून से सोए रहते ऐसे जैसे दुनिया कि सारी नैमतें उनके कदमों में हों...वह रुनझुन इतने बरसों बाद भी सारी दीवारें तोडकर उनके भीतर कहीं बजती रहती थी। वे फिर से उस पल को जीना चाहते थे।
और जब तक वे उस सब के लिए वक्त निकाल पाते उन्होंने देखा कि उनकी उम्र साठ बरस पार कर गई है। बेटियाँ ब्याही गई हैं, पुरुषोत्तम ने गृहस्थी के साथ दुकान भी संभाल ली है और दौलतराम दादा बन चुके हैं।
ज्यों ज्यों दौलतराम के सिर से जिम्मेदारियों का बोझ उतरता गया त्यों-त्यों अपने वतन की याद उन्हें और गहरे सताने लगीं। अक्सर वे प्रकाशो से कहते-देख प्रकाशो गुरु महाराज ने हमें जो जिम्मेदारी सौंपी थी वह तो हम दोनों ने जैसे-तैसे निभा दी, हुण इक वार ते अपणे दिल दी वी सुन लइये।
प्रकाशो उनकी हाँ में हाँ मिलाती रही जैसे उनकी खुशी का लाला जी की खुशी से अलग कोई रास्ता न हो। वह तो हर हाल में लाला जी के साथ रहने के लिए बनी थीं। लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रकाशो सिर्फ़ लाला जी की हाँ में हाँ ही मिलाती थी, वह खुद भी एक बार पेशावर के अपने मोहल्ले में जाकर सबसे मिलना चाहती थी। उन दोनों को ऐसा लगता था कि आज भी उनका वेहडा, वह मोहल्ला ऐसे ही है। बस एक उन्हें छोडकर सब कुछ पहले जैसा ही है। आज भी वहाँ ईद के मेले सजते होंगे, इक्के पर बैठकर औरतें मेला घूमने जाती होंगीं, आज भी पनवारी की दुकान पर चीनी चार रुपये सेर मिलती होगी, आज भी वहाँ लडकियाँ खेतों से छल्लियाँ चुराकर लाती होंगीं और शाम को बलने वाली आग में अपने हाथ से छल्लियाँ भूनकर खाती होंगीें और फिर जोर से हंसी केे ठट्ठे गूंजते होंगे, आज भी बच्चे शाम को प्रीतम के खेत में लगे ट्यूबवैल पर नहाने जाते होंगे और प्रीतम सोट्टा लेकर उनके पीछे दौडता होगा, आज भी वहाँ सांझे चूल्हे बलते होेगे जिनमें औरतें एक साथ रोटियों बनाती होंगीं। कितना कुछ तो एक साथ ताजा हो आया प्रकाशो के जेहन में। उसके मन में फिर से पेशाावर जाने की इ्रच्छा उमडने लगी। वह भूल गई थी कि उस आग में केवल उनकी गृहस्थी नहीं उजडी थी बल्कि पता नहीं कितने अपने बसेरों को अंधेरे मुंह यूं ही अनाथ छोडकर चले गए थे।
मनोहर ने अपने दादा-दादी के मन में पल रही इस इच्छा को बहुत करीब से देखा था। या यूं कहें कि उनकी पनपती और धीरे-धीरे आस तोडती इन इच्छाओं के साथ ही वह जवान हो रहा था। उसने महसूस किया था कि बचपन से सुने किस्से-कहानियों में भी लाला जी और बीबी जी ने सिर्फ़ वही पात्र चुने थे जो उनके अपने वतन से जुडे थे। इतने साल इस नई सरज़मीन पर बिताने के बाद भी यह जमीन उन्हें कभी अपनी नहीं लगी थी। लाला जी से जब भी वह या छोटी घोडा बनने की जिद करते तो वह घोडा हुर्र-हुर्र करते पेशावर के जेद्दे के उसी मोहल्ले की गलियों से गुजरता निकलता था। रास्ते में कभी प्रीतम का ट्यूबवैल आता, तो कभी चैक-बाजार आते, कभी सुल्तान मियाँ की मुरब्बे की दुकान पर घोडा रुकता तो कभी कमली के आम के बगीचे से गुजरता। बीबी जब भी मनोहर या छोटी को गोद में लेकर सुलाती तो एक लोरी गाती थी-
मेरी छोटी आवे नेड़यों मैं मक्खन कड्डा पेड़यों हुं हुं
मेरी छोटी आवे दूरों मैं मन्न कडां तंदूरों हुं हुं।
यही लोरी बीबी के मुंह से सुन-सुनकर गर्मी की दोपहरों में वे सोया करते थे। मनोहर जानता था कि यह तंदूर, यह मक्खन के पेड़े बीबी को जेद्दे की याद दिलाते हैं। वे अक्सर बताती थीं कि उनके पिंड में कैसे मांएँ अपने बच्चों को तंदूर से गरम-गरम रोटियाँ निकालकर मक्खन डालकर खिलाया करती थीं। ऐसा बताते हुए कई बार उनकी आंखों को छलक जाते हुए मनोहर ने अपनी आंखों से देखा है।
लाला जी और बीबी जी रूह से आज भी वहीं हैं, यह बात मनोहर अच्छी तरह जानता था और बचपन से अपनी तोतली ज़बान से लेकर आज तक लाला जी और बीबी जी को पेशावर घुमाने के वायदे वह करता आया था। लाला जी अक्सर कहते थे उससे, मनोहर पुत्तर, देख तूं मैनू प्यार करना ऐ ंना और मनोहर के गर्दन हिलाते ही कहते थे कि जे तूं मैनू प्यार करना ऐं ते इक वारी सानू दोनां नू सरहद पार करा दे बेटा। वे अपनी रौ में बोलते चले जाते थे, मैनू हुण परमात्मा तों कुछ नहीं चाहिदा, बस इक्को इच्छा है पुत्तर इक वार अपणी मिट्टी नू मत्थे ते लगा लां, इक वारी दिन दे चाडने अपणी दुरशाई (दहलीज) नू चुम लां, इक वारी ताला खोलके अंदर पैर रख लां, ओ संदूक मैं लैके आणा है पुत्तर जी। मेरी माँ दीयाँ यादां दफन ने ओदर और ऐसा कहते हुए वह पेशावर के उस घर की चाबी को हाथ में लिए देखते रहते थे। आंखों से आंसू झरते रहते और पीतल की वह बेजान चाबी जैसे उनके दुख-सुख की साझेदार बनकर सबके बीच आ खडी होती थी। लाला जी ने इस बीच इतना कुछ खोया-पाया लेकिन वह चाबी एक पल भी उनसे दूर नहीं हो सकी थी। मनोहर इस बात को जानता था और जानता था कि चाबी से अलग होने की कल्पना भी लाला जी नहीं कर सकते। यह चाबी उनके लिए पीतल का सिर्फ़ एक टुकडा नहीं बल्कि उनका घर है, उनकी पहचान है, उनका पूरा वजूद है। लाला जी को लगता था कि उनके घर छोडने के इतने बरसों के बाद भी वह घर वैसा का वैसा ही होगा, दरवाजे पर ताला होगा जो जम गया होगा, सामान पर धूल की मोटी परतें जम गई होंगीं लेकिन सब कुछ होगा वैसा का वैसा। उसी तरह वह संदूक आज भी पलंग के नीचे रखा अपने खुलने का इंतजार कर रहा होगा। उसी तरह वे खिडकियाँ, वे दरवाजे आज भी किसी अपने के स्पर्श की राह तक रहे होंगे।
मनोहर और छोटी-पुरुषोत्तम के दो बच्चे। छोटी की उम्र मनोहर से लगभग आठ साल कम है। यानी मनोहर अगर बीस साल का है तो छोटी सिर्फ़ बारह बरस की। इतनी लाडली और दुलारी कि बारह की होते हुए भी नन्हीं-सी बच्ची लगती है और मनोहर उसका बडा भाई। उम्र में भी बडा और जिम्मेदारियों के मामले में भी।
पुरुषोत्तम इस बात को समझते थे कि हर इंसान की ज़िन्दगी में एक शहर, गाँव ऐसा होता है जो इंसान का ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता है। उससे ताउम्र वह मोहब्बत करता है। वे यह भी जानते हैं कि लाला जी यहाँ चाहे जितना फल-फूल लें लेकिन उनकी रूह सदा पाकिस्तान के उसी छोटे से कस्बे में अटकी रहेगी। लेकिन साठ बरस एक लम्बा अरसा होता है। उन्हें लगता इतने दिन क्या वाकई अपने भीतर इस जिद को जिलाये रखा जा सकता है। पुरुषोत्तम जानते हैं कि वह वतन वह कस्बा जिस तरह लाला जी के जेहन में है वह कौन-सा जस का तस होगा। वे जानते हैं कि वक्त सब कुछ उलट पुलट कर रख देता है।
ऐसा नहीं है कि पुरुषोत्तम लाला जी की इस इच्छा को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। हाँ जिस तरह यह इच्छा लाला जी के जेहन में पल रही थी अब उस तरह तो उसके दिल में पल नहीं ही सकती थी। काम, जिन्दगी, घर-परिवार की जिम्मेदारियों में इस कदर वे उलझे रहे कि कभी इतनी फुरसत नहीं मिली। हाँ उन्होंने एक-दो बार ज़रूर इस की तह में जाना चाहा कि आखिर पाकिस्तान कैसे जाया जा सकता है। अब लाला जी की जिद यह भी थी कि वे जब जायेंगे तो सपरिवार ही जायेंगे। वे हमेशा कहते 'तुम लोगों को ही तो दिखाना है वह इलाका, वह मिट्टी, वह हवा, वह रवायत।' अब सब को साथ ले जाना इतना आसान तो था नहीं। इसलिए कभी संयोग बन ही नहीं पाया। पुरुषोत्तम सोचते रहे कि एक दिन ऐसा ज़रूर होगा। ऐसा सोचते हुए माँ गुजर गई और अब उसके पिता भी आखिरी सांस ले रहे थे। हाँ यह ज़रूर है कि आज जब मरने से ठीक पहले उनको छोड़कर लाला जी ने मनोहर को चाबी थमाई और साथ ही यह कहा कि मैं अपने हमवतन में सुपुर्दे खाक होना चाहता हूँ तो पुरुषोत्तम का कलेजा कट कर गिर गया। ऐसा लगा जैसे उसने अपने जीवन में जो किया सब आज ज़ाया हो गया। एक बेटा होने के नाते उनका अपने पिता के लिए यह फर्ज था कि वे अपने पिता कि सारी इच्छाएँ पूरी करते।
और हिंदुस्तान की सरज़मीन से एक परिंदा उड गया
लाला जी ने अंतिम सांसें मनोहर की बांहों में ली थीं। पूरा परिवार सामने खडा था लेकिन उनकी आंखें सिर्फ़ मनोहर पर टिकी थीं। उन्होंने इषारे से मनोहर को करीब बुलाया था। मनोहर ने नम आंखों से लाला जी का सिर अपनीे गोद में रख लिया था और लाला जी ने चाबी मनोहर की ओर बढ़ा दी थी। बस यही वह अंतिम दृश्य था जिसमें लाला जी ने मनोहर से एक बार, बस एक बार उस घर जाने की अर्ज की थी और यह ख्वाहिश उसके सामने रखी थी कि मैं अपने सरजमीं पर सुपुर्दे खाक होना चाहता हूँ।
आज लाला जी की उठावनी है। पूरी भीड़ उमड़ पड़ी है। बाज़ार में आज जैसे अघोशित-सी छुट्टी हो गई है। गुरुद्वारे में पैर रखने की जमीन नहीं है। लाला जी की बहुत इज्जत थी बाज़ार में लेकिन इतनी यह मनोहर भी नहीं जानता था। आज तक उसने किसी के मुंह से लाला जी की बुराई नहीं सुनी थी। सब उनके संघर्श की, उनके मेहनत की तारीफ करते हैं। सबने पुरुषोत्तम को गले लगाकर सांत्वना दी और लाला जी का नाम यूं ही बनाए रखने का आशीर्वाद दिया। लोगों ने कहा लाला जी का जाना एक इतिहास का जाना है। दो वक्तों को जोडते एक पुल का जाना है। लाला जी ने संघर्ष का इतिहास बनाया था और यह दिखलाया था कि चाहे जितनी सरहदें तुम बना दो किसी के दिल पर पहरेदारी नहीं बैठा सकते। ता उम्र वे अपनी जडों के साथ जुडाव महसूस करते रहे।
पगबंदी की रसम होनी थी, लाला जी ने जिस जिम्मेदारी को उम्र भर संभाला उसे प्रतीकात्मक रूप से आज पुरुषोत्तम को सौंपा जाना था। पुरुषोत्तम तो यूं ही सारी जिम्मेदारियों को निभाते आ रहे थे लेकिन आज पिता कि खाली कुर्सी पर उन्हें बैठना था। गुरुद्वारे में पाठ चल रहा था और इधर पुरुषोत्तम के मन में न जाने क्या चल रहा था। उनकी आंखों के सामने शोरूम में रखी लाला जी की कुर्सी और अंतिम समय में लाला जी की आंखों में लाचारी और शिकायत सब कुछ एक साथ दिखाई दे रहा था। लाला जी की कुर्सी जिस पर लाला जी को बैठे कई बरस गुजर गए, शोरूम में ऐसे ही रखी है। लाला जी के जीते जी उस कुर्सी पर उनके अलावा कोई नहीं बैठा। लेकिन आज उन्हें उसी कुर्सी पर बैठने का हक मिलने वाला है। पगडी रसम पूरी होते ही वे घोषित रूप से लाला जी की जगह ले लेंगे। लेकिन पुरुषोत्तम को लाला जी की लाचारी भुलाए नहीं भूल रही और फिर न जाने पुरुषोत्तम को क्या सूझी कि उन्होंने पाठी साहेब के कान में जाकर धीरे से कुछ कहा और थोडी देर बाद पगडी की रसम के लिए पुरुषोत्तम की जगह मनोहर का नाम पुकारा गया। मनोहर का नाम सुनते ही फुुसफुसाहट शुरू हो गई। मनोहर समेत सब यह सुनकर हैरान थे।
मैं साद संगत तो माफी चाहना वां पर मैं अपने बाउ जी दी इस कुर्सी दा हकदार नहीं... मैं ज़िन्दगी भर ओना नूं समझ नहीं सकया। पुरुषोत्तम की आंखों में आंसू थे जैसे वे किसी बात का पश्चाताप कर रहे हों, जैसे भरी सभा में वे अपने पिता से माफी मांग रहे हों, लाला जी ने सारी उमर दुख देखे, अपणे बच्चयाँ लई ओना ने सब कुछ कीता, लेकिन मैं ओना नूं समझ नहंी सकया...'पुरुषोत्तम की आंखें झुकीं थी और चेहरा बेहद मायूस था, ओ बार-बार कहंदे रहे पुत्तर इक वार मैनूं जेद्दा, मेरे पिंड, मेरी मिट्टी कोल लै चल, पर मैं... वे जैसे लाला जी से संवाद करने लगे,' लाला जी मैनू माफ कर दो, मैनू माफ कर दो। ' और यह कहकर पुरुषोत्तम फूट-फूट कर रो पडे और अगले ही पल खुद को संभालकर उन्होंने बिना किसी शब्द के मनोहर को आगे बढ़ा दिया।
सब जानते थे कि लाला जी मनोहर के बहुत करीब थे। मनोहर भी लाला जी को अच्छी तरह समझता था। लेकिन सब यह भी जानते थे कि पुरुषोत्तम जैसा मेहनती और समझदार बेटा मिलना किस्मत की मेहर ही है। हो सकता है कि किसी एक वजह से लाला जी के मन में मलाल रह गया हो लेकिन पुरुषोत्तम में दोष ढूँढना चांद में दाग ढूँढने जैसा है।
मनोहर आज दुखी था, शायद खुद से बेहद नाराज़ कि लाला जी ने जिस पर सबसे अधिक विश्वास किया वह भी उनकी यह आखिरी इच्छा पूरी नहीं कर सका और आज उस पर बाउ जी का उसे पगडी रसम के लिए आगे करना... ...वह भी बाउ जी से कम दोषी कैसे था!
मनोहर को पगडी बाँधी जा रही थी और गुरूद्वारे में शबद कीर्तन चल रहा था-
जो नर दुख में दुख नहीं मानै॥
स्ुाुख सनेहु अरु भै नहीं जा कै कंचन माटी मानै॥1॥ रहाउ॥
नह निंदिया नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना॥
हरख सोग ते रहै निआरउ नांहि मान अपमाना॥1॥
आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा॥
काम क्रोध जिह परसै नाहिन तिह घटि ब्रह्म निवासा॥2॥
और मनोहर की आंखें आंसुओं से नम हैं।
कुछ अरमान मरकर भी ज़िंदा रह जाते हैं
मनोहर जानता था कि लाला जी का अपनी जगह-ज़मीन को छे लेने का अरमान उनके साथ ही चला गया। लेकिन देह त्यागते वक्त लाला जी की इच्छा को मनोहर किसी भी तरह पूरा करना चाहता है। बार-बार उसके दिमाग में यह घूमता मैनू मेरी मिट्टी विच ही सुपुर्दे खाक करना। मनोहर की हथेली पर चाबी रखते हुए भी उनमें जीने की लालसा थी, एक बार अपने अधूरे ख्वाब को जी लेने की तमन्ना थी, उनकी आंखों के लाल डोरे कितना कुछ कह रहे थे। ज़बान ने जब उनका साथ छोडा उसके बाद भी उनकी आंखें बोल रहीे थीं, सांसों की डोर टूट चुकी थी लेकिन आंखें उस पल भी एकटक मनोहर को निहार रही थीं ऐसे जैसे कह रही हों पुत्तर जी तुसी वी... । मनोहर जानता था कि लाला जी ने उससे कुछ उम्मीदें रखी थीं, एक ख्वाब को पूरा करने का जिम्मा उन्होंने मनोहर के कंधों पर दिया था।
लाला जी को जिस समय आग दी जा रही थी उसी समय मनोहर ने प्रण कर लिया था कि उनकी मिट्टी को भोआ साहब (पंजाब के कीरतपुर के पास एक तीर्थ स्थल जहाँ अस्थिविसर्जन किया जाता है) में विसर्जित नहीं किया जाएगा और लालाजी को आग देकर जब सब घर लौटे तो मनोहर ने सारी बिरादरी के सामने यह बात कह दी, लाला जी दे फुल्ल (अस्थियां) कीरतपुर नहीं ले जाए जाणगे। मनोहर के यह वाक्य बोलते ही हलचल हो गई लेकिन मनोहर ने सबके कयासों को विराम देते हुए बिना वक्त लिए कह दिया, मैं ओना दे फुल्ल लेैके पेशावर जावांगा... ओना दी अपणी सरज़मीन ते, ओना दे अपणे वेहडे विच...तां ही लाला जी दी आत्मा नू ठा (ठिकाना) मिलेगा। यही लाला जी की आखिरी इच्छा थी और मैं अब किसी भी कीमत पर उनकी इस आखिरी इच्छा को पूरा करके रहूंगा। मनोहर के बाउ जी जमीन पर बैठे थे। कई लोग वहाँ इकट्ठा थे। यह उपर का वही कमरा था जिसमें लाला जी रहते थे। वही कमरा जहाँ लाला जी ठंड़ी हवा के बीच अपने पिंड को याद करते थे। जमीन पर सफेद चादर बिछी हुई थी। सब भौचक रह गये। अमृतसर वाले फूफा जी ने कहा, पुत्तर जी पता वी है तुसी की कह रहे हो? ऐ नहीं हो सकदा। भले ही वह हमारा पिंड है भले ही उस मिट्टी में हमारा खून पसीना मिला हुआ है। भले ही वहाँ की फिजाओं में हमारी सरगोशियाँ हैं लेकिन अब वहाँ जाना क्या आसान है। यह दो मुल्क है बेटा जी और सिर्फ़ यह दो मुल्क ही नहीं है बेटा दुष्मन के दो घर हैं। " सभी बड़े-बुजुर्गों ने अपने-अपने तरीके से विरोध किया। किसी ने कहा, अरे लाला जी की बेचैनी को तो समझा जा सकता है। लेकिन उनके जाने के साथ ही उनकी इस जिद को दफन कर दिया जाना चाहिए। मनोहर चुप था लेकिन उसे देखकर साफ लग रहा था कि वह अब मानने वाला नहीं। तभी उसके बाउ जी पुरुषोत्तम उठे और-और अपने बेटे के ठीक सामने खड़े हो गए और कहा, नहीं पुत्तर असी ज़रूर जावांगे। हुण मैं समझ सकना वां कि लाला जी किन्ने बेचैन सी... असी ज़रूर जावांगे। हुण मैं ओना दी रूह नू होर कष्ट नहीं दे सकदा। यह कहकर पिता ने बेटे के कन्धे को हल्का-सा दबाया। मनोहर ने उसी खिड़की से देखा बाहर आम के पेड़ पर बैठै पक्षियों के झुंड में से एक पक्षी उड़ गया।
सारे रस्मो रिवाज़ खत्म हो जाने के बाद मनोहर ने पेषावर जाने की अपनी मुहिम शुरू कर दी। पिता और भाई को जाते देख छोटी ने भी जिद करना शुरू कर दिया, पापा जी मैं वी जाणा ऐ। तुसी मैनू वी लैके जाओ। वीर जी वी ते जा रहे ने। मैं वी जाणा ऐ। अपने पिता कि बेहद लाडली छोटी जिद पकड कर बैठ गई थी। पुरुषोत्तम के लाख समझाने पर भी जब वह नहीं मानी तो उनकी ही सलाह पर सबके जाने का कार्यक्रम तय हुआ। तय हुआ कि सपरिवार जाया जाएगा और लाला जी की अस्थियों को उनके ठौर पंहुचाकर ननकाणा साहब में मत्था टेककर वापस लौटा जाएगा। इस बीच वह शिद्दत से महसूस करता रहा कि जो मुल्क कभी एक थे उनके बीच कितनी सरहदें खडी कर दीं कुछ लोगों ने लेकिन चाहकर भी दिलों के बीच सरहदें न खडी कर पाए। आज भी लाला जी की आत्मा उस सरहद को पारकर वहीं अपने गली-कूचों में भटक रही होगी जिसे किसी पासपोर्ट या वीज़ा कि दरकार नहीं।
पुरुषोत्तम ने अपने परिवार के साथ चलने का कार्यक्रम तय कर लिया। हालांकि बहुत से सवाल उनके मन में आ-जा रहे थे, आखिर कौन होगा अब वहाँ, वह घर तो तभी कब्जा लिया गया होगा, कौन पहचानेगा उन्हें वगैरह वगैरह। लेकिन लाला जी के जाने के बाद उनके सपनों से उनका जैसे नाता जुड-सा गया था। पुरुषोत्तम कोई तर्क करना नहीं चाहते थे, वे बस अब लाला जी की आंखों से उस सरज़मीन को देखना चाहते थे, उनकी आत्मा से उसे महसूस करना चाहते थे और लाला जी को अंत में उनकी अपनी धरती पर छोड आना चाहते थे। शायद यही बेहतर होता, शायद इसी में उनकी आत्मा को सुकून मिलता!
उस आसमान का रंग कुछ और ही था
जितना कठिन था उनका इस निष्कर्ष पर पंहुचना कि वे लाला जी की अंतिम इच्छा पूरी करेंगे उससे कहीं ज़्यादा कठिन था पाकिस्तान का वीज़ा लेना। आखिर क्या है इन दोनों देशों के बीच सिवाय बंटवारे की उस तार के कि उस पार जाना इतना कठिन है। पाकिस्तान वीज़ा के लिए अप्लाई करते ही क्या-क्या न झेलना पडा उन्हें। वीजा फार्म को भरने के लिए पहला सवाल कि आखिर क्यों जाना चाहते हैं पाकिस्तान-व्यापार के लिए, पर्यटन के लिए या पाकिस्तान की सरज़मीन से गुजर भर जाने के लिए। क्या लिखे मनमोहन कि इसके अलावा भी कारण हो सकते हैं हिंदुस्तानियों के पास पाकिस्तान जाने के लिए-कि कभी यह सिर्फ़ एक ही मुल्क था, कि वे कभी उसी का एक हिस्सा थे कि कितनी तो यादें बसती हैं आज भी उनकी वहाँ कि आज भी बंटवारे के समय वहाँ से उजड कर आए हिंदुस्तानी उस सरज़मीन की याद में दम तोड देते हैं। आखिर क्यों नहंी है वह सब कुछ वीज़ा के फाॅर्म में? उसके बाद तस्वीरें, फाॅर्म की काॅपियाँ, पाकिस्तान में किसी परिचित का पता, उसका निमंत्रण, जाने का और कोई कारण... न जाने कितने सवाल...आखिर कितना बदल जाती है धरती और कितना बदल जाता है आसमान सिर्फ़ चंद लकीरें खींच देने से।
इसके बाद मनोहर ने पाकिस्तान एंबेसी के चक्कर काटना शुरू किया। क्या-क्या नहीं झेला इस बीच उसने और अंदाजा लगाया यह कि किस तरह नफरत से खदेडा गया होगा दोनों कौमों को सरहद के पार, कितना तो जहर उगला गया होगा दोनों तरफ से कि जिसका असर आज भी फिज़ाओं में बाकी है। आज भी हिंदुस्तानियों को पाकिस्तान का वीज़ा आसानी से नहीं मिलता और यह एकतरफा नहंी दोनों ही मुल्क इस दूरी को बनाए और बचाए रखने में जी जान से लगे हुए हैं जबकि सरहदों से परे दोनों ही तरफ शायद जीवन धडकता है।
यह बताने पर कि वे पाकिस्तान अपने दादा जी की अस्थियाँ ले जाना चाहते हैं कितना तो मखौल उडाया गया उनका, ओए अब क्या रखा है आप लोगों का पाकिस्तान में, सब कुछ तो खत्म हो गया, अब तो नाम भी नहीं लेता होगा कोई आपका वहाँ, जाने की कोई खास वजह समझाएँ जनाब...
कितनी जिरहें हुईं, कितनी गुज़ारिशें, कितने तो चक्कर काटे मनोहर ने, कितनी सिफारिषें तो कहीं जाकर एक महीने का वीज़ा लगा उन सबका।
और फिर वह दिन आया जब घर के दरवाजे पर ताला लगाकर उन्हें पाकिस्तान के लिए रवाना होना था। यह पूरी यात्रा छः दिन की थी। छः दिन इसलिए कि सारे परिवार ने सोचा जब जा ही रहे हैं तो बढिया से घूम आयेंगे पाकिस्तान। आखिर खून तो हमारा वहीं का है।
जाने का वह दिन। सुबह-सुबह निकलना था। पुरुषोत्तम को जहाँ तक याद है शायद यह पहली बार ही हो रहा होगा कि दुकान छः दिनों के लिए बन्द रहेगी। लाला जी अपने काम के प्रति बहुत समर्पित थे इसलिए पुरुषोत्तम को याद नहीं कि कभी लाला जी ने इतनी लम्बे समय के लिए दुकान को बन्द किया हो। हाँ कभी एकाध दिन हो गया तो हो गया। वैसे उन्हें तो ये एकाध दिन भी होष में याद नहीं। क्येांकि जबसे दुकान को उन्होंने संभाला है तब से तो लाला जी और पुरुषोत्तम दो लोग हो गए। कभी किसी को जाना भी पड़ जाए तो दुकान संभालने वाला दूसरा तैयार।
सुबह का मौसम बहुत सुहावना था। छोटी के चेहरे पर मुस्कान थी। तैयारी कम से कम एक हफ्ते से चल रही थी। पुरुषोत्तम ने लाला जी के बगीचे को देखा और छः दिन के लिए उससे विदा ली। मनोहर अपने उपर जिम्मेदारी महसूस कर रहा था। आगे पीछे ढेर सारे ताले लगाये। आगे की शटर रात की ही गिरी हुई थी। दो गार्डस की नियमित ड्यूटी थी कि वे दुकान की रखवाली के साथ-साथ आने वालों ग्राहकों को यह सूचित भी करें कि दुकान बुधवार को खुल जायेगी। अभी लाला जी का पिंडदान करने पूरा परिवार उनके अपने वतन गए हैं।
दरवाजे के ठीक उपर दीवार पर गुरूनानक देव जी की सुनहरी तस्वीर टंगी थी। पुरुषोत्तम को याद आया कि यह तस्वीर लाला जी ने ही अपने हाथों से लगाई थी और बार-बार तस्वीर लगाते हुए वे प्रकाशो यानी माँ और पुरुषोत्तम से पूछते रहे थे कि तस्वीर सीधी लगी या नहीं। यह तस्वीर तब से इस घर की हिफाज़त कर रही हैं। उसने देखा तस्वीर में से गुरूनानक देव जी मुस्कुरा रहे हैं। उन्होंने श्रद्धा से आंखें झुका दीं और मन में सोचा कि पेषावर से लौटकर वे लाला जी की एक तस्वीर बनवाएंगे और यूं ही दरवाजे पर टांगेंगे और फिर घर की चाबी को न जाने क्या सोचकर चूम लिया उन्होंने और फिर अपनी गास्केट (बनियान) की भीतर वाली जेब में हिफाजत से रख लिया। चलते हुए सबने अपने घर की देहरी को छूकर माथे से लगाया था।
पुरुषोत्तम जब मनोहर के साथ फ्लाइट में बैठे तो दुकान और कामकाज की चिंता उनके दिमाग में थी। उन्होेने अपने सिर को इस कदर झटका जैसे इस पल वे लाला जी और उनके ख्वाब के बीच किसी को न आने देना चाहते हों।
छोटी बडे उत्साह से खिडकी के बाहर झांक रही थी।
और मनोहर विंडो सीट की ओर बैठा प्लेन के टेक आॅफ का इंतजार कर रहा था।
एक नई ज़मीन, एक नया आसमान था वह
जिस दिन मनोहर ने परिवार के साथ उडान भरी उस दिन ग्यारह फरवरी थी। 11 फरवरी 2016-दिन वीरवार। वक्त था शाम के 7 बजकर 45 मिनट। वीरवार को बाज़ार बंद रहता है। यही सोचकर टिकट कटवाई गई थी। शहर सुकून से सो रहा था। पुरुषोत्तम ने इस वक्त यह सोचा कि अपने परिवार के साथ वे इस तरह कितना कम बाहर निकले हैं। सिर्फ़ दो बार एक बार गोल्डन टेंपल और दूसरी बार एक रिश्तेदार की शादी में भटिंडा तक। ज़िन्दगी ने इतना उलझा लिया कि उन्होंने परिवार के लिए कभी वक्त ही नहीं निकाला। उन्हें अचानक थोड़ा अपराधबोध हुआ। उन्होंने परिवार की तरफ देखा, सभी सफ़र को इंज्वाय कर रहे थे। पता नहीं क्यों लेकिन अचानक वे अपनी पत्नी को बोल उठे 'हमें एक बार घूमने लद्दाख भी जाना चाहिए।' सुरजीत ने देखा और मुस्करा दी। वह समझ गयी थी उनके मन को। सुरजीत ने पलकों को झुका कर जैसा आष्वस्त किया मैं जानती हूँ आपकी व्यस्तता को और मुझे कोई शिकायत नहीं। उन्होंने एक नजर मनोहर को देखा, मनोहर अभी भी खिडकी से बाहर झांक रहा था। उसकी एकाग्रता बता रही थी कि अभी पेशावर जाने के अलावा कुछ भी मनोहर के दिमाग में नहीं है। उन्हें मनोहर पर ढेर सारा प्यार आया। सुरजीत उनकी ओर ही देख रही थी। उनकी आंखें अचानक से सुरजीत की आंखों से मिली तो एक झिझक पैदा हो गई।
यह कतर एयरलाइंस की फ्लाइट थी जिसे वाया क़तर और दोहा होते हुए पेशावर जाना था। इस पूरी यात्रा में लगभग बारह घंटे लगने वाले थे। अँधेरा घिर चुका था और आसमान पर छोटे-छोटे तारों ने अपना डेरा जमा लिया था। मनोहर सोच रहा था यह सितारे जितने धरती से दूर दिखते हैं उससे कम तो यहाँ से भी नहीं। यह जो दूरी है नजदीक होते हुए भी हाथ बढ़ाकर उसे छुआ नहीं जा सकता। हवाईजहाज में बैठकर ये तारे हमारी पंहुच से उतनी ही दूर हैं। न जाने क्यों अचानक उसे लाला जी का ख्याल हो आया। वे भी तो सारी उम्र इन बेहद दूर हो चुके तारों को छू भर लेने की इच्छा मन में रखे रहे। कितना ही नजदीक क्यों न हो पेषावर हिंदुस्तान से लेकिन इन दो मुल्कों के बीच खिंची सरहद ने कितनी दूरियाँ पैदा कर दी हैं।
सुबह जब फ्लाइट एयरपोर्ट पर उतरी तब मौसम में थोडी नमी थी। सूरज निकलने को था और आसमान में लाली फैल रही थी। लैंड करने से पहले एयरहोस्टेस ने उतरने की घोषणा की। मनोहर की धडकन जैसे लगातार बढती जा रही थी। उसे लग रहा था कि जहाँ आने के लिए लाला जी ज़िंदगी भर तरसते रहे आज कुछ ही पलों में वह उस धरती पर कदम रखने जा रहा है...पेषावर की धरती, लाला जी की अपनी पहचान, उनकी गंध क्या आज भी यहाँ की फिजा़ओं में होगी। जब उसने जमीन पर पैर रखा तो चेहरे पर सूरज की हल्की तपिष मनोहर को अच्छी लगी।
आधे घंटे की सारी औपचारिकताओं के बाद मनोहर अपने बाउ जी पुरुषोत्तम, माँ सुरजीत और बहन छोटी के साथ एयरपोर्ट पर खडा था। सबके मन में अजीब-सी उहापोह मची थी...वैसा ही तो यहाँ का मौसम भी, वैसे ही चेहरे, मिलती-जुलती-सी ज़बान, पहनावा भी लगभग एक सा। फिर अलग क्या है। न बताएँ तो कभी तो कोई कह नहीं सकता कि हम उनके बीच से नहीं हैं।
पेषावर के बच्चा खान एयरपोर्ट से बाहर निकलकर वे अभी गेट पर खडे थे और सामने टैक्सियों की लम्बी कतारें थीं। उन्हें वहाँ से उस जगह जाना था जहाँ का नाम भी शायद कोई ठीक से नहीं जानता। जेद्दा गांव। पेशावर का एक गांव। पुरुषोत्तम ने पहले होटल लेकर कुछ देर आराम करने का निर्णय लिया। टैक्सी लेकर वे लोग वहाँ से निकले। टैक्सी वाले से ही होटल के बारे में जानकारी ली। एयरपोर्ट से लगभग आधे-पौने घंटे की दूरी पर होटल था। इस आधे घंटे में मनोहर टेक्सी वाले से हल्की-फुल्की जानकारी हासिल करता रहा। छोटी थोडी थक गई थी। होटल पंहुचकर सबने फ्रेश होकर नाश्ता करने का निश्चय किया। वहीं से आगे का कार्यक्रम तय किया जाना था।
एयरपोर्ट के सूनेपन से दूर यह शहर था। शहर जैसी चहल-पहल, गाडियाँ, रास्ते। टैक्सी एक होटल के दरवाजे पर जाकर खडी हुई। यह फोर स्टार होटल था। सफेद रंग की खूबसूरत बिल्डिंग। बडा-सा गेट, गेट के अंदर हरा-भरा लाॅन। होटल की लाॅबी और लाॅबी में लगे बडे-बडे सोफे। पाकिस्तान में होते हुए भी पूरा ब्रिटिश आर्किटेक्चर। खूबूसूरत और आकर्षक। छोटी तो सोफे पर पसर गई। अपना आइडेंटिटी प्रूफ ओैर वीज़ा तथा पासपोर्ट की काॅपी सबमिट करने समेत पंद्रह मिनट की औपचारिकताओं के बाद उन्हें कमरा मिल गया। बैरा आया और सारा सामान कमरे में पहुँचा दिया। फिर वहीं फ्रेश होकर व नाश्ता करके आगे जाने का कार्यक्रम बना।
तैयार होते-होते 12-12.30 बज गए। इस बीच मनोहर जाकर होटल के मालिक से जगह के बारे में मालूमात हासिल करता रहा। बहुत पूछताछ के बाद जगह का ठीक-ठीक अंदाजा लग सका। लेकिन यह लगा कि वह जगह कम से कम यहाँ से दो-ढाई घंटे की दूरी पर थी। जाना फिर लौटना और ढूँढने में भी वक्त लगेगा। इसलिए यह तय किया गया कि कल सुबह-सुबह ही वहाँ के लिए निकला जायेगा।
पुरुषोत्तम ने सोचा कि दिन भर की भागदौड में छोटी थक जाएगी और वह कोई घूमने की जगह तो है नहीं इसलिए तय यह किया गया कि सुरजीत और छोटी होटल में कमरे पर ही रुकेंगे। पुरुषोत्तम ने यह बात ज्यों ही सुरजीत के आगे रखी, सुरजीत ने सुनते ही न कर दिया, न जी। हम अकेले नहीं रहेंगे यहाँ। पराया मुल्क, पराये लोग। आपका तो सारा दिन नहीं पता कहाँ-कहाँ जाना होगा। इधर हम अकेले। नई जगह को लेकर उसके मन में एक डर था और वह भी पाकिस्तान। कितना डर बैठ गया है भीतर कि पाकिस्तान का नाम लेते ही ऐसे लगता है जैसे दुश्मन का गढ हो। पुरुषोत्तम ने सोचा, यही पेशावर, यही ज़मीन जिसके लिए लाला जी सारी उम्र तरसते रहे, कितनी अनजानी, कितनी भयावह हो गई है हमारे लिए।
अगले दिन सुबह आठ बजे के करीब टैक्सी आ गयी थी और फिर पूरा परिवार तैयार होकर अपनी मंजिल की तलाश में बढ गए थे। टैक्सी में कुल पांच लोग थे-पुरुषोत्तम, सुरजीत, मनोहर, छोटी और ड्राइवर। मनोहर ड्राइवर के साथ अगली सीट पर बैठा और बाकी तीन लोग पिछली सीट पर।
मनोहर की नजर अभी भी खिडकी के बाहर थी। वह जैसे इन सडकों, इन रास्तों से अपना कोई नाता जोडता-सा चल रहा था। जैसे उन्हें बता रहा हो कि वह लाला दौलतराम का पोता है, जैसे पूछ रहा हो कि क्या तुम जानते हो लाला दौलतराम को, क्या तुम्हें पता है उनकी पत्नी का नाम-प्रकाशो। वह अंदाजा लगाने की कोशिश करता रहा कि कैसे रहे होंगे लाला जी यहाँ, कहाँ खेलते होंगे, कैसे बडे हुए होंगे और फिर उसे लाला जी के सुनाए किस्से याद आने लगे कि कैसे वे एक बार आम के पेड पर चढ बैठे थे और बेबे के लाख बुलाने पर भी नीचे नहीं आ रहे थे तो कैसे उनके पिता जी ने आकर उन्हें पेड से उतारा था और फिर किस तरह उनकी पिटाई हुई थी, यह कि उनके बाउ जी के पास एक छडी थी जिसकी मूठ सोने की थी और जिसे वे सदा अपने साथ रखते थे, यह कि उनके बाउ जी और उनके और रिश्तेदारों की तम्बाकू की मंडियाँ थीं और वे अक्सर अपने बाउ जी और चाचा जी के साथ वहाँ चले जाया करते थे, यह कि जब उनका प्रकाशो यानी दादी से ब्याह हुआ तो उनकी उमर केवल सोलह साल थी और कैसे वे अपनी दुल्हन की डोली को जंगलों से लेकर गुजरे थे, यह कि वे बहुत डरे हुए थे, रात का तीसरा पहर था लेकिन फिर भी सीना तान कर डोली के आगे-आगे चल रहे थे, यह कि उन्हें बेखौफ आगे-आगे चलता देख उनके बाउ जी ने वह सोने की मूठ वाली छडी उन्हें पकडा दी थी, यह कि किस तरह उन्होंने पहली बार अपने हाथ से गढकर प्रकाशों के लिए छोटा-सा ताबीज बनाया था और उसे उसके हाथ पर बाँधते हुए धीरे से चूम लिया था, यह कि वे प्रकाशो को बहुत प्यार करते थे, यह कि वे उसे उतना ही प्यार करते थे जितना वे अपनी उस जमीन से करते थे जिसे एक बार देख लेने की चाह ही उन्हें जिंदा रखे हुई है।, यह कि बाउ जी की वह छडी आज भी पलंग के नीचे वाले संदूक में वैसे ही रखी होगी, जिसे फिर से छू लेने की उनकी चाह है...
मनोहर को बीच में हल्की-सी झपकी आ गई थी। जब उसकी नींद खुली तो देखा कि गाडी चैडी सडक पर दौडती चली जा रही है। सडक के दोनों ओर पठारनुमा पहाड हैं और बीच में से सडक गुजर रही है। टेक्सी का ड्राइवर यह पता चलने पर कि वे लोग हिंदुस्तान से आए है, उन्हें पेषावर का इतिहास बताता चल रहा था-' जनाब आप लोग हिंदुस्तान से आया ऐ अमको अच्छा लगा। यह मुल्क बेहद खूबसूरत ऐं। आपको बताएँ कि एक वक्त पूरा पेशावर बारह दरवाजों में कैद था। इन्हीं बारह दरवाजों से होकर पेशावर में कदम रखा जा सकता था लेकिन अंग्रेजों ने जितना नुकसान आपके मुल्क को पंहुचाया उससे ज़रा भी कम हमारे मुल्क को नहीं पंहुचाया। आज वह दरवाजे सिर्फ़ तारीख़ (इतिहास) बनकर रह गए हैं। मनोहर ने उसे ध्यान से देखा उसने लाला जी जैसा ही कुर्ता और सलवार पहन रखा था और सिर पर कुल्लेदार पगडी। वह होंठों-होंठों में ही मुस्करा दिया। वह पठान ड्राइवर उन्हें रास्ते भर जोगन शाह के ऐतिहासिक गुरुद्वारे, गुरु गोरखनाथ के मंदिर, पंच तीरथ, पुरानी मस्जिदों के किस्से सुनाता चल रहा था। थोडी दूर चलकर पूरब की ओर इशारा करके उसने बहुत पुराने लगभग खंडहर हो चुके एक मंदिर और साथ-साथ जुडी मस्जिद दिखाई-देखिए जनाब, उधर देखिए। नायाब नज़ारा है यह इस मुल्क का। साथ-साथ मंदिर और मस्जिद का खंडहर।
पेशावर के पश्चिम में बसा होती मरदान और उस होती मरदान का एक गाँव जेद्दा, जहाँ से मनोहर की जडें जुडी थीं। वह सोच रहा था कहाँ घूम रहा है वह, कहाँ चला आया है वह। आखिर क्या है उसकी पहचान, किस मुल्क, किस समाज का हिस्सा है वह और पेशावर की इस घाटी में आखिर क्या ढूँढने चला आया है वह! मनोहर की नजरें बाहर चल रहे दृश्यों पर टिकी थी। बाहर अचानक बारिश होने लगी थी। कुछ देर तो वह उन बूंदों को अजनबी की तरह अपने चेहरे पर महसूस करता रहा और फिर यह एहसास होने पर कि यह बारिष भी बिल्कुल वैसी ही है जैसी उसके अपने मुल्क में होती है उसने चेहरा अंदर कर लिया। उसने खिडकी का शीशा चढा लिया था और जैसे रूहानी दुनिया से बाहर आ गया था। उसे प्यास लग आई थी। बोतल पैक पानी की बोतल को खोला और लगभग आधी बोतल गटक गया। पानी पीकर उसने बोतल अपने बाउ जी की ओर बढ़ाई लेकिन वे सिर टिकाकर सो रहे थे। वह एक पल बाउ जी का चेहरा देखने लगा। उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई। वह सोचने लगा, " बाउजी जो सारी उमर सिर्फ़ दुकान को संभालने और काम को बढ़ाने में लगे रहे जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य रहा कि किस तरह जीवन लाल एंड संस ज्वैलर्स, पेशावर वाले का नाम बुलंदियों को छू सके, जो सिर्फ़ व्यापार की भाषा में ही बात करते और समझते रहे, कैसे आज नामालूम-सी मंजिल की खोज में निकल आए हैं। आज वह पहली बार अपने बाउ जी को इतने करीब से और इतने प्यार से देख पा रहा था। उसने महसूस किया कि बाउजी के चेहरे पर भी लाला जी की तरह उम्र के निशान दिखने लगे हैं, वे भी सोते हुए लाला जी जैसे ही मासूम और प्यारे दिख रहे हैं, वे भी अपनी पहचान को, अपनी जडों को, अपने मुल्क को, अपने शहर को शायद उतना ही प्यार कर रहे हैं जैसा लाला जी ने अपनी ज़मीन को किया था। मनोहर के मन में बाउजी के लिए श्रद्धा का भाव उमड रहा था। एक आदमी जो अपनी ज़िन्दगी से भी ज़्यादा अपने बच्चों, अपने काम-धंधे को, अपने बुजुर्गों के नाम, उनकी साख, उनकी इज्जत को प्यार करता रहा और जिसने अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में ही अपना सारा जीवन गुजार दिया, कैसे आज बेसुध-सा चलती टैक्सी में एक अनजान मुल्क, अनजान फिज़ाओं में घूम रहा है सिर्फ़ अपने पिता कि आत्मा को, उनकी मिट्टी को सही ठिकाने तक पंहुचाने के लिए।
पेेेेशावर के इन रास्तों पर घूमते हुए और मैप को गूगल पर देखते हुए उसे पता चला कि पेशावर खैबर पख़्तूंख्वा का एक हिस्सा है कि खैबर पख्तूंख्वा का सम्बन्ध खैबर दर्रे से है जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान को जोडता है, उसे पता चला कि होती मरदान पेशावर की वह जगह है जहाँ सिर्फ़ पश्तो बोली जाती है। उसे याद आया कि दादी और लाला जी अक्सर प्श्तो में बातें किया करते थे। जब घर में कोई मेहमान आ जाता और उसे बिना बताए कोई बात एक-दूसरे से कहनी होती तो वे प्श्तो में बातें करने लगते थे। उसने न जाने क्या सोचकर उस ज़मीन को हाथ जोडकर प्रणाम कर दिया। इस प्श्तो ने उसका सम्बन्ध उसके लाला जी से जोड दिया था शायद इसलिए या ... पता नहीं लेकिन उसके मन में अचानक कुछ भाव उमड आए थे। गूगल पर उसने यह भी देखा कि इस क्षेत्र में तम्बाकू और गन्ने की खेती सबसे अधिक होती है। गूगल की बात को उसने ड्राइवर से पूछकर पुष्टि की। लाला जी ने बताया था कि उनके पुरखों की पेशावर में तम्बाकू की मंडियाँ हुआ करती थीं। ऐसा लग रहा था कि वह एक इतिहास को अपनी आंखों के सामने जिंदा होते देख रहा है। उसे पता चला कि लाला जी जो सलवार कुर्ता पहनते थे वह उन पर और उस प्रदेश पर काबुल की संस्कृति के प्रभाव के कारण ही था। उसे अक्सर अपने लाला जी में बचपन में पढ़ी कहानी काबुलीवाला का चरित्र काबुलीवाला नज़र आता था। उसे इस पल लाला जी और शिद्दत से याद आने लगे।
लगभग तीन घंटे की सडक यात्रा के बाद अब वे मरदान रिंग रोड पंहुच चुके थे। होती-मरदान... यहीं कहीं इन्हीं रास्तों में और भीतर कहीं एक गाँव होगा-जेद्दा। जेद्दा गांव, लाला जी का पिंड, उनके पुरखों का घर, उनकी अपनी पहचान। यहीं बचपन बीता उनका, यहीं वे जवान हुए, यहीं उनका ब्याह हुआ और यहीं ब्याह कर आई प्रकाशो यानी दादी और फिर इसी को उन्होंने अपना सब कुछ मान लिया था, उम्र भर के लिए। यहीं सुना था उन्होेंने कि अंग्रेज हिंदुस्तान को छोडकर जा रहे हैं, यहीं उन्हें पता चला कि अब इस मुल्क पर फिरंगियों का कब्जा नहीं होगा, यहीं सुना था उन्होंने कि हिंदुस्तान दो भागों में बंट रहा है और यहीं एक दिन उन्हें पता चला था कि हिंदुस्तान दो भागों में बंट गया है...
और यहीं इसी गाँव से वे उदास होकर, डरते हुए लेकिन एक उम्मीद के साथ अपनी दुकान और घर पर ताला लगाकर निकले थे कि वे फिर लौटकर आएंगे। यह गर्दो-गुबार थम जाएगा तब सब लोग यूं ही वापस अपने घरौंदों को लौटेंगे। यह सियासी लडाई दिलों में फर्क पैदा नहीं कर सकती-यह कहकर उन्होंने प्रकाशो की आंखों से बह रहे आंसुओं को पोंछा था और उसका हाथ थामकर चल दिए थे, रात के घने अंधेरे में कुर्ते के नीचे पहनने वाली गास्केट (बनियान) में उन्होंने घर के ताले की चाबी रखी थी। यह सोचते हुए मनोहर का हाथ अपने आप जेब में रखी चाबी तक पंहुच गया। चाबी जो उसे लाला जी ने दी थी आंखें मूंदने से ठीक पहले। उसके दिल में एक आस ने आवाज दी कि वह ज़रूर लाला जी का ख्वाब पूरा कर पाएगा, वह ज़रूर उस चाबी से उस बरसों से बंद पडे दरवाजे को खोल सकेगा और पलंग के नीचे रखे संदूक को खोलकर लाला जी के बचपन को फिर से आजाद कर देगा...
टैक्सी ड्राइवर ने गाडी रोककर राहगीरों से उस गाँव का ठीक-ठीक पता पूछा। गाडी अब मरदान शहर पंहुच चुकी थी। जेद्दा गाँव का ठीक-ठीक पता पूछकर गाडी सडक पर चल पडी थी। लगभग दस किलोमीटर चलकर ड्राइवर ने गाडी कच्चे रास्ते से हिचकोले खाते हुए पक्की सडक पर उतार दी थी। अब वे जेद्दा के बिल्कुल करीब थे। पुरुषोत्तम, सुरजीत और छोटी भी नींद से जग चुके थे और बडी बेताबी से खिडकी के बाहर ताक रहे थे।
जेद्दा अब गाँव नहीं रह गया था
जेद्दा गाँव के मुहाने पर ही एक बोर्ड लगा था जिस पर पश्तो में कुछ लिखा था। ड्राइवर से पूछने पर पता चला कि लिखा हेै जेद्दा गाँव आपका एहतेराम करता है। बोर्ड पर लिखा था गाँव लेकिन मनोहर ने देखा वहाँ गाँव जैसा कुछ नहीं था। आसमान में तारों के जाल फैले थे जिसमें रंग-बिरंगी पतंगें उलझी थीं। मोबाइल के टावर दिख रहे थे, लोग मोबाइल पर बातें कर रहे थे, दुकानों पर मोबाइल के रीचार्ज कूपन बिक रहे थे, दीवारों पर विज्ञापनों की होड थी, हिंदुस्तान के गांवों-सा ही यह गाँव भी अब शहरीकरण की चपेट में था। गाँव और शहर के बीच फंसा जेद्दा हलका़न हुआ जा रहा है। कंकरीट की सडकें थीं और सडकों के दोनों ओर नालियाँ थीं। घरों की बुनावट पुरानी थी लेकिन रहने वाले लोग नए थे। पुरुषोत्तम ने सोचा क्या यही है लाला जी का जेद्दा। कितना बदल गया है न यह। कितना अलग है यह लाला जी के सुनाए किस्सों से! जिस जेद्दा को मन में संजोए वे इतनी दूर से चले आए थे वह अपनी तस्वीर से बिल्कुल नहीं मेल खाता।
वहाँ अब स्कूल, काॅलेज, अस्पताल, रेस्तरां, बाज़ार आदि खुल चुके थे। लगभग एक बज चुके थे। मौसम में फरवरी की ठंड बाकी थी। सूरज आसमान में चमकता अच्छा लग रहा था और उनके अपने शहर की तरह अपनी गर्मी से उन्हें राहत पंहुचा रहा था। लोगों का आना-जाना बदस्तूर चालू था। पुरुषोत्तम ने गाडी एक किनारे रोकने का इषारा किया। पिछले कई घंटों से बैठे वे थक गए थे और बाहर निकलकर कमर सीधी कर लेना चाहते थे। सब गाडी से बाहर निकले और पल भर सुस्ता लिए। मनोहर के दिमाग में इस पल भी अपना लक्ष्य ही था। उसने ड्राइवर से चाय का ठिकाना पूछा। पैदल-पैदल वे चाय की दुकान तक पंहुचे, चार कप चाय आॅर्डर करते हुए मनोहर ने चायवाले से लाला जी के घर का ठिकाना पूछना चाहा। छोटी चाय नहीं पीती इसलिए उसने जूस का एक पैकेट लिया। पश्तो भाषा के साथ वहाँ के लोग शायद पंजाबी ही समझते होंगे। हालांकि बाॅलीवुड की फ़िल्मों का असर यहाँ भी दिख रहा था और कहीं-कहीं दीवारों पर स्थानीय फ़िल्मों के पोस्टर के साथ-साथ सलमान खान की फ़िल्मों के पोस्टर भी दिख रहे थे। सलमान खान को यहाँ भी देखकर मनोहर के चेहरे पर मुस्कान आ गई। आखिर इतने अनजान देस में पहली बार कोई पहचाना चेहरा दिखाई दिया था। सलमान खान से यह उसका नया रिश्ता था।
मनोहर ने चाय वाले से क़रीम मोहल्ला, पीर चैक के बारे में पूछा। यह पूछने पर कि उन्हें किनके यहाँ जाना है, दोनों बाप-बेटा एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। दो पल चुप रहने के बाद आगे बढकर पुरुषोत्तम ने जवाब दिया, किसी दे घर नहीं जाणा। असी हिंदुस्तान तो आए हाँ...साड्डे पुरखे रहंदे-सी ओदर...
इसके बाद पुरुषोत्तम को ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पडी। जैसे वह चाय वाला सब कुछ समझ गया। यूं भी उसकी दुकान पर तीन-चार ग्राहक खडे थे जो मोबाइल का रीचार्ज करवाने आए थे। उसने ड्राइवर को रास्ता समझाया और अगले पंद्रह मिनट बाद वे पीर चैक पर खडे थे।
पख़्तून पिज्ज़ा: द यम्मी पिज्ज़ा
बडी रौनक थी पीर चैक पर। रिक्षे, आॅटो, साइकिलें, स्कूटर ...खूब भीड-भाड़। यह पीर चैक था। यहीं से उन लोगों को लाला जी का पुराना घर खोजना था। अजीब पेशोपेश में थे दोनों। किस से पूछें, किससे कहें, क्या कहें कि घर का पता लग जाए। क़रीम मोहल्ला पीर चैक पर ही था। उन्होने टेक्सी वाले को रुकने का इशारा किया और नीचे उतर आए। मौसम खुशनुमा था, लेकिन इतने सारे अनजाने लोगों के बीच उन्हें अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। पूरा मोहल्ला जैसे इलायची की खुशबू से महक रहा था। मनोहर ने आगे बढकर पहचान के सूत्र खोजने की कोशिश की। भाषा भी बडी समस्या थी। उन्हें पष्तो आती नहीं थीं। मनोहर को लगा काष लाला जी साथ होते। कितना आसान हो जाता उन सबके लिए। लाला जी तो देखते ही अपना घर पहचान लेते। पर अगले ही पल उसे लगा कि नहीं, लाला जी होते तो भी अपना घर नहीं पहचान पाते। मोहल्ले में कोई भी घर पैंतीस-चालीस बरस से ज़्यादा पुराना नहीं लग रहा था।
मनोहर को उलझा हुआ देखकर पुरुषोत्तम ने हिम्मत की और आगे बढकर एक बूढी औरत से बात करने की कोशिश की। शुक्र है लोग पंजाबी समझते थे। पुरुषोत्तम ने आगे बढकर दुआ-सलाम किया और उस औरत से पूछने की कोशिश की। औरत की उम्र लगभग सत्तर बरस रही होगी और वह दरवाजे पर मंजा (खाट) डाले बैठी थी
माता जी असी हिंदुस्तान तो आए हाँ।
वह औरत थोडा उंचा सुनती थी। शायद भाषा कि भी समस्या रही होगी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। केवल चेहरा देखती रही। लेकिन यह बताने पर कि हम हिंदुस्तान से आए हैं एक जवान लडका सामने आ गया। शायद उस बूढी औरत का पोता होगा वह। वह पंजाबी भी समझता था और उसके कान भी ठीक थे। अब मनोहर ने शुरुआत की-असी हिंदुस्तान तो आए हाँ। साडे लाला जी ऐदर ही रहंदे सी। 1947 तो पहलां।
लडके ने दादी को बात समझाई तो उनकी आंखों में चमक आ गई। उन्होंने नाम पूछा,
लाला दौलतराम पिता लाला जीवनलाल
बूढी औरत नाम तो नहीं जानती थी लेकिन उनकी आंखों में एक अपनेपन की चमक दिखाई दी जो इस अनजान मुल्क में देखने के लिए वे लोग तरस गए थे। उसने अपने पोते को इषारा किया और दो मिनट बाद उनके लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ हाजिर थीं।
अब वह बूढी औरत कई सवाल पूछने लगी जो उसके पोते के माध्यम से पुरुषोत्तम और मनोहर तक पंहुचने लगे। बहुत देर की बातों के बाद भी जब कोई हल नहीं निकला और वे दोनों निराष होकर उठने लगे तो उस बूढी औरत ने अपने पोते को उनके साथ कर दिया। अब वह लडका जिसका नाम अक़रम था, उनके साथ-साथ चलने लगा।
न तो पुरुषोत्तम को और न ही मनोहर को लाला जी के घर का ठीक-ठीक पता था। मनोहर लाला जी के मुंह से सुनी बातों से पता खोजता रहा और उस लडके को बताता रहा लेकिन कुछ पता न चला।
सुल्तान मियाँ की मुरब्बे की दुकान, प्रीतम का ट्यूबवेल, करीम मियाँ की आटे की चक्की...सब का नाम लिया मनोहर ने लेकिन वहाँ ऐसा अब कुछ भी नहीं था।
अचानक पुरुषोत्तम को याद आया लाला जी अक्सर गुरुद्वारे का जिक्र करते थे। गुरुद्वारे का नाम लेते ही अकरम के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वह उन्हें गुरुद्वारे तक ले गया। यह गुरुद्वारा बंटवारे से पहले का था। शायद यहीं बाउ जी और माता जी आते होंगे। पुरुषोत्तम ने सोचा। गुरुद्वारे के बाहर हैंडपंप लगा था। पूछने पर पता चला कि पहले यहाँ एक कुंआ हुआ करता था जिस पर गाँव के हिंदू लोग पानी भरने आया करते थे। इसी कुंए पर माँ पानी भरने आती थी, जैसे कुछ गुदगुदा-सा गया पुरुषोत्तम को। अब लग रहा था जैसे वे मंजिल के बेहद करीब हैं लेकिन बेचैनी बढती जा रही थी। पास तक पंहुचकर भी ठिकाने तक नहीं पंहुच पा रहे थे वे लोग।
अब मनोहर से ज़्यादा यह बेचैनी पुरुषोत्तम के चेहरे पर दिख रही थी। उसे लग रहा था कि जैसे कुछ छूट रहा है हाथ से, जैसे कुछ अधूरा छूट रहा है। उनकी बेचैनी बढ रही थी। एक-एक कर उन्होंने कई निषानियाँ गिनवाईं लेकिन कोई भी किसी अंत तक नहीं पंहुचा पा रही थी। उन्हें लाला जी की याद बेहद सताने लगी। बचपन में उनकी की बातें, उनके सुनाए किस्से उनकी आंखों के आगे से गुज़र रहे थे। माँ का उन्हें पुकारना, काके ओ काके। पुरुषोत्तम को माँ काके कहकर पुकारती थी। माँ से रूठना, लाला जी की आवाज़, उनका डांटना, माँ का मनाना, लाड़ करना, लाला जी की बातें, उनके खेल खेलते हुए जानवरों की नकल के दृष्य पुरुषोत्तम की आंखों के आगे छा रहे थे, लाला जी की आवाज़ पुरुषोत्तम के कानों में गूंज रही थी। अचानक उन्हें याद आया लाला जी खेल-खेल में शेर बनकर उन्हें डराते थे, उनकी कोई चीज़, कोई खिलौना चुरा लेते और पुरुषोत्तम के पूछने पर या रोने पर बताते, वह तो मैंने घर की मुंडेर पर बने शेर के मुंह में रख दिया और पुरुषोत्तम जब बाहर आकर घर की मुंडेर पर देखता तो पता चलता कि वहाँ तो शेर हैं ही नहीं।
पुरुषोत्तम की आंखों में एकदम चमक आ गई। मनोहर और अकरम की बात को एकदम काटते हुए वे बीच में बोले, यहाँ कोई ऐसा घर है जिसकी मुंडेर पर दो शेर बने हैं?
सवाल सुनते ही वही चमक जो कुछ पल पहले पुरुषोत्तम की आंखों में थी, कूद कर अकरम की आंखों में आ बैठी और उसने जवाब दिया
ऐस तरह कहो ना कि शेरां वाला घर और तेजी से आगे बढ गया। अब पुरुषोत्तम, मनोहर, सुरजीत और छोटी अकरम के पीछे-पीछे थे और कुछ ही देर बाद वे शेरों वाले घर के सामने खडे थे। उन्होंने सिर उठाकर देखा तो घर की मुंडेर पर दोनों ओर दो शेर दिखे। बडे-बडे आकार के दो भूरे शेर। दोनों के बडे-बडे जबडे खुले हुए थे और उनमें काफी जगह थी। पुरुषोत्तम के मन में एक पल के लिए आया, अच्छा तो लाला जी यहीं मेरे खिलौने छिपाकर रखते थे। आंखों में आंसुओं के साथ मुस्कान थी।
पुरुषोत्तम ने शेरों से नज़र हटाकर ज्यों ही चारों ओर देखा, उन्हें मानो एक झटका-सा लगा। सडक पर भीड-भाड थी, गाडियों का शोर था। लाला जी के घर वाला वह रास्ता अब बाज़ार में बदल गया था और शेरों वाले घर के बाहर एक लाल रंग का बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था पख़्तून पिज्जा़: द यम्मी पिज्ज़ा। नाम अंग्रेज़ी में भी लिखा था इसलिए मनोहर पढ पाया। अक़रम ने बताया, यहाँ के पिज्जा तो पूरे जेद्दे में मषहूर हैं। आपने बताया होता कि पख्तून पिज्जा जाना है तो हम कब के पंहुच गए होते।
जब लाला जी अपने मुल्क, अपने गाँव को याद करते थे तब पुरुषोत्तम को यह तो मालूम था कि लाला जी जैसा सोच रहे हैं वैसा तो अब वह नहीं होगा लेकिन वह इतना बदल जायेगा उन्होंने ऐसा भी नहीं सोचा था। लाला जी जिस गाँव की बात करते थे न चाहते हुए भी पूरे परिवार के दिमाग में वह उसी तरह समाया हुआ था। एक प्यारा-सा गाँव और प्यारे से गाँव में खेलते-कूदते बच्चे। पुरुषोत्तम को यह दुख तो था कि आज जब वह यहाँ है तब उनके साथ लाला जी नहीं हैं जो ताउम्र इस ख्वाब को पालते रहे कि एक बार वह अपनी मिट्टी को छू भर लें। लेकिन आज पुरुषोत्तम को ऐसा लगा कि अच्छा है कि अभी लाला जी नहीं हैं नहीं तो उनके मन में ज़रूर कुछ झन्न से टूट जाता। उन्होंने धीरे से फुसफसाया, सचमुच सब हलकान हुआ जा रहा है।
पख्तून पिज्जा... लाला जी के घर की जगह पख्तून पिज्जा कि शानदार दुकान थी। दरवाजे पर स्कूटर खडे थे जिनके पीछे लाल रंग के डिब्बे बंधे थे जिन पर भी दुकान का नाम लिखा था-पख्तून पिज्ज़ा: द यम्मी पिज्ज़ा और दुकान में अच्छी खासी चहल-पहल थी। पिज्जा कि उस दुकान की कोई दीवार खाली नहीं थी। उन दीवारों पर विज्ञापन इस कदर चिपके हुए थे जैसे दीवार पर विज्ञापन नहीं थे बल्कि वह विज्ञापनों की दीवार थी। अगर उस मकान के उपर वे दो शेर न हाते तो कोई इंसान चाह कर भी उस घर से अपने आप को जोड़ नहीं पाता। वहाँ की दीवारों पर पिज्जा के चीज का आकर्षण था। पुरुषोत्त्म ने एक बार फिर सिर उठाकर शेरों की ओर देखा। इस बार वे उन शेरों को और ज़्यादा ध्यान से देख पाए थे। घर की छत पर दो शेर बैठे थे, बेहद उदास, ऐसे जैसे उन्हें बरसों पहले यहाँ बैठाकर भुला दिया गया हो। ऐसे जैसे वे अपने आस-पास हुए सारे बदलाव के गवाह हों, ऐसे जैसे इस बदलाव से वे भी दुखी हों। उन्हें एक पल के लिए लगा जैसे वे दो शेर अभी उनके मन में चल रही बातों को सुन पा रहे हैं और एक पल के लिए उन शेरों के उदास चेहरे पर मुस्कान आ गई है।
आसपास का सारा माहौल बदल चुका था। लाला जी के किस्सों में सुना जेद्दा बिल्कुल अलग रूप में उनके सामने था। जिस घर की याद उन्हें यहाँ खींच लाई थी वैसा अब कुछ भी नहीं था वहाँ। वह खिडकी जिससे आने वाली ठंडी हवा के झोंके बरसों तक लाला जी का पीछा नहीं छोड पाए थे, वह घंटी जिसकी रुनझुन अंतिम समय तक उनके कानों में बजती रही थी... अब नहीं थे वहाँ।
मनोहर और पुरुषोत्तम दोनों ही इस समय अजीब-सी कशमकश में फंसे थे। आखिर हिम्मत करके दोनों ने दुकान में दाखिल होने का फैसला किया। दरवाजे को धकियाकर जब वे अंदर घुसे तो दरवाजे पर एसी से आने वाले तेज हवा के झोंके ने उनका स्वागत किया। पुरुषोत्तम को न जाने क्यों एकबारगी उसी खिडकी की याद हो आई। उन्हें अचानक लगा जैसे अमरूद पर बैठे पक्षी अभी भी इंतजार कर रहे होंगे।
अपनी यादों और कल्पनाओं को पीछे धकेलते हुए उन्होंने दुकान के मालिक से बात की शुरुआत की, असी हिंदुस्तान तो आए हाँ। मनोहर ने कहा क्योंकि दुकान में बैठा लडका जो शायद मालिक ही था, उसी की उम्र का था। लडके की भवें तन गईं। उसकी दुकान पूरे जेद्दे और आसपास बहुत जानी जाती है, यह तो उसे मालूम था लेकिन कोई हिंदुस्तान से उसके पिज्ज़ा खाने आएगा, ऐसा उसने कभी सोचा नहीं था।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मनोहर ने कहा, साडे लाला जी ऐदर ही रहंदे सी... वह थोडा ठहरा...इसी मकान विच...लडका जो अभी तक यह समझ रहा था कि हिंदुस्तान से ये लोग उसकी दुकान के पिज्ज़ा खाने आए हैं, थोडा ठिठका और कहा ऐ ते साड्डा घर है। ओय यह तो हमारे अब्बा कि दुकान है।
पुरुषोत्तम ने बात को संभालते हुए कहा, हाँ जी ऐ तवाड्डी ही दुकान है। रब करे तुसी बहुत तरक्की करो।लेकिन साडडे कहण दा मतलब ऐ-सी कि साड्डे बुजुर्ग इसी पिंड (गांव) तों सी। जेद्दा, होती मरदान, पेशावर, पाकिस्तान। असी ओना दे फुल्ल (अस्थियां) लैके आए हाँ।
मामला टेढा जानकर लडके ने एक नौकर को दुकान के पीछे, जहाँ उनका घर था, वहाँ भेजा। उसके वालिद अभी जिंदा थे जिन्हेे उसने बुलावा भेजा था। थोडी देर में उसके वालिद पुरुषोत्तम के सामने खडे थे। उन्होंने पूरी कहानी जानकर पुरुषोत्तम और मनोहर को बैठाया, उनके लिए चाय मंगवाई और बडे तहज़ीब से बात करने लगे। छोटी अपनी माँ के साथ अचरज भरी हालत में थी।
हुज़ूर, उस दौर ने कितने आशियानों को उजाडा, इसकी खबर सिर्फ़ अल्लाह मियंा के पास है। कितने घर आंखों के सामने तबाह हो गए। मेरे वालिद अक्सर बताया करते थे। कितने लोग उजड कर हिंदुस्तान चले गए। कितनों को पाकिस्तान आना पडा... वह तो अजीब पागलपन और दहशतगर्दी का दौर रहा होगा...आपके वालिद साहब ताउम्र जिस मिट्टी को तरसते रहे वह उन्हें आखिरी वक्त तक नसीब न हो सकी। सरहदों को तकसीम करने वाले दिलों को, रूहों को तक़सीम न कर पाए। सियासतों का दिलों से क्या वास्ता! और फिर थोडा रुककर बोले, अल्लाह करे आप उनकी आखिरी मुराद पूरी कर पाएँ...आमीन। कहकर उन्होने दोनों हाथ उस परवरदीगार के सजदे में उपर उठाए और फिर आंखों से लगाकर उन्हें चूम लिया। ऐसा कहकर एक तरह से उन्होंने अपनी तरफ से बात खत्म कर देनी चाही।
वे साहब बेहद सुलझे हुए इंसान थे। उन्होंने उन लोगों के आने का मक़सद तो समझा और उसका सम्मान भी किया लेकिन उन लोगों की इच्छा पूरी करने में उनकी कोई रुचि नहीं थी। या फिर शायद मनोहर और पुरुषोत्तम अपनी बात ठीक से कह भी नहीं पाए। शायद उन्होंने कहना भी नहीं चाहा। उन्होंने देखा था कि एक परिवार वहाँ बरसों से रह रहा है। उसके जज़्बात आज उस ज़मीन से ठीक वैसे ही जुड गए है जैसे कभी उनके लाला जी के जुडे होंगे। कैसे वे उनसे यह कहें कि वे अपने लाला जी की अस्थियाँ इसी घर के आंगन में दफनाने आए हैं, कैसे कहें कि आप हमे इजाज़त दें कि हम उनकी रूह को यहाँ सुलाकर चले जाएँ।
मनोहर ने महसूस किया कि जिस चाबी को लाला जी बरसों से अपने सीने से लगाए जीते रहे कि एक दिन खुद वहाँ जाकर वे उस ताले को खोलेंगे दरअसल उस चाबी के पीछे आज कोई ताला है ही नहीं। दरअसल पिछले एक लम्बे अरसे से वहाँ कोई ताला था ही नहीं। वहाँ तो एक हंसता-खेलता परिवार है, कुछ बच्चे हैं जिनका बचपन उसी आंगन में बीता है, एक जवान होती पीढी है जिसके अरमानों से वह घर जुडा है, वहाँ कोई ऐसा कमरा नहीं जहाँ के पलंग के नीचे लाला जी की माँ का संदूक रखा हो और उस संदूक में उनके बाउ जी की सोने की मूठ वाली छडी हो, जिसमें उनके बचपन की यादें छिपी हों, कोई ऐसा कमरा नहीं जहाँ से उनके कभी वहाँ होने की खुशबू आती हो। वहाँ आज एक पिज्ज़ा कि दुकान है जो अपनी तेज गंध से उस गुज़र चुके अतीत को मिटाती चली जा रही है, वहाँ अब लाला जी की यादों की खुशबू नहीं, प्रकाशो की कढाई में बनने वाले हल्वे की सौंधी महक नहीं बल्कि पिज्ज़ा कि सुगंध फैली है जो दूर-दूर से खाने के शौकीनों को अपनी ओर खींचती है...बस छत की मुंडेर पर दो शेर बैठे हैं बरसों से यूं ही उदास किसी परिचित के इंतज़ार में...ऐसे जैसे किसी अपने के स्पर्श करते ही वे जी उठेंगे। जिनके होंठों पर थोडी देर पहले पुरुषोत्तम ने एक मुस्कान देखी थी, इस समय वे शेर फिर उदास दिख रहे हैं... उनके जाने से...आकर फिर चले जाने से जैसे उनकी बची खुची उम्मीद भी खत्म हो गई हो...कि अब कोई नहीं आएगा, कभी नहीं आएगा...कोई उन जर्जर हो चुके शेरों के जबडों में नन्हें खिलौने नहीं छिपाएगा...अब वे शेर सिर्फ़ अपने जर्जर होकर गिर जाने का इंतजा़र करेंगे।
लाला जी के फूलों का अब और क्या ठिकाना होगा
पुरुषोत्तम और मनोहर वापस आकर अपनी टेक्सी में बैठ गए। छोटी को लेकर सुरजीत थोडी देर पहले ही आकर टेक्सी में बैठ चुकी थी। दिन चढ आया था। पूरा परिवार टैक्सी में बैठे और चुप थे। पुरुषोत्त्म ने इषारे से पानी की बोतल मांगी। टेक्सी वाले ने पूछा कि हुज़ूर अब कहाँ जाएंगे, मनोहर ने इस सन्नाटे को तोडा और कहा, होटल ले चलिए। कुछ दिन ठहरेंगे और भूख भी लग आई है।
रास्ते में टेक्सी वाले ने बात करने की कोषिष की लेकिन किसी की बात करने की कोई इच्छा नहीं थी। बहुत देर बाद मनोहर बोला, जैसा सोच कर आए थे वैसा कुछ नहीं हुआ।
ड्राइवर के और पूछने पर मनोहर ने जवाब दिया था, हमारे लाला जी की आखिरी ख्वाहिश हम पूरी न कर सके। अफसोस है कि इतनी दूर आकर, उनकी अपनी ज़मीन तक पंहुचकर भी हम उनका अरमान पूरा न कर सके... ठीक ही हुआ कि लाला जी आज नहीं हैं। नहीं तो उनके मन में बसा उनके घर का ख्वाब आज चूर-चूर हो जाता। अच्छा हुआ कि वे अपनी हसरत के साथ ही इस दुनिया से विदा हो गए नहीं तो न जाने क्या देखने को मिलता हमें। मनोहर लगातार बोल रहा था लेकिन पुरुषोत्तम उतने ही खामोश, उतने ही चुप। जैसे कुछ चल रहा हो उनके भीतर, जैसे किसी सोच में डूब-उतरा रहे हों वे। वे चुप थे, बिल्कुल चुप।
ड्राइवर उनकी मनःस्थिति समझ रहा था। वह जानता था उन पर क्या बीत रही हैं। फिर भी वह धीरे से बोला, हुज़ूर यह तो होना ही था। गया वक्त कहीं ठहरता है। यह तो दरिया का पानी है। रवानगी ही इसकी हक़ीक़त है। आपके लाला जी ने मन में जो तस्वीर बनाई थी, वह तो सिर्फ़ ख्वाब ही हो सकता है। बंटवारे के उस पागलपन ने कितने घर उजाडे, कितनों को बेघर किया, इसका कोई हिसाब किसी बहीखाते में दर्ज नहीं हो सकता। आपके लाला जी जैसे न जाने कितने ऐसे लोग सरहद के इस पार या उस पार होंगे जो ऐेसे ही किसी हसीन ख्वाब के साथ यह दुनिया छोड गए होंगे। सियासतें सिर्फ़ फैसले करती है, ं अंजाम तो हम जैसे आम लोगों को ही भुगतना पडता है...अल्लाहमियाँ उनकी रूह को सुकून बख्शे। कहकर उसने एक बार आसमान की ओर देखा और आंखें पल भर के लिए मींच लीं।
दो घंटे की लम्बी यात्रा के बाद वे एक बार फिर होटल के सामने खडे थे जो खास पेशावर में था जहाँ से एयरपोर्ट की दूरी लगभग आधे घंटे की होगी। ड्राइवर को विदा करके वे होटल के अपने कमरे में आए और आराम करने लगे। सब लोग बेहद थक चुके थे, शारीरिक और मानसिक रूप से भी। खाना भी कमरे में ही आॅर्डर किया।
अगली शाम को जब मनोहर और पुरुषोत्तम बाल्कनी में खडे थे जब पुरुषोत्तम ने कहा, लाला जी नू असी वापस लैके नहीं जावांगे। पिछले दिन के बाद आज उन्होंने चुप्पी तोडी थी।
मनोहर अपने बाउ जी की बात सुनकर सन्न रह गया, आखिर रास्ता भी क्या है हमारे पास
लाला जी दी अंतिम इच्छा ज़रूर पूरी होएगी। ओ पेशावर आणा चाहंदे-सी ना। सारी उमर ऐ ज़मीन रूह बणकर ओना दा पीछा करदी रही... और अज जद असी ओना दी रूह लैकर ऐदर आए हाँ, ऐ जमीन कह रही है ओना दे लई ऐदर कोई जगह नहीं। लाला जी यहीं रहेेंगे...यहीं उनकी रूह को शांति मिलेगी।
मनोहर भी अब तक परेशान था और सोच नहीं पा रहा था कि अब क्या होगा। वापस जाने में उन्हें अभी तीन दिन बाकी हैं। आखिर क्या करेंगे इन तीन दिनों में वे और लाला जी की अस्थियों का अब क्या होगा। बाउ जी के निर्णय ने उसे कुछ सुकून पंहुचाया। आखिर लाला जी के साथ न्याय हो सकेगा। एक आदमी जो एक बार अपनी जडों से विस्थापित हुआ, सारी ज़िन्दगी विस्थापित ही रह गया क्या उसका अंत भी उतना ही दर्दनाक होगा। क्या वे हमेशा विस्थापित ही रह जाएंगे। यह सवाल मनोहर को परेशान किए हुए था।
हम कल सुबह निकलेंगे और लाला जी को पेशावर की इसी ज़मीन के सुपुर्द कर देंगे। यहाँ के खेतों में, यहाँ की हवाओं में, यहाँ के पहाडों पर, यहीं बस यहीं...
यह कहकर पुरुषोत्तम की आंखों में सुकून दिखाई दिया। मनोहर ने देखा कि जिस बेटे से लाला जी को सारी उम्र शिकायत रही वही बेटा आज अपना बेटा होने का हक अदा कर रहा है। शायद इसी में उनका प्रायश्चित छिपा हो।
हर रूह का कोई तो ठिकाना होता है
जैसे ही पुरुषोत्तम ने यह फैसला लिया कि लाला जी की अस्थियों को यहीं सुपुर्द-ए-खाक़ करके जाना है उनके चेहरे पर एक संतुष्टि आ गई। ऐसे जैसे लाला जी के प्रति उन्होंने एक फर्ज़ अदा किया हो, ऐसे जैसे किसी विस्थापित को उसकी ज़मीन से मिलवा दिया हो, ऐसे जैसे दुनिया भर में झेली जा रही विस्थापन की पीडा को उन्होंने अपनेपन का एक स्पर्श दे दिया हो।
अगली सुबह उन्होंने टेक्सी बुक की और टेक्सी वाले से पेशावर घुमाने के लिए कहा। दिनभर वे पेशावर के छोटे-छोटे कस्बों, गलियो, ऐतिहासिक स्थलों में घूमते रहे और शाम होते-होते पुरुषोत्तम ने टेक्सी एक चैडे मैदान के पास रुकवाई। जहाँ चारों ओर खेत थे, पास से काबुल नदी बहती थी जो न जाने कहां-कहाँ खुद को छोडती, खुद से जोडती पेशावर से होकर गुजरती थी, दूर से कहीं प्श्तो में गाए जाने वाले गीतों की मद्धिम आवाज़ आ रही थी। आसमान का रंग गुलाबी हो चला था, ठंडी गुलाबी हवा फरवरी के इस मौसम को और खूबसूरत बना रही थी और ये सारे दृश्य, ये सारे एहसास आज के दिन को मनोहर और पुरुषोत्तम की ज़िंदगी में यादगार दिन बनाते जा रहे थे। गाडी से उतरकर दोनों मैदान में दूर तक निकल आए। पुरुषोत्तम के हाथ में लाला जी की अस्थियों का कलश था। उनका चेहरा एकदम शांत पड चुका था, ऐसे जैसे वे इस धरती से तादात्म्य स्थापित करते जा रहे हों, ऐसे जैसे लाला जी को वे अपने भीतर, बहुत भीतर महसूस कर रहे हों। अब उन दोनों के चारों ओर कोई नहीं था। दूर से गुज़रती एक सडक थी जिससे गुज़रकर लोग वापस अपने आशियानों को जा रहे थे।
पुरुषोत्तम ने अस्थिकलश धीरे से मनोहर की ओर बढ़ा दिया। उनकी आंखें थिर थीं और हाथ हल्के-हल्के कांप रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे लाला जी के कंधे कांपते थे और प्रकाशो उन्हें अपने हाथों के स्पर्श से स्थिर करती थीं। मनोहर ने हाथ बढ़ाकर पुरुषोत्तम के कांपते हाथों को थाम लिया। पुरुषोत्तम ने कलश मनोहर की ओर बढ़ाया कि वह लाला जी की अस्थियों का अंतिम संस्कार करे लेकिन मनोहर ने पिता के कांपते हाथों को थामा ज़रूर था पर उनसे कलश लेने के लिए नहीं, बल्कि उनके कांपते हाथों को ताकत देने के लिए।
लाला जी ने ऐ अधिकार तैनू दित्ता है मनोहर पुत्तर।
मैं चाह के वी ऐ अधिकार नहीं लै सकदा बाउ जी
मनोहर ने साफ मना कर दिया। लाला जी ने भावात्मक होकर जो फैसला लिया था वह उनके अनुसार हो सकता है कि ठीक हो, लेकिन बाउ जी अपने पिता का मान नहीं करते थे या उनके प्रति उदासीन थे ऐसा अब वह नहीं मानता था। गृहस्थी और कामकाज की जिम्मेदारियों ने और काम के प्रति उनकी लगन और ईमानदारी ने हो सकता है कि कुछ समय के लिए उन्हें पिता से दूर कर दिया हो लेकिन उनके दिल में लाला जी के प्रति क्या भाव हैं, वे अब मनोहर से छिपे हुए नहीं हैं। उसने इस पूरी यात्रा में अपने बाउ जी को तिल-तिल घुलते देखा है। अपने लाला जी की अंतिम मुराद को पूरा करने की उनकी ज़िद देखी है मनोहर ने। आज लाला जी होते तो अपने बेटे से उनकी सारी शिकायतें धुल चुकी होतीं।
यह हक़, यह फर्ज़ आपका था, आपका हैं और आपका ही रहेगा। आप सारी उम्र अपनी जिम्मेदारियों में खोए रहे। आपने भी अपनी पहचान, अपने रोज़गार, अपनी ज़मीन को उतना ही प्यार किया है बाउ जी, जितना कि लाला जी करते रहे ताउम्र। फर्क सिर्फ़ इतना है कि उनसे उनकी वह पहचान बहुत पीछे छूट गई जिसे वापस पाने, वापस जी लेने के लिए वे ज़िंदगी भर तडपते रहे और आप... आप अपनी उसी पहचान को, उसी ज़मीन को बचाए रखने में लगे रहे। तुसी ग़लत नहीं हो सकदे बाउ जी। तुसी ग़लत नहीं हो सकदे। कहकर उसने बाउ जी के पैर छू लिए।
पुरुषोत्तम ने भीगी आंखों से लाला जी को विदा किया। उनकी राख को पेशावर के खेतों, मैदानों में फैलाते उनकी आंखों से आंसू बहते रहे। काबुल नदी में कलश को बहाकर उन्होंने उसके एहसास को अपने भीतर उतार लिया और अंत में उस सरज़मीन की माटी को उठा माथे से लगा लिया।
आज पुरुषोत्तम और मनोहर बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। लाला जी के जाने के बाद ही सही, अधूरा ही सही, उन्होंने आज उनकी आखिरी तमन्ना को पूरा कर दिया।
अगले दिन उन्हें ननकाणा साहेब की यात्रा पर निकलना था।
सोते हुए से शहर ने शायद अंगड़ाई ली थी
अब कहानी वापस हिंदुस्तान लौटती है जिसके किसी शहर, किसी कस्बे या किसी गाँव में आए दिन कोई न कोई कहानी घटती ही रहती है। इस कहानी का शहर भी हिंदुस्तान का ही एक मामूली-सा शहर है जो किसी दिन अखबार की सुर्खियों में आकर खास हो जाता है। यह वही शहर है जहाँ का है यह परिवार जो अभी पेशावर की सर ज़मीन में घूम रहा था।
जब पुरुषोत्तम परिवार सहित हिंदुस्तान के अपने शहर से चले थे तब उनका शहर सुकून की नींद सोया हुआ था। ऐसा उन्हें लगता रहा था लेकिन शायद उस सुकून की नींद की तलहट में कुछ पक रहा था, कुछ उबल रहा था जिसे फूटना था। जब-तब यहाँ एक खास मांग को लेकर कुछ खुसुर-फुसुर चलती रही थी। कार्यक्रम तय था। जब चलने को हुआ तो इस खास मांग को लेकर कुछ गतिविधियाँ तेज हुई थीं। लेकिन यह शहर सोये से एक दिन अचानक इस कदर उठ खड़ा होगा और अखबारों की फ्रंटलाइन बन जायेगा किसी ने सोचा नहीं था।
हमारी मांगें पूरी करो, पूरी करो। आरक्षण, आरक्षण, आरक्षण।
हमंे हमारा हक चाहिए नहीं तो हम छीन लेंगे अपना हक।
इस तरह के नारे बहुत आम हो गए थे इन दिनों।
हमारा भविष्य हमारे हाथ में है साथियों। आज चुप रह गए तो ज़िन्दगी भर आखिरी पंक्ति में खडे मिलेंगे। हमारे ही पुरखों ने इस देष को आजादी दिलाई है और आज जब हमारे अधिकारों की बारी आई तो वे कहते हैं आरक्षण क्या करना है। हम अपना हक लेकर रहेंगे।
लेकर रहेंगे, लेकर रहेंगे।
कहीं सड़कंे काट दी गईं थीं। कहीं रेल को बाधित कर दिया गया था। कहीं आग, कहीं धुंआ और कहीं पानी की बौछार।
अचानक इस इलाके में एक भीड़ की हुकुमत हो गयी थी। जो उस भीड़ में थे ताकत उनके हाथ में थी। जो उस भीड़ से बाहर थे वे डरे-सहमे हुए थे। कानून क्या कर रहा था उस समय यह सवाल पूरा देश जानना चाहता था। परन्तु इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए अभी सही समय नहीं था क्योंकि अभी तो इस इलाके को और भी बहुत कुछ देखना बाकी था। वहशीपन का मंजर अभी और भी बाकी था।
मनोहर के फेसबुक वाॅल पर अब कुछ ज़्यादा ही उसका अपना शहर और आसपास का गाँव दिखने लगा था। कुछ था जो ठीक नहीं था। कहीं भीड़ दिखती तो कहीं ईंट-पत्थर। कहीं इंतजार दिखता तो कहीं बेरुखी। लाठियाँ, गुड़गुड़े पीते बुजुर्ग और एक उन्माद कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे थे। शुरू में मनोहर ने इसे बहुत गम्भीरता से नहीं लिया और इस पराये देश में अपने परिवार को बहुत तनाव में नहीं डालना चाहा। लेकिन बार-बार उसके मोबाइल में फेसबुक उसे परेशान करने लगा। हुक्के की गुडगुड़ाहट बढ़ने लगी थी और साथ ही मनोहर का तनाव भी। उस शांत सोए शहर में किसी ने पत्थर मारा था। जब उस हुक्के की गुड़गुड़ाहट हद से अधिक बढ़ने लगी तब मनोहर ने अपने पिता से इसे साझा करना चाहा।
उनका अपना शहर जल रहा था लेकिन उसके पास कोई रास्ता नहीं था। वे परदेस में फंसे हुए थे। संवाद करने के तमाम उपायों से उसने अपने शहर से सम्पर्क किया। लेकिन कौन जानता था कि यह शहर अभी और भी इस उन्माद का शिकार होने वाला है।
ननकाणा साहब की यात्रा करके लौटे और अगले दिन उन्हें फ्लाइट लेनी थी। यह उनकी यात्रा का पांचवा और आखिरी दिन था। अगली शाम को उनकी वापसी की टिकट थीं। आज की रात काटनी थी बस। कल तो वापस जाना ही है। सब कुछ ठीक होगा। वाहेगुरू मेहर करेगा कहते ही पुरुषोत्तम की आंखों के आगे घर की देहरी पर लगी गुरूनानक जी की तस्वीर आ गई और उन्होंने सोचा कि घर लौटते ही वे लाला जी की एक तस्वीर बनवाएंगे और ऐसे ही दरवाजे पर लगाएंगे।
यह रात बहुत घबराहट भरी रात थी। पूरा परिवार पूरी रात फोन और फेसबुक वगैरह से जानकारी लेने की कोशिश करता रहा। टेलीविजन पर हिंदुस्तान की खबरों में इस खबर के टुकड़े को ढूँढने में रात बीती। इतनी दूर पराये देश में जितनी खबर आ सकती थी, आईं, लेकिन जो भी खबर आई वह अच्छी नहीं थी। हालात बुरे हो रहे थे। ऐसे लग रहा था जैसे कानून नाम की कोई चिड़िया थी ही नहीं। जैसे लग रहा था कि पूरी फ़िजाओं में किसी ने जहर घोल दिया है।
पूरा इलाका जैसे आग की भट्टी पर बैठा था। सुरजीत तो जैसे बुरी तरह घबरा गई थी और उसने गुटका हाथ में लेकर पाठ करना शुरू कर दिया था। पूरे परिवार को परेशान देखकर छोटी भी सहम-सी गई थी। सब लोग पल-पल गिन रहे थे। किसी तरह अपने घर पंहुच जाते। लेकिन तय समय से पहले उस पराये देस से घर पहुँच जाना इतना आसान भी नहीं था।
रात बीती। हालात में कोई सुधार नहीं आया। सब जस का तस। शाम की फ्लाइट से उन्हें वापस जाना है। सुबह से सबकी बेचैनी बढ गई थी। सुबह से ही सब तैयार बैठे हैं। मनोहर इंटरनेट के जरिये पल-पल की खबर लेने की कोशिश करता रहा।
हालात बद से बदतर होते रहे और यहाँ बेचैनी बढ़ती रही। डंडे, तलवार, बंदूकें दिखते रहे।
शहर में पूरी तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। जिधर देखो उधर ही खामोशी। फेसबुक पर कुछ तस्वीरें दिखती रहीं। यह सन्नाटा उनकी फ्लाइट के उड़ने के पहले तक का था। फिर काफी लम्बे समय तक के लिए वे खबरों से दूर रहे। सुरजीत ने देखा, पुरुषोत्तम के चेहरे पर तनाव है। उसने कहा सब ठीक होगा। हमें वाहेगुरू पर भरोसा रखना चाहिए और यह उम्मीद करनी चाहिए कि हम जब तक पहुँचे हमारा प्यारा शहर हमें उसी रूप में मिले। छोटी ने माँ से पूछा, लेकिन इतने लोग इस शहर में आए कहाँ से मां। ये पहले तो कभी दिखे नहीं।
दोपहर एक बजे का समय था जब वह खबर आई। युवाओं के वे जत्थे उन्मादी भीड में तब्दील हो गए हैं। भडकाउ भाषणों ने ऐसा असर दिखलाया कि कल तक शांति से विरोध प्रदर्शन कर रहे इन लोगों ने आज तलवारें, बंदूकें हाथ में ले ली हैं। उनके हाथों में मशालें हैं, पेट्रोल के कैन हैं और चीखते-चिल्लाते वे सडकों से गुजर रहे हैं। टी.वी. की खबरें भी उनके शहर पर आकर थम गई हैं। किसी भी राज्य या शहर में पुलिस के होते हुए ऐसा कैसे हो सकता है, समझना मुश्किल है लेकिन इस पल उनका शहर आग उगल रहा है। सबकी सांसें जैसे रुकी की रुकी रह गईं जब उन्होंने खबर सुनी कि भीड ने शहर में तोडफोड मचानी शुरू कर दी है। घडी में तीन बज रहे थे। उन्हें एयरपोर्ट के लिए निकलना था। इतने तनाव में किसी ने दोपहर का खाना भी नहीं खाया। सामान उठाकर और होटल से चेकआउट कर वे एयरपोर्ट की तरफ निकले। पुरुषोत्तम रह-रहकर कुछ बुदबुदा रहे थे और हाथ जोड-जोडकर अरदास कर रहे थे। सुरजीत ने छोटी को अपने से सटा लिया था और चुपचाप आकर टेक्सी में बैठ गई थी। फ्लाइट को वैसे ही वाया क़तर होकर लौटना था।
पूरे बारह घंटे की इस यात्रा में सब सहमे-सहमे बैठे रहे और मन में अरदास करते रहे। हे वाहेगुरू मेहर करीं। बच्चयाँ दी लाज रखीं। पुरुषोत्तम बुदबुदाते जा रहे थे और रह-रहकर अपनी गास्केट (बनियान) की जेब पर हाथ रखकर वहाँ रखी घर की चाबियों को महसूस कर रहे थे जिसमें एक छल्ला लगा था लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्स: पेशाावर वाले।
चाबी, घर और अंधेरा
रात के तीन बजे के करीब उनकी फ्लाइट दिल्ली एयरपोर्ट पंहुची जहाँ से अपने शहर पंहुचने में फिर दो-ढाई घंटे का समय लगना था। ज्यों ही वे फ्लाइट से बाहर आए फरवरी की ठंडी हवा ने उनका स्वागत किया। यह हवा, यह ठंडक बिल्कुल वैसी ही थी जैसी उन्होंने पेशावर एयरपोर्ट पर महसूस की थी लेकिन इसमें अपनेपन का एक एहसास था और अंतर यह था कि वे कुछ खोए हुए को पाने की तलाश में वहाँ गए थे जबकि यहाँ वे लौटै हैं एक बेहद गहरे डर के साथ। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही उन्होंने टेक्सी बुक की और अपने शहर की ओर बढ गए।
इस देश की धरती को छूते ही फोन और फेसबुक से इतना तो पता चल गया था कि उस शहर के लिए कल का दिन सामान्य दिन नहीं था। लेकिन ठीक-ठीक अंदाजा लगाना अभी मुश्किल था कि उस शहर को धक्का लगा कितना गहरा है। अभी फेसबुक पर सन्नाटे की तस्वीरें तो थीं लेकिन तूफान के बाद का मंजर नहीं था।
शहर का नाम सुनकर टेक्सी वाले पहले तो हिचके थे। यह खबर आग की तरह फैली हुई थी। इस एक दिन में कुछ अलग तो था जिसने इस शहर को खास बना दिया था। एक टैक्सी वाला मनमाने दाम पर तैयार तो हुआ लेकिन इस शर्त के साथ कि अगर कोई दिक्कत लगी तो इस करार को तोड़ देगा। रास्ते में टैक्सी वाले ने ब्यौरा देना शुरू किया, साहब सुना तो है कि कल दिन-रात वहाँ बडी तबाही मची है। लेकिन ठीक-ठीक कुछ पता नहीं। कोई तो कहता है पूरा शहर बर्बाद हो गया साहब। सुना है बड़ा ही खुबसूरत शहर था। कोई कहता है सब झूठी खबर है कुछ बसों और पेट्रोल पम्पों को जलाया गया है बस। अब पता नहीं साहब कितना क्या हुआ। हाँ यह तय है कि कुछ तो हुआ है। सबका दिल बैठा जा रहा था।
टैक्सी धीरे-धीरे अंधेरे से उजाले की तरफ बढ रही थीं। सब चुप्प थे। टैक्सी डाइवर के अंतिम वाक्य ने काफी राहत पहुँचाई थी। पुरुषोत्त्म भी इस बात को समझते थे कि उनकी मांग सरकार से है इसलिए वे सरकारी सम्पत्ति को ही नुकसान पहुँचा कर अपनी बात को वहाँ तक पहुँचाना चाहेंगे। उनकी हमसे क्या दुष्मनी। उसने सुरजीत की तरफ मुखातिब होकर कहा, सरकार की कितनी सम्पत्ति का ये नुकसान करते हैं। यह कोई नहीं सोचता कि सरकारी सम्पत्ति भी तो हमारी ही सम्पत्ति है। यह मुल्क हमारा है, हमें इस मुल्क को प्यार करना चाहिए। अगर कोइ मांग है भी उसे मांगने का कोई बेहतर तरीका होनी चाहिए। यह वह वक्त था जब मनोहर की मनःस्थिति ठीक नहीं थी। उसे पिता कि यह आदर्शवादी बातें अभी अच्छी नहीं लगीं। मनोहर ने कहा 'इसे मांगना नहीं गंुडागर्दी और दहशतगर्दी कहते हैं। यह सरकार एक निकम्मी सरकार है।' मनोहर की भाषा में थोड़ी तल्खी थी। ड्राइवर बोला 'बेटा इस सरकार को क्यों कोस रहे हो। हम सब एक अंधेरी दुनिया में रहने को मजबूर हैं।' डाªइवर बुजुर्ग हो रहा था और उसके बाल खिचड़ी हो चुके थे। ऐसा बोलते हुए ऐसा लगा जैसे ड्राइवर का अपना भी कोई पुराना जख्म उभर आया था। मनोहर को पता नहीं ऐसा लगा कि जैसे अभी उसे थोड़ा कुरेदा जाये तो वह अपने दुख में बह जायेगा और जो वह इस वक्त बिल्कुल भी नहीं चाहता था।
मनोहर ने बात को बदलते हुए पूछा बडा बाज़ार की कोई खबर है क्या अंकल? चूंकि ड्राइवर ने अपने सम्बोधन में उसके लिए बेटे शब्द का इस्तेमाल किया था इसलिए मनोहर अंकल बोलने को मजबूर हो गया था। ऐसे वह भाईसाहब शब्द का इस्तेमाल करने वाला था।
साहब हम तो दिल्ली के रहने वाले हैं। बहुत तो नहीं जानते आपके शहर के बारे में। बडा बाज़ार में क्या हुआ यह तो ठीक-ठीक नहीं पता लेकिन सुना तो है कि नोच-खसांेट लिया है उस शहर को। अभी बहुत खबर भी तो नहीं आ पाई है। ईश्वर पर भरोसा रखें। बस उसका ही सहारा है।
हाँ साहब, शहर के अंदर तो जाने की इजाज़त नहीं है। मैं आपको जहाँ तक हो पाएगा, छोड दूंगा। बस दुआ करो साहब आपका सब कुछ ठीक-ठाक हो। टेक्सी वाला बोलता जा रहा था और पुरुषोत्तम ने एकदम चुप्पी साध ली थी।
सरकार ने स्थिति को देखते हुए सेना कि टुकडियों को भी बुला लिया था। पूरा शहर छावनी में बदल गया था। कल का मंज़र देखकर परिंदों की भी रूह कांप गई थी। जब उनकी टेक्सी ने उस जिले में प्रवेश किया तो लगा जैसे पुलिस की छावनी में आ गए हों। चारों तरफ पुलिस तैनात थी। टेक्सी को वहाँ से आगे जाने की इजाज़त नहीं थी। पूरा इलाका जैसे कल की कहानी अपनी जबां से बयाँ कर रहा था। पुलिसवालों को यह बताने पर कि वे बडा बाज़ार के बाशिंदे हैं तो उन्होंने उन्हें ध्यान से देखा, उनका नाम पूछा और बिना कुछ भी कहे पुलिस की जीप में उन्हें वहाँ पंहुचाने का आॅर्डर दे दिया। चारों चुपचाप अपने सामान सहित पुलिस जीप में बैठ गए। मनोहर के मन में भी कोई सवाल बाकी नहीं था। चारों तरफ के नज़ारे सब कुछ कह रहे थे। जगह-जगह जली हुई दुकानें और घर नजर आ रहे थे। ज्यों ही गाडी दांये मुडकर बडा बाज़ार वाली सडक पर आई सबके कलेजे जैसे धक्क रह गए थे। उस सीधी सड़क को देखकर लगा जैसे किसी आंधी-तूफान की चपेट में आ गया हो। जैसे एक तूफान आया हो और सबकुछ एक झटके में तबाह करके चला गया हो। पूरी सडक को जैसे रौद दिया था दहशतगर्दों ने।
कौन थे वे लोग कुछ पता नहीं। आखिर वे इस बर्बादी से क्या साबित करना चाहते थे पता नहीं। वे कैसे आए किसी को नहीं पता। कितने लोग थे, कितनी सवारियाँ, कितने हथियार किसी को कुछ पता नहीं। बस एक आंधी और सब तबाह। उस खुबसूरत सड़क की पूरी रौनक खत्म हो चुकी थी।
अभी कुछ दिन पहले तक जहाँ वह हाथी वाला खूबसूरत चैराहा था, वहाँ अब जली और झुलसी हुई घास थी। सडक पर ईंट, पत्थर, खाली बोतलें, पेट्रोल के कैन फैले हुए थे। चारों तरफ पुलिस छाई हुई थी। पूरे बाज़ार में एक भयानक किस्म का सन्नाटा था। जिस चैडी सडक पर कल तक चहल-पहल थी वहाँ पुलिस के बैरियर्स लगे हुए थे। दमकल की कई गाड़ियाँ अभी भी इस सड़क जगह-जगह थीं। अभी भी कई दुकानों-घरों से आग की हल्की लपटंे निकल रही थीं।
इस चैडी सडक को रौंदती हुई उन्मादी भीड यहाँ से गुजरी थी और अपने साथ ले गई थी न जाने कितनों की जीवन भर की पूंजी, उनकी मेहनत की कमाई, उनका इस शहर में विश्वास, उनका घर, उनके सपने, उनका अतीत, वर्तमान, उनका भविष्य। कितनी दुकानें, कितने मकानों को जलाकर राख कर दिया गया था। बडा भयावह दृश्य था वह! अचानक मनोहर की नजर पुरुषोत्तम पर पडी। उसने देखा, पुरुषोत्तम बेसुध से बाहर देख रहे थे, उनका शरीर जीप से आधा बाहर लटका हुआ था और आंखें जैसे फट कर बाहर आ जाना चाहती थीं। यह देखकर मनोहर के पसीने छूट गए। छोटी पापा-पापा चिल्लाने लगी और मनोहर ने आगे बढकर बाउ जी को कमर से पकड लिया, बाउ जी, बाउ जी बैठ जाओ बाउ जी, बैठ जाओ। मैं त्वाडे हत्थ जोडना हाँ बाउ जी पिच्छे हो जाओ। सुरजीत पुरुषोत्तम को देखकर बुरी तरह घबरा गई थी और जोर-जोर से वाहेगुरू-वाहेगुरू पुकारने लगी थी।
वह चैराहा जिस पर सुखी परिवार की थीम बनी थी, हंसते-खेलते बच्चे थे, बडे-बुजुर्ग थे, खाना बनाती औरतें थीं जैसे कहीं खो-सा गया था। अब वहाँ सिर्फ़ लोहे के कंकाल थे जिनके बीच की ज़िन्दगी कोई छीन कर ले गया था। छोटी पलट-पलट कर देख रही थी। आंसू की धार उसके गाल से बह रही थी।
ड्राइवर ने थोडा आगे बढने पर जीप एक तरफ लगाई और उन्हें उतरने का इशारा किया। जीप रुकते ही जैसे पुरुषोत्तम कूदकर नीचे उतर गए और ज्यों ही उन्होंने आंखें सामने की तरफ उठाईं वहीं धम्म करके जमीन पर बैठ गए। जीप उन्हें वहाँ उतारकर जा चुकी थी।
वे अपने घर के सामने खडे थे जिसके नीचे लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्सः पेशावर वाले शोरूम था। वे सडक की इस तरफ खडे थे जहाँ गाडी का वह बडा-सा शोरूम था। गाड़ी का वह शोरूम जो इस सडक की जान था उसका सारा कांच अभी सड़क पर था और सारी गाड़ियाँ आग के हवाले की जा चुकी थीं। सडक के बीचोंबीच डिवाइडर था। यहाँ से घर का नजारा पूरा-पूरा दिखाई देता था।
कल तक जहाँ लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्सः पेशावर वाले का बडा-सा बोर्ड था वहाँ अब उसके अवशेष ही बचे थे। उसके शीशे की किरचें सड़क पर फैली थीं। जिन सीढियों पर कल तक कुल्ले वाली पगडी पहने दरबान खडे रहते थे आज वहाँ ईंट के टुकडे, कंाच की बोतलें, पत्थर और न जाने क्या-क्या बिखरा था। जिस दरवाजे पर ताला लगाकर पुरुषोत्तम दूसरे वतन के लिए निकले थे वहाँ अब कोई ताला नहीं था और न ही उस दुकान-घर में ताला लगाने की कोई वजह भी बची रह पाई थी। जिस दुकान से रोशनी की चमक बिखरती थी वे दुकान-घर काले पड़ चुके थे। उससे अभी भी हल्का-हल्का धुंआ निकल रहा था। पूरा परिवार दौड़कर उस काली पड़ चुकी दुकान के भीतर घुसा और सन्न रह गया। दुकान में पैर रखने की भी कोई जगह सलामत नहीं थी। हर जगह कांच और हल्का फुल्का धुंआ। दुकान से सारे गहने गायब थे। जितने गहने शोकेस में थे उसके अलावा काफी मेहनत से सारे सेफ को तोड़कर पूरा खाली कर लिया गया था।
बदहवास-सी सुरजीत दौडकर सीढियाँ चढ गई। माँ को ऊपर जाते देख मनोहर भी उनके पीछे भागा। सुरजीत ने घर की हालत देखा और दंग रह गई। कमरों में धुंआ भरा हुआ था। दरिंदों ने पूरे घर को नोच-खसोट लिया था। कुछ भी बचा नहीं था। न कपड़े, न बिस्तर, न मुस्कान और न ही सुकुन। जितना लूटा जा सकता था उसे पहले लूटा गया था और फिर उसे आग के हवाले कर दिया गया था। कुछ अवशेष बच भी जाता अगर उसे आग के हवाले न किया गया होता। सिवाय दरवाजे पर लगी गुरूनानक देव जी की टूटी और जल चुकी तस्वीर के वहाँ अब कुछ नहीं बचा था। दोनों मां-बेटे का जैसे दम घुटने लगा था। मनोहर ने सारी खिड़कियाँ और दरवाजे खोल दिये। अचानक से धुएँ के गोले बाहर की तरफ भागे। लाला जी वाले कमरे की खिड़की खोला तो सामने बगीचा था। अचानक उधर से खुली हवा अन्दर की ओर आयी। मनोहर ने देखा उसे अचानक थोड़ा सुकुन महसूस किया। वह एक मिनट को अटक गया। लेकिन फिर उसे अचानक याद आया कि उसके पिता और छोटी नीचे है। वह अपनी माँ को लेकर नीचे की ओर दौड़ा।
पुरुषोत्तम अब सडक पर बेसुध बैठे थे और एकटक अपने घर की ओर देख रहे थे। मनोहर की आँख से आंसू बह रहे थे और वह बाउ जी को सहारा देकर उठाने की कोशिश कर रहा था।
जिसकी चाबी को हिफाजत से अपनी बनियान की जेब में रखा था पुरुषोत्तम ने वहाँ अब बडा-सा खुला दरवाजा है जिसकी हिफाजत करने के लिए न कोई गार्ड है, न कोई दरबान है।
सुरजीत ने आगे बढकर ज्यों ही पुरुषोत्तम के सिर को अपने कंधे पर रखा, पुरुषोत्तम फूट-फूट कर रो पडें। सुरजीत ऐ की हो गया! ऐ की हो गया सुरजीत।
मनोहर ने देखा कि घर की दहलीज पर जो तस्वीर गुरूनानक देव जी की लगी थी वह भी जमीन पर पडी अपनी बेबसी की कहानी कह रही थी। पूरे शोरूम को देखकर उसे शोरूम कह पाना मुश्किल ही था। वहाँ सिर्फ़ अब कल रात की दहशत के निशान बाकी थे। अंदर न बाउ जी की कुर्सी बची थी और न ही लाला जी की। सब जलकर राख। कल तक जो फानूस पूरे माहौल को रौनक कर रहा था, उसकी किरचों ने आज दिलों को लहुलुहान कर दिया था।
लाला जीवनलाल पेशावर वाले की तस्वीर पैरों तले गिरी थी जिसे रौंदकर उन्मादी आगे बढे होंगे।
आज न लाला जीवनलाल की तस्वीर बची थी, न लाला जी की कुर्सी, न दुकान, न घर। बची है तो पुरुषोत्तम की जेब में इस घर और शोरूम की चाबी जिसके छल्ले पर लिखा है लाला जीवनलाल एंड संस ज्वैलर्सः पेशावर वाले। चाबी जिसके पीछे अब कोई ताला नहीं था और बचा था सिर्फ़ न खत्म होने वाला काला घना अंधेरा।