चाबी / पंकज सुबीर
'सीमा जी नहीं हैं क्या?' रश्मि ने जैसे ही दरवाज़ा खोला तो सामने हाथ में ब्रीफकेस थामे लगभग चालीस पैंतालीस साल का एक आदमी खड़ा था। रश्मि को देख कर उस आदमी के चेहरे पर कुछ उलझन, कुछ प्रश्न भरे भाव उभरे और उसी भाव में उस आदमी ने रश्मि से प्रश्न किया।
'जी वह बाथरूम में हैं, कुछ काम है आपको?' रश्मि ने उत्तर भी दिया और प्रश्न भी किया।
'नहीं कुछ ख़ास काम नहीं है, बस आप ये चाबी उनको दे दीजियेगा।' उस आदमी ने एक चाबी का गुच्छा रश्मि की ओर बढ़ाते हुए कहा।
कुछ उलझन भरे अंदाज़ में रश्मि ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और चाबी ले ली।
'उनको पता है, मैं रोज़ अपनी चाबी यहीं पर छोड़ कर जाता हूँ। बता दीजियेगा कि पड़ोस के सुधाकर राव चाबी दे गये हैं।' उस आदमी ने रश्मि को उलझन में देखा तो बोला। 'और बता दीजियेगा कि आज बच्चों को शायद स्कूल से आने में देर हो जाएगी। स्पोर्ट्स वगैरह है कुछ स्कूल में।'
'जी।' रश्मि अभी भी उलझन में थी। वह आदमी मुड़ा और मुड़कर सीढ़ियाँ उतर गया। रश्मि उस आदमी को जाते हुए देखती रही। जब वह आँखों से ओझल हो गया तो रश्मि दरवाज़ा बंद कर अंदर आ गई।
रश्मि यहाँ इन्दौर कोई परीक्षा देने आई है। ये उसकी सहेली दीप्ति के भाई का घर है जहाँ वह ठहरी हुई है।
'कौन था रश्मि?' सीमा ने बाथरूम से निकलते हुए पूछा।
'कोई चाबी देने आये थे, कह रहे थे आपको पता है।' रश्मि ने हाथ में पकड़ी हुई चाबी को हवा में हिलाते हुए उत्तर दिया।
'अच्छा वह बाजू वाले सुधाकर होंगे। वहाँ टीवी के पास रख दो चाबी।' सीमा का स्वर कुछ गहरा हो गया।
'और हाँ वह ये भी कह रहे थे कि उनके बच्चे आज स्कूल से देर से आएँगे, कोई स्पोर्ट्स वगैरह है स्कूल में।' रश्मि ने टीवी के पास चाबी को रखते हुए कहा।
'हम्मम, ठीक है।' सीमा का स्वर अभी तक असहज है।
'ये रोज़ रख कर जाते हैं चाबी?' रश्मि ने प्रश्न किया।
'हाँ..., तुम भी नहा लो तब तक मैं नाश्ता बना देती हूँ।' सीमा ने बात को दूसरी तरफ़ मोड़ दिया।
रश्मि जब तक नहा कर निकली तब तक सीमा नाश्ता बना चुकी थी।
'आ जाओ पहले नाश्ता कर लो नहीं तो ठंडा हो जाएगा सब।' रश्मि को निकलते देखा तो सीमा ने कहा।
दोनों नाश्ता कर ही रहे थे कि सीमा का मोबाइल बजा।
'हाँ भाई साहब चाबी मिल गई है, रश्मि ने बता दिया है मुझे कि आज बच्चे देर से आएँगे, आप चिंता मत करिये मैं कहीं नहीं जा रही हूँ आज, दिन भर घर पर ही हूँ। जब भी वह आएँगे चाबी दे दूँगी।' सीमा ने कुछ मीठे स्वर में कहा।
'हाँ हाँ, आप बिल्कुल निश्चिंत रहिये, अगर आपको देर होती भी है तो मैं उनको कुछ हल्का फुल्का यहीं पर खिला दूँगी।' सीमा ने एक बार फिर किसी बात के उत्तर में कहा और कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।
'वो ही चाबी देने वाले थे क्या...?' रश्मि ने पूछा।
'हाँ वही थे।' सीमा ने उत्तर दिया।
'कर लो, कर लो, कुछ दिन और कर लो दूसरों के बच्चों की केयर, जब तक अपने नहीं हो जाते हैं।' रश्मि ने शरारत से मुस्कुराते हुए ठिठौली की।
'अरे तुमने जलेबियाँ तो बिल्कुल ली ही नहीं हैं, यहाँ की फेमस जलेबियाँ हैं ये।' सीमा ने बात को पलट कर दीप्ति की प्लेट में जलेबियाँ रखते हुए कहा।
'ये पड़ोस में ही रहते हैं?' रश्मि ने जलेबी कुतरते हुए पूछा।
'हाँ ये उस तरफ़ का घर उनका ही है। अच्छा बताओ तुम खाने में क्या खाओगी? मेरी तो इच्छा है कि आज आलू के पराँठे और टमाटर की चटनी का लंच किया जाए.।।' सीमा ने बात को एक बार फिर से पलट दिया।
'वॉव... गुड च्वाइस।' रश्मि ने उत्तर दिया।
'चलो ठीक है, तुम नाश्ते के बाद जाकर पढ़ना, मैं ज़रा कुछ घर की हालत ठीक कर लूँगी फिर लंच की तैयारी।' सीमा ने कहा।
नाश्ते के बाद दोपहर तक रश्मि पढ़ाई करती रही। लेकिन उसने देखा कि भाभी का मोबाइल हर घंटे आधे घंटे में बज उठता है। हर बार उसी पड़ोसी का फ़ोन होता है और हर बार वह कोई काम बताता है। हर बार भाभी आत्मीयता से उत्तर दे रही हैं। क्या है ये सब...? मेरे साथ कोई ऐसा करे तो मैं तो इरीटेट होकर खीज ही पड़ूँ। मगर भाभी...? हर बार पूरे पेशेंस के साथ बात कर रही हैं। कहीं कोई झुँझलाहट नहीं, कोई खीज नहीं।
'हम्मम सच कहती थी दीप्ति, आपके हाथ के बने आलू के पराँठों का कोई जवाब नहीं।' रश्मि ने प्रशंसात्मक स्वर में कहा। सीमा ने लंच में आलू के पराँठे, टमाटर की चटनी और खीरे का रायता बनाया है। दोनों साथ ही खाने बैठी हैं।
अचानक किचन में रखा सीमा का मोबाइल बजा। सीमा उठने को थी कि रश्मि ने हाथ पकड़ कर रोक दिया। 'अब चैन से खाना तो खा लो, ऐसा भी क्या? होंगे वही आपके पड़ोसी, बाद में कॉल कर लेंगे।' सीमा कुछ अनमने भाव से वापस बैठ गई। मोबाइल कुछ देर तक बज कर चुप हो गया। कुछ देर बाद मोबाइल फिर बजा, सीमा ने कसमसा कर रश्मि की तरफ़ देखा 'नहीं कुछ नहीं बजने दो, पहले आप खाना खाओ बैठ कर।' कहते हुए रश्मि ने एक हाथ से सीमा का हाथ पकड़ लिया।
मोबाइल बज कर बंद हुआ, फिर बजा, फिर बजा और बजता रहा। मोबाइल की घंटी मानो झुँझला-झुँझला कर बज रही थी कि कोई तो उठाओ मोबाइल और वही झुँझलाहट रश्मि के मन में भी हो रही थी। जब तक वे दोनों खाते रहे तब तक मोबाइल की घंटी पार्श्व संगीत की तरह बजती रही।
खाना खाकर रश्मि अपनी प्लेट किचन में रखने गई तो देखा कि भाभी का मोबाइल पन्द्रह मिस कॉल की सूचना दे रहा है। अजीब है ये भी? किसी की प्राइवेसी का कोई ध्यान ही नहीं है। अरे भाई यदि कोई कॉल अटेण्ड नहीं कर रहा है तो इसका मतलब ये है कि वह अभी व्यस्त है, कुछ देर बाद कॉल कर लो। ये क्या बात हुई कि दनादन, दनादन, एक के बाद एक कॉल करते ही जा रहे हैं। बड़े शहरों में रहने वाले लोगों में इतना भी मैनर्स नहीं होता क्या? रश्मि अंदर ही अंदर भुनभुना रही थी। प्रत्यक्ष में कुछ बोल नहीं पा रही थी, पता नहीं क्या बात हो?
इतने में किचन प्लेटफार्म पर रखा मोबाइल फिर बजा, सीमा ने फुर्ती से अपने हाथ पोंछे और मोबाइल उठा लिया।
'हाँ भाई साहब वह दीप्ति की सहेली आई हुई है ना, तो बस उसी के साथ खाना खा रही थी, मोबाइल यहाँ किचन में रखा था आवाज़ ही नहीं आई रिंग बजने की।' सीमा ने कुछ शर्मिंदगी से भरे स्वर में कहा।
'जी जी, मुझे पता है आपको चिंता हो जाती है।' सीमा ने कॉल करने वाले की किसी बात के उत्तर में कहा।
'नहीं अभी तो नहीं। जी... जी, ठीक है।' सीमा ने कहा और कॉल डिस्कनेक्ट करके रख दिया।
रश्मि को पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि कॉल डिस्कनेक्ट करने के बाद भाभी उससे नज़रें चुरा रही हैं। या किसी प्रश्न का उत्तर देने से अपने आप को बचा रही हैं। मुझे क्या पड़ी है, मैं कौन यहाँ हमेशा के लिए रहने को आई हूँ? किसी के पर्सनल जीवन में मैं क्यों दखल दूँ? मुझे तो दो तीन दिन रहना है और फिर वापसी। मगर फिर भी...! कुछ अटपटा तो लग ही रहा है। रश्मि सोच में डूबी धीरे-धीरे सौंफ का एक-एक दाना हथेली पर से उठा-उठा कर मुँह रखती जा रही थी।
'चलो अब तुम अपनी पढ़ाई में लगो, नहीं तो हम दोनों गप्पें मारने बैठ गये तो तुम्हारी पढ़ाई धरी की धरी रह जाएगी। कल परीक्षा दे लो फिर रात को हम बैठ कर लड़ाएँगे सारी गप्पें।' सीमा ने उसे डाइनिंग टेबल पर बैठे देखा तो कहा।
परीक्षा को लेकर रश्मि सारी तैयारी करके ही आई है, अब तो बस यूँ ही उलट पुलट कर देखना है सब, फिर भी अपने कमरे में आकर जब पढ़ने बैठी तो शाम तक पढ़ती रही। तब तक, जब तक कि दीप्ति के भैया ऑफिस से आ नहीं गए।
'रश्मि... तुम्हारे भैया बुला रहे हैं चाय पीने, आ जाओ थोड़ी देर। अब छोड़ो किताबें, कहीं कल सिर न दुखने लगे परीक्षा में।' सीमा की आवाज़ आई तो रश्मि किताबें रख कर उठ खड़ी हुई। अरे बाप रे कितनी शाम हो गई है, पढ़ते-पढ़ते पता ही नहीं चला।
'आ जाओ, चाय पी लो थोड़ा रिलैक्स हो जाओ... ।' भैया ने उसे आते हुए देखा तो मुस्कुरा कर बोले।
चाय पीने के दौरान भी सीमा का मोबाइल दो तीन बार बजा और हर बार सीमा ने लगभग वैसे ही उत्तर दिये जैसे वह सुबह से रश्मि सुन रही है। 'जी भाई साहब अभी बच्चे तो नहीं आए हैं, जी मैं खिला दूँगी।'
रश्मि ने देखा कि भैया, सीमा की बातों की तरफ़ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। वह चुपचाप अपने मोबाइल से खेलते हुए चाय पी रहे हैं। रश्मि को एक बार फिर से अजीब लगा। दिन भर का थका हारा पति घर आया है, ऐसा भी क्या कि पति तो चुपचाप चाय पी रहा है और ये बातों में लगी हैं। रश्मि के अंदर की ननद सिर उठाने लगी मगर फिर उसने अपने आप को कंट्रोल किया।
'रात को क्या बन रहा है भाई?' सीमा ने कॉल डिस्कनेक्ट किया तो भैया ने पूछा।
'कुछ हल्का ही बनाऊँगी रात को, कल रश्मि की परीक्षा है सुबह, रात को हैवी खाना ठीक नहीं रहेगा।' सीमा ने चाय के कप उठाते हुए उत्तर दिया।
सीमा उठकर किचन में चली गई और रश्मि, भैया से बतियाने लगी।
दरवाजे की घंटी सुनकर सीमा किचन से निकली और टीवी के पास रखी चाबियाँ उठाकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई।
'जी भाई साहब, बच्चे तो अभी तक आये नहीं। शायद देर से आएँगे।' सीमा का स्वर दरवाज़े के पास से आ रहा था।
कुछ देर बाद सीमा दरवाज़ा बंद करके फिर से किचन में चली गई।
'भैया...?' रश्मि से रहा नहीं गया। 'क्या है ये सब...? कौन है ये...?'
'ये...?' भैया के चेहरे के भाव बदल गए 'तुम्हारी भाभी ने तुमको कुछ नहीं बताया?'
'नहीं तो।' रश्मि को लगा कि उसका प्रश्न शायद ग़लत हो गया है।
'हम्मम।' इतना कह कर भैया कुछ देर को चुप हो गए, हाथ के मोबाइल को टेबल पर रखा और चश्मा भी आँखों से उतार कर टेबल पर रख दिया।
'ये पड़ोस में ही रहते हैं, सुधाकर राव नाम है।' भैया ने कहना शुरू किया।
'जब इनके बच्चे छोटे थे तब ही इनकी पत्नी चल बसी थीं। तब से इन्होंने ही अपने दोनों बच्चों को माँ-बाप दोनों की तरह पाला। बच्चों को कभी भी माँ की कमी नहीं महसूस होने दी। साल भर पहले जब यहाँ पड़ोस में रहने आए तो हम लोग भी सहयोग करने लगे। ये ऑफिस जाते समय इसी प्रकार सीमा के पास घर की चाबियाँ छोड़ कर जाते। बच्चे दोपहर के बाद स्कूल से लौट आते चाबी लेकर घर चले जाते। उसके बाद सीमा शाम तक कई बार चक्कर लगा कर देखती रहती कि बच्चों को कुछ ज़रूरत तो नहीं है। कभी बच्चों के लिए बाज़ार से कुछ लाना होता तो इनको फ़ोन करके बता देती या इनका ही फ़ोन आ जाता। सब कुछ ऐसे ही चल रहा था।' बात को बीच में छोड़कर भैया कुछ देर के लिए रुके।
'ऐसे ही चल रहा था कि अचानक अभी महीने भर पहले इनके बच्चों के स्कूल ऑटो को एक ट्रक ने टक्कर मारी दी और।' कहते-कहते भैया ने बात को बीच में ही छोड़ दिया।
'डॉक्टरों के अनुसार ये अभी भी उस सदमे से बाहर नहीं आए हैं। अभी भी समझते हैं कि इनके बच्चे स्कूल से आएँगे। कहीं आ तो नहीं गए होंगे। आएँ, तो ऐसा न हो कि हम लोग कहीं गये हों और बच्चे चाबी के लिए परेशान हों। बस यही सब सोचते रहते हैं और दिन भर सीमा को फ़ोन करते रहते हैं। कभी बच्चों के खाने की चिंता करते हैं, कभी देर होने की, कभी कुछ और...! सीमा अपने हिसाब से हैंडल करती रहती है।' भैया का स्वर उदासी में डूब चुका था।
'वो अभी भी उसी समय में जी रहे हैं। उससे बाहर नहीं आ पा रहे। विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि अब कोई नहीं आएगा... कोई नहीं आएगा, इस चाबी को लेने... कोई नहीं।' रश्मि स्तब्ध अवस्था में बैठी हुई थी और भैया मानो अपने आप से ही बातें करते हुए बुदबुदा रहे थे।