चाबुक / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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‘सुन लीजे गोश-दिल से मेरे मुशफिका-ए अर्ज।

मानिन्द -बेद ग़ुस्सा से मत थरथराइये।।’

- इंशा

जबलपुर की सुप्रसिद्ध मासिक-पत्रिका ‘श्री शारदा’ अब त्रैमासिक रूप में निकलती है। सम्पाादन अच्छाम होता है। लेखों के चुनाव में कोर-कसर नहीं की जाती, कागज और छपाई आदि बढ़िया होती है। मतलब यह कि पत्रिका की उपयोगिता में किसी प्रकार का सन्दे,ह नहीं है। इस त्रैमासिक रूप के प्रथम वर्ष का द्वितीय अंक हमारे सामने हैं, इसमें 4 लेख हैं। इन्हीं चारों में एक लेख है - कवि और समाज, लेखक हैं - श्री गुरुप्रसाद पांडेय। आप साहित्यखरत्नी हैं, और बी.ए., एल.एल.बी. भी हैं। अतएव आपकी विद्वत्ता में किसी को सन्दे ह न होना चाहिए! फिर चाहे आपने इसमें ऊटपटाँग ही क्यों न लिख मारा हो। साहित्यिरत्नै जी ने जिस प्रकार अपने पक्ष की वकालत की है! जैसा असम्ब द्ध-प्रलाप किया है, वह वस्तुयत: दर्शनीय है। आपने अपने वृथा-पुष्टँ लेख में यही सिद्ध करने की चेष्टाऊ की है कि ईस्वीह सन् के बाद संस्कृ‍त और हिन्दीर कवि-समुदाय तथा तत्काटलीन भारतीय समाज बहुत ‘पतित’ रहा है। इस सम्ब।न्धद में तो फिर कभी कुछ लिखा जाएगा। आज आपके कुछ असम्ब द्ध-वाक्यों की बानगी पाठकों के सामने रखता हूँ, आप 87वें पृष्ठप की 14वीं पंक्ति में लिखते हैं कि, ‘आप कालिदास को भले ही बड़ा मान लें।’ यहाँ आप का अभिप्राय मालूम नहीं किन ‘आप’ से है। पंडितों से तो है नहीं, क्योंपकि आपने इसी पंक्ति में आगे चलकर उनका निषेध कर दिया है! फिर पंडित-इतर ये आपके ‘आप’ कौन हैं? कोई, ‘देवानां प्रिय’।

आपके मत से कालिदास का भारत में प्रसिद्धि प्राप्तय करने का कारण उनकी ‘सरल और सच्ची‘’ कविता नहीं है। किन्तु ‘जनता की श्रृंगार-तृप्ति का पुरस्कातर’ है! ठीक है पांडेय जी! ‘जबान के आगे खन्दाक’ थोड़े ही है। पृष्ठी 88 की 16वीं पंक्ति में आप लिखते हैं कि, ‘एक जैन कवि का लिखा हुआ "धनंजय" नामक ग्रन्थ़ भी ऐसा ही है।’ वाह! महाराज, इसी ज्ञान के बल पर आप प्राचीन समाज का, ‘सानुमान ज्ञान’ प्राप्ती कीजिएगा! इतना बड़ा अन्याकय ग्रन्थककार के नाम ही को ‘ग्रन्थस’ बना डाला! क्याै है उस ‘धनंजय’ नामक ग्रन्थी में? और किस जैन कवि का वह लिखा हुआ है? कहीं सुन सुनाकर तो नहीं लिख दिया! महाराज जरा कान खोलकर सुनिए ‘धनंजय’ ग्रन्थन नहीं है, कवि का नाम है। यही धनंजय नामक जैन कवि हैं, जिन्होंरने ‘द्विसन्धा न’ नाम श्लेषात्महक ग्रन्थी लिखा है और जिसको आपने ‘धनंजय’ बना डाला है। बलिहारी इस ऐतिहासिक ज्ञान की! इसी पृष्ठव पर आपने ‘भट्टि काव्यय’ का एक श्लेधषात्महक श्लोक लिखकर यह राय दी है, कि पंडित लोग इसको प्रथम श्रेणी की कविता समझते थे। उन लोगों ने ऐसी कविताओं को ‘तुच्छोश्व पुच्छवच्छकटयेव वाचा’ (तुच्छत कुत्ते की पूँछ के समान) ही कहा है। किन्तुक पांडेय जी को इससे क्याश मतलब? पृष्ठड 90 की 10वीं पक्ति में आपने लिखा है, ‘समालोचक ही कवि की रुचि के प्रवर्तक हैं।’ वाह! कैसी अनूठी गवेषणा है! कैसा नूतन ‘आविष्कातर’ है! अरे मेरे दोस्तोंक! इसको नोट कर लेना। यह बड़ी मेहनत से की हुई खोज है।

अगर समालोचक ही कविता की रुचि के प्रवर्तक हैं, यह बात सत्यो है तो कम से कम संस्कृेत साहित्यत में श्रृंगार-रसमयी कविताएँ न होनी चाहिए थीं। कारण वहाँ का एक दल तो श्रृंगार-रचना के कारण कविता का ही विरोध करता था, उसकी आज्ञा थी, कि ‘असभ्यांर्थ विधायित्वाकन्नोहपदेष्टयव्यं काव्यअम्’ और भी कितने ही समालोचक श्रृंगार-रस के विरुद्ध खड्ग-हस्त‘ थे। लेकिन समालोचकों का प्रभाव कवियों पर प्रतिभावान कवियों पर पड़ ही क्या सकता था! आपके लेख भर में कवियों पर अश्लीोलता और कुरुचि प्रवर्तक प्रेम के वर्णन करने का अपराध लगाया गया है, पर हम न समझ सके, कि अश्ली लता और कुरुचि की आपने परिभाषा क्या निश्चित की है। आप कविता में आखिर क्याम चाहते हैं, केवल वैराग्यच और नीति की बातें! आप कहते हैं कि यहाँ के लोग काम-वासना को ही प्रेम समझते थे। वौ कैसे? पांडे जी, इस प्रकार की निराधार बातें आप क्योंल कहते हैं?

आपकी एक और भी विचित्र राय है, कि यहाँ की जनता ‘उच्चाोदर्श’ प्रिय नहीं थी और उसमें ‘पशुता के मुख्यएगुण - हृदय कठोरता, और प्रबल काम इच्छां आदि का भाव खूब जोरों पर था? ठीक है, उस्ताैद, कहते चलो, जो जी में आये। कोई टोकनेवाला थोड़े ही है।’

शायद वेदान्त,-वाद की गणना उच्चादर्श में नहीं है। भारतवर्ष के हिन्दूख आज भी अपने उच्चस आदर्श के लिए बदनाम हैं, उच्चव आदर्श के मुख्यचगुण सर्व-हितैषणा का लोप इस गिरे हुए समय में भी हिन्दूच जाति से नहीं हुआ है। परन्तुच साहित्यश रत्नजी इस आदर्श का अभाव बहुत पुराने जमाने से देखते हैं! रही प्रबल ‘कामैषणा’, सो इसका साक्षी इतिहास है। हमारे पूर्वजों का समय विश्व विख्याेत रहा है। लेकिन ‘घर के लड़के’ पांडेय जी इस बात को नहीं मानते। पृ. 98 में लिखा है, कि ‘इसका वर्णन रति-ग्रन्थों में आवश्यकक हो गया’ किन रति-ग्रन्थों में? कोकशास्त्रा आदि में। क्यास साहित्य् में कुछ ‘रति-ग्रन्थर भी हुआ करते थे। यदि हाँ, तो वे कौन-कौन से हैं!’

सबसे बढ़कर एक बात आपने जो कही है, वह है, ‘हिन्दी में सच्चेम प्रेम का वर्णन वास्त व में वेश्यासवों के साथ ही देखा जाता है’ (पृ. 100)। वैसे तो पांडेयजी ने अपने इस लेख में कई तथ्यों का आविष्का र किया है, किन्तु( यह तथ्यक सबसे अनूठा है; अश्रुत-पूर्व है। इसके अतिरिक्त आपने कई जगह अपने कथन के सिद्ध करने के लिए या यों कहिए कि अपने पूर्वजों की निन्दात करने के लिए कई विदेशी विद्वानों के वाक्यों के अवतरण दिए हैं, जिसकी कोई आवश्यककता न थी। हमारा विचार है, कि पांडे जी ने इस लेख को जोश में आकर लिख डाला है। यदि वह शान्तजचित्त होकर विचार करते तो उन्हें अपना भ्रम स्पजष्ट मालूम हो जाता। कवियों ने यदि श्रृंगार-रस का वर्णन किया है, और आपको उसमें अनौचित्यम दीख पड़ता है, तो आप उन पर खूब लिखिए। किन्तु सभ्या समाज को उसके साथ घसीटना कहाँ का न्या‍य है? कवियों ने स्वोयं अश्लीललता को दोषों के अन्दैर माना है और काव्यासलंकार के निर्माता रुद्रट आदि ने स्पाष्ट, शब्दों में लिख दिया है कि, ‘नहि कविनापरदारा-द्रष्टयव्याा’ आदि। फिर समाज जहाँ इन कवियों का आदर करता है वहाँ कितने ही नीतिकारों और वेदान्त वादियों का इनसे भी अधिक आदर करता है। फिर समग्र समाज को लक्ष्यत करके इस तरह अंट-संट कहने की क्याइ जरूरत थी, सो हम नहीं समझते।

पं. रामनरेश त्रिपाठी द्वारा सम्पातदित होकर प्रयास से प्रकाशित होने वाली कविता-कौमुदी का चतुर्थ अंक हमारे सामने है। लेख सब के सब अच्छेा हैं; सुपाठ्य हैं। केवल ‘नायिका-भेद’ शीर्षक लेख में जो विद्वान सम्पानदक महोदय का लिखा हुआ है, थोड़ी-सी त्रुटि रह गयी है। आपने ‘ऊढा’ और ‘अनूढा’ को स्व्कीया नायिकाओं के अन्तलर्गत ही शुमार किया है। प्राचीन कवि ‘ऊढा’ और ‘अनूढा’ को परकीया नायिकाओं के अन्तार्गत मानते रहे हैं। शायद अब जमाने की रफ्तार के अनुसार त्रिपाठी जी ने इनका सम्पाादन करके बिलकुल ‘अपटूडेट’ बना कर ‘स्वसकीया’ के अन्दमर कर दिया है। बहुत अच्छा हुआ। आखिरकार अब तो भारत में ‘कोर्टशिप’ की प्रथा का प्रचार हो ही रहा है, इससे ‘अनूढा’ तो ‘स्वाकीया’ है ही, रही ‘ऊढा’ सो डाईवोर्स का प्रचार हो जाए तो वे भी स्वहकीया श्रेणीभुक्ते होने की अधिकारिणी हो जाएगी।