चाय पर चर्चा / कमलानाथ
कभी कभी कोई असावधानी किसी नई खोज का सबब बन जाती है। कहते हैं ईसा पूर्व 2737 में चीन का शेनौंग नाम का एक सम्राट हमेशा उबला हुआ पानी ही पीता था। एक बार कहीं जाते वक़्त उसको एक जंगल में रात्रि विश्राम करना पड़ा। जब उसके पीने के लिए पानी उबल रहा था तो अनजाने में पास से कहीं एक पत्ती उड़ कर उसके पानी में गिर गई। पर नाराज़ होने की बजाय उस हल्के भूरे से रंग के पानी को पीने से सम्राट बहुत खुश हुआ क्योंकि उससे उसे ताज़गी नामक चीज़ की प्राप्ति हुई। उसने उस झाड़ी की पत्तियों की क़द्र को हाथोंहाथ बिना देर लगाए समझ लिया और उसको ‘चा’ का नाम देकर वैसी झाड़ियाँ चीन में जगह जगह उगवाने का फ़रमान जारी कर दिया। तब से लेकर अब तक उसी ने ‘चाय’ और ‘टी’ नाम अख्तयार करते हुए चारों दिशाओं में फैल कर जो तहलका दुनियाँ भर में मचाया है वो पोशीदा नहीं है। आंकड़ेबाज़ों के अनुसार पानी के बाद चाय ही अन्य पेय पदार्थों से ज़्यादा सर्वव्यापी है। इसकी खपत कॉफ़ी, चॉकलेट, कोको, कार्बोनेटेड पेयों और मादक पेयों की कुल खपत के बराबर है।
चाय पर हमारे देश के बड़े बड़े काम होते रहे हैं। जब समय होता है, या नहीं भी होता तब भी, हमेशा चाय पर गपशप होती है। सरकारी दफ़्तरों के सारे बाबू तो सुबह से शाम तक अपनी कुर्सी पर बैठने की बजाय चाय के लिए कैंटीन की बैंचों पर ही टिके हुए पाए जाते हैं। पब्लिक का काम भी ‘चाय-पानी’ के लेनदेन के बाद ही किया जाता है। देश विदेश के बड़े लोगों का सम्मान चाय पर होता है और ‘हाई टी’ के नाम पर लगभग पूरा भोजन होता है। बॉलीवुड में तो जब किसी कन्या की मम्मी के दिल में उसकी शादी का ख़याल आता है तब होने वाले दूल्हे को चाय पर बुला लिए जाने का रिवाज़ है। चीन में भी शादियों से पहले जहाँ बड़ी तादाद में लड़की और लड़के वाले शामिल होते हैं, शादी की स्वीकृति और एक दूसरे का परिचय चाय पर ही होता है।
उधर अंग्रेज़ों को भी चाय बेहद प्रिय है। कहते हैं, उनके लिए तो चाय जैसे घर में ही पिकनिक मनाने की तरह है। इधर भारत में हर आदमी चाय को अपने तरीके से पीता है - कोई दूध के साथ, कोई चीनी के साथ, कोई दोनों के साथ, कोई बर्फ़ के साथ, कोई नींबू के साथ, कोई काली ही, और कोई अदरक, इलायची, लौंग से लेकर कई तरह के मसालों के साथ। गरज़ ये कि चाय को चाय की तरह कोई नहीं पीता। कई लोग कॉफ़ी के साथ भी ये प्रयोग करने से नहीं चूकते। प्रसिद्ध है कि शायद ऐसे ही पेय की एक चुस्की लेने के बाद असमंजस या पता नहीं झुंझलाहट की स्थिति में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के मुंह से निकल पड़ा था – “अगर यह कॉफ़ी है तो मेरे लिए चाय लाओ, और अगर यह चाय है तो मेरे लिए कॉफ़ी लाओ”। यहाँ किटी पार्टियों में तो महिलायें चाय को चीनी की बजाय चुगलियों से ही मीठा और मसालेदार करती हैं। मुंबई में विलुप्त होती ईरानी चाय और घंटो तक उबली गाढ़ी काढ़ानुमा चाय के दीवाने तो अब भी ढेरों हैं। और वो चाय जो ‘मस्का मार के’ या ‘मलाई मार के’ मिलती है, उसकी तर्ज़ पर तो सारे दफ़्तरों में काम होता है।
आपकी तबियत बिलकुल ठीक हो तो चाय पीना एक कला है, प्रकृति से जुड़ने का माध्यम है, अपनी सम्पूर्णता के आभास की परिचायिका है, अपने आसपास के सौंदर्य को महसूस करने का ज़रिया है, मानसिक शांति में विलीन होजाने का नुस्खा है, और भी न जाने क्या क्या है। विश्वास न हो तो पूछ लीजिए जापानियों को जो ये सब मानते हैं और चाय को एक समारोह, एक उत्सव की तरह पीते हैं। जापान में एक बार सिरदर्द के वशीभूत होकर अपने एक जापानी मित्र के साथ मैंने भूल से चाय पीने का प्रस्ताव रख दिया था। वह बड़े प्रेम से मुझे एक जगह चाय पिलाने ले गया जहाँ पूरे विधि-विधान के साथ चाय पी जाती थी। एक घंटे के उस स्लो मोशन ‘चाय अनुष्ठान’ के बाद जो स्थिति मेरे तन-बदन, मन-मस्तिष्क और मस्तिष्क को अपने अंदर रखने वाले सिर की हुई, वह वर्णनातीत है। संक्षेप में, उस जापानी मित्र से किसी तरह शीघ्र ही विदा लेकर जब किसी रैस्टोरेंट में जाकर जब मैंने वो चीज़ पी जिसे हम लोग चाय कहते हैं, तब जाकर शरीर के अवयव यथास्थिति में आने शुरू हुए। उस (दुर्)घटना के बाद से मैंने उस जापानी दोस्त से दूरी बढ़ानी शुरू कर दी और उसके साथ फिर चाय की बात कभी नहीं की।
चीन में तो औपचारिक समारोहों और मीटिंगों में आपकी टेबल पर पानी की बजाय चाय का कप ही रखा होता है जिसमें बहुत हलके भूरे रंग का हल्का गर्म पानी-नुमा पेय होता है जिसे चाय कहा जाता है। एक ‘चायबाला’ हाथ में केतली लेकर घूमती रहती है और कोई भी कप ज़रा सा भी खाली देखते ही भर देती है। कई कप हलक में उतार लेने के फलस्वरूप अपने पेट द्वारा गम्भीर स्थिति प्राप्त कर लेने के बाद एक मीटिंग के दौरान मैंने अपने कप को इधर उधर रख कर, फाइलों के बीच छुपा कर और कागज़ों में ढँक कर, आदि कई तरह के यत्न करके देख लिये, पर चायबाला हर बार उस कप को ढूंढ कर चाय भर ही देती थी। अंत में मैंने ये निष्कर्ष निकाला कि चायबाला को कप भरने का मौका ही नहीं देने की तरकीब सिर्फ़ एक ही थी कि कप को खाली ही नहीं किया जाय। लेकिन यह ज्ञान मुझे कई लीटर ‘चाय’ पी चुकने के बाद ही आया।
अब चाय का रंग भारतीय राजनीति में गहरा चढ़ने लगा है। सबसे पहले एक राजनीतिज्ञ ने मौका देख कर शगूफ़ा छोड़ा कि बचपन में वह रेल के डिब्बों में चाय बेच कर गुज़ारा करता था। ये कहते ही उसकी झोली में धड़ाधड़ वोट गिरने लगे। लोग शुरू में असमंजस की स्थिति में आगये, पर जब किसी ने इस बात पर मज़ाक उड़ाया तो उसके हिस्से के पच्चीस प्रतिशत वोट कम होते नज़र आये। तब राजनीति में अचानक चाय का महत्व पता लगा। देखते ही देखते अंग्रेज़ों के मुहावरे की तरह ही जैसे शब्दशः ‘चाय के कप में तूफ़ान’ आगया और चाय से भी ज़्यादा गौरव चाय बेचने वाले का होगया। बहती गंगा में हाथ धोते हुए चुनाव हारे दूसरी पार्टी के एक बड़े घोटालेबाज़ राजनेता ने भी जेल से बाहर निकलते ही बयान दे डाला कि असल में चाय तो बचपन में अपने भाई के साथ उसने बेची थी, इसलिए जनता के वोटों पर असली हक़ उसका ही बनता है। अपने दावे को पुख़्ता करने के लिए उसने मुफ़्त चाय की दुकानें तक खुलवा दीं। आलम यह है कि जिसने बचपन में चाय नहीं बेचीं वो राजनेता अब अपने आपको बदक़िस्मत समझ रहा है। हर करोड़पति नेता भी चुनाव लड़ते वक़्त शर्मसार होकर सोच रहा है- हाय री क़िस्मत, अगर उसने भी कभी चाय बेच होती तो ये बात वो भी छाती ठोक कर कहता और जनता के बीच सर ऊंचा करके चलता। जनता के वोट पक्के हो जाते सो अलग।
मुंबई में ‘डिब्बेवालों’ पर जब विदेशियों का ध्यान गया तो ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स से लेकर अमरीका की ऍम.आई.टी. भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। सभी ने इसे प्रबंधन की बेहतरीन मिसाल क़रार कर दिया जिसका संचालन ‘सिक्स सिग्मा’ सिद्धांत पर होता है। राजकुमार विलियम की शादी पर उनको बकिंघम पैलेस से विशेष आमंत्रण मिला। सवा सौ साल बाद ही सही, कम से कम उनके काम का महत्व तो दुनियां को पता चला।
पर इस साल देश को चाय बेचने वालों का महत्व पता चला है। सारे चाय बेचने वाले बेहद खुश हैं। चाय की बिक्री के साथ साथ समाज में उनकी इज़्ज़त भी बढ़ गयी। अब देश की जनगणना में ‘व्यवसाय’ के नाम पर हर आदमी ‘चाय विक्रेता’ लिखा रहा है। उनको पता है अगर कोई बचपन में चाय बेचने वाला प्रधान मंत्री बन गया तो निश्चित ही उनकी बेहतरी के लिए कई योजनाएं लागू की जा सकती हैं। आगे चल कर वे ही सरकारी भवनों, पुलों और सड़कों का लोकार्पण करेंगे। पद्म पुरस्कारों की तर्ज़ पर ‘चाय रत्न’, ‘चाय विभूषण’, ‘चाय भूषण’, ‘चाय श्री’ जैसे राष्ट्रीय सम्मान शुरू हो जायेंगे और अपनी काबिलियत, अनुभव, बेचे गए चाय के कपों या कुल चाय की खपत आदि के मानदंडों के आधार पर उनको सरकार हर 26 जनवरी को ये सम्मान दिया करेगी।
मेरी खुशक़िस्मती है कि हमारे मोहल्ले के तमाम चाय बेचने वालों ने चाय पर चर्चा के लिए एक चौपाल बुलाई है जिसमें उन्होंने मुझ जैसे सभी ग्राहकों को निमंत्रण भेजा है। इस समाचार से मेरे विरोधी पड़ौसी जो हर समय ‘चांय चांय’ की राजनीति ही करते रहते हैं और पिछले काफ़ी लंबे समय से कॉलोनी में चाय की थड़ियां हटवाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं, ज्वलनशीलता की सभी शालीन सीमायें पार कर चुके हैं। उन्हें चिंता हो चली है कि अब कहीं मैं भी चाय की थड़ी नहीं लगा लूं और अगले चुनावों के लिए टिकट या ‘चाय श्री’ किस्म का कोई राष्ट्रीय सम्मान हासिल न कर लूं!