चार दिन बाद / उमेश मोहन धवन
"अरे अरे कहाँ बैठे जा रहे हो? यह स्लीपर क्लास है और हमारी सीटें रिज़र्व हैं।" नंदलाल जी ने यह चेतावनी उस अधेड़ उम्र के यात्री को दे डाली जो अपनी पत्नी के साथ बिना आरक्षण के घुस आया था। उसकी पत्नी ने भी चादर बर्थ पर फैलाकर दावा और मजबूत किया। शाम के सात बजे थे। "भाई साहब, जरा सा बैठ जाने दीजिये। हमारा केवल एक घंटे का ही सफर है। " बर्थहीन व्यक्ति ने याचना की। पर नंदलाल जी एक इंच जगह भी देने के मूड में नहीं थे। थोड़ा और किनारे आकर वह बोले " हम लोग एक-एक महीना पहले लाइन में लगकर इसीलिये रिज़र्वेशन कराते हैं कि सफर में थोड़ा आराम मिले। ऐसे ही एक-एक घंटे हम सबको बिठाते रहेंगे तो आराम कब करेंगे ?" "बहन जी थोड़ी देर की तो बात है।" इस बार महिला ने विनती की पर नंदलाल जी भड़क उठे। "अरे भाई, गाड़ी में और भी तो सीटें हैं। आप लोग हमारे ही पीछे क्यों पड़े हैं ?" वे लोग बड़बड़ाते हुये दूसरी जगह चले गये।
चार दिन बाद नंदलाल जी वापस लौट रहे थे। इस बार उनका प्रतीक्षा सूची में पहला व दूसरा स्थान था पर कोई बर्थ कन्फर्म नहीं हो पायी। टी। टी। ई। ने सलाह दी कि आप लोग जनरल डिब्बे में चले जायें। जनरल डिब्बे की कल्पना से भयाक्रांत होकर उन्होंने एक बर्थस्वामी से विनती की। "भाई साहब जरा बैठने की जगह दे दीजिये। सफर लम्बा है, पत्नी साथ में है, महबूरी है।" "भाई साहब हमें भी तो सोना है" बर्थस्वामी ने प्रतिवाद किया। "बस हम किनारे ही बैठे रहेंगे आप आराम से सोइये।" नंदलाल जी दोहरे हुये जा रहे थे।" क्या बतायें हम तो बिना रिज़र्वेशन के कहीं जाते ही नहीं। पर इस बार प्रतीक्षा सूची में पहला नम्बर भी कन्फर्म नहीं हो पाया। इंसान ही इंसान के काम आता है। भाई साहब, ऐसा कभी आपके साथ भी हो सकता है। बर्थ ना आप घर ले जायेंगे ना मैं।" बर्थस्वामी उनका मुँह ही ताक रहा था और नंदलाल जी बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये सीट पर स्थापित हो चुके थे।