चार / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

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दूसरे दिन रसिक दूले समयानुसार जब आ उपस्थित हुआ; उस समय अभागी को जरा भी होश नहीं था। मुंह पर मृत्यु की छाया पड़ रही थी, आंखों की दृष्टि इस संसार के कार्य को त्यागकर किसी अनजाने देश में चली गई थी। कंगाली ने रोकर कहा-

‘अरी मां ! पिता आए हैं-पांव की धूलि लोगी न ?’

मां शायद समझी, शायद नहीं समझी; शायद गहराई तक संचित उसकी वासना ने, संस्कार की भांति-उसकी दबी हुई चेतना पर आघात पहुंचाया। इस मृत्युपथ के यात्री ने अपनी विवश भुजाओं को शय्या से बाहर बढ़ाकर हाथ झुका दिए।

रसिक हतप्रभ खड़ा रहा। पृथ्वी पर उसकी पद-धूलि का कोई प्रयोजन है, इसे भी कोई चाह सकता है-यह उसकी कल्पना से परे था। बिन्दी की बुआ खड़ी हुई थी, उसने कहा-

‘दो बाबा, थोड़ी-सी-पांवों की धूलि दो।’

रसिक आगे बढ़ आया। जीवन-भर स्त्री को उसने प्यार नहीं दिया, भोजन-वस्त्र नहीं दिया, कोई खोज-खबर नहीं ली; अब मृत्युकाल में उसे केवल थोड़ी-सी पद-धूलि देते समय वह रो उठा। राखाल की मां बोली-

‘ऐसी सती-लक्ष्मी ब्राह्मण-कायस्थों के घर में न जन्म लेकर, हम दूलों के घर में क्यों जन्मी ? अब तो उसकी गति सुधार दो बेटा-

‘कंगाली के हाथ से अग्नि पाने के लोभ में उसने अपने प्राण दे दिए है।’

अभागी के अभाग्य के देवता ने परोक्ष में बैठकर क्या सोचा था, पता नहीं; पर बालक की छाती में वह बात तीर की भांति बिंध गई। उस दिन, दिन का समय तो कट गया, पहली रात भी कट गई; परन्तु सबेरे के लिए कंगाली की मां और प्रतीक्षा नहीं कर सकी। कौन जाने इतनी छोटी जाति के लिए भी स्वर्ग के रथ की व्यवस्था है अथवा नहीं, अथवा अन्धेरे में पैदल ही उन्हें जाना पड़ता है-परन्तु यह समझ में आ गया कि रात पूरी समाप्त होने से पहले ही उसने इस दुनिया को त्याग दिया।

झोंपड़ी के आंगन में एक बेल का पेड़ है। कहीं से कुल्हाड़ी लाकर रसिक ने चोट की अथवा नहीं की, परन्तु जमींदार का दरबान कहीं से दौड़ा चला आया और उसके गाल पर तड़ाक् से एक चांटा कस दिया, फिर कुल्हाड़ी छीनता हुआ बोला-

‘बेटा, यह क्या तेरा अपना पेड़ है जो काटने लग गया ?’

रसिक गाल पर हाथ फेरने लगा। कंगाली रोता हुआ-सा बोला-

वाह, यह तो मेरी मां के हाथ का लगाया हुआ पौधा है दरबानजी। पिताजी को तुमने खामखाह क्यों मारा ?’

हिन्दुस्तानी दरबान तब उसे भी एक गाली देकर मारने चला; परन्तु वह अपनी मरी हुई मां की मृत देह से स्पर्श किए हुए बैठा था, अत: अशौच के भय से उसके शरीर पर हाथ नहीं मारा। शोरगुल से एक भीड़ जमा हो गई। किसी ने भी इस बात से इन्कार नहीं किया, कि बिना आज्ञा लिए रसिक का पेड़ काटना ठीक नहीं था। वे सब फिर दरबानजी के हाथ-पांव जोड़ने लगे कि कृपा करके उसे हुक्म दे दें। कारण, बीमारी के समय जो कोई देखने को आया था, कंगाली की मां उसी का हाथ पकड़कर अपनी अन्तिम अभिलाषा व्यक्त कर गई थी।

दरबान भुलावे में आ जाने वाला पात्र नहीं था; उसने हाथ हिलाकर कहा-

‘यह सब चालाकी मेरे सामने नहीं चल सकती।’