चालाकी? / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
अपनी सलाह के औचित्य के विषय मे मुझे लेश मात्र भी शंका न थी, पर मुकदमे की पूरी पैरवी करने की अपनी योग्यता के संबंध मे काफी शंका थी। ऐसी जोखिमवाले मालमे मे बड़ी अदालत मे मेरा बहस करना मुझे बहुत जोखिमभरा जान पड़ा। अतएव मन मे काँपते-काँपते मै न्यायाधीश के सामने उपस्थित हुआ। ज्यों ही उक्त भूल की बात निकली कि एक न्यायाधीश बोल उठे, 'यह चालाली नही कहलायेगी ?'
मुझे बड़ा गुस्सा आया। जहाँ चालाकी की गंघ तक नही थी , वहाँ चालाकी का शक होना मुझे असह्य प्रतीत हुआ। मैने मन मे सोचा , 'जहाँ पहले से ही जज का ख्याल बिगड़ा हुआ है , वहाँ इस मुश्किल मुकदमे को कैसे जीता जा सकता है ?'
मैने अपने गुस्से को दबाया और शांत भाव से जवाब दिया , 'मुझे आश्चर्य होता है कि आप पूरी बात सुनने के पहले ही चालाकी का आरोप लगाते है !'
जज बोले , 'मै आरोप नही लगाता, केवल शंका प्रकट करता हूँ।'
मैने उत्तर दिया, 'आपकी शंका ही मुझे आरोप-जैसी लगती है। मै आपको वस्तुस्थिति समझा दूँ और फिर शंका के लिए अवकाश हो , तो आप अवश्य शंका करे।'
जज ने शांत होकर कहा, 'मुझे खेद है कि मैने आपको बीच मे ही रोका। आप अपनी बात समझा कर कहिये। '
मेरे पास सफाई के लिए पूरा-पूरा मसाला था। शुरू मे ही शंका पैदा हुई और जज का ध्यान मै अपनी दलील की तरफ खींच सका, इससे मुझमे हिम्मत आ गयी और मैने विस्तार से सारी जानकारी दी। न्यायाधीश ने मेरी बातो को धैर्य-पूर्वक सुना और वे समझ गये कि भूल असावधानी के कारण ही हुई है। अतः बहुत परिश्रम से तैयार किया हिसाब रद करना उन्हें उचित नही मालूम हुआ।
प्रतिपक्षी के वकील को तो यह विश्वास ही था कि भूल स्वीकार कर लेने के बाद उनके लिए अधिक बहस करने की आवश्यकता न रहेगी। पर न्यायाधीश ऐसी स्पष्ट और सुधर सकनेवाली भूल को लेकर पंच-फैसला रद्द करने के लिए बिल्कुल तैयार न थे। प्रतिपक्षी के वकील ने बहुत माथापच्ची की, पर जिन न्यायाधीश के मन मे शंका पैदा हुई थी, वे ही मेरे हिमायती बन गये। वे बोले , 'मि. गाँधी ने गलती कबूल न की होती, तो आप क्या करते ?'
'जिस हिसाब-विशेषज्ञ को हमने नियुक्त किया था, उससे अधिक होशियार अथवा ईमानदार विशेषज्ञ हम कहाँ से लायें ?'
'हमे मानना चाहिये कि आप अपने मुकदमे को भलीभाँति समझते है। हिसाब का हर कोई जानकार जिस तरह की भूल कर सकता है, वैसी भूल के अतिरिक्त दूसरी कोई भूल आप न बता सके , तो कायदे की एक मामूली सी त्रुटि के लिए दोनो पक्षो को नये सिरे से खर्च मे डालने के लिए अदालत तैयार नही हो सकती। और यदि आप यह कहे कि इसी अदालत को यह केस नये सिरे से सुनना चाहिये, तो यह संभव न होगा।'
इस और ऐसी अनेक दलीलो से प्रतिपक्षी के वकील को शांत करके तथा फैसले मे रही भूल को सुधार कर अथवा इतनी भूल सुधार कर पुनः फैसला भेजने का हुक्म पंच को देकर अदालत ने उस सुधरे हुए फैसले को बहाल रखा।
मेरे हर्ष की सीमा न रही। मुवक्किल और बड़े वकील प्रसन्न हुए और मेरी यह धारणा ढृढ हो गयी कि वकालत के धंधे मे भी सत्य के रक्षा करते हुए काम हो सकते है।
पर पाठको को यह बात याद रखनी चाहिये कि धंधे के लिए की हुई प्रत्येक वकालत के मूल मे जो दोष विद्यमान है, उसे यह सत्य की रक्षा ढ़ाँक नही सकती।