चिंदी-चिंदी हिंदी / ओम थानवी
चंडीगढ़ में दस साल रहा हूँ। जयपुर की तरह जब-तब वहाँ के अखबारों को नेट पर देख आता हूँ। इस तरह शहर से एक रिश्ता बना रहता है। कुछ मीठी यादें, कुछ सोए गम जाग जाते हैं।
कल ही उधर का एक बड़ा हिंदी अखबार देख रहा था। एक खबर यों शुरू होती थी : 'सॉपिंस स्कूल-32 में वीरवार को एनुअल स्पोर्ट्स डे के मौके पर रिमोट कंट्रोल्ड हेलिकॉप्टर की उड़ान स्टूडेंट्स के लिए सरप्राइज पैकेज रही।' ऊपर अखबार के कई खाने थे। सिर्फ पहले का नाम हिंदी में था - संघ राज्य क्षेत्र। यह यूनियन टेरिटरी का अनुवाद हुआ। हम केंद्रशासित प्रदेश लिखा करते थे।
बहरहाल, अखबार के बाकी खाने नागरी में यों थे : न्यूज; इवेंट; बेस्ट ऑफ सिटी; सिटी ब्लॉगर; सिटी डायरेक्टरी; गैलरी; ई-पेपर।
मैंने 'बेस्ट ऑफ सिटी' का पन्ना खोला। कुछ बानगी देखिए : “ट्राईसिटी चंडीगढ़ में शॉपिंग के लिए सेक्टर-17 एक स्वर्ग की तरह है। यहां दुनिया भर के मशहूर ब्रैंड्स अपनी स्टोर्स के साथ मौजूद हैं। शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, रेस्तरां, बैंक, डिस्को और पब सेक्टर-17 को शहर का मोस्ट हैप्पनिंग प्लेस बनाते हैं।... दोस्तों के साथ हैंगआउट करने के लिए सेंट्रा मॉल यंगस्टर्स का फेवरेट हॉट स्पॉट हैं। मस्ती और फन के साथ यहां फूड कोर्ट की जबरदस्त वैरायटी हैं। साथ ही यहां के स्टोर्स शॉपर्स के लिए बेहद कूल हैं। दोस्तों के साथ गप्पे मारने के बाद आप फोर-स्क्रीन पीवीआर सिनेमा में मूवी इंज्वॉय कर सकते हैं।... चंडीगढ़ में सिटी म्यूजियम जाकर हैंग आउट करने वालों में एडल्ट के साथ यंगस्टर्स की संख्या भी अच्छी खासी है।”
कभी एक पत्रिका में स्तंभ छपा करता था- “यह किस देश-प्रदेश की भाषा है?” आज लगता है यह प्रश्न बेमानी होगा। क्या खुद पत्र-पत्रिकाओं की भाषा देखकर पूछने को मन न होगा कि यह कहाँ की भाषा है?
हालाँकि भाषा की नई चाल के नमूने लेने के लिए चंडीगढ़ तक जाने की जरूरत नहीं। ये दिल्ली में भी बहुत मिल जाते हैं। इतना जरूर है कि प्रादेशिक अखबारों या संस्करणों में इस तरह की 'भाषा' का इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है। इंदौर, उज्जैन, जयपुर और जोधपुर आदि शहरों के दौरे में भी इस प्रवृत्ति के दर्शन पहले होते रहे हैं। लेकिन अब महसूस होता है कि बीमारी किसी महामारी का रूप ले रही है। मैं हिंदी का विशेषज्ञ नहीं हूँ, विधिवत उसे पढ़ा भी नहीं है, पर खराब हिंदी के प्रसार को भाँप सकता हूँ।
मजे की बात यह है कि ऐसी भाषा इसलिए नहीं लिखी जा रही कि संपादक और उसके सहयोगी सही शब्दों का प्रयोग नहीं जानते। वे हिंदी के शब्द गलत लिख सकते हैं, पर अँगरेजी शब्दों के हिंदी पर्याय उन्हें खूब पता हैं। मगर ऐसी भाषा लिखने का फैसला उनका नहीं है, यह प्रतिष्ठान के व्यापारिक महकमों का निर्णय है जो आजकल के संपादकों को मानना होता है। संपादकों को समझाया जाता है कि समाज अब ऐसी भाषा बोलता है (समझाने वाले की भाषा ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण होगी!), इसलिए हमें समाज को उसकी भाषा में अखबार देना होगा।
बुनियादी रूप से विज्ञापनों की यह भाषा अभी स्थानीय खबरों में ज्यादा प्रयोग की जाती है। धीमे-धीमे वह मुख्य पन्नों की ओर बढ़ रही है। हो सकता है किसी समय संपादकीय पन्ने तक जा पहुँचे। दरअसल, ऐसी भाषा की शुरुआत कभी एक टीवी चैनल ने की थी। उसमें विवेक जागा और 'नीति' बदल दी। पर अखबारों ने इस नीति को जल्द अपना लिया, भले ही प्रयोग के बतौर और चुनिंदा पन्नों के बीच। सर्वेक्षण के आधार पर व्यापार वालों का मानना है कि 'प्रयोग' सफल रहा। यानी अब वह अपने पाँव पसारेगा।
टीवी और अखबारों में भाषा के प्रयोग को लेकर एक व्यावहारिक भेद है। टीवी के प्रस्तोता बोलते हैं और अँगरेजी राज-काज के अनुगामी देश में बोलचाल में अँगरेजी शब्द टपक पड़ना स्वाभाविक है। लेकिन अखबार तो घड़ी-घड़ी की खबर नहीं उछालते। उनके पास पर्याप्त समय और भाषा की देखभाल के साधन होते हैं।
व्यापार विभाग का तर्क मुट्ठी भर शहरी युवकों पर लागू हो सकता है। लेकिन जितनी अँगरेजी भरी हिंदी यह हिंदी-भाषी तबका बोलता होगा, क्या अँगरेजी पढ़ने वालों की बोलचाल की अँगरेजी में उससे ज्यादा खराबी नहीं मिलेगी? फिर अँगरेजी अखबार जान-बूझ कर खराब अँगरेजी में क्यों नहीं निकाले जाते, उस अँगरेजी में जो आम भारतीय पाठक बोलता-समझता है?
मीडिया को भटकने से बचाने की हमारे यहाँ बहुत चिंता होती है। वह वाजिब भी है। सरकार, प्रेस परिषद या एडिटर्स गिल्ड आदि में आचार संहिता की बात होती है, पेड न्यूज की बात होती है, संपादक के पद के अवमूल्यन की फिक्र होती है, मीडिया प्रतिष्ठानों में देसी-विदेशी व्यापारिक घरानों के निवेश की बात की जाती है, लेकिन क्या हिंदी अखबारों के हाथों हिंदी के पतन की चिंता कहीं उस स्तर पर आपने सुनी?
यह तो हुई व्यापारिक दबाव में हिंदी के अँगरेजीकरण की बात। इसके साथ दुखद सच्चाई यह भी है कि संपादकों और सहयोगी पत्रकारों में अच्छी हिंदी के प्रति जागरूकता निरंतर घटती जा रही है। भाषा और वर्तनी के स्तर पर अखबारों या टीवी-रेडियो में हिंदी का कोई मानक रूप प्रचलित नहीं है। प्रतिष्ठान इस तरफ से उदासीन हैं। अस्सी के दशक में जब मैं 'राजस्थान पत्रिका' में काम करता था, प्रधान संपादक कर्पूरचंद कुलिश ने हिंदी विद्वान भगवान सहाय त्रिवेदी को सिर्फ हिंदी-विमर्श के लिए नियुक्त किया था। त्रिवेदी जी ने एक भाषा-नीति बनाई और मानक शब्दावली दी। वे रोज अखबार की भाषिक त्रुटियों का परीक्षण कर सुझाव भी देते थे।
त्रिवेदी जी की भाषा-नीति का प्रभाष जी ने अध्ययन किया और उसे काफी-कुछ अपनाते हुए अपने सुझावों के साथ 'जनसत्ता' में लागू किया। उसमें मामूली संशोधन मैंने भी किए हैं। मसलन त्रिवेदी जी और प्रभाष जी ने 'द्वारा' शब्द को निषिद्ध घोषित किया था। 'द्वारा' को सब जगह 'ओर से' कर दिया जाता था। अब, इसमें गोली 'दिनेश द्वारा' और 'दिनेश की ओर से' मारी गई में जुदा अर्थ ध्वनित होंगे। 'द्वारा' में खुद गोली दागने का भाव आता है जो 'ओर से' कर देने पर दूसरों पर चला जाता है। हालाँकि बेहतर प्रयोग होगा कि गोली दिनेश ने या दिनेश के लोगों ने चलाई।
बहरहाल, मैं किसी शब्द को निषिद्ध घोषित करने के हक में नहीं हूँ। कोई शब्द कब कहाँ काम आ जाय, कौन जानता है। यहाँ पर प्रयोजन कुछ ही वर्ष पहले तक भाषा के प्रति बरती जा रही नीतिगत सजगता की तरफ ध्यान दिलाना भर है। नीति छोड़िए, अब तो सामान्य प्रयोग के हिंदी शब्द भी पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर गलत मिलते हैं। ऐसे शब्दों की संख्या पाँच सौ से ऊपर होगी। कुछ नमूने देखिए; साथ में कोष्ठक में गलत रूप : ब्योरा (ब्यौरा), न्योता (न्यौता), बनिस्बत (बनिस्पत), अधीन (आधीन), अध्यात्म (आध्यात्म), अंत्येष्टि( (अंत्येष्ठि), व्यावसायिक (व्यवसायिक), गुरु (गुरू), तबीयत (तबियत), संन्यास( (सन्यास), पश्चात्ताप (पश्चाताप), परखचे (परखच्चे), स्रोत (स्त्रोत), चरागाह (चारागाह), सौहार्द (सौहार्द्र), शलाका (श्लाका), अभयारण्य (अभ्यारण्य) आदि।
गलत लिखे जा रहे ऐसे शब्दों में मैं वे शब्द शामिल नहीं कर रहा, जो दूसरी भाषाओं से आए और हिंदी में उपसर्ग और प्रत्यय के जोड़ से या उच्चारण बदलकर रूपांतरित हो गए। मसलन हलवाई (हलवा+ई), जिम्मेवारी (जिम्मा+वारी), कानवाई (कॉनवॉय), पलटन (प्लैटून), पतलून (पैंटालून), लालटेन (लैंटर्न) आदि। इन्हें गलत भी नहीं मानता हूँ। यह परदेसी शब्दों का हिंदीकरण है।
शब्दों के रूप बदलने में हमने संस्कृत से भी बहुत छूट ली है। संस्कृत के 'राष्ट्रिय' शब्द को हम 'राष्ट्रीय' लिखते हैं। आत्मा वहाँ पुल्लिंग है, हिंदी में उसका स्त्रीलिंग रूढ़ है। ऐसे ही, संस्कृत में 'अ' और 'अन्' उपसर्ग हैं, जो शब्दों का अर्थ उलट देते हैं- ज्ञान/अज्ञान, उचित/अनुचित। संस्कृत में व्यंजन से शुरू होने वाले शब्द से पहले 'अ' उपसर्ग जुड़ता है और शब्द स्वर से शुरू होता हो तो 'अन्'। अब देखिए हिंदी क्षेत्र में विकसित हुए अपने उपसर्ग 'अ' और 'अन', जिनके सहारे हिंदी ने बेधड़क ढेर अलग शब्द बना लिए हैं: अछूत, अबूझ, अनचाहा, अनजान, अनबन, अनपढ़, अनगिनत आदि। अधकचरा, अड़चन, आढ़तिया, अठन्नी, अगाड़ी, अकुलाहट, अचकचाना, अललबछेड़ा, अलगाव, अहेरी जैसे सैकड़ों शब्द हिंदी में ही जन्मे और पनपे हैं।
कहना न होगा, यह सिलसिला आगे भी बढ़ता है इसलिए बात-बात पर संस्कृत स्रोत की दुहाई या शुद्धिकरण की टेर का मैं पक्षधर नहीं। अनुशासन जरूरी मानता हूँ, लेकिन प्रयोग और चलन में भी मान्यता की गुंजाइश लेकर चलता हूँ।
मेरे गुरु अज्ञेय प्रयोगवादी माने जाते हैं (हालाँकि उन्होंने इसका हमेशा खंडन किया); कविता में प्रयोग को उन्होंने जरूरी माना- लेकिन भाषा के मामले में वे और उस दौर के अनेक साहित्यकार और संपादक लगता है कुछ शुद्धिवादी थे।
अज्ञेय मास्को को, शुद्ध उच्चारण के अनुरूप, मस्क्वा लिखते-लिखवाते थे। दुविधा को द्विविधा लिखते। मुझे लगता है मास्को हिंदी में इतना रूढ़ हो गया कि उसका हिंदीकरण स्वीकार्य होना चाहिए। लेकिन असम को आसाम की जगह सही लिखने-लिखवाने का आग्रह हमें क्यों नहीं करना चाहिए? निकट के नाम जाने-अनजाने बिगड़ जाएँगे तो दूर के सुधारने का क्या औचित्य होगा?
जो नाम रूढ़ नहीं हुए और जानकारी के अभाव में अलग-अलग रूपों में लिखे जाते हैं, उनका सुधार भी जरूरी लगता है। जैसे चे गेवारा को ग्वेरा या गुएवारा लिखने से रोका जा सकता है। अभी ऊगो चावेज की मृत्यु हुई, नाम का प्रामाणिक उच्चारण (इंटरनेट इसमें बहुत मददगार है) मालूम कर हमने उसे ह्यूगो शावेज के विचलन से भरसक बचाया। यह शुद्धिवाद शायद नहीं, बस जिम्मेवारी का तकाजा है। (जिम्मेदारी जानबूझ कर नहीं कहता क्योंकि उसमें सरोकार से बढ़कर दायित्व या 'ड्यूटी' का भाव आ जाता है। उर्दू के जानकार जिम्मेदारी की जगह जिम्मेवारी देखकर जरूर चौंकते हैं। पर बाबू श्यामसुंदर दास ने शब्दसागर में उसे हिंदी प्रत्यय से बना हिंदी शब्द ही माना है।
अपने यात्रा-वृत्तांत 'मुअनजोदड़ो' में मैंने मोहनजोदड़ो के भ्रामक प्रयोग की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की। कोई मोहनजोदड़ो लिखे तो उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वह इसी रूप में प्रयोग होता आया है। उ और ओ की आपसी आवाजाही (मुहम्मद/मोहम्मद, मुहल्ला/मोहल्ला/, उसामा/ओसामा) और ह और अ की आपसदारी (स-ह, य-ज, र-ल की तरह) में मुअन-जो-दड़ो (मुर्दों का टीला) अकारण मोहनजोदड़ो या मोहेंजोदाड़ो हो गया। पाकिस्तान यात्रा में पाया कि सिंधी समाज इस क्षेत्र में मुअनजोदड़ो बोलता है। मोहन कृष्ण का नाम है, जिनका जन्म सिंधु सभ्यता के बहुत बाद हुआ, अगर हुआ। इस विभ्रम से बचने के लिए मैंने वह नाम प्रयोग किया, जो सिंध में बोला जाता है।
जो हो, आप समझ सकते हैं कि मैं भाषा की शुद्धि और अशुद्धि के बीच उलझता रहता हूं। क्योंकि यह मेरा पेशा है और थोड़ा सरोकार भी। इसी के चलते अपनी भाषा में सुधार के प्रयत्न भी जारी रहते हैं। अक्सर मानक कोश की शरण जाता हूँ।
कोई कोश भाषा नहीं सिखा सकता, भाषा समाज में पनपती है। लेकिन भाषा का मानकीकरण कोश ही करते हैं। प्रयोग और विचलन का लिहाज कोशकार करते हैं, लेकिन बहुत उदार होकर नहीं। यह उचित भी है। वरना एक रोज वही हिंदी मानक कहलाने लगेगी जो कभी जीटीवी या आज के बहु-वितरित अखबार इस्तेमाल करते हैं। यह जरूर है कि हिंदी में कोश-संशोधन अँगरेजी की तरह नियत अवधि में नहीं होते। अपनी भाषा के बिगड़े हुए शब्दों को भी अँगरेजी कोश खास तवज्जोह नहीं देते, लेकिन नए शब्द जरूर जोड़ते रहते हैं।
अगर हम मानते हैं कि भाषा में प्रयोगों की छूट के साथ एक अनुशासन भी कायम रहना चाहिए तो कोश के मानक समर्थन की हमें अक्सर दरकार होगी। इसके साथ हिंदी की शब्द-शक्ति बढ़ाने और सामान्य अनुशासन से भाषा को फिसलने न देने के लिए साहित्यकारों, पत्रकारों और हिंदी शिक्षकों का सजग और सक्रिय रहना भी जरूरी होगा।
हिंदी के शिक्षक, मुझे लगता है, इस मामले में सबसे उदासीन बिरादरी हैं। कभी वे सबसे ज्यादा सक्रिय हुआ करते थे। महत्त्वपूर्ण ग्रंथ और मानक हमें भाषाविज्ञानी और साहित्य के शिक्षक दे गए। आखिर साहित्यकार से तो हम अभिव्यक्ति की अपेक्षा ही ज्यादा करते हैं, बजाय शब्दविज्ञान या भाषाविज्ञान के कौशल के। लेकिन शिक्षकों का हाल बेहाल है। उनकी तर्क-पद्धति संदिग्ध है। वे “शुद्ध भाषा” के समर्थक भी हो सकते हैं और नितांत अशुद्ध प्रयोगों के भी। अगर वे अशुद्ध भाषा के हामी- बहुत संभव है अपनी सीमाओं के कारण- निकले तो उनके छात्र किस धारा की ओर जाएँगे। अगर वे विद्यार्थी लेखक, पत्रकार या प्रूफ-संशोधक बन गए तो भाषा में किस मत का पालन करेंगे?
ताजा अनुभव बयान करता हूँ। एक कॉलेज में पढ़ाने वाले हिंदी व्याख्याता को कहा कि 'सामर्थ्य' और 'सोच' के स्त्रीलिंग रूप चलन में भले हों, पर वे कोशसम्मत नहीं हैं। वे नहीं माने। तर्क देते रहे, पर कोई कोश उठाकर नहीं देखा। मुझे ही हवाले ढूँढ़ने पड़े। ऐसे कुछ प्रसंग और हैं।
लेकिन पिछले पखवाड़े दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी शिक्षक आशुतोष कुमार (नाम इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि वे 'बहस' में शिरकत को आतुर हैं) ने फेसबुक पर कहीं 'गाली-गलौच' लिखा। सोशल मीडिया जल्दबाजी का माध्यम है, सो मैंने पाती भेजकर पूछ लिया कि 'गाली-गलौज' सही होगा या 'गाली-गलौच'? उन्होंने कोश से पुष्टि कर ली होगी। बोले, “सही तो वैसे 'गलौज' ही है। लेकिन 'ज' को 'च' कर देने से गाली की कड़वाहट तनिक हल्की नहीं हो जाती?”
गाली में गलौज जोड़ने से तो गाली का असर बढ़ जाएगा। लेकिन 'गाली की कड़वाहट हल्की' करने का ख्वाहिशमंद गाली देगा ही क्यों?
उन्होंने मुझे समझाया कि गाली की नहीं “लफ्ज की कड़वाहट कम करने की बात है। गलौज से गलाजत झाँकती है तो गलौच से- हद से हद- गले या गालों की मश्क।” फिर उन्होंने पंजाबी के एक कोशकार का हवाला दिया, कि पंजाबी में गाली-गलौच ही चलता है।
गले और गालों की मश्क? जो युग्म शुद्ध हिंदी क्षेत्र की उपज है, जो हिंदी शब्दसागर से लेकर मानक कोश तक 'गलौज' ही है, उसके लिए पंजाबी की मिसाल? वह भी अपने गलत प्रयोग को सही साबित करने के लिए? पंजाब में कीचड़ को चीकड़, मतलब को मतबल और निबंध को प्रस्ताव कहते हैं। क्या हम भी इन्हें अपना लें? दिल्ली में करा-करी-करिए प्रयोग प्रचलित हो गए हैं, आप कहाँ जा रहे हो, आपके मम्मी कहाँ गए हैं आदि प्रयोग भी खूब सुने जाते हैं। क्या इन्हें भी हम आदर्श मानकर विश्वविद्यालय में पढ़ाएँ? 'गाली-गलौच' की तरह कृप्या, धुम्रपान, आर्शीवाद जैसे अनेक अशुद्ध शब्द दिल्ली में सार्वजनिक स्थलों पर नजर आ जाते हैं। लेकिन ये जानकारी के अभाव में होने वाली त्रुटियाँ हैं, हिंदी शिक्षक तो ऐसी त्रुटियाँ करते या उनका पक्ष लेते नहीं देखे जाते। क्या अखबारों की तरह विश्वविद्यालयों में यह किसी नई प्रवृत्ति की पदचाप है? या कोई हीनता का अहंकार है?
इस पर व्यापक चर्चा के लिए मैंने फेसबुक पर यह प्रसंग छेड़ा। पर आशुतोष कुमार का नाम नहीं दिया। वे वहां अपने नाम (और चित्र तो होता ही है) सहित खुद आ गए। 'गलौच' को सही साबित करने के लिए नए-नए तर्कों के साथ। मुख्यतः उनका कहना था कि “भाखा बहता नीर है।... अगर 'गालीगलौच' लफ्ज प्रचलन में है तो कोई तानाशाह उसे हिंदी से खारिज नहीं कर सकता।... गलौच की आदत हिंदी के संपादकों में पाई जाती है, अध्यापकों में नहीं।”
प्रचलन से कितना भारी तर्क बनता है, मुझे नहीं पता। लेकिन 'प्रचलन' का परिमाण जानने के लिए मैंने गूगल में गाली-गलौच टाइप किया। उससे अंदाजा लगता है कि हजारों लोग वाकई गलत प्रयोग करते हैं। फिर मैंने गाली-गलौज टाइप किया। उसके प्रयोगों की संख्या तो लाखों में निकली। यानी ज्यादा प्रचलन सही वर्तनी का ही है। फिर जिद काहे की?
सबसे हैरान करने वाली चेष्टा यह हुई कि उन्होंने प्रूफ की गलतियों वाली किताबों को प्रमाण मानकर बड़े लेखकों को भी 'गलौच' लिखने वाला मान लिया! पहले के लेखक हाथ से लिखते थे, पर कंपोज और त्रुटि-सुधार का काम प्रायः और लोग करते थे। लेखक के न रहने पर छपने वाले संस्करणों में भाषिक त्रुटियों की आशंका और बढ़ जाती है। ऐसे में यह कहना हास्यास्पद होगा कि वे लेखक सही हिंदी का प्रयोग नहीं जानते थे। सबसे पहले अज्ञेय को; एक कहानी (सभ्यता का एक दिन) उद्धृत कर कहा: “यह मेरी नहीं 'अज्ञेय' की पंक्ति है। 'गाली-गलौच' जैसे लफ्ज पर हिंदी के मेरे जैसे 'अयोग्य' अध्यापक का एकाधिकार नहीं है।” अज्ञेय का उद्धरण उन्होंने शायद भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित अज्ञेय अज्ञेय रचनावली से लिया था।
मैंने हाथ बढ़ाया और अज्ञेय के जीते-जी प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह, समग्र कहानियों के खंड 'छोड़ा हुआ रास्ता' और संपूर्ण कहानियों के एकल संस्करण को पलटा: सब में उस कहानी में 'गाली-गलौज' ही मुद्रित था। फिर उस बहस में उनके समर्थन में कोई मैथिली गुप्ता उतरे। उन्होंने किताबों के पन्ने पेश कर साबित करने की कोशिश की कि प्रेमचंद, रेणु, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भगवतीचरण वर्मा, सियारामशरण गुप्त आदि भी 'गलौच' लिखते थे। कुतर्क की भी सीमा होती है। मैथिली गुप्ता के दावे (जितने मैं जाँच सका गलत निकले। नए कंप्यूटरकृत संस्करणों में (जिनमें प्रूफ की त्रुटियों की पर्याप्त आशंका रहती है) उन्हें 'गलौच' शब्द मिल गया था, लेकिन ठीक उन्हीं रचनाओं में - जो प्रेमचंद, रेणु, सियारामशरण गुप्त की किताबों के पुराने संस्करणों में छपी थीं- मुझे 'गलौज' ही छपा मिला।
मुझे अजीबोगरीब बात यह लगी कि छापे की गलती के आधार पर हिंदी शिक्षक महान हिंदी लेखकों की भाषा की खराबी कैसे घोषित कर सकते हैं। पहले के लेखक हाथ से लिखते थे, पर कंपोज और त्रुटि-सुधार का काम प्रायः और लोग करते हैं। लेखक के न रहने पर छपने वाले संस्करणों में भाषिक त्रुटियों की आशंका और बढ़ जाती है। ऐसे में यह कहना हास्यास्पद होगा कि वे लेखक सही हिंदी का प्रयोग नहीं जानते थे। सबसे मजेदार बात यह रही कि इतने मूल संस्करणों के प्रमाण सामने आ जाने के बाद भी आशुतोष कुमार यह बोले: “मुझे मालूम था कि बात प्रूफ पर आएगी।” यानी अभी भी वे सही थे! प्रेमचंद, अज्ञेय, रेणु, सियारामशरण गुप्त आदि सब गलत, जिन्हें वे अपने समर्थन में मान रहे थे, पर वे निकले नहीं। प्रचलन के आँकड़े भी सही नहीं निकले। उनका यह कहना बिलकुल ठीक है कि भाषा बहता नीर है। लेकिन यह भी समझना चाहिए वह बहता नीर है, बहता नाला नहीं है। गलत वर्तनी का इस किस्म का समर्थन नीर को कैसा नीर रहने देगा?
हिंदी समय की टिप्पणी : हिंदी अपने देश में ही इतने बड़े इलाके की भाषा है कि उस पर स्थानीय प्रभाव पड़ना अत्यंत स्वाभाविक है। गाली-गलौज और गाली-गलौच के विवाद का स्रोत संभवतः यही है। जिस तर्क से अमेरिका में labour को labor लिखते हैं, उसी तर्क से क्या गलौच को गलौज का एक अन्य रूप नहीं माना जा सकता? फिर, हमारे यहाँ तत्सम और तद्भव, दोनों रूप चलते हैं, जैसे यमुना और जमुना, योगी और जोगी। पूड़ी को कई जिलों में पूरी कहते हैं। वर्तनी का मानकीकरण होना ही चाहिए, परंतु मानकीकृत वर्तनी में भी सुअर और सूअर तथा पेच और पेंच, दोनों लिखने की छूट हो, तो क्या हर्ज होगा? आखिर हिंदी किसी एक क्षेत्र की भाषा नहीं है - यह भारत संघ की भाषा है। गैर-हिंदीभाषियों द्वारा लाए गए विकारों का क्या किया जाए, यह एक अलग मुद्दा है।