चिंदी चिंदी कथा / विमलेश त्रिपाठी

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[ मैं आपसे ही मिलने आया हूँ। - उसके स्वर में दृढ़ता है। वह दरवाजा खोलकर दाखिल हो चुका है कमरे में।

इतने दिन बाद कौन आया है, इस अधिकार और साहस के साथ।

जाओ नौजवान लौट जाओ, तुम गलत दरवाजे में दाखिल हुए हो। यह एक भिखारी का घर है जिसे पूरी दुनिया पागल समझती है, एक पागल बूढ़े आदमी से तुम्हारा क्या सरोकार? लौट जाओ मेरे जीवन के बचे हुए वक्त मुझे गहन पश्चाताप में बिताने दो। - मेरी आवाज में पीड़ा और विरक्ति साफ महसूस कर सकते हैं आप।

'मैं सही जगह पर हूँ वेदाँत अरमन।' - वह वेदाँत अरमन चबा-चबाकर मेरे बिलकुल समीप आकर लगभग फुसफुसाते हुए शोर में कहता है। मैं हतप्रभ। सवाल की सैकड़ों सूइयाँ एक साथ दिमाग में चुभती चली जाती हैं। कौन है यह ??

कौन वेदाँत...? इस नाम का कोई शख्स यहाँ नहीं रहता। - पीड़ा और विस्मय से अजीब आकृति में ढल गए अपने चेहरे को मैं अँधेरे में ढक लेने की असफल कोशिश करता हूँ।

यह नाम ...वे...दा...न्त...अ...र...म...न... मेरे जेहन को चीरता हुआ पूरे कमरे में फैल जाता है। कमरे की हर चीजें इस नाम को दुहराने लगती हैं। और उसकी कोरस ध्वनि एक तीखे गंध की तरह हर जगह फैल जाती है ...वेदाँत अरमन ...वे...दा...न्त अ...र...म...न। तस्वीर बन के दीवार से चिपटे दादा सूर मुस्करा रहे हैं। एक विजयी मुस्कान। उसी तरह जिस तरह अपने अंतिम समय में मुस्करा रहीं थी उनकी दृष्टिविहीन निर्दोष आँखें... ]

तब से समय बहुत गुजर चुका है। चिंदी-चिंदी हो चुकी स्मृतियाँ अब आती भी हैं तो कोई तार-सी नहीं, बिलकुल बेतरतीब। जैसे हवा का कोई महीन स्पर्श जिस्म को छू कर निकल गया हो। कुछ लम्हा उसकी सरसराहट जेहन में गूँजती है - मैं अव्यवस्थित-सा जहाँ का तहाँ बुत हो जाता हूँ। अभी-अभी गुजर चुका समय एक साँय-साँय सन्नाटा छोड़ जाता है - कुछ ऐसा जिसे निष्क्रिय किस्म की उदासी कहते हैं शायद।

तब से चुपचाप और धीमे कितना समय गुजर चुका है !!

उस दिन प्लेटफॉर्म पर खड़े हम दोनों। उसके चेहरे से अवसाद और उत्साह बारी-बारी झाँकते हुए। उस वक्त तनिक भी इल्म न था कि बाद का समय एक लंबा अंतराल लेकर आएगा। एक ऐसा अंतराल जो हर लम्हा कचोट की तरह छाती पर सवार होगा - सैकड़ों सवाल की शक्लें इख्तियार किए हुए। और सवाल भी ऐसे कि मन का हर सिरा लहूलुहान होता जाता हुआ।

यह अजीब सी लगती हुई बात थी कि इतनी बातें थीं हमारे बीच और हम चुप थे। बातें ऐसीं जिनका एक लंबा सिलसिला, जो शरीर के विकसित होने के साथ अनायास ही विकसित होता चला गया था।

यूँ कहें कि उम्र जितनी बातें।

मसलन अगर हम कस्बे से गुजरती नदी के किनारे बैठे हों तो आसमान के नीले विस्तार को देखकर उसका यह कहना कि इसका छोर तो होगा कहीं, ...कितना निस्सीम है यह नील!! - कभी देखेंगे उसके तल को छूकर - उस जगह से देखेंगे धरती को - कि वहाँ से यह नदी कैसी दिखती होगी - और यह काली-खुरदरी सड़क जिसके लिए गुलजार का कोई एक गीत उम्र से लंबी कहता है !!!

ऐसी कितनी लंबी बातें जो सड़क के मुड़ जाने के बाद भी खत्म नहीं होती थी। चली आती थी हमसे नजरें चुराकर हमारे विस्तर के खाली जगहों के बीच और उन्हें इस तरह देख कर हर बार की हैरानी का सिलसिला कभी खत्म होने का नाम न लेता था। दादा सूर अक्सर चुप रहते थे, स्मृति का कोई एक तार पकड़ कर जैसे समय के किसी खोह में चले गए हों, जहाँ से उनको हठात लौटा पाना आसान नहीं था। और हम थे कि बस चलते जाते थे - बोलते जाते थे। कोई एक नया किला बनता था कोई एक पुराना ध्वस्त होता था और हमारी आँखों की चमक ऐसी कि किसी के भी मन में रंजिश भर देने के लिए काफी थी। दादा सूर भी चलते थे। पूरे कस्बे को धता बताते हुए। खुश और बेपरवाह कदम... कि हमें पहुँचना था एक दिन एक जगह।

ऐसी सैकड़ों बातें और उसमें सब कुछ को धर लेने का दंभी उत्साह - हमारे और उसके बीच।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हमारे अपने घरों में कितनी घुटन थी। हमारे अनपढ़ और धर्मभीरु पिताओं के मजूरी करते घिस गए हाथ हर बार दुनिया के क्रोध मिटाने हमपर ही उठते थे - कि अभाव था वह जो शब्दों के जाले बुनता था, उनके मुँह से निकल कर हमें घेरने की हर एक कोशिश करता था, देखता था हमारे साथ को एक गहरे संशय की नजर से।

हमें सहज विश्वास ही नहीं होता था कि सदियाँ गुजर जाने के बाद भी उनकी सोच ऐन उसी जगह मौजूद थी, और वे सवाल जो कल पूछे गए थे, आज भी पूछे जाते थे उतनी ही शिद्दत के साथ हमसे। दुनिया बदल गई थी, समय चलता हुआ कहाँ का कहाँ पहुँच गया था, लेकिन वे सोच और सवाल वैसे ही साबुत थे, हमें चिढ़ाते हुए और अपने पूरे दम के साथ अपनी ओर खींचते हुए। लेकिन हम थे कि लोहा लेते रहे, लड़ते रहे। अपने संकल्पों को पुख्ता करने और स्वयं को सहेजे रखने की कवायद में अपनी ऊर्जा खर्च कर कभी थके नहीं।

हम विशिष्ट थे अपनी और एक दूसरे की नजरों में।

जीत की जश्न साथ मिलकर मनाया था तो हार गए हर एक क्षणों में हमने एक दूसरे के आँसू पोछे थे। यूँ कि बहुत याराना लगता था।

कैसे जिएँगे हम तुम्हारे बगैर - वह कहता।

कैसे जिएँगे हम तुम्हारे बगैर - मैं कहता।

जीना छोड़ो - वह कहता।

मरना छोड़ो - मैं कहता।

बदलेगी यह दुनिया - चलते जाते थे हम।

अपन बदलेंगे - हँसते जाते थे हम।

बदलेगी यह दुनिया - दादा सूर पतली और महीन आवाज में कहते।

कपड़े का ठेला लगाते, मजूरी करते, मुहल्ले के लड़के लड़कियों को ट्यूशन देते हमने अपनी पढ़ाई जारी रखी थी। यह अजीब ही था कि जहाँ पूरी दुनिया एक मायावी आँधी में बेतहासा भागती जा रही थी, हमने अपने लिए कुछ और ही चुना था। चुना था कि हम चुन लिए गए थे किसी के द्वारा... कि कविताएँ चलती रहीं साथ... कि हम चलते रहे कविताओं के साथ... गुलजार, सुदर्शन फ़ाकिर, फैज की गजलों के साथ बैठने-उठने की वह आदत। और फिल्में जो सच को सच की तरह कहना सिखाती थीं - और सच के साथ जीने को कहती थीं। ऐसे ही थे हम - ऐसे ही बने थे हम।

वे सच्चे और बच्चे क्षण। वह वक्त और यह प्लेटफॉर्म जहाँ हम खड़े थे एक-दूसरे के आमने-सामने।

कैसे कहें अलविदा...।

अलविदा...???

कैसे रह पाएँगे हम तुम्हारे बगैर - उसकी सूनी आँखों में पढ़ती हैं मेरी आँखें।

कैसे जिएँगे हम तुम्हारे बगैर - अंदर बुदबुदाता है ध्वनिहीन कोई...।

मत जाओ, हमें मिलकर ये दुनिया बदलनी है - कहते-कहते रह जाती है जबान।

मेरा जाना भी इस दुनिया के बदलने में शामिल है - सुनते-सुनते रह जाते हैं मेरे कान।

और हमारे बीच जंगल के किसी रात की चुप्पी।

हमारे जीवन में भी यह मोड़ आना था जो हमें इतना शांत कर दे कि हलक से आवाज तक का निकलना मुमकिन न हो? अचानक जैसे एक आँधी आई थी हमारे अब तक के बने सब कुछ को ध्वस्त करती। और अली ने अपनी पूरी ताकत से साथ मुझे अपनी बाँहों में भींच लिया। वह हिचकियाँ लेकर रो रहा था और मैं चुप। कोई आवाज नहीं बस दूर-दूर तक उसके गले की हिचकियाँ... अवसाद...।

तब तक भी मेरे मन का कोई रेशा यह संकेत न दे सका था कि यह अलविदा फिर मिलने के लिए नहीं, कभी न मिलने के लिए था।

तब से समय बहुत गुजर चुका।

चिंदी-चिंदी स्मृतियों या कहें कि चिंदी-चिंदी कथा को जोड़ने बैठा मैं जानता हूँ कि आपके जेहन में एक सवाल है कि इतने अंतराल के बाद यह क्यों? इसलिए कि वह आया है समय के प्रवाह में कहीं गुम गए उस पुकार को लेकर जिसे दादा सूर के मुँह से सुनने को आदी थे हम? वह अजनबी जो बोलता है तो मन की सुप्त तंतुएँ अतीत के गहरी खाइयों में बेतहासा धँसती चली जाती हैं। पता नहीं मुझे अब, जबकि सारे ख्वाब किसी पोटली में बँधे चिरकुट भर रह गए हैं।

क्या हमने सोचा था उन नादान और मासूम दिनों में कि हम सचमुच रेत के घर बना रहे थे और घर भी घर के अर्थ में नहीं। उसका भी एक अलग रूमानी अर्थ था - एक ऐसा अर्थ जिसे हमारा अपना होकर भी कभी अपना न होना था। देखे और रहे हुए घर से अलग कि उसे किसी महान शब्द में बाँध देने की पागल धृष्टता। और भरभराकर जिसका टूटना सहन नहीं हुआ था हमारे नादान मन से।

सहज यह विश्वास करना मुश्किल था मेरे लिए कि वह सचमुच चला जाएगा एक दिन... एक दम चुपचाप... अकेले... एक कायर (??) की तरह और समय के इतने बवंडर के बाद उसका संदेश इस तरह एक अजनबी लेकर आएगा। एक ऐसा संदेश जिसके आते-आते हमारी आँखों की पुतलियों में उसे पढ़ पाने भर तक की जरूरी ताकत भी बच नहीं रहेगी। और दादा सूर समय की खाक में विलीन हो चुके रहेंगे।

[ वह आया है बहुत मशक्कत कर के मुझे खोजता-ढूँढ़ता। मेरे जेहन से अली की स्मृतियों के चिंदी-चिंदी हो जाने के बाद। उसे बिठाया है मैंने अपनी तंग कोठरी के एक खाट पर। उस सत्रह साल के युवा के खुरदुरे चेहरे पर इतने सवाल कि उसे जी भर देखना चाहकर भी उससे आँखें बचाता यहाँ खड़ा हूँ। आपके रूबरू। इतनी दूर का सफर। मैं सचमुच चाहता हूँ कि वह सुस्ता ले थोड़ा। होना तो उसके रूबरू भी पड़ेगा ही। लेकिन इससे पहले खुद को सहेज लेना चाहता हूँ, संयत कर लेना चाहता हूँ। कौन है यह? कौन है यह जो हमारे उस दबे हुए अतीत में सेंध लगाता दीख रहा है, जिसे अपने सामने लाने के पहले कई-कई बार भय से थरथराते हुए पसीने-पसीने हो चुका हूँ मैं? कौन है यह जो आया है तो वर्षों से आलमारी में बंद एक किताब फड़फड़कार खुलती चली जा रही है ? ]

उसकी बाँहों से अलग हो कर पहली बार उस दिन मैं सचमुच अकेला था। हवा में लहराते उसके दूर जाते हुए हाथ और उसका पूरा शरीर जैसे उछल पड़ने की हद तक बेचैन - और बीच इसके मैं एकदम ताजी स्मृतियों के साथ अकेला। ...दृश्य में अब भी उसकी हिचकियाँ की अनुगूँज थी और मुझे भरोसा था कि वह लौट आएगा हमारी राह पर, एक लड़की का प्रेम उसे इस तरह विचलित न कर सकेगा।

उसके बाद हम नहीं मिले कहीं - कभी भी। समय ने यह मौका नहीं दिया हमें। उस दिन वे हमारे आखिरी हाथ थे जो विदा में हिलते हुए 'फ्रीज' हो गए थे।

तब से वक्त कितना गुजर गया। कितनी जमीन बंजर हो गई तब से। इतिहास की छाती पर समय ने लिख दिए मानवता की हत्या की सैकड़ों इबारतें। पूरा कस्बा गँवा बैठा अपनी जवानी को।

हम हिंदी पढ़ते थे। वह और मैं। सोते-जागते थे कविता-कहानियों के साथ। हमारे आदर्श, हमारी इमानदारी साथ थी हमारे। हम विशिष्ट थे। औरों से अलग। हम ऐसा क्यों थे का जवाब कोशिश की तलाश लेने की लेकिन हर तलाश गर्वोन्नत सिर और नाटकीय बयानों पर खत्म हुए - कुछ यूँ कि जो है उससे बेहतर चाहिए पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए - हमें वही मेहतर होना है। हे मुक्तिबोध, हे निराला, हे... - बदलेगी यह दुनिया - अपन बदलेंगे... हम कसम खाते हैं उन कविताओं की - साक्षी हों रवींद्र-निराला-मुक्तिबोध-मार्क्स और गाँधी की किताबें - तस्वीरें उनकी... रूहें उनकी... हम कसम खाते हैं...

हम कसमें खाते थे और सूर दादा मुस्कुराते थे अपने अंदर कहीं।

एक दंभी उत्साह, जैसे हमारे कसम खा लेने से ही ये दुनिया बदलनी है। लेकिन सारी भावनाएँ हमारी सच थीं। अपने कहे हुए एक-एक लफ्जों के लिए हम इमानदार थे और जवाबदेह भी। हमने किसी फरेब या समय के छल के सामने समझौता नहीं किया था।

हमारे एक साथ होने की वह ताकत भी अजीब थी। और वह नादानियों का समय था जब हाथ आसमान छूने को मचलते हैं। पूरी दुनिया को काबू में कर लेने की मजबूत हवा फेफड़े में भरी होती है। विश्वास का वह समंदर हमारे बाजुओं में भरा होता है और जिसकी हर लहर पर पुरातनता का एक किला होता है ध्वस्त।

वह अट्ठारह साल की उम्र - वह नादान उम्र - जहाँ हम सच के कठोर और रूमानी धरातल पर खड़े होकर सोचते थे कि हम भागेगें नहीं दुनिया को बदलेंगे।

तब एक लड़की आई थी उसकी जिंदगी में। और बाद के दिनों में हम दोनों की जिंदगी में। मतलब यह यूँ हुआ कि मेरे यहाँ मेरी सोच और हमारी बहसों के बीच। एक जगह प्रत्यक्ष और मेरे यहाँ न आकर भी हमारी सोच-संकल्पों-कसमों को सिरे से प्रभावित करती हुई।

मैं बदलूँगा नहीं, तू फिक्रमंद मत हो - उसने एक दिन कहा था।

तू बदलेगा नहीं, मैं फिक्रमंद नहीं हूँ, आखिर यह भी सच का एक पहलू है - मेरे माथे पर सचमुच चिंता की लकीरें उग आई थीं।

सिर्फ बहसें थीं। मै उससे उस लड़की का नाम तक भी नहीं पूछ पाया।

इस एक जगह पर हमारी सोच में एक फासला आ गया था। मुझे एक जगह पर लगने लगा था कि वह सचमुच भटक गया है। यह हमारी पहली परीक्षा थी शायद जो आखिरी भी हो सकती थी। यहाँ भी हमें भागना नहीं था, बदलना था कुछ। वह दृढ़ था लेकिन मेरे पैर डगमगा गए थे। सबकुछ होने के बीच मेरे अंतर में कहीं कोई एक गहन द्वन्द्व चल रहा था।

वह समय था जब अपने घरों से अलग हमने अपनी पसंद की एक जगह चुनी थी। हमारे उस समय के दिमाग में यह बात कभी उभर के आ ही न सकी कि हमारे अपने पिताओं के मजहब एक नहीं थे। आई तो अब भी नहीं है। कहा न मैंने कि हम अलग थे - ऐसा कैसे हो गया कि हमारे घरों में पवित्र मंत्रों-आयतों की गूँज सदियों से चली आती थी और हम थे कि हमने मंत्रों और आयतों की चक्करदार गलियों के बीच से निकल कर अपने लिए एक दुसरे को ही चुना था। पता नहीं किस दिन मेरे अकेलेपन में वह चुपके से दाखिल हो गया था, कि किस दिन मैं अकेले किसी कोने में चुपचाप सुबक रहा था कि उसने मेरे कंधे पर अपने हाथ रखे थे।

बावजूद तमाम घेरेबंदी और बंदिशों के हम एक दूसरे के इतने करीब होते चले गए कि बस अलग हो सकने का कोई 'स्पेस' ही नहीं रहा।

बचपन के खेल-तमाशों के बीच हमारी उम्र के साथ वह सिलसिला भी बढ़ता गया था, जो हमारे अपने पिताओं की सोच से साबका नहीं रखता था। जाहिर है कि उस सोच में हमारे परिवार के अन्य लोगों की सोच भी शामिल रही ही होगी। लेकिन बच्चा मन कहाँ समझता है इस तरह की बातें। मेरे लिए तो वह हमेशा अरमन अली ही था। एक नाम जिससे उसकी माँ पुकारती थी, पिता पुकारते थे कस्बे के लोग पुकारते थे और सबसे ज्यादा मैं पुकारता था। और ठीक इसी तरह अन्य लोगों की तरह वह मुझे - वेदाँत पंडित।

वह एक ही शख्श था जिसके जेहन में हमारे लिए अलग नाम था। वह उसे अरमन पंडित और मुझे वेदाँत अली कहता था। और कभी-कभी समवेत वेदाँत अरमन। लेकिन उसके इस पुकार में ऐसा कुछ था जिसे हम बहुत चाहते थे। जैसे यह एक ही नाम हो और हम दोनों मिलकर एक नाम में तब्दील हो गए हों।

शुरू दिनों से ही हम उनके दिवाने थे। उनके बाल सफेद थे आँखें मिचमिचाई हुईं। उन्हें दिखता नहीं था। कहते हैं कि एक बार माता का प्रकोप हुआ था। उनके पिता ने मलहोरी से माता की पूजा नहीं करवाई, इसलिए माता ने नाराज होकर उनकी आँख की रोशनी छीन ली थी। यह बाकया उनके किशोर वयस का था। तभी से वे सूर थे। बाद के दिनों में उनके लिए सूरा, सुरऊ, सूरदास, सूर अली, सुरवा आदि नाम प्रचलित थे। हम उन्हें सूर दादा कहते।

बचपन से नादानियों की उम्र तक वे ही हमारे आसरा थे। हमने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि उनका अपना इस दुनिया में कौन था। वे जब भी मिले अकेले। अपने अकेले कमरे में कभी एक बड़े भोंपू के साथ उलझे कोई भूला-बिसरा सूर निकालते हुए या कभी अपने जर्जर-से हो गए खाट पर लेटकर कुछ सोचते हुए। उनके पास बहुत पुरानी एक रेडियो थी। कभी कोई गीत सुनते हुए दिख जाते, तो कभी समाचार सुनते हुए। पूरे घर में सूर दादा, रेडियो और भोंपू बाजा यही 'तीन परानी' दिखते थे। कभी-कभी सूर दादा इन दोनों के साथ बाहर भी दिख जाते। दुनिया में क्या हो रहा है सूर दादा जानते थे। आँख रहते उनने जो पढ़ देख लिया था उसे आज इतनी उम्र हो जाने बाद भी मैं हासिल कर पाया हूँ क्या? हम जो बने थे उसमें सूर दादा का सबसे ज्यादा हाथ था। कविता की पहली झलक हमें सूर दादा से ही मिली थी सिर्फ कविता नहीं उसके साथ एक चुनौतीपूर्ण और जोखिम से भरा जीवन भी। जब रूमानी दिलों से हम अपने संकल्प दुहराते थे तो पीछे से सूर दादा की पतली और महीन आवाज जरूर सुनाई दे जाती थी। कुछ नया कहते हुए या यही कि संकल्प तब तक मूल्यवाल नहीं हो सकते जब तक कि वे जीने की अनिवार्य शर्तों में शामिल न हो जाएँ।

और क्या जीने की अनिवार्य शर्त के रूप में ही अली के जीवन में वह आई थी, एक आँधी की तरह जिसे हम झेल नहीं पाए ??

पहले तो मुझे भनक ही नहीं लगी कि अली की जिंदगी में कोई आया है। कोई मतलब एक लड़की। तब कुछ ऐसा हुआ था कि बोलते-बोलते अचानक उसके पतले और गुलाबी होने का भ्रम दिलाते होंठ बस थरथरा कर रह जाते थे। शायरी की किताबों के वे शेर, जो बेमानी थे कभी हमारे लिए वे महत्वपूर्ण हो गए थे अचानक। वह चलते-चलते रुक जाता था और गौर करने पर साफ तौर पर यह महसूस होता था कि मेरे चेहरे को घेरता हुआ वह अजीब ढंग से मुस्कुरा रहा है। हालाँकि ऐसी कोई शर्त नहीं थी हमारे बीच कि हमारी जिंदगी में किसी औरत का दाखिल होना नामुमकिन है। लेकिन हम मानकर चलते थे कि इस तरह की कोई घटना (चाहें तो आप इसे दुर्घटना कह सकते हैं) कम-अज-कम हमारे तईं न होगी।

यह वही समय था जब पाकिस्तान का एक गायक बेवफाई के गीत गाकर पूरे हिंदुस्तान की युवाओं के दिल की धड़कन बन गया था। कहते हैं कि उसी समय हिंदुस्तान के एक समुदाय के लोग किसी मस्जिद की जगह मंदिर बनाने के लिए गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे, शहर-शहर सभाएँ कर रहे थे, ईंटे जुटाई जा रही थीं, और त्रिशूल जैसे दिखने वाले हथियार बाँटे जा रहे थे बिलकुल सत्तावन के गदर की तर्ज पर। अंतर सिर्फ इतना था कि वहाँ हथियार इकट्ठे हो रहे थे और रोटियाँ भी बांटी जा रही थी अपनी अस्मिता को बचाने के लिए और यहाँ ईंटों को आम आदमी के मासूम गुस्से से गरम कर कुछ लोग उनपर रोटियाँ सेंकने में लगे थे।

कुछ ऐसे ही नाजुक समय में एक दिन चलते-चलते अली ने सूर दादा से एक सवाल किया था।

- दादा आपने तो हमें सब कुछ सिखाया है, हमारे जितने भी सवाल थे सबको सुलझाते रहे आज तक। एक सवाल सोचता हूँ आपके समाने रखूँ या नहीं। - हम चलते-चलते सड़क के एक किनारे रुक गए थे।

कैसा सवाल पूछने वाला था अली?

ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि कोई सवाल पूछा गया हो, या कोई मसला रखा गया हो सूर दादा के सामने और इसकी जानकारी मुझे न हो। हमारी एक-एक उलझनें सूर दादा के पास एक साथ पहुँची थीं। हमारे संकल्प, हमारी सोच, हमारी आशा-निराशाओं के हर रेसे उनके समीप खुलते थे। लेकिन आज यह क्या हुआ। तो क्या अली सचमुच बदलता जा रहा था।

दादा, आपको क्या लगता है, मैं हिंदू हूँ या मुसलमान? - सवाल सामने था।

सूर दादा विचलित से हो गए। ऐसा लगा मुझे जैसे यह सवाल सूर दादा के लिए था कि दादा आप हिंदू हैं या मुसलमान ??

तुम्हें क्या कहलाना पसंद है? तुम्हें जो होना अच्छा लगता है, तुम वही हो। - सूर दादा गंभीर हो गए थे।

आदमी। अगर आप मेरी पसंद की बात करते हैं तो... सबसे पहले मैं एक आदमी हूँ। जिस मजहब के नुमाइंदों ने बचपन से मुझे वेदाँत के साथ रहने से मुझे रोका, वह मेरा कैसे हो सकता है? वह मजहब एक हिंदू... एक हिंदू... एक हिंदू लड़की को मेरे जीवन में कैसे स्वीकार करेगा ?? - मैंने देखा वह इतनी सी बात कहते हुए पसीने-पसीने हो आया था। उसके आरक्त चेहरे के बीच चमकती दो आँखें कुछ पल मेरी ओर तकती रहीं, और उसने अपना सिर घुमा लिया।

अली, क्या कह रहा है तू...?? - मैं अवाक् देखता रह गया था उसे।

यह सच है मेरे दोस्त। - उसके स्वर में एक अजीब दृढ़ता थी।

- तो ये वही लड़की है जिसे तू ट्युशन...??।

हाँ...। - उसका गला रुँधा हुआ था।

ये क्या कर बैठा। तू जानता है इससे कितनी बड़ी आँधी आ सकती है। अरे, वह शिवनारायण सिंह की लड़की है... उसे पता चलेगा तो... तू सम्हल जा। देख वैसे भी देश में जो हो रहा है, जो खबरें आ रही हैं, उससे हालात के कभी भी बिगड़ जाने का अंदेशा है...। - मैं सचमुच विचलित हो चुका था। मेरे समाने असंख्य गेरुआधारी लोग हाथ में त्रिशूल और तीखे हथियार लेकर गुजर रहे थे... अल्ला हू अकबर की आवाजें हर-हर महादेव से टकरा कर एक अजीब भयावह ध्वनि उत्पन्न कर रही थीं... दादा सूर उनके सामने खड़े होकर उन्हें रोकने की असफल कोशिश कर रहे थे... उनकी पूरी देह लहूलुहान हो चुकी थी। मैं उन्हें सम्हालने के लिए दौड़ा था कि अली की चीखती आवाज मेरे कानों से टकराई। कुछ लोग उसे लगभग घसीटते हुए एक सँकरी गली की ओर ले जा रहे थे। मैं कुछ करता इससे पहले ही मेरे सिर पर जैसे बहुत भारी वजन की कोई कठोर चीज आ गिरी और मेरी चेतना जाती रही।

यह वही कह रहा है वेदाँत जो सच है। और सच सिर्फ सच होता है। यह तुम्हें कब से अवाक करने लगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई लड़की हिंदू है या मुसलमान या...। यह भी एक जंग है... इससे भी तो लड़ना ही है... भागो नहीं... बदलो... बदलो... तभी कुछ बदलेगा... - दादा सूर एकदम निस्पृह थे। हमेशा की तरह शांत और अविचलित।

उस रात की लंबी बहस के बाद हम शांत थे। हम साथ चलते हुए आए थे इस स्टेशन के प्लेटफॉर्म तक जो हमारे लिए किसी कॉफी-हाऊस से कम न था। हमारी लंबी बहसों का अकेला गवाह यह प्लेटफॉर्म। यहीं से हम विदा लेते थे। लेकिन आज हम चुप थे। हम चुप थे और अतीत की तमाम बातें हमारे साथ चल रही थीं... साथ तक आई थीं... और यहीं उसने मुझे जोर से भींच लिया था अपनी बाँहों में। और यहीं उस रात के सन्नाटे में बहुत देर तक उसकी हिचकियाँ गूँजती रही थीं... जिसका जिक्र शायद हो चुका है।

कैसे कहें अलविदा...

अलविदा...???

कैसे रह पाएँगे हम तुम्हारे बगैर - उसकी सूनी आँखों में पढ़ती हैं मेरी आँखें।

कैसे जिएँगे हम तुम्हारे बगैर - अंदर बुदबुदाता है ध्वनिहीन कोई...।

चुप... बेआवाज...।

दूसरे दिन की सुबह पहले के किसी भी सुबह से अलग थी।

उस दिन जो कुछ हुआ था उसने सब कुछ बदल कर रख दिया था। बहुत इंतजार के बाद अली नहीं आया था। मैं उस दिन पहली बार अकेले जा रहा था सूर दादा के घर की ओर। अली क्यों नहीं आया, कहीं लड़की के पिता को भनक तो नहीं लग गई कि वह...। अली ऐसा कैसे हो गया। इस मसले से बड़े मसले हैं हमारे पास सुलझाने को... लड़ने को... और भी गम हैं जमाने में...। उसे फिर से वापस आना ही होगा...।

सूर दादा का घर कस्बे के परित्यक्त-से लगने वाले जगह पर था। अमूमन वहाँ बहुत कम लोग जाते थे और आस-पास एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा रहता था। लेकिन उस दिन उस सन्नाटे में एक बेचैनी थी।

तुझे सब पता है बूड्ढे... तू बता कि वह हरामजादा उसे लेकर कहाँ गया है। - कोई सख्त आवाज थी जो घर के भीतर से आ रही थी। मैं ठिठक गया।

अव्वल तो मुझे पता नहीं। और पता भी होता तो मैं बताता नहीं। उसने कोई गुनाह नहीं किया। तुम्हें इतना परेशान नहीं होना चाहिए शिवनारायण... इसमें तो तुम्हारी बेटी की रजामंदी भी शामिल है। उसने तुम्हारी बेटी का अपहरण नहीं किया है, वह अपनी मरजी से गई है। - यह सूर दादा की निर्भीक और बेपरवाह आवाज थी।

धप्प !!! दारोगा तिवारी ने एक जोरदार घूँसा मारा था सूर दादा के पेट में।

उसने अपहरण किया है। और तूने उसकी मदद की है माधर... और तेरा वह चेला... वेदाँत... उस हमरामखोर की 'उसमें' भी रूल ठोंकूगा... साले तुम सबकी शामत आई है। मेरा नाम तिवारी है... दारोगा तिवारी - वह बेतरह चीख रहा था।

मैं सन्न रह गया। इस तरह के कई दृश्य फिल्मों में मैंने और अली ने साथ-साथ देखे थे। लेकिन क्या पता था कि एक दिन इसका हमारे साथ घटना भी भविष्य के गर्भ में लिखा था।

हुआ यह था कि अली चुपचाप रात के अँधेरे में उस लड़की के साथ गायब हो गया था। एक कायर की तरह। बिना बताए... बिना कुछ संकेत दिए। मेरे जेहन में नफरत और अविश्वास का एक भभकता हुआ गुबार छोड़ गया था। और... एक वितृष्णा...

दादा सूर को बचा लेने की कीमत पर तिवारी ने एफ.आई.आर. में मुझसे यह स्वीकार करा लेने की पूरी कोशिश की कि अरमन अली एक आतंकवादी है... कि पाकिस्तान के कुछ खुफिया एजेंसियों से उसके गुप्त ताल्लुकात हैं...।

यही वह समय था जब एक पाकिस्तानी गायक के बेवफाई के गीत देश के हर गली-नुक्कड़ पर धूम मचा रहे थे। यही वह समय था जब वर्षों से ईंट इकट्ठे करने वालों ने साधु संन्यासियों (??) के साथ मिल कर एक मस्जिद पर हमला किया था। और पूरा देश जंग के मैदान में तब्दील होने की राह पर चल पड़ा था। कस्बे की मुस्लिम और हिंदू बस्तियाँ एक निराधार नरफरत की आग में जल उठी थीं। यही वह समय था जब कुछ भगवा धारण किए हुए लोगों ने दादा सूर को कस्बे के चौराहे पर घसीट-घसीट कर मार दिया था... कहते हैं कि इस तरह शिनारायण ने बदला लिया था दादा सूर से। और मैं... कायर था... मेरे सारे संकल्प झूठे थे... उप्फ !!! और मुझे भी तोड़ दिया उस समय उस अविश्वास ने... कैसे मैं स्वीकार कर पाया उस जालिम दारोगा की वह शर्त... कैसे कि अली... अली एक टेररिस्ट था...?? ...और वह कथा जिसे खत्म होना था साबुत... चिंदी-चिंदी उड़ गया था उसका... चिंदी-चिंदी कथा...

अब भी बाकी है कुछ ...

आइए, जब इतना कुछ कह चुके तो उस लड़के से भी मिल लें आप। कुछ बात कर लें जो इतनी मशक्कत के बाद आया है मुझसे मिलने और कि जो मेरे-अली के बारे में जानता है बहुत कुछ और दादा सूर के बारे में भी शायद। मुझे शक है कि वह...

खैर चलिए सीधे हम उसी से बात करते हैं।

ठीक है तुम बैठे रहो - मुझे अचानक देखकर वह हड़बड़ा गया है।

- नहीं मैं ठीक हूँ... आप तकल्लुफ न करें। आप बताएँ क्या अब हम बात कर सकते हैं ??

- हूम...

- क्या आप भी अरमन अली को गुनहगार समझते हैं...??

- तुम क्यूँ जानना चाहते हो ?? वर्षों हो गए इस किस्से को खत्म हुए। आज इतने वर्षों के बाद सिर्फ यही जानने के लिए आए हो...??

- नहीं, मैं यह जानने के लिए कत्तई नहीं आया हूँ। आपके दोस्त का एक संदेश है मेरे पास। लेकिन यह जानने की उत्सुकता जरूर है कि क्या एक हिंदू लड़की से मोहब्बत कर लेना टेररिस्ट हो जाना है। क्या इस बात पर किसी को इतनी बड़ी सजा दी जा सकती है, सजा क्यूँ वह तो जुल्म था।

- मुझे अफसोस है कि मैं उसके लिए कुछ न कर सका। एक गहरा अपराधबोध। लेकिन तुम जानते हो उसकी इस हरकत के कारण यह कस्बा धू-धू कर जल उठा था। दादा सूर जैसे निर्दोष इनसान भी...। तुम कुछ नहीं जानते। लेकिन मुझे यह समझ नहीं आता कि तुम हो कौन ??

वह भी बता दूँगा। पहले जिस काम के लिए आया हूँ वह तो कर लूँ। - अपने छोटे से थैले से वह एक बहुत ही पुराना कागज निकाल कर मेरी ओर बढ़ा देता है।

इसमें अली अरमन के आखिरी हर्फ हैं जो सिर्फ आपके लिए लिखे हुए हैं। - वह शांत है, उसकी आँखों में एक अजीब-सा अवसाद उतर आया है। मेरे हाथ काँप रहे हैं... और समय की गर्द से बोझिल एक-एक हर्फ मेरे हृदय में नश्तर की तरह उतरते चले जाते हैं...

मेरे भाई... मेरे दोस्त,

मैं जानता हूँ तुम बहुत नाराज हो मुझसे । तुम्हारी नाराजगी जायज है... मुझे इस बात का अंदाजा है कि मेरे आने के बाद वहाँ क्या कुछ घटा होगा। यदि मैं जानता कि मेरे इस निर्णय की कीमत हमारे संबंधों और उससे भी ज्यादा हमारी अपनी दुनिया के देखे गए सपनों की हत्या होगी, तो मैं इस राह पर आगे बढ़ा ही न होता... और बढ़ भी गया था तो वापस आ जाता सिर्फ तुम्हारी खातिर यदि रेणु के शरीर में पल रहे एक मासूम जान की फिक्र न होती। ...यदि यह गुनाह ही था एक तरह से हमारी नजरों में न होकर भी दुनिया की नजरों में... और अगर गुनाह था तो उसका सामना उस भविष्य शिशु को बचा कर ही किया जा सकता था जो साँस ले रहा था एक गर्भ में। और जहाँ मैं था उस जगह पर यह नहीं हो सकता था। उसे बचा लेने की मुहिम में मुझे कायर बनना भी स्वीकार है... उस सपने के लिए जो जन्म लेने वाला है... कभी-कभी सोचता हूँ कि यह दुनिया ऐसे ही बदलेगी... वह दिन जरूर आएगा एक दिन जिस दिन मेरे जैसे पिता को कायर की तरह इस तरह अँधेरे में गुम नहीं होना पड़ेगा। तुम समझदार हो... मैं उतना नहीं... मुझे तुमपर भरोसा है... बहुत जल्दी तुमसे मिलूँगा... दादा सूर का खयाल रखना... उनके होने से हमारे होने का पता चलता है...

उदास मत होओ...

बदलेगी यह दुनिया...

... ... ...

मरना छोड़ो...

जीना...

बदलेगी यह दुनिया...

...तुम्हारा ही

अली...

अंदर कोई तूफान सा उठ रहा था, बार-बार हवा के झोंके किसी चट्टान से टकराकर वापस लौट जाते थे।

कौन हो तुम...?? नाम क्या है तुम्हारा बच्चे...?

- वेदाँत अली अरमन।। अली अरमन मेरे पिता थे। आपके देश के कानून की नजर में एक आतंकवादी... इससे बड़ा करुण उपहास और क्या हो सकता है। - उसकी आवाज में सदियों की छटपटाहट। तो यह अली का बेटा है। मेरे अली का। ...लेकिन डर या वितृष्णा में किये गए अपराध से मैं कैसे माफी माँगूँ। नहीं... नहीं वितृष्णा नहीं, डर...। कायर अली नहीं, मैं हूँ... मैं ।

- और माँ तुम्हारी... रेणु...??

पिता एक दिन बाहर निकले थे, कई दिनों तक किराए के एक घर में बंद रहने के बाद... और फिर वापस लौट कर नहीं आए...। अंत समय तक माँ को भरोसा था कि वे लौटकर आएँगे... वह मेरे लिए जीती रहीं... पिछले हफ्ते उनका दिल... वह फफक कर रो पड़ा।।

अंतिम दिनों में यह संदेश उनके हाथ में था... पिता आपके पास पहुँचा नहीं पाए थे... अम्मा ने सहेज कर रक्खा था... - उसकी आँखें अब भी नम थीं... मैं उसके गले लगकर रोना चाहता था... वह अली था मेरा दोस्त... रूप बदल कर आया था मुझसे मिलने...।

अलविदा...

नहीं, अलविदा नहीं...

[आज फिर जा रहा था कोई। पर उसका जाना सालों पहले अली के जाने की तरह नहीं था। सवाल अब भी थे, शायद कल भी रहेंगे। और हमें बार-बार उनसे टकराना-भिड़ना होगा।

कस्बे के चौराहे पर उसके अलविदा में हिलते हुए हाथ। वह जा रहा था। पूरा कस्बा अपनी रौ में गुम था। शायद ही किसी के जेहन में फिलवक्त वह बात होगी जिससे अभी-अभी गुजरा हूँ मैं वक्त के फासले को मथते-काटते हुए।।

पर यह चौराहा नहीं भूल सकता। सूर दादा कि वह तड़पती आवाज, लहूलुहान हो गई उनकी वह पाक देह... चिंदी-चिंदी हो गए उनके सपने... अली और मेरे दोस्ती के वे लम्हे... जा रहा था वह भविष्य शिशु जो किसी भी मजहब के दायरे से बाहर था... कि अली जा रहा था... फिर... फिर लौटने के लिए। अंतिम बार वह मुस्कराया था... कि अली मुस्करा रहा था... कि दादा सूर मुस्कुरा रहे थे...

...और इतनी मुस्कराहटों के ऐन समानांतर चौराहे के कॉर्नर पर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा था किसी फिल्म का, जो हाल ही में रिलीज हुई होगी... एक तस्वीर में एक चेहरा था जो बेबस दिखता था और शाम के झुटपुटे में भी लिखे हुए हर्फ साफ-साफ पढ़े जा सकते थे - माय नेम ईज ख़ान एंड आय एम नॉट अ टेररिस्ट...]