चिटखते रिश्ते / हरिनारायण सिंह 'हरि'
प्रोफेसर साहब काॅलेज से अपने डेरे पर लौटे। उनके साथ एक और व्यक्ति था। उन्होंने पुकारकर कहा-"अजी, सुनती हो, अपने रामजी आये हैं। बहू को कहो कि दो कप चाय बना दे।"
प्रोफेसर साहब की पत्नी किसी पड़ोसन के यहाँ गयी हुई थी। घर में बहू थी, जो आराम फरमा रही थी। वह कुछ पढ़ी-लिखी थी और उसको इसका गुमान भी था। पूरे दस लाख तिलक देकर उसके पिता ने प्रोफेसर साहब को अपना समधी बनाया था।
बहू ने झांककर देखा। प्रोफेसर साहब के साथ एक निरा देहाती व्यक्ति ड्राइंगरूम में सोफे बैठा हुआ है। वह बुदबुदायी "कहाँ-कहाँ से जाहिल लोगों को लेकर चले आते हैं और फरमा देते हैं कि चाय बनाओ, तो नाश्ता बनाओ। लगता है, बहू नहीं नौकरानी आ गयी है, घर में।"
वह देहाती आदमी बहू की बात को नहीं सुन सका, किन्तु प्रोफेसर साहब के कान तो भीतर की ओर ही लगे थे। वे अपमान का घूँट पीकर रह गये।
"चलो, कहीं दुकान में चाय पीयें। लगता हैंं, 'वो' नहीं हैंं और बहू सोयी हुई हैंं।" कहते हुए प्रोफेसर साहब रामजी को लेकर चल पड़े चाय की खोज में घर से बाज़ार की ओर।