चिड़िया ऐसे जीती है / मधु कांकरिया
कहानी उन खूबसूरत सुहाने दिनों की है जब साइबेरिया से आए सुंदर सलोने परिंदे हमारी धरती पर उतरते थे, प्रेम की झील में तैरते थे और स्वप्न भरी उड़ान भरा करते थे।
उन्हीं खूबसूरत दिनों के चंद खूबसूरत लमहों में वह कामयाब हो रहा था और उसे लग रहा था कि अब खुल गया है वह दरवाजा जिससे हो कर वह स्वाद ले सकता है जिंदगी का। चूस सकता है अंगूर के गुच्छे की तरह उसकी अंतिम बूँद और औरत नाम के उस अज्ञात दुर्गम प्रदेश की सैर भी कर सकता है जो सदैव से ही सम्मोहित करता रहा है उसे। और वारे न्यारे किस्मत के भी कि वह दरवाजा खुला भी, पर उन्हीं चंद लमहों जाने क्या तड़क गया, कौन-सा आईना टूट गया कि खुले दरवाजे से न घुस कर वह पीछे की तरफ दौड़ गया दौड़ता ही गया।
ऐसा क्यों हुआ? क्यों कर हुआ?
कहानी शायद उस 'क्यों' की अभेद्य दीवार न भेद सके क्योंकि इंसान को पूरी तरह पहचानने का दावा दुनिया का कोई भी कथाकार नहीं कर सकता है। पर यह कहानी है उसी 'क्यों' की। उन्हीं चंद लमहों की जिसमें उसने अपने को रूपांतरित होते देखा और देखा स्वयं को उस खुले दरवाजे से दूर-दूर भागते हुए। और यदि आप दार्शनिक भाषा का प्रयोग करने की इजाजत दें तो कहूँ अपनी मूल सत्ता में वापस लौटते हुए।
कहानी की शुरुआत में एक नायक है, अखिलेश और है एक नायिका, आकांक्षा। कई वर्ष बीत चुके हैं उनकी शादी को, फिर भी वे नि:संतान हैं। पर उन्हें कोई गम नहीं है अपने नि:संतान होने का, जैसा कि आम दंपति के साथ होता है। क्योंकि दोनों ही सही अर्थों में भाग्यवादी हैं और यह मानते हैं कि जिंदगी में सब को सबकुछ नहीं मिलता है। इसलिए जो नहीं मिला उसके लिए हायतौबा मचाने से कहीं बेहतर है कि जो मिला उसी का जम कर आस्वादन लिया जाए। इसलिए संतान प्राप्ति के लिए पीर, मौला, पंडित, हकीम, संत-स्वामी या भविष्यवक्ता के चक्कर काटने के बजाय उन्होंने पृथ्वी का चक्कर काटना शुरू कर दिया।
इस बार उनकी पृथ्वी थी हिमालय की छाँव में बसा छोटा-सा नेपाल जिसके चक्कर उन्हें काटने थे, जिसकी हवाओं को उन्हें महसूसना था।
'पर इतने हो हंगामेवाला देश नेपाल ही क्यों? चलो कोई खामोश हवाओंवाले देश जैसे बैंकाक, जापान, मलेशिया या फिर सिंगापुर,' अखिलेश ने कटोरी में रखे अंकुरित चनों को टूँगते हुए कहा।
पिछले पाँच-छह दिनों से दोनों के बीच यह मीठी बहस छिड़ी हुई थी। पत्नी नेपाल की रट लगाए थी, पति मलेशिया या सिंगापुर उड़ने का सपना देख रहे थे।
आकांक्षा पति को अपनी बौद्धिकता से आतंकित नहीं करना चाहती थी। नेपाल घूमने का उसका एक खास मकसद भी था। एक घरेलू स्त्री होते हुए भी वह एक खाँटी घरेलू स्त्री नहीं थी। देश और दुनिया में जो हलचलें हो रही थीं उनसे वह वाकिफ भी थी। 'भ्रमण के साथ ही साथ यदि जिज्ञासाओं को भी खाद-पानी मिल जाए तो क्या हर्ज' की तर्ज पर वह चाहती थी नेपाल का नया चेहरा देखना। नेपाल में हुई नई-नवेली जनक्रांति के बारे में उसने टीवी पर देखा और पत्रिकाओं में खूब पढ़ा भी था और जाने क्यों उसे यह विश्वास होने लगा था कि एक बार यदि किसी विचार को रोप दिया जाए तो देर-सबेर उसे फलते-फूलते देर नहीं लगती। खुद उसका जीवन भी इसी प्रकार के नए-नवेले विचारों के रोपन की प्रयोगभूमि ही था।
'नेपाल ही क्यों?' अखिलेश ने फिर पूछा।
'मुझे नेपाल की वाइल्ड लाइफ देखनी है। सिवाय अफ्रीका के वैसी वाइल्ड लाइफ कहीं नहीं।' पत्नी ने अपने भीतर की जिज्ञासाओं की नई बनती दुनिया को पति से बचा कर ही रखा। क्योंकि अनुभव ने उसे बता दिया था कि यदि वह कहे कि वह क्रांति का चेहरा देखने नेपाल जाएगी तो कॉमरेडनुमा ब्वायफ्रेंड चाहे रीझ जाए उसकी बातों पर, पर ये सनातनी पति? अच्छे-भले पतियों को भी पत्नी की ये फितरत चिढ़ा देती है।
वह इतनी बुद्धिमती है कि सँभाल सकती है अपनी कई दुनियाओं को एक साथ।
तो तय रहा फिर नेपाल! अखिलेश ने अपने दढ़ियल चेहरे को पोंछते हुए आखिरी बार यूँ पूछा जैसे समर्पण कर रहा हो उसके आगे।
रक्सौल! नेपाल और भारत की सीमा रेखा!
जीवन को पूरी मस्ती के साथ जीते-भोगते दोनों भारत और नेपाल की सीमा रेखा रक्सौल पर उतरे। पर उतरते ही जो देखा कि आत्मा बिंधा गई आकांक्षा की। उसने देखा कि नरकटियागंज से सीतामढ़ी की ओर आती लोकल ट्रेन! बाप रे! जितनी अंदर से भरी हुई उससे ज्यादा बाहर से भरी हुई। हर तरफ आदमी! ट्रेन की इंच-इंच पर कीड़े की तरह किलबिलाते लोग! छत पर, दरवाजे पर, ट्रेन की हैंडिल के सहारे झूलते लोगों का एक पूरा गुच्छा। और तो और, दो डिब्बों को जोड़नेवाले कनेक्टर पर भी बैठे हुए लोग! कहीं करंट लग गया तो? या आपसी धक्के से ही नीचे गिर पड़े तो? इतने वेग से चलती ट्रेन, कहीं इंच भर भी संतुलन गड़बड़ा जाए या एक-दूसरे की टक्कर ही लग जाए या झर-झर बहते पसीने को पोंछने को ही पंजा उठ जाए या खुजली ही चल जाए, तो सीधी मौत।
बाप रे! उसने देखा ट्रेन की खिड़की से बँधी लोगों की साइकिलें! दूध की टंकियाँ, दही की हंडियाँ, सब्जी की टोकरियाँ।
हे भगवान! कैसी-कैसी परिस्थितियों में भी जी लेते हैं लोग, ट्रेन में खोई ठहरी ठिठकी अवाक-सी सोच रही थी वह कि तभी कानों से अखिलेश की आवाज टकराई, 'क्या जनाब का भी इस ट्रेन में चढ़ने का इरादा है?'
'इन्हें देख कर लगता है जैसे ये माँ की कोख से नहीं, ट्रेन की कोख से जन्मे हैं। देखो न! कैसे इसकी इंच-इंच से चिपके हैं ये लोग।'
'इस ट्रेन की तस्वीर खींच कर विदेश में भेज दो, अच्छी-खासी कमाई हो जाएगी।' अखिलेश ने चुटकी ली।
'तुम्हें कमाई की सूझ रही है, मैं सोच रही हूँ कि इनके लिए महज जीना किसी युद्ध से कम नहीं। जरा-सा संतुलन गड़बड़ाया कि सीधी मौत या अपाहिज जिंदगी।'
'क्या करें ये भी, पास में देने को पैसे नहीं, कोई दूसरी ट्रेन नहीं। पूरे दिन में यह इकलौती ट्रेन है जो इन्हें बलिया, छपरा, मोतिहारी और बिहार-नेपाल की सीमा से जोड़ती है।' उसने मन को मजबूत किया, भारत की ही तरह गरीब नेपाल, जाने क्या-क्या देखने को मिले आगे।
उस दिन नेपाल के तराई इलाकों में हड़ताल थी। जगह-जगह पत्थर, टायर और कटे पेड़ बिछा कर पथ अवरुद्ध कर दिया गया था। इस कारण उन्हें सीधे रास्ते से नहीं निकल कर पीछे के रास्ते से निकलना पड़ा। एक टूटे और जर्जर पुल को पार कर उन्होंने विदेशी भूमि नेपाल में कदम रखा।
अब वे भारत में नहीं, नेपाल में थे। वीरगंज में थे। पर उन्हें न विदेशी भूमि में होने का रोमांच हो रहा था और न ही परिवेश के प्रति कोई चौकन्नापन ही था। सफर बहुत कुछ झारखंड के छोटा नागपुर और पलार अंचलों जैसा था। लोगों के नाक-नक्श भी एकदम बिहारी बाबू सरीखे। बीच-बीच में इक्का-दुक्का मंगोलियन नाक-नक्श के गुरंग और भुटिया भी देखने को मिल जाते, पर कुल मिला कर परिवेश एकदम झारखंड के गाँवों जैसा। उड़ती धूल। पगुराते साँड़, घरों के बाहर बँधी बकरियाँ। दाने चुगती मुर्गियाँ। घरों के नाम पर मटमैले टप्पर। गृहस्थी के नाम पर मूँज की रस्सी पर टँगे कुछ मटमैले कपड़े। माटी का चूल्हा, अल्युमिनियम की हंडिया। प्लास्टिक के डिब्बे और एकाध प्लास्टिक की बोतलें। कहीं-कहीं दरवाजे पर बँधी बकरियाँ। किसी खुशनसीब के यहाँ गाएँ भी।
इंसान और जानवर साथ-साथ। कहीं-कहीं देवता भी। पृथ्वी की अनादि रात की तरह अंतहीन और स्याही के धब्बे सी फैली बस्तियाँ।
उसके भीतर निराशा फैलने लगी।
वह फड़फड़ाई, हे भगवान यही है नेपाल! उसका स्वप्न देश! उसकी मन्नत की जन्नत। इसी के लिए इतना खर्च कर आई यहाँ? अखिलेश ने जैसे उसके मन को पढ़ लिया हो, उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा, 'यह तो तराई है, सुंदरता तो पहाड़ों पर बसती है। असली नेपाल तो वहीं मिलेगा पहाड़ों पर।'
'हाँ, इसी संभावना को ठोक-पीट कर एक मुकम्मल यात्रा को अंजाम देना है।'
हँसी उसके भीतर से फूटी।
रफ्ता-रफ्ता खुल रहा था नेपाल।
आकांक्षा उन स्त्रियों में थी जो अपने वश के कुछ स्पेस को सारी दुनिया से बचा कर रखती हैं। जो न पति का होता है न घर का, न राम का न रहीम का, जो सिर्फ उनका अपना होता है। जब जब सुख या दुख के अतिरेक में होती है वह चुपचाप खिसक जाती है उस बचे हुए स्पेस में और तैरती रहती है दूर-दूर तक भीतर के शांत समुद्र में, और ढूँढ़ती रहती है जिंदगी को, उसके अर्थ को।
इन क्षणों में भी उड़ रही है वह उसी शांत समुद्र में। खुल कर छोड़ दिया था उसने अपनी कल्पनाओं को, विचारों को।
'सुनो, चलोगी माउंटेन फ्लाइट्स। बुद्धा एअरलाइंस आयोजित करती है ऐसी उड़ानें वहाँ से हम बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों को यहाँ तक कि एवरेस्ट को भी देख सकेंगे।' वह चुप उजबक-सी काठमांडू के तिब्बती स्टाइल में बने पुराने मंदिरों से निगाह हटा उसकी ओर ताकने लगी। अखिलेश झुँझला पड़ा, 'कहाँ खोई रहती हो, तब से पूछ रहा हूँ, चलना है माउंटेन फ्लाइट्स?'
वह भीतर से बाहर लौटी, 'क्या कहा, माउंटेन फ्लाइट्स? क्या संभव है ऐसा? पर्वत श्रृंखलाओं के बीच चाँदी-सी चमकती एवरेस्ट को देखना, अदृश्य को महसूस करना,' भावावेश में उसने अखिलेश को वहीं बांहों में भर लिया।
'हाँ हाँ क्यों नहीं।'
कूदते-फाँदते, एक-दूसरे में बसंत उगाते वे बुद्धा एअरलाइंस के ऑफिस की ओर बढ़ने लगे। उन्हें पता भी नहीं चला, कब उनके इस जादुई हवामहल की हवाएँ उड़ती हुई होटल सूर्या के रूम नं. 110 तक पहुँच गईं, और ऑक्सीजन की कमी के मारे रामश्रेष्ठ की नींद उड़ गई।
हाँ, आकांक्षा को एकाध बार यह जरूर लगा था कि उनके बगल के ही कमरे में ठहरी एक जोड़ी लपलपाती आँखें जब-तब कभी रिसेप्शन तो कभी डाइनिंग हॉल में पीछा करती रहती हैं उसका।
करें पीछा, क्यों डरे वह उस मुहाँसों भरी नीग्रो खोपड़ी से (रूम नं. 110 वाले की कड़े-कड़े और खड़े बालोंवाली खोपड़ी के चलते उसने मन ही मन उसे नीग्रो खोपड़ी नाम दे रखा था) जब तक उसकी गंजी खोपड़ी (अखिलेश के हलके गंजेपन के चलते वह उसे प्यार से गंजी खोपड़ी कहती थी) है उसके साथ। बहरहाल, 110 वाले के खय़ाल से कबड्डी खेलते हुए उसने उसके खयाल को अपने दिमाग की बाउंड्री लाइन से बाहर किया।
उड़ान दूसरे दिन होनेवाली थी। सुबह ठीक आठ बजे। पूरे डेढ़ घंटे की उड़ान। हिमालय के समानांतर उड़ाती हुई छोटी-सी फ्लाइट। पूरे दिन वह आनेवाली उड़ान के जादू में, हिमालय की बर्फीली सुंदरता के रोमांच में डूब जाना चाहती थी, पर अखिलेश बेताब था काठमांडू के ख्यात-कुख्यात केसिनो के अनुभव के लिए।
मन मार उसे जाना पड़ा केसिनो, पर डूब नहीं पाई वह वहाँ। बस तैरती रही ऊपर ही ऊपर। निभाती रही एक सैलानी का धर्म।
केसिनो की आधुनिकता, साज-सज्जा, रईसी, तड़क-भड़क, चकाचौंध करती रोशनियों, लकदक बैरों और करोड़ों रुपयों से भरी स्वचालित मशीनों को देख जहाँ अखिलेश विस्मित-विमुग्ध था वहीं आकांक्षा के खयालों में एकाएक रक्सौल और बीरगंज के बीच फैला उजाड़ और इंच-इंच लोगों से भरी ट्रेन कौंध गई। वह उदास हुई यह सोच कर कि एक नेपाल में कई नेपाल। जैसे एक भारत में कई भारत। वह परेशान हुई। इस मायावी जुआघर ने उसके खुले आसमान पर पाबंदी लगा दी थी। बुरा-सा मुँह बना कहा उसने, 'क्या अद्भुत जुआघर है यह भी। कितना मायावी। ये एअरइंडिया की स्टाइल में सलाम करते लकदक बैरे। भ्रम पैदा करते हैं आपको किसी उच्च समाज का हिस्सा होने का। पर उस भ्रम के आड़े आता है आपका आर्थिक बौनापन। तो लीजिए हाजिर है इस आर्थिक बौनेपन से उबरने के लिए ये सर्वनाशी मशीनें। सचमुच इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा कमाल कि यहाँ बुरा भी बुरा नहीं दिखता। अँधेरा भी जगमगाता दिखता है। हर रीढ़ को लचकदार बनाया है इस शताब्दी ने। देखो न तुम्हारे जैसा कर्मठ व्यक्ति भी कितना खुश है जुए में डेढ़ हजार जीत कर। तुम भी भूल गए कि यहाँ अर्जन परिश्रम, सामर्थ्य और पुरुषार्थ का नहीं, जुए और तिकड़म का हमबिस्तर है।'
पति ने फिर पुचकारा उसे, 'देखो जब मैं तुम्हारे साथ पौधौं, परिंदों और जंगलों के बीच होता हूँ तो कैसे तुमसे घुलमिल जाता हूँ, तुममें बहने लगता हूँ, वैसे ही यहाँ मशीनों के बीच क्या तुम मेरी पसंद नहीं जी सकतीं, नहीं बह सकतीं मेरे भीतर!'
वह हँसी। मन ही मन कहा, उसने क़ुछ परिंदे ऐसे होते हैं जिनके सुर किसी से भी नहीं मिलते, पर तुम इसे नहीं समझोगे अखिलेश!
अखिलेश दूसरी मशीन की ओर बढ़ा। इस बार फिर उसने खेला। पर इस बार वह 1500 रुपए हार गया।
केसिनो का सारा जादू तड़क गया। अखिलेश ने हिसाब लगाया 10 मिनट में कमाई हजार रुपए और गँवाई 1500 रुपए।
पर केसिनो के दरवाजे पर आ कर वह ठिठक गई, जैसे छिपकली गिर पड़ी हो उस पर। उसने दो बातें एक साथ नोट कीं। उसके साथवाले रूम नं. 110 का नीग्रो खोपड़ी उसी केसिनो में उससे थोड़ा दूर हट कर खींसें निपोर रही थी। दूसरी बात यह थी कि केसिनो के दरवाजे पर लिखा था, नेपाल के इन केसिनों में नेपालियों को घुसने की इजाजत नहीं। पर क्यों? जो अपना पसीना उलीच-उलीच कर सींच रहे हैं इस देश को, उन्हीं को देश निकाला?
उसकी हैरानी फड़फड़ाई।
'शायद इसलिए कि गरीबी, भाग्य और भगवान का मारा नेपाली कहीं अपनी तलब दुगुनी करने के लालच में अपनी गाढ़ी पसीने की कमाई को यहाँ फूँक न दे।' अखिलेश ने कहा।
'नहीं, इसलिए कि कहीं विदेशी सैलानियों के वैभव और व्यभिचार की इस चादर में टाट का पैबंद न दिख जाए।
विद्रूपता से उसके होंठ वक्र हुए। विचारों की फुनगियों पर वह फिर उछल-कूद करने लगी। इसी जुए और शराब ने ही शायद नेपाल को 240 वर्षों तक एक विचारहीन सामंती राजतंत्र में रहने दिया। लेकिन अब नया बना नेपाल सीख रहा है सोचना। उसे अच्छा लगा यह जान कर कि इस नए नेपाल में खुलेआम जहाँ-तहाँ शराब पीने पर पाबंदी लगा दी गई है। उसने पढ़े दीवारों पर लिखे नारे - नया नेपाल को आधार, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मौलिक अधिकार। आम इंसान में भी स्वप्न जगानेवाले हैं ये नारे। वह सुखी हुई नेपाल के सुख से।
दूसरी सुबह। बुद्धा एअरलाइंस। माउंटेन फ्लाइट्स।
अपरिमित और अद्भुत सौंदर्य। नजरों के छोर तक। सृष्टि के अंत तक। विमान में उड़ते हुए, सभी सैलानी देशी-विदेशी सम्मोहित थे, प्रकृति के इस अद्भुत करिश्मे पर जिसका नाम था हिमालय।
बादलों के ऊपर तैरते हुए वह भी भावविभोर थी, यह है असली नेपाल। कितना अच्छा किया उसने यहाँ आ कर। सच, जिंदगी की रचना स्वयं करनी होती है।
उसने नजरें घुमाईं, आजू-बाजू सभी रोमांचित थे। पलक तक अपलक थी कि कहीं चाँदी से ढकी पर्वत श्रेणियों और नीचे आसमान में बहते रहने के मौजी पलों का अहसास पल भर के लिए भी छिटक न जाए।
अचानक उसके जेहन में टिमटिमाया नील आर्मस्ट्रांग। जिसने चंद्रमा पर खड़े हो कर जब नीचे ताका तो उसके मुँह से निकला, हाय मेरी धरती। उसने यह नहीं कहा, हाय मेरा देश! मेरा अमेरिका! ऊँचाइयाँ सारी क्षुद्रताओं को मिटा देती हैं, उसने आदतन फिर सोचा।
एकाएक विमान की गति थोड़ी धीमी हुई। बादलों के ऊपर तैरते हुए अब वह एवरेस्ट के एकदम पड़ोस में थी। उसकी जबरदस्त इच्छा हुई कि वह विंडो सीट के छोटे-से शीशे को तोड़ दे और खुली आँखों से देखे ये अद्भुत नजारे। हठात उसने महसूसा, उसके भीतर कंपन था। जिस्म के पोर-पोर में उतरती इस अलौकिक सुंदरता का कंपन, इस अपरिमित सौंदर्य को सह न पाने का कंपन! काश! इस सुंदरता को बरकरार रख पाने में वह भी दे पाती अपना योगदान! पर कैसे? वह एकाएक उदास हुई यह सोच कर कि अब तक की अपनी जिंदगी में उसने जीवन से लिया ही लिया, वापस कुछ भी लौटा नहीं सकी है वह।
अच्छे काम करने का और मनुष्य के काम आने का वरदान हरेक को नहीं मिलता, सोच कर उसने खुद को दिलासा दी और तभी उसकी नजर दूसरी विंडो सीट पर पड़ी तो वह चौंक गई। जैसे मौजों का उमड़ता हुआ समुद्र एकाएक ठहर गया हो। जैसे आँख में कुछ गड़ गया हो। अरे यह! उसके ठीक सामनेवाली विंडो सीट पर (उस विमान में सभी सीटें विंडो सीट थीं) वह बैठा था, वही रूम नं. 110 का नीग्रो खोपड़ी जो अपनी सीट पर चौथाई कमर टिकाए ऊँट की तरह उचक-उचक कर बजाय चाँदी के शिखरों को देखने के उसे ही दीदे फाड़-फाड़ ताके जा रहा था। वे लमहे इतने भरपूर, उदात्तता और जीवन का जादू जगानेवाले थे कि उसने उन क्षणों उसके प्रति उठनेवाली सारी दुर्भावनाओं, शंकाओं और आशंकाओं को भी देश निकाला दे डाला। उन क्षणों उसकी चेतना के कण-कण में, सारी इंद्रियों में सौंदर्य भरा था, सिर्फ सौंदर्य।
नीचे उतर कर भी नीचे नहीं उतरी वह। ऊपर ही ऊपर उड़ती रही। जाने कितनी देर तक समय के पार ले जानेवाले उन्हीं लमहों को जीती रही जिन्होंने उसे नीचे आर्मस्ट्रांग की याद दिला उसकी चेतना को विश्वचेतना का विस्तार दिया। उसने उन मनमौजी पलों को हृदय के तहखाने में भर लेना चाहा जिससे सूखे दिनों में फिर-फिर लौट सके वह वहाँ।
अब अगला पड़ाव किधर?
क...क् क्या? पंख फैला उड़ान भरती उसकी कल्पना को झटका सा लगा। वह झुँझलाई। भीतर से बाहर को हुई। अखिलेश पूछ रहा था उससे, अब कहाँ जाना है?
'कहीं भी,' अनमना-सा जवाब। जो अभी-अभी अनुभव किया था, उसी में जीना चाहती थी वह अभी आने-वाले कुछ घंटे। पर सैलानियों को एक ही जगह रहने की इजाजत नहीं। घूमते रहना होता है उन्हें, दुनिया की सारी सुंदरता को जल्द से जल्द निगल जाने के लिए।
पशुपतिनाथ मंदिर और बुद्ध अभिदेवा पार्क होते हुए जब तक वे होटल पहुँचे, दिन ढल चुका था। रात सन्नाटा ओढ़ने लगी थी। रिमझिम-रिमझिम बारिश शुरू हो चुकी थी। होटल में घुसते ही उसे निराशा हुई। लोडशेडिंग थी। उफ! इतना सुंदर नेपाल, पर बिजली रहती है मुश्किल से पाँच-छह घंटे। और इन पाँच-छह घंटों में भी वोल्टेज इतना कम कि बत्ती नहीं, बस उम्मीद की लौ ही जलती रहती है।
'चाय मँगवाऊँ?' उसने पूछा अखिलेश से। अखिलेश, जो कमरे में घुसते ही पलंग पर जूतों सहित कटी डाल-सा औंधा पड़ गया था।
'नहीं चाय नहीं, अच्छा नहीं लग रहा है। उलटी-उलटी लग रही है। चाहो तो थोड़ा नींबू का शर्बत दे दो, शायद कैंटीन में मिल जाएगा नींबू।' लगभग कराहते हुए कहा अखिलेश ने।
'क्या?' वह चिंतित हुई। उसने देखा अखिलेश का चेहरा पिछले चंद लमहों में ही सुस्त पड़ गया था। एकाएक वह बहुत थका हुआ दिख रहा था। आँखें भी चढ़ी-चढ़ी-सी लग रही थीं।
उसका माथा ठनका, अभी तक तो अच्छा-भला था, यह एकाएक क्या हुआ उसे। क्यों लटक गया चेहरा?
बाहर बारिश एकाएक बढ़ गई थी। उसने उसके जूते-मोजे उतारे और इंटरकॉम से बैरे को इमरजेंसी लाइट और नींबू-चीनी का पानी लाने को कहा।
और तभी उसने देखा, अखिलेश तेजी से बाथरूम की ओर मुड़ा। एक जोरदार उलटी की अखिलेश ने और सिर पकड़ वहीं बैठ गया।
बड़ी मुश्किल से बैरे की सहायता से उसने अखिलेश को वापस पलंग पर लिटाया और उसके कपड़े बदलने ही लगी कि अखिलेश ने फिर की एक उलटी।
कहीं फूड पॉयजनिंग तो नहीं हो गई? उसने होटल मैनेजर को फोन कर पूछा, क्या कोई डॉक्टर आ सकता है, हाँ अभी तुरंत, अखिलेश को देखने।
'बारिश थमने का इंतजार करें।' ठंडा-ठंडा जवाब आया।
बारिश थमने तक? क्या ठिकाना बारिश का? वह फनफनाई। एक नजर उसने फर्श पर पड़ी उलटी पर डाली। जाने क्यों उसे लगा कि अखिलेश की उलटी में खून के रेशे हैं। हे भगवान! उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। डर उसके सीने पर चढ़ उसकी गर्दन दबोचने लगा। परदेश, रात का समय, शहर से इतनी दूर होटल, बारिश, उलटी, खून के रेशे और अखिलेश का यूँ औंधा पड़ जाना। क्या किसी अनिष्ट की आशंका है? उसका अंश-अंश काँपा। मन पंखुड़ी-पंखुड़ी बिखरा। उसने फिर होटल मैनेजर को फोन लगाना चाहा तो मोबाइल ही नहीं चला उससे। हे भगवान! क्या यह घबड़ाहट की चरम अवस्था है। उसने आँखें मूँद लीं, हे भगवान रक्षा कर। फिर बैरे से कहा मैनेजर को फोन लगाने के लिए। बैरे ने बताया कि मैनेजर घर के लिए निकल गया है। उसने फिर अखिलेश को हिलाया, जोर-जोर से पुकारा, अखिलेश! अखिलेश! क्या बेहोश हो गया है अखिलेश? जैसे बम फूट गया हो। अखिलेश का मुँह ऐंठ रहा था, होंठों से झाग निकल रहा था। उसने पानी के कुछ छींटे उसके मुँह पर डाले तो मुँह से विचित्र-सी आवाजें निकलने लगीं। वह बहुत डर गई। क्या करे? कहाँ जाए? किससे माँगे सहायता? आसपास प्राय: सभी कमरे बंद थे। सभी टूरिस्ट काठमांडू के आगे पोखरा के लिए निकल चुके थे। एकाएक उसे खयाल आया, नीग्रो खोपड़ी अपने कमरे में है। वह दौड़ी रूम नं. 110 की तरफ।
उसने बेतहाशा दरवाजा पीटना शुरू किया। थोड़ी देर में दरवाजा खुला तो वह भौंचक्क, यह नीग्रो खोपड़ी सफेद खोपड़ी कैसे हो गई? ओह नो! बजाय रूम नं. 110 के रूम नं. 108 को ही वह पीटने लगी थी। रूम नं. 108 वाले की झुँझलाहट मिर्ची के से तीखेपन में प्रकट हुई। तल्ख शब्दों में कहा उसने, 'कॉलिंग बेल बजाइए न। दरवाजा पीटने से क्या भीतरवाला जल्दी निकल आएगा?'
'अरे हाँ!' उसने कॉलिंग बेल बजाई।
पिका...पिक...पिकाक, कॉलिंग बेल ने चिड़िया की-सी आवाज निकाली।
उफ। यह जिंदगी भी क्या-क्या दिन दिखलाती है। आज उसे उसी के पास दया की, मदद की गुहार लगानी पड़ रही है जो उस पर कामुक नजर गड़ाए हुए है। पर यह समय यह सब सोचने का नहीं, जैसे भी हो, अखिलेश को बचाना है मुझे।
पर यह दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा, एक-एक पल एक युग सा बीत रहा था।
फिर बजाई उसने बेल।
पायजामा और बनियान पहने टेढ़ी-मेढ़ी गाँठ-वाले लट्ठे से दिखते अधेड़ रामश्रेष्ठ ने दरवाजा खोला और खोलते ही उसकी आँखें हवा में टँग गईं। अविश्वसनीय। गुलाबी मादक नशा उस पर छाने लगा था कि आकांक्षा फूट पड़ी, 'मेरे पति बेहोश पड़े हैं। उनकी उलटी में खून के रेशे हैं। होटल मैनेजर है नहीं, इतनी घनघोर बारिश में मैं इन्हें कहाँ ले जाऊँ, कैसे ले जाऊँ, भगवान के लिए मेरे पति को बचा लीजिए।' रामश्रेष्ठ जैसे ऐसे ही किसी संयोग की तलाश में था, जिससे अपनी उदारता और बहादुरी का सिक्का उस पर जमा सके। इसलिए आँखों ही आँखों से कुदरत की उस कारीगरी का स्वाद लेते हुए झट से बोल पड़ा, 'घबड़ाइए मत, भगवान सब ठीक करेगा! है ना।' और वह तुरंत स्लो मोशन से फास्ट एक्शन में आ गया। अटपटे ढंग से वह तेजी से पीछे मुड़ा फिर वापस आया। हैंगर पर टँगी टी-शर्ट अपने पर डाली। टेबल पर रखे पर्स को जेब के हवाले किया और मोबाइल से कुछ नंबर मिलाने लगा। पहला नंबर उसने कॉल-टैक्सी का मिलाया और फिर अपने किसी नेपाली मित्र को फोन कर नर्सिंग होम का ठिकाना नोट किया।
बीस मिनट बाद टैक्सी आई, तब तक भी अखिलेश को होश नहीं आया था। बीच-बीच में कुछ अस्फुट सी आवाज उसके खुले मुँह से लगातार निकल रही थी। किसी प्रकार दो बैरों की सहायता से अखिलेश को नीचे उतार टैक्सी में लिटाया गया। जैसे ही टैक्सी चली, रामश्रेष्ठ सांत्वना देने लगा आकांक्षा को, 'देखिए आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा। अच्छे नर्सिंग होम का भी पता मैंने लगा लिया है। है न! मेरे सोर्स काफी तगड़े हैं। ऐसा करते हैं एक बार इन्हें पास के ही हॉस्पिटल में ले चलते हैं एमरजेंसी ट्रीटमेंट के लिए, है न!' जड़, निश्चेष्ट और संज्ञाशून्य आकांक्षा आशंका की नोक पर टँगी बिना दुपट्टा और चप्पल पहने ही यंत्रवत टैक्सी में बैठ गई और चुपचाप सुनती रही रामश्रेष्ठ को।
अखिलेश को सेरेब्रल हेमरेज का अटैक था। होटल सूर्या के एकदम नजदीकवाले नर्सिंग होम में अल्ट्रा-साउंड और सीटी स्कैन की मशीनें नहीं थीं। इस कारण रेजीडेंट डॉक्टर ने सलाह दी कि इन्हें अविलंब काठमांडू के सबसे भरोसेमंद नर्सिंग होम 'ड्रीमलैंड' ले जाएँ जो वहाँ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर था।
रामश्रेष्ठ ने ताका आकांक्षा की ओर। उसके होंठ बुदबुदा रहे थे। जाने किन-किन देवी-देवताओं की गुहार में लीन किन-किन प्रार्थनाओं में डूब उतरा रही थी वह। स्वयं ही निर्णय लिया उसने। आखिरकार।
'चलो, ड्रीमलैंड नर्सिंग होम।'
आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित ड्रीमलैंड नर्सिंग होम। दरवाजे के दोनों ओर बोगनबेलिया की लताएँ एक-दूसरे पर पड़ती गिरती मेहराब-सा बना रही थीं, जिसे देख गहन तनाव के उन क्षणों में राहत-सी मिली आकांक्षा को। वह टैक्सी से उतरने लगी कि फिर सँभाला उसे रामश्रेष्ठ ने। 'उतरना नहीं है। यह टैक्सी सीधा जाएगी इमरजेंसी वार्ड तक, है न।' नाक फुलाते हुए कहा उसने।
प्रारंभिक चेकिंग के बाद अखिलेश को आईसीयू में भर्ती कर लिया गया। आधे घंटे के बाद डॉ. प्रदीप घिमानी ने मुस्कान बिखेरते हुए दिलासा दी, 'चिंता की कोई बात नहीं है। हालात नियंत्रण में हैं। पेशेंट खतरे से बाहर है। यदि थोड़ी और देरी हो जाती तो केस खराब हो सकता था। कल दोपहर को सर्जरी करनी पड़ सकती है।'
'ठीक है, हम दोनों नीचे रिसेप्शन में इंतजार करते हैं। कोई आवश्यकता हो तो हमें बुला लीजिएगा, है न।' संतुष्ट होते हुए कहा रामश्रेष्ठ ने।
डॉ. घिमानी के माथे पर तीन सिलवटें उभरीं। रात में पेशेंट को सँभालें कि पार्टी को। मुलायम-मुलायम शब्दों में कहा उन्होंने, 'देखिए, कोई फायदा नहीं है। मैं एडवाइज करूँगा कि आप आज रात होटल जा कर आराम कीजिए। दिन भर की भाग-दौड़ से पहले ही आप दोनों बेहद थके हुए दिखते हैं। कल संभव है इनका ऑपरेशन भी करना पड़े। अच्छा होगा आज रात आप दोनों आराम कर लें जिससे कल आप लोग पूरी ताकत और ऊर्जा के साथ मरीज की देखभाल कर सकें। यूँ भी हम आपको पेशेंट से सुबह नौ बजे के पहले मिलने नहीं ही देंगे।' न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. प्रदीप घिमानी ने आकांक्षा के डर और परेशानी से पीले पड़े चेहरे को करुणा से देखते हुए कहा।
'ठीक है जैसी आपकी सलाह, है न।'
और वे होटल की तरफ।
लौटती यात्रा। पिछले सात-आठ घंटों में पहली बार राहत की साँस ली आकांक्षा ने। डॉक्टरों ने कह दिया है, उन्हें होश आ गया है। हालत नियंत्रण में है। यही क्या कम राहत की बात है उसके लिए। उफ। कितनी तोड़-फोड़ हुई इन आठ घंटों में। कितनी लहूलुहान हुई है वह। जिंदगी भी क्या-क्या दिखाती है, कौन सोच सकता था कि उसे उसी लंपट का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा जिसकी आँखों में उमड़ते वासना के ज्वार को खुद देख चुकी थी वह अपनी आँखों से। खैर जो भी हो, शुक्रगुजार है वह उसकी, जान बचाई है उसने उसके पति की। उसने कनखियों से देखा, ऊँघ रहा था वह टैक्सी में।
एकाएक उसके पाँवों में कुछ गड़ा। वह चौंकी जैसे करंट लग गया हो। हे भगवान ! वह बिना चप्पल के थी, और तभी वह चिहुँक गई। चप्पल ही नहीं, वह बिना दुपट्टे के भी थी। ताज्जुब। घर में खाना बनाते वक्त तक वह जब कभी दुपट्टे को खूँटी पर टाँग देती है तो इन कुछेक मिनटों में ही वह असहज हो जाती है। पर आज इतने घंटे गुजर गए और उसे अहसास तक नहीं हुआ कि वह बिना दुपट्टे के है। क्या विपत्ति इतनी बड़ी थी कि वह अपने स्त्री होने के अहसास से भी ऊपर उठ गई थी। या कि यह परिवेश और संस्कार ही हैं जो स्त्री को सदैव यह याद दिलाते हैं कि वह स्त्री है। अपनी आदत के मुताबिक सामान्य होते ही वह फिर विचारों के सैलाब में बहने लगी।
इस बीच ड्राइवर ने पूछा, 'दायाँ कि बायाँ?' उसने नीग्रो खोपड़ी को हलके से हिलाया। वह जाग गया, 'सीधा पोखरिया मंदिर तक एकदम सीधा।'
वह थोड़ा करीब खिसका।
सायँ-सायँ बोलता सन्नाटा। सर्पीली सड़कें। गहराती रात और डरावना अँधेरा।
पहली बार अहसास हुआ उसे रोशनी कितनी राहत देती है। सारे अपराध रात के अँधेरे में ही उठाते हैं सिर।
उनींदा शहर और दो-दो मर्दों के बीच अकेली वह। सामंती और मर्दवादी संस्कारों में पला बढ़ा शराबियों का देश नेपाल। ड्राइवर शायद उन दोनों को पति-पत्नी समझ रहा था। समझे, कम-से-कम सुरक्षित तो है वह। यदि खुदा न खास्ता यह नीग्रो खोपड़ी और ड्राइवर मिल जाएँ तो? खुदा रहम करे। जाने कहाँ पढ़ा था उसने कि दिल्ली की सड़कों पर आधी रात में गुजरती अकेली लड़की का सामूहिक बलात्कार और फिर हत्या। यदि उसे कुछ हो गया तो कौन सँभालेगा अखिलेश को। सहमी चिड़िया-सी सिकुड़ी वह। फिर भी उसके पोर-पोर में सुरसुरी हुई। काले दुपट्टे-सा फैला अंधकार चहुँ ओर। उसका सर्वांग काँपा कि तभी उसने देखा वह उसके थोड़ा और करीब खिसका। 'आ गया असली रूप में,' वह घबड़ाई। यह होटल क्यों नहीं आ रहा?
पहाड़-सा गुजरता एक-एक पल।
डर और आवेग पर काबू पाने के लिए उसने मुट्ठियाँ भींचीं। अपने को समझाया, सब ठीक होगा, अपनी उँगलियाँ चटकाईं चट्-चट्। उसे याद आया, उसे नीग्रो खोपड़ी को रुपए भी देने हैं। कितने होंगे, नहीं तो भी भारतीय करेंसी के हिसाब से पंद्रह-सोलह हजार तो होंगे ही। कौन जाने उससे ज्यादा भी हो सकते हैं। क्या पूछा जाए? नहीं, अभी नहीं। ड्राइवर को शक हो जाएगा कि दोनों पति-पत्नी नहीं हैं।
सन्नाटा इतना सघन था कि अपने साँस लेने की आवाज भी सुनाई दे रही थी उसे। दूर कहीं कोई कुत्ता भौंका, अच्छा लगा उसे, यह जानलेवा सन्नाटा तो टूटा।
इस बीच रामश्रेष्ठ थोड़ा और खिसका। मादक एकांत, जादुई अँधेरा और एक सुंदरी का सामीप्य सुख। वह इतना उत्तेजित रोमांचित और अस्थिर हो गया कि अपने आवेगों को थामे रखना मुश्किल हो गया उसके लिए। माटी से फूटते कोंपल की तरह वह बेताब-था फूटने को, कुछ करने को। अटपटे ढंग से उसने उसके कंधों पर हाथ रखा और न देखते हुए उसे देखने लगा। कंधों पर हलका-सा दबाव और बढ़ाया और लटपटाते शब्दों में कहने लगा, 'चिंता मत करो, सब ठीक होगा।' उससे भी जब जी न भरा तो थोड़ा और खिसका और उसकी ठंडी स्पंदनहीन निर्जीव हथेलियों को अपनी चौड़ी चकती हथेलियों में चापते हुए कहने लगा, 'मैं हूँ न।'
'मैं हूँ न।' आकांक्षा के सीने पर हथौड़े की तरह पड़ा। उसके मुँह का जायका बिगड़ा उफ, यह ठुक- ठुक इंतजार और इस नीग्रो खोपड़ी का लिजलिजा अपनापन। जानती हूँ क्यों कर रहा है यह सब। उसकी वितृष्णा, आशंका, असहजता और तनाव खतरे का निशान छूने लगे। अच्छी-खासी ठंड के बावजूद उसने टैक्सी के शीशे ऊपर उठा दिए और खिड़की से बाहर सिर निकाल अपने को टैक्सी की भीतरी दुनिया से असंपृक्त किया।
कुछ पल बीते कि वह फिर अधीर और तनावग्रस्त हो गई। उफ! यह होटल क्यों नहीं आ रहा? कहीं ड्राइवर और यह नीग्रो खोपड़ी तो नहीं मिल गए? उफ! एक जान पचास जंजाल। एकाएक उस पर आत्मदया का ऐसा दौरा पड़ा कि उसकी आँखें भर आईं। तभी उसे नीम अँधेरे में दूर से टिमटिमाता बत्तियों का हलका-सा गुच्छा दिखा। आ गया होटल। वह यूँ आश्वस्त हुई जैसे रेगिस्तान में नदी दिख गई हो।
रूम नं.110, रामश्रेष्ठ।
भागदौड़, व्यस्तता और अवसर की कमी के चलते वासना की जो लहर कुछ दब-सी गई थी गहराती रात के जादुई एकांत में वही लहर दूने वेग से उफान मारने लगी है। भीतर वासना जाग गई, नसें खिंचने लगीं, इसलिए सो नहीं पा रहा है वह। लड़ रहा है वह, कामजनित उस तीव्र उत्तेजना से अपनी समूची आदिम शक्ति से, पर पछाड़ नहीं पा रहा है वह उसे। आँखें मूँदता है तो आँखों के आगे नाचने लगती हैं खुजराहो की मूर्तियाँ। और देखते-देखते वे मूर्तियाँ तब्दील हो जाती हैं कुछ टुकड़े-टुकड़े दृश्यों में। ये टुकड़े-टुकड़े दृश्य हैं आकांक्षा के। वही उदास। वही चिंतनशील। कहीं सपने जगाती, कहीं ऊपर उठाती, कहीं नीचे गिराती। कहीं साधारण। कहीं असाधारण।
लहरें उठ रही हैं रह रह कर। एक खयाल आ रहा है, एक जा रहा है। बस कुछ कदमों की दूरी। एक हलका-सा धक्का और दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी, एक खरगोश लड़की उसकी बाँहों में। बस जरूरत है थोड़ी हिम्मत की। थोड़ी मर्दानगी की।
आधी रात के समुद्र की तरह युवती का उठता-गिरता वक्ष उसकी आँखों के आगे हिलोरें ले रहा है। उसे बेकाबू कर रहा है। उफ! असीम संभावनाओंवाली एक रात ढलती जा रही है और नामर्द-सा बैठा है वह। यदि आज इस बेशकीमती खजाने को नहीं लपक सका वह तो कल दुनिया खत्म हो जाएगी, और यदि दुनिया बच भी गई तो दुनिया से सारी औरतें और सारा सेक्स गायब हो जाएगा, फिर कभी नहीं निकलेगा सूरज उसकी जिंदगी में। जो भी करना है उसे आज ही करना है और इसी वक्त। देखा भी क्या है अभी तक की जिंदगी में। जवान लमहों के नाम पर खाली घंटा। दे धक्का वह उसके दरवाजे पर? पर कहेगा क्या वह? कहने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। युवती समझदार है। खुद ही समझ जाएगी। रिवाइंड! रिवाइंड! टैक्सी में जब उसने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों में चाँप लिया था तो कहाँ छुड़ाई थीं उसने अपनी हथेलियाँ। यूँ भी इस समय वह चिल्ला-चिल्ली नहीं करेगी क्योंकि उसे जरूरत है मेरी।
होटल के कमरे की वह सितारों भरी रात बेताब थी उसे उड़ाने को। कतरा-कतरा हिम्मत बटोरने के लिए वह पेग बनाने लगा कि तभी बजी कॉलिंग बेल। पिक...पिक...पिकाक, कौन? आधी रात को? जाल में कैद परिंदे की तरह उसकी हैरानी फड़फड़ाई। क्या होटल मैनेजर ने पढ़ ली उसकी बदनीयती, इसलिए चला आया चेतावनी देने।
लपक कर जो दरवाजा खोला तो जैसे छत टूट कर गिर पड़ी उस पर।
वह अवाक! हैरान!
यह किस्मत। सामने वह। वाकई वह।
उसने आँखें मलीं, यह हकीकत है या अफसाना? पर आकांक्षा सीधे अंदर घुसी।
बिजली जैसे रामश्रेष्ठ को छूते हुए निकल गई।
हकलाते हुए किसी प्रकार शब्द उगले उसने, 'क्या नर्सिंग होम से कुछ खबर आई है? क्या आपके पति को फिर कुछ...'
'नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ है।'
ऐसा कुछ भी नहीं तो फिर ... उसका दिल बंदर की तरह इतनी जोर से उछला कि उसे लगा कहीं उत्तेजनावश उसका हार्ट फेल ही न हो जाए।
उसने सूँघा, थोड़ा रोमांस, थोड़ी बहार।
'तो फिर इस समय आप?' वह हकलाया।
उसकी आँखों में सीधे देखते हुए कहा उसने, 'देखिए, आधी रात के इस अकेलेपन में मैं आपके पास क्यों आई हूँ, इसे समझने के लिए आपको अपने दिमाग पर बहुत जोर डालने की जरूरत नहीं है।'
'क्या?' अभी तक सिक्कों की दुनिया में ही सफर किया उसने। शब्दों की दुनिया से यह पहला साबका था उसका। इसलिए अचकचा गया वह। अटकते हुए कहने लगा, 'मैं कुछ समझा नहीं। आप... आप... मेरा मतलब है कि आपका मतलब क्या है?'
आकांक्षा जैसे अर्जुन की तरह अपनी मिनिएचर दुनिया से ऊपर उठ गई थी। निर्द्वंद्व और शांत स्वर में जवाब दिया उसने, 'मतलब साफ है। मेरे पति को बचा कर आपने मुझ पर बहुत उपकार किया है। मेरे पति मेरे लिए क्या हैं, इसे आप नहीं समझ पाएँगे और न ही आप यह समझ पाएँगे कि इस अकेली एक घटना के ताप ने जिंदगी और इंसानी संबंधों के बारे में मेरी राय किस कदर बदल डाली है। मैं जानती हूँ आप क्या चाहते हैं। मुझे पता है कि पिछले दो दिनों से आप लगातार मेरा पीछा कर रहे थे। आपकी आँखों में लहराती वासना और कामना की भाषा भी मैं पढ़ रही थी। खैर, आपने जिस कामना के वशीभूत मुझ पर यह उपकार किया है, उसका ऋण चुकाने मैं आई हूँ। कृतज्ञता के भार से मुझे मुक्ति न भी मिले तो कम-से-कम यह संतोष तो मेरी पूँजी रहेगा ही कि जिसने मुझे मेरी जिंदगी, मेरी उड़ान मुझे वापस लौटाई उसकी इच्छापूर्ति का माध्यम मैं बन पाई। बचा पाई अपने नारीत्व को। तो आगे बढ़ो सहयात्री, मैं स्वयं को प्रस्तुत करती हूँ।'
'क्या? क्या?' आकांक्षा की बातों में कुछ भी बनावटी न था। सब कुछ उतना ही कुदरती था जितना हवा पानी। फिर भी उसे खरोंच लगी।
उफ! सारे सत्य निर्वस्त्र हुए। तो उसे पता है कि मैं उसका पीछा कर रहा था। वह समझ गई कि किस इच्छापूर्ति के लिए मैंने बचाया उसके पति को। स्कैनर की तरह पढ़ डाला उसने मेरे मन को। वह क्षण अनंत तक फैल गया। उसे लगा जैसे अनादि काल से आकांक्षा वैसे ही खड़ी हुई है, खुद को प्रस्तुत करते हुए।
स्त्री का यह रूप। इतना रहस्यमय! ऐसा भी होता है क्या?
उसे काठ मार गया। जिंदगी में पहली मर्तबा उसे बौनेपन की अनुभूति हुई, वह भी किसी स्त्री के सामने। जिंदगी में पहली बार शब्द सलाखों की तरह उस पर पड़े। लेकिन युवती का बोलना जारी था, 'मैं नहीं जानती पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, धर्म-अधर्म। इन सभी सवालों को मैंने अफीम पिला कर सुला दिया है। नहीं, इसे तुम क्षण का आवेग भी मत समझना और न ही मेरे सतीत्व की ही चिंता करना। क्योंकि जो तुम तक जाएगा वह सिर्फ मेरा सरप्लस रहेगा, मेरा मैं मेरे पास सुरक्षित रहेगा। पर तुम शायद इसे नहीं समझोगे।'
उसने फिर कहा, 'आगे बढ़ो सहयात्री!'
रामश्रेष्ठ ने झाँका उसकी आँखों में, क्या वहाँ भी है कामना की कोई लहर? पर उन निःसंग और निर्विकार आँखों में पसरा हुआ था वैराग्य। सिर्फ वैराग्य।
वह लज्ज्ति हुआ। महालज्जित। उसकी वासना निढाल हुई। जैसे कंधे तोड़ दिए हों किसी ने उसके। उसके भीतर कंपन हुआ और एक गहरी उदासी उस पर तारी होने लगी। वह समझ नहीं पाया ऐसा क्यों हुआ, पर ऐसा हुआ। जो औरत कुछ समय पूर्व तक आग की लपट थी वह एकाएक लुढ़कती ओस की बूँद बन उसे कैसे ठंडा कर गई, वह समझ नहीं पाया। उस औरत के सामने खड़ा रहना दुश्वार हुआ उसके लिए। उसे घुटन होने लगी, जैसे हवाएँ रुक गई हों और देह की रेत बिखर गई हो चारों ओर। उसने आहिस्ता से दरवाजा खोला और आकांक्षा से बिना आँखें मिलाए तेजी से बाहर निकल गया, खुल कर साँस लेने के लिए। अपने को बचाने के लिए।