चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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दीवार और टीन की छत के खोखल में एक उल्लू आकर बैठ गया था। पता नहीं वह कब से बैठा होगा लेकिन जिस दिन वह दिखाई दे गया, चारों तरफ चर्चा होने लगी। एक दहशत व्याप गई थी। लोगों ने उसे वहाँ से उड़ाना चाहा...पत्थर भी मारे परंतु वह थोड़ा अंदर सरक गया और कुछ दिन तक फिर दिखाई नहीं दिया। कुछ दिनों बाद एक और उल्लू वहाँ बैठा दिखाई दिया। सहमें हुए लोगों ने उस तरफ देखना ही बंद कर दिया। वे सब बिल्ली के सामने कबूतर हो गए थे। हरिहर सोचता रहा...जीव-जंतु, पशु-पक्षी इतने ही अनिष्ठ हों, तब तो प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ जाए। जो आया है, वह जाएगा तो जरूर। और फिर ईरान-इराक पर उल्लू बैठ गए थे या फिर नजदीक की सोचें तो क्या पंजाब पर उल्लू ही मँडराने लगे थे? यह सब कोरी बकवास है, उन्होंने सोचा। फिर कहीं अंदर ही अंदर सोचना-शायद उल्लू उनके लिए ही आया है। इतने वर्षों से वह बेकार बैठे हैं। निरर्थक। महासागर में भटके हुए पंछी की तरह। तभी तेजस्वी ने आकर कहा-पिता जी, उल्लू ने करिश्मा कर दिया।

‘‘क्या कहा?’’ ‘‘वह मेंटल बीमार हो गई है।’’ ‘‘उसे तुम भी मेंटल कहते हो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता।’’ ‘‘यह तो जग-जाहिर है। सभी उसे मेंटल ही कहते हैं।’’

‘‘पर बेटा, हर आदमी किसी न किसी उमर में मेंटर होता ही है। मेंटल का अर्थ है अपने आप से सिमट जाना।’’ ‘‘आप तो अपना दर्शन बधारने लगे। जानते हो आज वह अपने घर से बाहर आई थी। सबसे कहने लगी-अपने-अपने घर की बत्तियाँ बुझो देा। इन पर उल्लू का साया पड़ा रहा है। कोई स्विच को हाथ न लगाओ.....नहीं तो साथ ही चिपक जाओगे।

इतना ही नहीं वह खुद घरों में जाकर बत्तियाँ बुझा आई। लेकिन अपने घर खुद हाथ नहीं लगाया तथा दूसरों से बंद करवाई।’’ ‘‘ओह।’’ ‘‘बस उसके बाद अँधेरे बंद कमरे में लेट गई और कहते हैं बेहोश हो गई।’’ आँगन में चिड़ियाँ चुग्गा चुग रही थी। अपने नन्हों के मुँह में चोंच से नर्म-नर्म ग्रास डाल रही थी। हरिहर को सदा यह प्रिय लगा है। वह अपने भोजन में से रोटी एक एक टुकड़ा बचा लेते तथा उनके बेटे-बेटियाँ जब उन्हें नहीं देख रहे होते तो छोटे-छोटे ग्रास बनकर आँगन में रख देते। कभी-कभी उठने की इच्छा न होती। तो कमरे में ही फर्श पर रख देते और वही चिड़ियाँ चहकने लगतीं और वे भाव-विभागर से देखते रहते।

तेजस्वी कहकर चला गया था और उनके मन में लावा उमड़ने लगा था। जीवन की बिडंबनाएँ उभरने लगी थीं। हाँ! मेंटल कौन नहीं होता? जो जरा लकीर से हट गया, वह मेंटल हो गया। एक धुन, एक सनक ही सवार न हो तो उपलब्धि कैसे होती? किसी ध्येय के लिए मर मिटना ही तो मेंटल होना है। शब्द भी क्या चीज है। विभिन्न संदर्भों में भिन्न अर्थ धारण करने लगते हैं।

शायद चिड़ियाँ भी मेंटल हो जाती हैं। किसी दिन शीशे वाली खिड़की बंद हो जाए तो चिड़ियाँ सर पटक-पटक कर लहू-लुहान हो जाती हैं। तब उन्हें उसकी व्यथा का अहसास होता है। वह उन्हें पकड़ कर पानी पिलाते हैं, फिर खिड़की खोल देते हैं और फुर्र से उड़ जाती हैं। एक दिन चुग्गा चुगती-चुगती चिड़िया एकाएक लुढ़क गई थी। वे घबरा गए थे। फिर चित शांत होने पर सोचने लगे....आवागमन तो निश्चित है। मर-मर कर मिटना और मिट-मिट कर मरना।

खोखल में उल्लू बैठा था, बिलकुल उल्लू की तरह। धुनधुनाता हुआ उमंग आ गया था। बोला-‘‘पिता जी, इस बस्ती में उल्लू आ बसे हैं। मै। यहाँ नहीं रहना चाहता।’’ ‘‘तो क्या बस्ती खाली हो जाएगी?’’ ‘‘हो या न हो। मैं यहाँ नहीं रहूँगा।’’ ‘‘तो कहाँ जाओगे?’’ ‘‘आप मेरे हिस्से का पैसा दे दो, मैं कहीं भी जाकर बस जाऊँगा।’’ ‘‘पैसा तो कमाना पड़ता है। दरख्तों पर नहीं लगता।’’ ‘‘तो क्या आप सारी उमर दरख्त पर उल्लू की तरह ही बैठे रहे?’’ उमंग मेंटल हो गया था। छोटे-बड़े का विचार किए बिना बोले जा रहा था। हरिहर को लगा एक उल्लू उसके कंधे पर आकर बैठ गया था और उसका कंधा दबता ही चला जा रहा था। उन्होंने कभी बैंक में खाता नहीं खोला था। इतने बड़े परिवार का पालन-पोषण हो गया, इतना ही बहुत था। पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता। बुढ़ापा काटना है तो कोई सहारा तो होना चाहिए। संतान को ही उन्होंने बुढ़ापे का संबल माना था, जो अब बिखरता-सा दिखाई दिया।

जब भी उदास होते तो चिड़ियों को चुग्गा डालते। उन्हें आवाज दी-‘‘बहू कोई रोटी का टुकड़ा तो दे जाओ।’’ ‘‘पिता जी, अभी सुबह तो दिया था। अनाज कितना महँगा हो गया है और आप बेकार बैठे चिड़ियों को ही चोगा डालते रहते है।’’ वह कुनमुनाती चली गई।

वह इंतजार करते रहे कि शायद दे ही जाए।

जब वह नहीं आई तो उन्होंने एक कौली में पानी भर कर रख दिय मानों चिड़ियों को कह रहे हों कि आज पानी से ही काम चलाओ। उनकी तो यह इच्छा होती कि कुत्ते को भी रोटी डाले लेकिन घर में बहस शुरू हो जाती-आप कभी मंदिर तो गए नहीं। कुत्ते-बिल्लियों में ही उलझे रहते हैं। वह कहते-कुत्ता दरवेश होता है, द्वारपाल और मृत्यु के बाद परलोक गमन में स्वर्ग दिलवाता है। नई पीढ़ी के लोग उन पर हँस देते।

शायद वह मेंटल हो गए हैं। एक दिन वह अचानक आ गई थी। बोली-तुम छोटे बच्चे का ख्याल करो। इसे ठीक से खिलाया-पिलाया करो। ठंड से बचाओ। ये तो रूई होते हैं....हवा चले तो उड़ जाएँ.....पानी पड़े तो चिपक जाएँ.....नन्हे-नन्हे प्राण......नन्ही-नन्हीं कोपलें। फिर बोली थी-तुमने कभी पौधा रोपा है?

‘‘हाँ।’’ हरिहर ने कहा। ‘‘क्या वह फला-फूला?’’ ‘हाँ।’’ ‘‘तुम खुशकिस्मत हो।’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘मैं जीवन में एक भी पौधा न रोप सकी।’’ ‘‘क्यों प्रयत्न नहीं किया?’’

‘‘प्रयत्न तो किया। पौधा बढ़ा भी फूलने भी लगा फिर अचानक मुर्झा गया।’’ उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। ‘‘कोई बीमारी लग गई होगी।’’

‘‘नहीं, आधार ही सप्पड़ निकला। पत्थर पर भी कभी पौधा उगता है।’’ फिर बोली-सब व्यर्थ हो गया.....आधार ही बिखर गया। ‘‘तो और पौधा रोप लो।’’ सहज भाव से हरिहर ने सुझाया।

‘‘नहीं, जीवन की संध्या में पौधा रोप दूँ। ऐसा संभव ही नहीं। अब तो अगले जन्म का इंतजार है।’’

फिर वह आँगन में निकल आई थी। आँखें बंद कर नतमस्तक हो बोली-पेड़ो, नमस्कार, वायु देवता नमस्कार, जल देवता नमस्कार! पत्तियों नमो नमः।

वह बहुत देर तब बुदबुदाती रही। आँखों से आँसू टप-टप गिरने लगेे थे और वह चली गई थी। खोखल में बैठा उल्लू बरकरार था।

वह अचानक उठा और हरिहर के कंधे पर आ बैठा। इतना बड़ा उल्लू, कंधा फिर दबने लगा....घर का कोई सदस्य नजदीक नहीं आया। फिर उन्होंने खुद ही उसे कपड़े में लपेट कर बाहर फेंक दिया। वह फिर आ बैठा। उन्हें लगा....सरा जीवन कशमकश में ही निकल गया। फिर उन्हें लगा जीवन में हर आदमी के कंधे पर उल्लू बैठा रहता है और उसे हटाने के संघर्ष में ही आदमी दम तोड़ देता है....या फिर मेंटल हो जाता है।

‘‘पिताजी आप भी सनकी हो गए है। सौ साल हो गए आपको चोग डालते। क्या मिलता है आपको?’’

‘‘सनकी नहीं, मेंटल कहो बेटा। बुढ़ापा मेंटल हो जाता है। मैं भी बहक जाता हूँ। मैं चोगा नहीं डालूँगा तो चिड़ियाँ क्या खाएँगी। उनके नन्हों का क्या होगा।’’ बहू तो जा चुकी थी। परंतु वह बुदबुदाते रहे।

हरिहर ने उसके बाद चिड़ियों के लिए रोटी का टुकड़ा नहीं माँगा परंतु चिड़ियाँ उनके कमरे में चहचाहती ही रहीं।

आकाश में उल्लू ही उल्लू लटक गए थे। मेंटल औरत बेहोश हो गई थी...बीच-बीच में बड़बड़ाती ही रही-रौशन लौटकर आएगा जरूर...मैंने उसे जन्म दिया था. नौ मास का गर्भ...और पालमपुर से अंबाला की यात्रा...ये तो साथ गए ही नहीं थे...डर गए थे ससुर से ...प्रोफेसर बाप...आर्य समाज की रोशनी में पला-बढ़ा। लाहौर में थे तो भी अकेले आने के लिए कहते....पाँच साल की थी, तो अकेली लाहौर पहुँची....स्टेशन पर भी लेने न आए। कोई किसी पर निर्भर न हो....आदमी-औरत सब बराबर.....स्वावलंबन सीखो....पशु-पक्षियों की कौन अँगुली पकड़ता है....मैं अंबाला अकेली गई थी।

उसने जन्म लिया था......रोशन ने.......रोशनी कर दी थी....अब तो सब बत्तियाँ बुझ चुकी हैं। लेकिन वह आएगा जरूर.....तीस साल तक वह फलता-फूलता रहा.....फिर कहीं कोई सप्पड़ निकल आया.....लेकिन वह आएगा जरूर.....इतना निर्मम वह नहीं हो सकता......फिर अचानक बोली-रोशन आ गया....वह....वह जोर से चिल्लाई और बेहोश हो गई।

उसकी इसी प्रलाप मेें उसके मेंटल् होने की गुत्थी थी.....रोशन पेड़ होने लगा था, उसे भी आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया......परमात्मा ने शरीर दिया है....दवाइयाँ साथ नहीं भेजी....तो दवाईयाँ क्यों खाओ.....शरीर में सब कुछ है.....अपने आप ठीक हो जाता है।’’

एक दिन रोशन ने कहा था-‘‘माँ, मेरा दिल घटता रहता है। बाजू में दर्द रहता है।’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ मैंने कहा। ‘‘इसे डॉकटर को दिखाना चाहिए।’’ पिता ने कहा। ‘‘नहीं, यह मेरा बेटा है। दवाई का प्रश्न ही नहीं होता।’’

रोशन घुलता चला गया। उसके अंदर ही कहीं कुछ-कुछ गड़बड़ थी परंतु माँ तो अड़ी हुई थी....इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी वह अपने बेटे के उपचार से सहमत नहीं थी। एक रात बेटे को बड़ी परेशानी हुई तो वह तड़ उठा.....घर में जो भी दवाई पड़ी थी.....वह पी गया था। माँ से डरते-डरते....और जब उसे अस्पताल ले गए तो एक मुठ्ठी भर रेत के अतिरिक्त वह कुछ नहीं था। अब वह इतना ही बोलती....समय से पहले वह क्यों चला गया....यह सरासर अन्याय है। वह लौटेगा जरूर...।

वे हरिहर के पड़ोस में आकर बसे थे, तो उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि वह मेंटल थी। वह कभी हाल-चाल पूछने जाता तो मियाँ कभी अपने दुःखों को व्यक्त् न करते...और पेड़-पौधों-फूलों की चर्चा में ही समय बिता देते।

हरिहर को लगा-दुनिया में सभी लोग मेंटल हैं...रिटायरमेंट के बाद बहुत दिनों तक बुजुर्गों को झेलना मुश्किल होता है...कमजोर पौधों को उखाड़ फेंकना ही शायद मुनुष्य की विवशता है।

उन्हें लगा की वीणा की बेहोशी शायद उस पार जाने की तैयार है...उनके अपने मन में बहुत पहले से चिड़ियों के प्रति स्नेह रहा है...आँधी-तूफान में नन्हें जीव कहाँ जाएँ...चिड़ियों को चोगा...इनके लिए जीवन का पर्याय था। पहले तो बहुएँ ही उनकी इस आदत का विरोध करती थीं। अब बेटे भी करने लगे थे...पता नहीं क्यों उन्हें यह अच्छा लगता था। हरिहर कभी मंदिर नहीं गए थे, परंतु परमात्मा में पूरी आस्था थी और परलोक के लिए चिड़ियों का चोगा डालना उन्हें संतुष्ट करता था।

हड़बड़ाता हुआ-सा तेजस्वी उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ और बोला-पिता जी, मेंटल तो अब जाने ही वाली है। उसने सात दिन से कुछ नहीं खाया और न ही बोलती है...बेहोशी में हैं। हरिहर तो स्वयं समाधि में थे...थोड़ा-सा एक और लुढ़के हुए...तेजस्वी भौंचक्का रह गया। चारपाई पर यदि प्राण त्याग दिए तब तो बहुत बुरा होगा...चारपाई भी चार्ज-ब्राह्मण को देनी पड़ेगी...उसने तुरंत अपने पिता को उठाकर जमीन पर लिटा देना चाहा...इसी प्रयत्न में बिस्तर की चादर उठ गई और उसने देखा चादर के नीचे रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े थे...उसी आकार के जैसे वे चिड़ियों को डाला करते थे...चिड़ियों का चोगा।