चिड़ी की दुक्की / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ-3
आज से तक़रीबन डेढ़ बरस पहले जब मैं बम्बई में था, हैदराबाद से एक साहब का डाक-कार्ड मौसूल (प्राप्त) हुआ। मज़्मून कुछ इस क़िस्म का था...
‘‘ये क्या बात है कि इस्मत चुग़ताई ने आपसे शादी न की ? मंटो और इस्मत, अगर ये दो हस्तियाँ मिल जातीं तो कितना अच्छा होता, मगर अफ़सोस कि इस्मत ने शाहिद से शादी कर ली और मंटो...।’’
उन्हीं दिनों हैदराबाद में तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ों (प्रगतिवादी रचनाकारों) की एक कॉन्फ़्रेंस हुई। मैं उसमें शरीक नहीं था। लेकिन हैदराबाद के एक पर्चे में उसकी रुदाद (ब्योरा) देखी, जिसमें ये लिखा था कि वहाँ बहुत-सी लड़कियों ने इस्मत को घेरकर ये सवाल किया कि
‘आपने मंटो से शादी क्यों नहीं की ?’’
मुझे मालूम नहीं था कि ये बात दुरुस्त है या ग़लत, लेकिन जब इस्मत चुग़ताई वापिस आई तो उसने मेरी बीबी से कहा कि हैदराबाद में एक लड़की ने जब उससे सवाल किया,
‘मंटो कुँवारा है ?’
तो उसने ज़रा तन्ज़ के साथ जवाब दिया,
‘जी नहीं’,
इस पर वो मोहतरमा इस्मत के बयान के मुताबिक़ कुछ खिसियानी-सी होकर ख़ामोश हो गईं। वाक़ियात कुछ भी हों, लेकिन ये बात ग़ैर-मामूली तौर पर दिलचस्प है कि सारे हिन्दुस्तान में सिर्फ़ एक हैदराबाद ही ऐसी जगह है जहाँ मर्द और औरतें मेरी और इस्मत की शादी के मुतअल्लिक़ फ़िक्रमंद रहे हैं।
उस वक़्त तो मैंने ग़ौर नहीं किया था, लेकिन अब सोचता हूँ अगर मैं और इस्मत वाक़ई मियाँ-बीवी बन जाते तो क्या होता ? ये ‘अगर’ भी कुछ उसी क़िस्म की अगर है...अगर कहा जाए कि अगर क़लूपतरा की नाक एक इंच का अट्ठारवाँ हिस्सा बड़ी होती तो उसका असर वादी-ए-नील की तारीख़ पर क्या पड़ता। लेकिन यहाँ न इस्मत क़लूपतरा है और न मंटो एन्थनी। लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर मंटो और इस्मत की शादी हो जाती तो उस हादिसे का असर अहदे-हाज़िर (वर्तमान) के अफ़सानवी-अदब (कथा-साहित्य) की तारीख़ पर एटमी हैसियत रखता। अफ़साने अफ़साने बन जाते, कहानियाँ मुड़-तुड़ कर पहेलियाँ हो जातीं। इन्शा (लेखन) की छातियों में सारा दूध ख़ुश्क होकर या एक सुफ़ूफ़ (चूर्ण) की शक्ल अख़्तियार कर लेता या भस्म होकर राख बन जाता और ये भी मुमकिन है कि निकाह-नामे पर इनके दस्तख़त इनके क़लम की आख़िरी तहरीर होते, लेकिन सीने पर हाथ रख कर ये भी कौन कह सकता है कि निकाह-नामा होता। ज़्यादा क़रीने-क़यास (सही अनुमान) तो यही होता कि निकाह-नामे पर दोनों अफ़साने लिखते और क़ाज़ी साहब की पेशानी पर दस्तख़त कर देते ताकि सनद रहे। निकाह के दौरान कुछ ऐसी बातें भी हो सकती थीं..
‘‘इस्मत, क़ाज़ी साहब की पेशानी, ऐसा लगता है, तख़्ती है।’’
‘‘क्या कहा ?’’
‘‘तुम्हारे कानों को क्या हो गया है ?’’
‘‘मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ, तुम्हारी आवाज़ हलक़ से बाहर नहीं निकलती।’’
‘‘हद हो गई। लो अब सुनो। मैं ये कह रहा था कि क़ाज़ी साहब की पेशानी बिलकुल तख़्ती से मिलती-जुलती है।’’
‘‘तख़्ती तो बिलकुल सपाट होती है।’’
‘‘ये पेशानी सपाट नहीं ?’’
‘‘तुम सपाट का मतलब भी समझते हो ?’’
‘‘जी नहीं। ’’
‘‘सपाट माथा तुम्हारा है। क़ाज़ी जी का माथा तो...।’’
‘‘बड़ा ख़ूबसूरत है।’’
‘‘ख़ूबसूरत तो है।’’
‘‘तुम महज़ चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘चिड़ा तुम रहे हो मुझे।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘मैं कहती हूँ तुम चिड़ा रहे हो मुझे।’’
‘‘तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुम चिड़ा रही हो मुझे।’’
‘‘अजी वाह ! तुम तो अभी से शौहर बन बैठे।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूँगा। अगर आपकी बेटी का माथा भी आप ही के माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए।’’
‘‘क़ाज़ी साहब, मैं इस मरदूद से शादी नहीं करूँगी। अगर आपकी चार बीवियाँ नहीं तो मुझसे शादी कर लीजिए। मुझे आपका माथा बहुत पसंद है।’’
अगर हम दोनों को शादी का ख़याल आता तो दूसरों को हैरानी-ओ-परेशानी में गुम करने के बजाय हम ख़ुद उसमें गर्क़ हो जाते और जब एकदम चौंकते तो ये हैरानी और परेशानी जहाँ तक में समझता हूँ मुसर्रत (खुशी) के बजाय एक बहुत फ़ुकाहिया (उपहास) में तब्दील हो जाता। इस्मत और मंटो, निकाह और शादी, कितनी मज़्हका-ख़ेज़ (हास्यास्पद) है।
इस्मत लिखती है-
‘‘एक ज़रा-सी मुहब्बत की दुनिया में कितने शौकत, कितने महमूद, अब्बास, असकरी, यूनिस और न जाने कौन-कौन ताश की गड्डी की तरह फेंट कर बिखेर दिए गए हैं। कोई बताओ, इनमें से चोर पत्ता कौन-सा है ? शौकत की भूखी-भूखी कहानियों से लबरेज़ आँखें, महमूद के साँपों की तरह रेंगते हुए आज़ा (अंग-प्रत्यंग), असकरी के बेरहम हाथ, यूनिस के निचले होंठ का सियाह तिल, अब्बास की खोई हुई मुस्कुराहटें और हज़ारों चौड़े-चकले, सीने, कुशादा पेशानियाँ, घने-घने बाल, सुडौल-पिंडलियां, मज़बूत बाज़ू, सब एक साथ मिलकर पक्के सूत के डोरों की तरह उलझ कर रह गए हैं। परेशान हो-होकर इस ढेर को देखती हूँ मगर समझ में नहीं आता कि कौन-सा सिरा पकडूँ कि खिंचता ही चला आए और मैं उसके सहारे दूर उफ़ुक़ (क्षितिज) से भी ऊपर एक पतंग की तरह तन जाऊँ।’’
- (छोटी आपा)
मंटो लिखता है-
‘‘मैं सिर्फ़ इतना समझता हूँ कि औरत से इश्क़ करना और ज़मीनें ख़रीदना तुम्हारे लिए एक बात है। सो, तुम मुहब्बत करने के बजाय एक-दो बीघे ज़मीन ख़रीद लो और उस पर सारी उम्र क़ाबिज़ रहो। ज़िंदगी में सिर्फ़ एक औरत और ये दुनिया इस क़दर भरी हुई क्यों है ? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं ? मेरी सुनो और इस ज़िंदगी को, जो कि तुम्हें दी गई है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो। तुम ऐसे गाहक हो जो औरत हासिल करने के लिए सारी उम्र सरमाया (पूँजी) जमा करते रहोगे मगर उसे नाकाफ़ी समझोगे। मैं ऐसा ख़रीददार हूँ जो ज़िंदगी में कई औरतों से सौदे करेगा। तुम ऐसा इश्क़ करना चाहते हो कि उसकी नाकामी पर कोई अदना दर्जे का मुसन्निफ़ एक किताब लिखे, जिसे नरायन दत्त सहगल पीले काग़ज़ों पर छापे और डिब्बी बाज़ार में रद्दी के भाव बेचे। मैं अपनी किताब के तमाम औराक़ (पन्ने) दीमक बनकर चाट जाना चाहता हूँ ताकि उसका कोई निशान बाक़ी न रहे। तुम मुहब्बत में ज़िंदगी चाहते हो, मैं ज़िंदगी में मुहब्बत चाहता हूँ।’’