चित्तकोबरा / योगेश गुप्त
मैं उसकी बात मान लेता हूँ जिसने निहायत घिन से मुझे नाम दिया है, तुम 'स्कैप्टिस्टि' हो। उस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। अब बंद कमरे में वह घिन हवा में बढ़ती हुई गैस की तरह महसूस हो रही है, पर सच तो है, सो है। मुझे खुशी है कि मुझे अंदर-बाहर के सब पर संदेह है। स्थितियां सब अस्पष्ट और अनाम है। यह एहसास ही मेरी नजर की धुंध है। धुंध मुझे इतनी साफ नजर आती है कि खुद को झुठला नहीं सकता। मुझे तो काला रंग भी पीला-पीला-सा दीखता है। हैरान हूँ-क्या स्वभाव मेरे साथ खेल रहा है? पर जो हो, खेल भयावह है... पर क्या भय ही है, या उसमें कहीं आशा भी है, यह सब शांत है, मृत शांत,। अर्जुन ने पूछा था, "लडूं या न लडूं?" जितूं या भाग जाऊं? ये जो सामने खड़े हैं उनको नष्ट करूं या सब हथियार छोड़कर कत्ल हो जाऊं? राजसी भोग भोगूं या औरों के लिए छोड़ दूँ? " अर्जुन का संदेह था कर्तव्य की सीमा पर। यह रेखा यहाँ से खीचूं या यहाँ से। मेरा शुभ इसमें है या उसमें। धर्म की रक्षा ऐसी होगी या वैसे और मरकर मैं इस रास्ते स्वर्ग जाऊंगा या उस रास्ते से। पर मैं संदेह के उस स्तर तक नहीं पहुंच सका हूँ। मेरा संदेह तो बड़ा सतही है। मैं तो भ्रम में हूँ कि यह जो आदमी मेरे सामने बैठा है, यह है या नहीं, यह जो स्थिति में भोग रहा हूँ-यह मैं भोग रहा हूँ या मेरे पास खड़ा आदमी और सच है कि आज संदेह की यह दृष्टि मुझे इस बात के लिए मजबूर कर रही है कि यदि कोई दोस्त मेरे सामने या बराबर या पीठ पीछे आकर खड़ा हो तो मैं अपनी आंखों पर भरोसा न करूं, उसे हाथ बढ़ाकर छूकर देख लूँ। अपने मन को निश्चिन्त कर लूँ कि वह है। कभी-कभी खुद पूछता हूँ, कहाँ जाऊं? या प्रश्न को यों कहे तो ठीक होगा कि कहाँ न जाऊं। मैंने एक तेज चाल की गाड़ी ले रखी है और मैं भागा फिरता हूँ। कहीं-कहीं लाल बत्ती के कारण मुझे रुकना पड़ता है। पर उतनी ही देर अंदर की हरी बत्ती झिप-झिप करती रहती है। मैं फिर भाग लेता हूँ। मेरा गाड़ी के पहिए सड़क का तारकोल और पथरी उछालते हुए चलते हैं। आसपास के बहुत से लोगों को चोट आती है, पर धीमी चाल से नहीं चल सकता, क्योंकि गाड़ी का विश्वास टूट गया है। वह अविश्वास की भयावह गति से एकरस हो गई है। अविश्वास चक्र में घूमता है। मैं भी अपनी गाड़ी में बैठा चक्राकार घूम रहा हूँ, मुझे घुमेर आ रही है, धुंध और साफ होती जा रही है। मुझे मालूम है, मैं गिर पडूंगा, बेहोश हो जाऊंगा। गाड़ी उसी चक्र में घूमती रहेगी। वह बेहोश नहीं होगी। वह मशीन की बनी है। इंतजा करेगी कि मैं होश में आऊं और उस घुमेर का आनन्द लूँ।
तो यह सच है कि कर्तव्याकर्तव्य, नीति-धर्म, स्वर्ग-नरक, मेरी समस्या नहीं है। जब अपने या किसी के या किसी शक्ति के होने से ही मेरा विश्वास उठ गया तो फिर ये समस्याएं मेरे लिए हो ही कैसे सकती हैं। मैं अपनी मौत की खुशी इन सब चीजों में भागकर मना नहीं सकता। मौत से मेरा समझौता है। न कहूँ कि मैं जिंदा हूँ, कहूँ कि मैं निरंतर मर रहा हूँ कि और इस तरह सुखी हूँ। यही बात मैं अपने बच्चों को बताता हूँ कि तुम चाहे डरो मत, पर तुम मर रहे हो। पहाड़ी पर चढ़ने का तुम भ्रम बना सकते हो पर दरअसल पहाड़ी नीचे धंस रही है। चोटी पर तुम निश्चय ही पहुंचोगे पर पहाड़ी जरा-सा और भी खिसक सकती है। फिर कौन-सा विश्वास तुम्हारा आधार बनेगा? तुम्हारे साथ फिसल रहे और लोग अपनी स्थिति पर रोएंगे। उन पर हंसना मत। उनका इंतजार करना। वे सब तुम्हारे साथी हैं। सभी तुम्हारे पास आएंगे। हां, चाहकर भी तुम उन्हें गले नहीं लगा सकोगे। उसका अफसोस मत करना। आधार खोने का इतना थोड़ा-सा नुकसान तो बहरहाल होता ही है।
अर्जुन से कृष्ण ने कहा था-'तुम दुविधा मत करो। काम किए जाओ. मेरे लिए काम किए चले जाओ.' कृष्ण सही था। एक विशाल हिमखण्ड जिस पानी पर पहाड़ से फिसल कर गिरता है तो क्या कोई कण दुविधा में पड़ सकता है? बड़े आदमियों की बातें मत करो। मैं साधारण आदमी हूँ और बड़े आदमियों ने मुझे बताया है कि मैं स्वतंत्र हूँ। हिमखण्ड तो यह कहेगा ही। उसका कहना सही है। दुविधा या विश्वास सोच-समझकर थोड़े ही कर सकता हूँ। सोचने समझने का तो मौका ही नहीं है। वह कहता है भरोसा रखो। मैं कहता हूँ दोनों स्थितियों में अंतर क्या है। तर्क और युक्ति की गुजांयश न हो तो विश्वास और अविश्वास दोनों बराबर होते हैं। मैं अविश्वास में ही रहना चाहता हूँ, कारण मात्र यही है कि कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, शायद तुम्हें फर्क पड़ता हो। तुम्हारे अहं को चोट लगती हो। पर क्या हो जाएगा? दीर्घकाय तुम, मिट तो न जाओगे। तुम्हारा अहम तो अजर अमर है और मेरा सुख तुम्हें हमेशा बुरा लगता रहा है। आज भी तुम सिर्फ़ मेरे छोटे से सवाल से चौंक जाते हो। मैं कभी-कभी पूछ लेता हूँ, "तुम कौन हो? आखिर तुम हो कौन?"
हजारों साल से करोड़ों लोगों पर काले रंग के छाते की तरह तने हो तुम। दरअसल रोशनी-पानी उन तक पहुंचने नहीं देते और कहते हो मैं तुम्हें धूप से बारिश से बचाता हूँ। धूप में नहाए हो तुम कभी? बारिश की ठंडक जानते हो, किसे कहते हैं? पर अब क्या है? अब तो सभी टूट फूटकर, चिर-फटककर घिनौना हो गया है। धूप या टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गई है या दिखाई ही नहीं देती। पानी छतों पर रह जाता है और नालियों के रास्ते उतरता है। जब तक तुम थे, तुमने हमें कुछ भोगने नहीं दिया और जब अब तुम नहीं रहे, भोग्य सब अखाद्य हो गया। इसे प्रवंचना कहने का अधिकार तो बहराहल हमें है ही। यह गुस्सा या शिकवा शिकायत नहीं है, यह स्थिति बोध है। तुम नहीं रहे। प्रकृति-सुख नहीं रहा, एक चलाचल रह गई है। उसमें कोने में खड़े होने से आदमी दीवार बन जाता है और बीच में आने से बहुत मार पड़ती है। कह सिर्फ़ यही पाता है कि मैं पत्थर हूँ, मुझे मत छेदो, मैं आदमी हूँ मुझे मत मारो पर कोई हो तो सुने। मेरी यही आवाज मुझे छेदती भी है, मुझे मारती भी है।
मैं फिर कुछ ग़लत कह गया हूँ। मेरी इस बात से ध्वनि निकलती है कि मैं अकेला हूँ। दरअसल में अकेला नहीं हूँ। अकेला हो जाऊं तो खुश हो जाऊं। न किसी को नकारने की ज़रूरत पड़े, न स्वीकारने की। फिर यह धुंध भी कहाँ हो जिसका मैं इतने दिनों से आनन्द ले रहा हूँ। पर ऐसा नहीं है। मेरे चारों तरफ एक बहुत बड़ी दुनिया है या शायद उसके होने का मुझे भ्रम है और आदमी, परिवार, भीड़, मकान और सड़कें मुझे अपने चारों तरफ घूमते हुए दीखते हैं। कभी कोई बड़ा दैत्य मुझे रोककर खड़ा हो जाता है तो कभी मुझे लगता है, कोई अदृश्य शक्ति मेरे कंधे पर दबाव डालकर मुझसे बैठ जाने या डूब जाने का इशारा कर रही है। कभी मैं इस स्थिति को स्वीकार लेता हूँ तो कभी छटपटाता हूँ और जाग जाता हूँ। तब भय और संदेह तरह-तरह के भेस बदलकर मुझे डराते हैं। समाज मुझसे मनचाहे कपड़े पहनने का हक छीनना चाहता है तो भीड़ यूहीं धकेलकर मुझे बायीं से दायीं तरफ चलने को मजबूर कर देती है। ऊंचे मकानों के गिरने की आवाज हर समय मेरे कानों में गूंजती रहती है। क्या मालूम कौन-सा शहर किस समय इतिहास में अमर हो जाए, हिरोशिमा बन जाए. इसलिए कभी-कभी भागकर मैं हांफता हुआ अपने घर में घुसता हूँ तो वहाँ चारों तरफ चुप्पी का धुंआ फैला होता है। मैं कहता हूँ, 'बोलो। कुछ धुआं तो तुम्हारे पेट में उतर जाए.' पर सब थके होते हैं और यों बहुत सारा धुंआ मेरे अपने पेट में उतरता चला जाता है। मैं चुप लेट जाता हूँ और पास ही कहीं से उठकर सायरन की आवाज मेरी आंखों के सामने घड़ी के पैंडुलम की तरह घूमती है। बात फिर ग़लत हो गई. यह स्थिति है? क्या इसे मैं जैसी यह है ऐसी ही स्वीकार करता हूँ। स्वीकार करता हूँ तो फिर संतोष क्यों नहीं कर लेता? संतोष होता नहीं, बात समझ पाता नहीं तो आवेश बढ़ जाता है और लगता है कि यह सब जो सामने है, सामने नहीं है। यह जो मैं हूँ, अकेला नहीं हूँ। जितने भी लोग उम्र के सफर में मुझसे बिछुड़ गए हैं वे सब पिन की नोक की तरह मेरे शरीर में प्रवेश कर गए हैं।
पहले की बात और थी। जितने भी लोगों का काफिला महाभारत के शुरू में था वह अंत तक उतना ही रहा। रास्ते में एक भी आदमी न टूटकर गिरा, न किसी ने तोड़ा। आखिर काफिले को तितर-बितर करने के लिए युद्ध कराना पड़ा और तब खास-खास आदमियों को छोड़कर सब मर गए. कोलाहल कम हुआ। थोड़ी शांति हो सकी। पर क्या यही शांति मुरदे की तरह उठकर बैठ नहीं गई और शोर पहले से दुगना-तिगुना होकर आकाश में नहीं छा गया?
इसलिए मैं सुखी हूँ कि बहुत से लोग साथ चलते-चलते मरते-खपते रहे और शोर मुझमें सो-सोकर जागता रहा और मेरे भीतर की अतृप्ति मेरे अंदर ही घुमड़कर गड्ढे को गहरा करती रही और मुझे सोने नहीं दिया। मुझे बराबर जगाए रखा। जागते रहना कितना बड़ा सुख है।
अस्तित्व पर मुझे पहले-पहल उस दिन संदेह हुआ, जिस दिन एक बार टेप खोलते ही फुच्-फुच् की एक आवाज हुई पर पानी नहीं आया। मैं इंतजार करता रहा। मुझे महसूस हुआ कि यह परतंत्र है और इसके कारण मैं परतंत्र हूँ और फिर यह भाव बढ़ता ही गया और मेरे सामने बहुत से वे लोग आते-जाते दीखने लगे, जो परतंत्र हैं और जिनके कारण मैं परतंत्र हूँ। फिर लगा कि स्थिति अनिवार्य है, पर फिर व्यक्ति का अस्तित्व क्या कहलाएगा-परतंत्र अस्तित्व? फिर क्या उस पर संदेह न होगा कि वह है या नहीं पर परतंत्रता उसने खुद अपनी सुरक्षा के लिए ओढ़ी है या किसी और ने उसकी सुरक्षा का भार अपने कंधों पर अनावश्यक रूप से ओढ़ लिया है और ज़रूरत दिखाकर उसे बांध-जुड़ कर 'आदमी' बना दिया है। पर मुझे इस बात पर भी संदेह है। कहीं मैंने खुद ही तो यह प्रपंच नहीं रचा और अब घबराकर मैं दोष किसी दूसरे के कंधे पर रख रहा हूँ? क्या सिर्फ़ मैं...
ओह! बात फिर यूँ निकल आयी कि मैं अकेला हूँ। पर यह सच नहीं है। मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ हजारों लोग हैं। हां, यह मैं नहीं बता सकता कि मेरे ही जैसे भाव उसके मन में उठते हैं या नहीं। चुस्त पोषाक... परस्त्री भोग... चोरी... खून... क्या आज किसी को चौंका पाता है? स्त्री-पुरुष के चेहरे पर क्या रिश्तों का मुखौटा चल पाता है? दैत्य क्या नहीं बताता है कि सब समान है। चांद पर पहुंचकर क्या आदमी नपुंसक हो जाएगा? चांद पर पहुंचते-पहुंचते जो मर रहे हैं क्या दोबारा जन्म लेंगे? साहित्यकारों को इतने सारे चरित्र पैदा करने के लिए गिरफ्तार क्यों नहीं किया जाता? परिवार नियोजन उन पर क्यों लागू नहीं होता? और अवैध बच्चे की मौत पर लोग जश्न क्यों मनाते हैं? मैं सोचता हूँ लोग लिखकर किस अमूर्त्त पर घेरा डालने की कोशिश कर रहे हैं? सभ्यता और संस्कृति क्या हजारों साल के कम्बल आदमी पर से उठाकर उसे स्वतंत्र कर सकती है? क्या आदमी फिर अपने शीशे में देख पाएगा? यूँ आदमी डर रहा है या सभ्यता छल रही है? पर मैं खाल के बारे में क्यों सोचूं? दिल और दिमाग के बारे में क्यों सोचूं? मैं धड़ मांस के आदमी को क्यों गिनती में लूँ? पर मेरी आंखें कमजोर हैं। बिना शीशे के तो कुछ भी दिखाई नहीं देता। इसलिए कभी-कभी मैं सोचता हूँ, क्यों कांच की खिड़कियां खोल-खोलकर झांकता फिरूं-देखकर, अधिक से अधिक छूकर मुहँ न फेर लिया करूं? पर जानता हूँ, इस स्थिति में तापमान बहुत बढ़ जाता है। मैं जलने लगता हूँ और बंद कमरे में अंधेरे की जलन मुझे खुले नल से गिरते पानी की आवाज तक सुनने नहीं देती। मुझे भास होता है कि मैं खाट की बांही से बांधा जाने लगा हूँ मैं जीवन के संघर्ष में साफ-साफ निकल गया हूँ, मैं मुक्त हो गया हूँ।
मैंने उस दिन उससे कहा था कि कुछ देर मेरे पास बैठ जाओ. वह बैठ नहीं सकी। मेरे शरीर से आग की लपटें जो निकलती रहती हैं। पास बैठने का मतलब है उसके घेरे में आ जाना। घेरा बढ़ रहा है, इस घेरे में जकड़ है, आकर्षण है। जो इस घेरे में है वे सिंक रहे हैं।
मैं अपना घेरा कैसे तोड़ दूं? उन्हें बाहर कैसे धकेल दूँ? उन्हें इस यंत्रणा से कैसे बचाऊं? कॉलरिज के बूढ़े मल्लाह की तरह खुद को ही अपनी कहानी सुनाकर बुझ लेता हंू। पर कर तो कुछ नहीं सकता। परतंत्र हूँ, मर भी नहीं सकता। मरना शायद मैं चाहता भी नहीं क्योंकि विश्वास नहीं कि मरने से आग का यह घेरा टूट जाएगा और मेरे स्नेही आत्मज मुक्त हो जाएंगे। मैं देख रहा हूँ कि खुद को बचाने के लिए, मुझसे लड़ने के लिए उन्होंने भी अपने-अपने चारों तरफ आग के घेरे बना लिए हैं। मैं खुश भी हंू और जलन भी बढ़ गयी है। पर खुद को खत्म नहीं करूंगा। तमाशा ही तो है और पुतलियों का शीशा तो जलन में और भी पारदर्शी हो जाता है। कुछ-कुछ देर बाद तो मैं किवाड़ को बंद कर लौ को बाहर जाने से रोकता ही रहता हंू। किवाड़ जल न जाएं, इसलिए खोलने पड़ते हैं। ओह, क्या क्रम है। पता ही नहीं चलता कि किसके पीछे कौन खड़ा है। मैं सच कहता हूँ-नहीं-नहीं, सिर्फ़ कहता नहीं, मानता भी हूँ कि मुझे किसी के अस्तित्व पर शक करने का हक नहीं है। पर फिर ज़रा पास आओ. मुझे छूकर देखो। बताओ कि मैं हूँ। कहो कि मैं क्या हूँ मुझे साफ-साफ बताओ कि मैं क्यों हूँ। अगर नहीं हूँ तो मेरे भीतर यह क्या गूंजता है कि तुम मेरी तरफ देखने के लिए मजबूर हो जाते हो।
यदि मैं आदमी नहीं हूँ तो मेरी यह भाषा तुम्हारी समझ में कैसे आ जाती है, तुम मेरे प्रति जिज्ञासु कैसे होते हो? सिर्फ़ इसलिए कि मैं क्यों हूँ, का तुम जबाव नहीं दे सकते, बाकी के दो सवालों को लेकर भी मौन मत रहो। मेरे पास आओ, मुझे छुओ. महसूस करो। बोलो चाहे मत पर पास आओ. तुम मेरे दोस्त हो। तुम शायद सो गए हो या झुलस गए हो। या जानबूझकर मुझे नकराने को मौन हो। चुप न रहो। कुछ बोलो। बात करो। चुप रहकर मुझे फिर यह सोचने के लिए बाध्य न करो कि तुम हो या नहीं हो, तुम यहाँ हो या कहीं नहीं हो। तुम...
मेरे प्यार दोस्त! मूक अविश्वास मुखर अविश्वास से अधिक धार वाला होता है। फिर मुझे दोष न देना यदि मैं अपने और तुम्हारे बीच की दूरी फाड़ डालूँ, ग़लत लिखे गए खत की तरह...