चित्रलेखा का सिनेमाई रूपांतरण / भगवतीचरण वर्मा / जवरीमल्ल पारख
जवरीमल्ल पारख
भगवतीचरण वर्मा के प्रख्यात उपन्यास 'चित्रलेखा' का प्रकाशन 1934 में हुआ था, उस समय वह 31 वर्ष के थे और एक कवि के तौर पर उनकी पहचान बनने लगी थी लेकिन 'चित्रलेखा' ने उन्हें एक उपन्यासकार के रूप में भी प्रतिष्ठित कर दिया। 'चित्रलेखा' ऐतिहासिक कल्पना पर आधारित उपन्यास है जो चंद्रगुप्त मौर्य के युग की कहानी हमारे सामने प्रस्तुत करता है। मुख्य कथा जिन पात्रों के माध्यम से सामने आती है, वे ऐतिहासिक नहीं हैं लेकिन उन्हें जिस देशकाल में पेश किया गया है और वे जैसा व्यवहार करते हैं, जो उनका सोच है, वह काफी हद तक उस दौर का प्रतिनिधित्व करता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उपन्यास की कोई प्रासंगिकता नहीं है। जिस पाप-पुण्य का प्रश्न उपन्यास के केंद्र में है, वह ठीक उसी रूप में भले ही बहुत प्रासंगिक न हो, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब भी लोग लौकिक जीवन को अभिशाप की तरह देखते हैं और धर्म, अध्यात्म को ही मुक्ति का मार्ग समझते हैं। उपन्यास का मुख्य कथ्य इस प्रश्न से जुड़ा है कि क्या जीवन और जगत से वैराग्य अपने में कोई मूल्य है जीवन में आसक्ति रखने वाले और जीवन का 'भोग' करने वाले क्या जीवन से भागने वालों की तुलना में तुच्छ होते हैं क्या संसार में रहने वाले त्याग का मूल्य नहीं जानते अनुभव महत्त्वपूर्ण है या पुस्तकीय ज्ञान स्त्री और पुरुष को उनके आचरण से जानना चाहिए या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से ऐसे कई प्रश्न हैं जो इस उपन्यास में उठाए गए हैं, जिनकी प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भी, एक उपन्यास के रूप में 'चित्रलेखा' 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और 'दिव्या' की तुलना में साधारण उपन्यास है। नायिका के नाम पर आधारित होने के बावजूद चित्रलेखा में वह ओज और गरिमा नहीं है जो दिव्या में, निउनिया या भट्टिीनी में दिखायी देती है। इस उपन्यास की प्रासंगिकता बहुत सीमित है, वैचारिक धरातल पर वह आधुनिक मूल्यों का वाहक है, लेकिन समाज के बुनियादी प्रश्नों से यह उपन्यास टकराने का साहस नहीं करता। उपन्यास निश्चय ही बहुत रोचक ढंग से लिखा गया है और जो दार्शनिक प्रश्न उठाए गए हैं उन्हें ग्रहण करने में पाठकों को उलझन नहीं होती। इस उपन्यास की कथा बहुत सीधी-सादी है। महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव यह जानना चाहते हैं कि पाप क्या है और पुण्य क्या है लेकिन रत्नांबर के पास इसका कोई बना-बनाया उत्तर नहीं है। उनका मानना है कि पाप और पुण्य की पहचान संसार में रहकर ही हो सकती है। अपने अनुभवों से मनुष्य अच्छे और बुरे का ज्ञान प्राप्त करता है। अनुभव हासिल करने के लिए वह अपने इन दोनों शिष्यों को दो अलग-अलग व्यक्तियों के पास भेजता है। श्वेतांक को सामंत बीजगुप्त के पास भेजता है जो रत्नांबर के अनुसार 'भोगी' है और विशालदेव को कुमारगिरि के पास जो 'योगी' है। रत्नांबर के अपने शब्दों में, कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है, उसमें तेज है और प्रताप है; उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक बल है। जैसा कि लोगों का कहना है, उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। कुमारगिरि युवा है; पर यौवन और विराग ने मिलकर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य' (चित्रलेखा, पृ. 9)। इसके विपरीत, रत्नांबर के अनुसार, 'बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आँखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में भोग-विलास नाचा करते हैं; रत्नजटित मदिरा के पात्रों में ही उसके जीवन का सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। उसमें सौंदर्य है, और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। उसके द्वार पर मातंग झूमा करते हैं; उसके भवन में सौंदर्य के मद से मतवाली नर्तकियों का नृत्य हुआ करता है। ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं, शायद उसने कभी ईश्वर के विषय में सोचा तक नहीं है। और स्वर्ग तथा नरक की उसे कोई चिंता नहीं। आमोद और प्रमोद ही उसे जीवन का साधन है तथा लक्ष्य भी है' (चित्रलेखा, पृ.9)। यही बीजगुप्त चित्रलेखा से प्यार करता है। चित्रलेखा नर्तकी है। लेकिन यही उसकी पहचान नहीं थी। उपन्यास के अनुसार वह ब्राह्मण विधवा थी। विधवा होने के समय उसकी उम्र महज अठारह वर्ष की थी। वैधव्य के दौरान ही कृष्णादित्य नामक युवक उसके जीवन में आया जो क्षत्रिय पिता और शूद्र का पुत्र था। दोनों में प्रेम हुआ लेकिन उनके प्रेम को समाज की स्वीकृति नहीं मिली। कृष्णादित्य और चित्रलेखा को उनके माता-पिता ने त्याग दिया। उन दोनों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। कृष्णादित्य यह दुख सहन न कर सका और उसने आत्महत्या कर ली। कृष्णादित्य से चित्रलेखा को जो संतान उत्पन्न हुई वह भी जीवित नहीं रह सकी। चित्रलेखा के लिए जब सब दरवाजे बंद हो गए तब एक नर्तकी ने उसे आश्रय दिया जहाँ उसने नृत्य और गायन सीखा। वे ही उसके जीवन के सहारे बने। उसके सौंदर्य और कला की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। इसी दौरान बीजगुप्त के संपर्क में भी आई और दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे। मृत्युंजय नामक सामंत अपनी पुत्री यशोधरा का विवाह बीजगुप्त से करना चाहते हैं लेकिन चित्रलेखा इसमें सबसे बड़ी बाधा है। चित्रलेखा को बीजगुप्त से अलग करने के लिए मृत्युंजय कुमारगिरि की सहायता लेता है। कुमारगिरि इसमें कामयाब तो हो जाता है और बीजगुप्त को अपने बंधन से मुक्त करने के लिए चित्रलेखा कुमारगिरि की शरण में चली जाती है। अपनी तपस्या और संयम पर गर्व करने वाला कुमारगिरि चित्रलेखा के सौंदर्य के आगे अपने को विवश पाता है और वह स्वयं उसके सौंदर्य जाल में फंस जाता है। यहाँ तक कि चित्रगुप्त का प्यार पाने के लिए वह झूठ का सहारा लेता है और चित्रलेखा को यशोधरा से बीजगुप्त के विवाह का झूठा समाचार सुनाकर उसे अपनी वासना का शिकार बनाता है। जबकि बीजगुप्त यशोधरा के सौंदर्य से प्रभावित होते हुए भी चित्रलेखा को भुला नहीं पाता। यही नहीं जब बीजगुप्त को मालूम पड़ता है कि श्वेतांक यशोधरा से प्रेम करने लगा है और उससे विवाह करना चाहता है, तो वह अपनी संपत्ति और सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में मिला सम्मान सभी कुछ श्वेतांक को दे देता है। चित्रलेखा को जब कुमारगिरि के झूठ की जानकारी मिलती है तो उसका मन घृणा से भर जाता है और वह कुमारगिरि का आश्रम छोड़ देती है। बीजगुप्त अपने ऐश्वर्य और विलासिता पूर्ण जीवन का त्याग कर पाटलिपुत्र से प्रस्थान कर जाता है और चित्रलेखा भी सबकुछ त्यागकर बीजगुप्त के साथ चली जाती है। इस उपन्यास की मुख्य शक्ति प्रेमकथाएँ नहीं हैं। विभिन्न प्रेमकथाएँ जो एक दूसरे से टकराती आगे बढ़ती हैं वह कहना लेखक का उद्देश्य नहीं है। लेखक का उद्देश्य उन दार्शनिक सवालों पर जीवनानुभवों के माध्यम से बहस करना है, जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से हमारे सामने आते हैं। इस उपन्यास के सभी प्रमुख पात्र इस बहस में हिस्सेदारी करते हैं। पाप और पुण्य के अलावा भी कई प्रश्न उपन्यास में सामने आते हैं। मसलन, उपन्यास के पहले ही परिच्छेद में चित्रलेखा और बीजगुप्त मदिरापान करते हुए इस प्रश्न पर विमर्श करते हैं कि 'जीवन का सुख क्या है 'यौवन का अंत क्या है व्यक्ति और समुदाय के बीच संबंध क्या है ये और ऐसे कई प्रश्न उपन्यास में निरंतर सामने आते हैं और पात्र अपने-अपने ढंग से उनका उत्तर देने का प्रयत्न करते हैं। उपन्यास में वैचारिक बहसें कोई नई चीज नहीं है। रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, यशपाल आदि लेखकों के उपन्यासों में भी विस्तृत वैचारिक बहसें देख सकते हैं लेकिन जब किसी उपन्यास का फिल्मांतरण किया जाता है, तब उसमें चलने वाली वैचारिक बहसों को यथावत पेश करना आसान नहीं होता। उपन्यास का आस्वादन पाठक पढ़कर उठाते हैं। उसे सुविधा होती है कि वह पढ़े गए हिस्से को बार-बार पढ़कर उसको समझने का प्रयत्न करे लेकिन फिल्म के साथ यह सुविधा नहीं है। उसे तो समय के प्रवाह में अनवरत देखना होता है। सुनने में एकाग्रता की ज्यादा आवश्यकता होती है और फिल्म देखते वक्त जो कहा जा रहा है उसको उतनी एकाग्रता से ग्रहण नहीं किया जा सकता। लंबे-लंबे और जटिल विचार विमर्श से सामान्य दर्शक दूर छिटक जाते हैं। हिंदी फिल्मों का सामान्य दर्शक मनोरंजन के लिए फिल्म देखता है और मनोरंजन की उसकी समझ भी सतही होती है जिसमें प्रेम कहानियाँ, खलनायक या खलनायिका, विदूषक और उनका फूहड़ हास्य और गीत, संगीत, नृत्य यही उसकी मनोरंजन की समझ है। इसलिए गंभीर से गंभीर विषय पर बनी फिल्मों में भी जब ये मसाले डालने की कोशिश की जाती है, तो उसकी गंभीरता क्षतिग्रस्त हो जाती है। 'चित्रलेखा' पर आधारित फिल्म के साथ भी कुछ ऐसी ही दुर्घटना होती है। 'चित्रलेखा' पर प्रख्यात फिल्मकार केदार शर्मा ने दो बार फिल्म बनाई। पहली बार 1941 में और दूसरी बार 1964 में। केदार शर्मा जिनका पूरा नाम किदारनाथ शर्मा (1910-1999) है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी दर्शनशास्त्र, कविता, चित्रकला और छायांकन में समान रुचि थी और उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त की थी। उनका सिनेमा के प्रति विशेष आकर्षण था। पढ़ाई पूरी कर एक फिल्मकार के रूप में अपना कैरियर बनाने के लिए प्रख्यात फिल्म कंपनी न्यू थिएटर्स के निर्देशक देवकी बोस के साथ काम करने के लिए कलकत्ता पहुँच गए। कुछ समय बेरोजगारी में बिताने के बाद उन्हें न्यू थिएटर्स में पोस्टर बनाने और स्थिर छायांकन करने का काम मिला। इस दौरान उनकी मित्रता पृथ्वीराज कपूर और कुंदनलाल सहगल से हो गई थी। धीरे-धीरे वे अपनी जगह बनाने की कोशिश करते रहे। उन्हें पहला महत्वपूर्ण कार्य न्यू थिएटर्स की ही फिल्म 'देवदास' (1935) में संवाद और गीत लिखने का मिला। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। न्यू थिएटर्स की इस फिल्म के निर्देशक पी.सी. बरुआ थे और छायाकार बिमल राय। यह फिल्म बहुत लोकप्रिय हुई उनके लिखे गीत 'बालम आय बसो मोरे मन में' और 'दुख के दिन अब बीतत नाहीं' काफी लोकप्रिय हुए। निर्देशन के क्षेत्र में वे 1939 में आए जब उन्हें एक अधूरी फिल्म 'तुम्हारी जीत' को पूरा करने का अवसर मिला। इसी साल उन्होंने अपनी ही पटकथा पर बनी फिल्म 'औलाद'/'दिल ही तो है' का निर्देशन किया लेकिन उन्हें अपार प्रसिद्धी मिली 'चित्रलेखा' से जो 1941 में प्रदर्शित हुई। उनका फिल्मी करिअर लगभग पाँच दशकों में फैला था जिसमें निर्देशन, निर्माण, गीतकार, पटकथा लेखन, संवाद लेखन के अलावा अभिनय भी किया था। चित्रलेखा का निर्माण और निर्देशन उन्होंने दो बार किया था। उनके द्वारा निर्देशित अन्य प्रसिद्ध फिल्में हैं : 'नीलकमल' (1947), 'सुहागरात' (1948), 'बावरे नैन' (1950), 'जोगन' (1950), 'चित्रलेखा' (1964)। केदार शर्मा को कई अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को पहली बार पेश करने का श्रेय भी दिया जाता है जिनमें महताब, राजकपूर, मधुबाला, गीताबाली, भारतभूषण, माला सिन्हा प्रमुख हैं। केदार शर्मा ने बच्चों के लिए भी बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया था और 1956 में उनके निर्देशन में बनी फिल्म 'जलदीप' को वेनिस फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इसी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। 1941 की फिल्म 'चित्रलेखा' उस वर्ष की दूसरी सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म थी। निर्देशन के अलावा इसकी पटकथा, संवाद और गीत भी केदार शर्मा ने लिखे थे। इसका संगीत उस्ताद झंडे खान और ए.एस.ज्ञानी ने दिया था। ए. एस. ज्ञानी ने कुमारगिरि की भूमिका भी निभाई थी। इस फिल्म की नायिका महताब थी जिसने चित्रलेखा की भूमिका निभायी थी। इससे पहले तक महताब ने स्टंट फिल्मों में ही काम किया था। चित्रलेखा के बाद महताब की गणना श्रेष्ठ अभिनेत्रियों में होने लगी। सोहराब मोदी की प्रसिद्ध फिल्म 'झाँसी की रानी' में उन्होंने झाँसी की रानी की भूमिका निभाई थी। सोहराब मोदी से ही महताब का विवाह भी हुआ। चित्रलेखा फिल्म से ही प्रसिद्ध अभिनेता भारतभूषण ने अपने फिल्मी करिअर की शुरुआत की थी। यह फिल्म कई दृष्टियों से उल्लेखनीय थी। इसके गीत भी काफी लोकप्रिय हुए। इसके कुछ गीत तो उपलब्ध हैं लेकिन काफी कोशिश के बाद भी एकाध दृश्यों और गानों को छोड़कर पूरी फिल्म प्राप्त न हो सकी। केदार शर्मा ने इस फिल्म के बाद कई अन्य फिल्में बनाई जिनमें 'बावरे नैन' और 'जोगन' खासतौर पर उल्लेखनीय है। केदार शर्मा की दर्शनशास्त्र के प्रति अभिरुचि ने उन्हें ऐसी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया जिनमें जीवन के प्रति नियतिवादी दृष्टि प्रकट होती है। 'बावरे नैन' में नायक चाँद (राजकपूर) जिस लड़की तारा (गीता बाली) से प्रेम करता है, उससे शादी नहीं कर पाता और रजनी से शादी करता है जो साजिश करके तारा को चाँद से दूर कर देती है लेकिन चाँद जिस रजनी से शादी करता है, वह एक दुर्घटना में मारी जाती है और मरने से पहले चाँद को बता जाती है कि उसी ने तारा को चाँद से दूर किया था। जब चाँद तारा की खोज में जाता है, तो वह भी नहीं मिलती क्योंकि उसकी भी मौत हो चुकी है। इसी तरह फिल्म जोगन में भी नियतिवाद का यह खेल नजर आता है। नायिका सुरभि (नरगिस) के कर्जदार पिता और शराबी भाई उसका विवाह एक बूढ़े आदमी से कर देते हैं। वह वहाँ से भाग जाती है और जोगन बन जाती है। जोगन के रूप में उसकी मुलाकात एक नास्तिक युवक विजय (दिलीप कुमार) से होती है जो उसके सौंदर्य और गायन से गहरा प्रभावित हो जाता है। सुरभि इस युवक के आकर्षण से अपने को बचाने की कोशिश करती है। दोनों गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजरते हैं। सुरभि अपने जीवन की कहानी भी विजय को बताती है और अंततः उस गाँव को छोड़ जाती है। जाते हुए वह विजय को गाँव के बाहर एक पेड़ से आगे आने से मना कर देती है। विजय उसी पेड़ के पास जोगन का इंतजार करता है लेकिन बहुत समय बाद एक दूसरी जोगन आती है और उसे एक किताब देती है जो सुरभि ने देने के लिए कहा था जिसने मरते वक्त कहा था कि पेड़ के पास वह युवक उसका इंतजार कर रहा होगा, यह पुस्तक उसे दे देना। इस तरह इस फिल्म में भी नायिका और नायक अपनी-अपनी नियति से बंधे रहते हैं और उनका मिलन नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेम और वैराग्य का द्वंद्व केदार शर्मा को काफी आकृष्ट करता रहा है। 'चित्रलेखा' पर दो बार फिल्म बनाने के पीछे संभवतः यही कारण रहा होगा। जिस उपन्यास पर उन्होंने 1941 में फिल्म बनाई थी, उसी पर 23 साल बाद उस पर दोबारा फिल्म बनाई। इन 23 सालों में बहुत कुछ बदल चुका था। 1941 में जब उन्होंने 'चित्रलेखा' का निर्देशन किया था, तब निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश किए हुए उन्हें दो-तीन साल ही हुए थे। यह दूसरी फिल्म थी जिसका निर्देशन करने के साथ-साथ उन्होंने इसकी पटकथा भी लिखी थी। लेकिन जब उन्होंने इसी उपन्यास पर दूसरी बार फिल्म बनाई, एक फिल्मकार के तौर पर वह उनके करिअर के उतार का समय था। यही कारण है कि इस फिल्म में संवाद लेखन और निर्देशन के अलावा कोई और दायित्व उन्होंने वहन नहीं किया। उसकी पटकथा राजेंद्र शर्मा से लिखवाई गई थी और गीत साहिर लुधियानवी से लिखवाए थे जबकि 1941 के गीत और संवाद केदार शर्मा ने स्वयं लिखे थे। 1964 में बनी 'चित्रलेखा' एक साधारण फिल्म साबित हुई और बॉक्स ऑफिस पर भी वह नाकामयाब रही। 1941 और 1964 की फिल्मों की पटकथा में क्या अंतर किया गया, दोनों फिल्में सामने न होने के कारण बताना मुश्किल है। फिर भी, उपलब्ध सामग्री के अनुसार, 1941 की 'चित्रलेखा' में बीजगुप्त नर्तकी चित्रलेखा के प्रेमपाश में बंधा हुआ है। मृत्युंजय अपनी बेटी यशोधरा की शादी उससे करना चाहता है और इसके लिए वह योगी कुमारगिरि की मदद लेता है लेकिन कुमारगिरि स्वयं चित्रलेखा के मोहपाश में बंध जाता है। अपने को इस तरह एक नर्तकी के आगे पराजित पाकर कुमारगिरि आत्महत्या कर लेता है। चित्रलेखा इस घटना से आहत होकर महल छोड़कर चली जाती है। दूसरी ओर, चित्रलेखा को कुमारगिरि की तरफ आकृष्ट हुआ देखकर बीजगुप्त अपने को इस पापकर्म से मुक्त करने के लिए गया चला जाता है। लेकिन वहाँ उसकी मुलाकात यशोधरा से होती है और वह उससे प्रेम करने लगता है। लेकिन जब उसे पता चलता है कि यशोधरा किसी अन्य से प्रेम करती है, तो वह स्त्री मात्र को माया समझने लगता है और संसार से उसे विरक्ति हो जाती है। वह निराश होकर संन्यासी बन जाता है। चित्रलेखा उसकी शिष्या बन जाती है। यह स्पष्ट है कि 1941 की फिल्म उपन्यास का पूरा अनुकरण नहीं करती। उपन्यास का आरंभ चित्रलेखा और बीजगुप्त के प्रेम से होता है। मृत्युंजय अपनी बेटी यशोधरा का विवाह बीजगुप्त से करना चाहता है। लेकिन बीजगुप्त चित्रलेखा से बंधा होता है। मृत्युंजय कुमारगिरि की मदद से चित्रलेखा और बीजगुप्त को अलग करने की कोशिश करते हैं। उपन्यास में चित्रलेखा कुमारगिरि की तरफ आकृष्ट विवाह के प्रस्ताव से पूर्व ही हो जाती है। लेकिन जब बीजगुप्त के विवाह की बात सामने आती है, तब उसे कुमारगिरि के पास जाने का बहाना मिल जाता है। इस तरह चित्रलेखा द्वारा बीजगुप्त का त्याग उसके लिए आघात जैसा होता है। 1941 की फिल्म यहाँ तक उपन्यास का अनुकरण करती है। लेकिन इसके बाद उपन्यास में बीजगुप्त मृत्युंजय, यशोधरा और श्वेतांक के साथ वाराणसी चला जाता है। लेकिन फिल्म में बीजगुप्त गया जाता है। फिल्म में बीजगुप्त के गया जाने का उद्देश्य पापकर्म से मुक्ति है लेकिन उपन्यास में यह कारण नहीं है। फिल्म में भी कुछ समय के लिए बीजगुप्त चित्रलेखा से छिटककर यशोधरा की तरफ आकृष्ट होता है। लेकिन जैसाकि उपन्यास में कहा गया है उसका स्थायी अनुराग चित्रलेखा के प्रति ही होता है। हाँ यह अवश्य है कि बीजगुप्त को जब यशोधरा का प्यार नहीं मिलता तो वह स्त्री मात्र को माया समझने लगता है और संसार त्याग कर संन्यासी बन जाता है। चित्रलेखा के प्रति अपने वासनात्मक प्रेम से फिल्म में कुमारगिरि में ग्लानि पैदा होती है और वह आत्महत्या कर लेता है। लेकिन उपन्यास में कुमारगिरि न सिर्फ आत्महत्या नहीं करता बल्कि उसमें ऐसी कोई ग्लानि भी नहीं पैदा होती। उपन्यास में बीजगुप्त अपनी संपत्ति, अपना वैभव और अपना पद सबकुछ त्याग देता है लेकिन यह नहीं कहा गया है कि वह संन्यासी हो जाता है। इसी तरह चित्रलेखा भी अपनी संपत्ति और वैभव त्याग देती है, लेकिन वह बीजगुप्त की शिष्या नहीं बनती जैसाकि फिल्म में बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्मकार इस बात से ज्यादा आकृष्ट है कि जो संन्यासी है वह भोगी बन जाता है और जो गृहस्थ है, संसार से अनुराग रखता है, वह संसार का त्याग कर योगी बन जाता है। 1964 में जब केदार शर्मा ने दुबारा 'चित्रलेखा' फिल्म बनाई तब उन्होंने कहानी में और भी कई परिवर्तन किए। यहाँ फिल्म के आरंभ में ही बीजगुप्त और यशोधरा की सगाई हो चुकी है और उनका विवाह होना है। चित्रलेखा उसके बाद बीजगुप्त के जीवन में प्रवेश करती है। जब बीजगुप्त को चित्रलेखा के मोहपाश में बंधा देखता है तो मृत्युंजय कुमारगिरि की मदद लेता है। कुमारगिरि चित्रलेखा के यहाँ जाकर उसे काफी भला-बुरा कहता है और उसे साधना और त्याग का उपदेश देता है। वह उसे बताता है कि वैभव और सौंदर्य जिस पर उसे नाज है, वह क्षणभंगुर है और एक दिन सब कुछ समाप्त हो जाएगा। मिट्टी की काया मिट्टी में मिल जाएगी। जीवन का आनंद साधना और तपस्या में है। लेकिन चित्रलेखा कुमारगिरि की बातों से प्रभावित नहीं होती। वरन उसका मानना है कि दूसरों को सुख पहुँचाना भी ईश्वर की साधना है और उसे इसी में आनंद आता है। साहिर के एक गीत के माध्यम से वह अपना जीवन दर्शन प्रस्तुत करती है : संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे इस लोक को अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे उपन्यास में यह प्रश्न पाप और पुण्य को समझने के संदर्भ में आता है। लोक के प्रति अनुराग या उसका त्याग क्या सही है, इसी प्रश्न के इर्दगिर्द उपन्यास की रचना की गई है। इस गीत में भी पाप और पुण्य को परिभाषित करने की कोशिश की गई है :
ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या
रीतों पर धर्म की मोहरे हैं
हर युग में बदलते धर्म को कैसे आदर्श बनाओगे
उपन्यास में पाप और पुण्य की परिभाषा इस रूप में नहीं की गई है। वहाँ पाप और पुण्य को व्यक्ति के दृष्टिकोण से जोड़ा गया है। जो एक की नजर में पाप है, हो सकता है, दूसरे की नजर में वह पाप न हो। जीवनानुभव से ही पाप और पुण्य के बारे में व्यक्ति का दृष्टिकोण निर्मित होता है। साहिर के गीत में व्यक्त दृष्टिकोण सामाजिक और प्रगतिशील है :
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचयिता का होगा
रचना को अगर ठुकराओगे
हम कहते हैं जग अपना है,
तुम कहते हो, झूठा सपना है
हम जनम बिताकर जाएंगे,
तुम जनम गँवा कर जाओगे।
चित्रलेखा कुमारगिरि के तर्क से प्रभावित नहीं होती बल्कि अपने को अपमानित महसूस करती है। दासियों द्वारा शृंगार करते वक्त जब दासी बताती है कि उसके सिर के बालों में एक सफेद बाल भी है तो उसे अपने बुढ़ापे का ध्यान आता है और उसके साथ ही कुमारगिरि की बातें भी। उसे महसूस होता है कि बीजगुप्त को अपने से बाँधे रखना उचित नहीं है और उसे गृहत्याग कर कुमारगिरि की शरण में चले जाना चाहिए। वह अपने निर्णय के बारे में बीजगुप्त को भी बता देती है और उससे वचन लेती है कि वह उसे रोके नहीं और यशोधरा से विवाह कर ले। बीजगुप्त अनिच्छा से उसकी बात मान लेता है।
चित्रलेखा कुमारगिरि के आश्रम में पहुँच जाती है और उससे दीक्षा देने का आग्रह करती है। कुमारगिरि पहले तो तैयार नहीं होते। वह तर्क देते हैं कि एक योगी के लिए स्त्री का संसर्ग उचित नहीं है। लेकिन चित्रलेखा कहती है कि उन्हें स्त्री से क्यों डरना चाहिए। उन्होंने तपस्या द्वारा वासनाओं पर विजय प्राप्त की है। कुमारगिरि के सामने चित्रलेखा जिस तरह की चुनौती पेश करती है, उसके कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता और वह चित्रलेखा को दीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं। लेकिन चित्रलेखा का सौंदर्य धीरे-धीरे उनके मन में आकर्षण पैदा करने लगता है। उनका ध्यान साधना में नहीं लगता। चित्रलेखा को पाने की इच्छा इस हद तक बढ़ जाती है कि वह किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहता है।
चित्रलेखा के जाने के बाद बीजगुप्त यशोधरा से विवाह का मन बना लेता है लेकिन इसी दौरान श्वेतांक यशोधरा पर मोहित हो जाता है और उससे विवाह करना चाहता है। यह बात वह बीजगुप्त को बताता है और वह चाहता है कि उसकी ओर से बीजगुप्त उसके विवाह की बात करे। बीजगुप्त असमंजस में पड़ जाता है। कुमारगिरि के लिए उसे चित्रलेखा का त्याग करना पड़ा और अब श्वेतांक के लिए यशोधरा का। वह मृत्युंजय के पास जाकर यशोधरा का विवाह श्वेतांक से करने का अनुरोध करता है लेकिन मृत्युंजय इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता क्योंकि श्वेतांक सूर्यवंशी होते हुए भी निर्धन होता है। बीजगुप्त अपनी संपत्ति और अपना पद श्वेतांक को देने का निर्णय करता है और इस तरह यशोधरा और श्वेतांक के विवाह की सारी बाधाएँ दूर कर देता है। यशोधरा बीजगुप्त और अपने पिता के निर्णय का सम्मान करते हुए इस विवाह के लिए तैयार हो जाती है। कुमारगिरि में चित्रलेखा को पाने की इच्छा बढ़ने लगती है। अपने प्रति कुमारगिरि के बढ़ते मोह से चित्रलेखा परेशान रहने लगती है। कुमारगिरि के प्रति उसकी श्रद्धा और विश्वास डगमगाने लगते हैं। यहाँ तक कि वह कुमारगिरि का आश्रम छोड़कर बीजगुप्त के पास लौटने का निर्णय लेती है। जब कुमारगिरि को लगता है कि चित्रलेखा पर वह विजय नहीं प्राप्त कर पाएगा, तो वह झूठ का सहारा लेता है और उसे बताता है कि बीजगुप्त तो यशोधरा से विवाह कर रहा है। चित्रलेखा का दिल टूट जाता है। कुमारगिरि चित्रलेखा की इस मनःस्थिति का लाभ उठाता है और उसे अपनी वासना का शिकार बना लेता है। दूसरे दिन सुबह विशालदेव बताता है कि यशोधरा का विवाह श्वेतांक से हो रहा है और बीजगुप्त ने अपनी सारी संपत्ति श्वेतांक को दान कर दी है। चित्रलेखा के सामने कुमारगिरि की नीचता पूरी तरह उजागर हो जाती है। वह उसे धिक्कारते हुए आश्रम छोड़कर चली जाती है।
कुमारगिरि को एहसास होता है कि वह बहुत नीचे गिर गया है और इसका एक ही प्रायश्चित है, आत्महत्या। वह आश्रम छोड़ देता है। लेकिन गंगा में डूबने से पहले ही एक सांप उसे डस लेता है। वह किसी तरह गंगा के पास तक पहुँच जाता है लेकिन गंगा के किनारे नहीं पहुँच पाता। वह गंगा से प्रार्थना करता है कि उसे गंगा अपनी गोद में ले ले। गंगा उस तक बढ़ आती है और इस तरह कुमारगिरि इस जीवन से मुक्त हो जाता है। कुमारगिरि की आत्महत्या का प्रसंग उपन्यास में नहीं है। कुमारगिरि से आत्महत्या केदार शर्मा ने पहली फिल्म में भी कराई थी।
बीजगुप्त पहले ही घर त्याग चुका है। चित्रलेखा उसे ढूँढती हुई उस तक पहुँच जाती है और इन दोनों के मिलन के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है। फिल्म और उपन्यास के कथानक में अंतर है और यह स्वाभाविक है। दोनों अलग-अलग माध्यम है। साहित्य रचना को फिल्म में रूपांतरित करने के लिए बदलाव करना जरूरी होता है। लेकिन कथानक में कुछ बदलाव फिल्मकार इसलिए भी करता है क्योंकि रचना की उसकी समझ भिन्न होती है। कथानक को उसी रूप में पेश करना न तो मुमकिन होता है और न ही जरूरी होता है। फिल्मकार माध्यम की उपयुक्तता के अलावा और भी कई कारणों से कहानी में बदलाव करता है। इस फिल्म में भी एक-दो प्रसंगों को छोड़कर कथानक कमोबेश उसी रूप में आगे बढ़ता है जिस रूप में उपन्यास में। उपन्यास के बहुत से प्रसंगों को छोड़ दिया गया है, तो कई नए पात्रों और प्रसंगों की उद्भावना भी की गई है। उपन्यास में यशोधरा और बीजगुप्त की सगाई नहीं होती सिर्फ मृत्युंजय की ओर से यह प्रस्ताव आता है। लेकिन फिल्म में आरंभ में ही बताया जाता है कि यशोधरा की सगाई बीजगुप्त से हो गई है। सगाई फिल्म में भी नहीं दिखाई गई है, उसे संवादों के माध्यम से ही बताया गया है। कहानी में यह परिवर्तन संभवतः इसलिए किया गया है कि उपन्यास में मृत्युंजय यह जानते हुए कि बीजगुप्त चित्रलेखा के मोहपाश में बंधा है, उससे अपनी बेटी का विवाह करना चाहता है क्योंकि सामंतों का एक साथ कई स्त्रियों से संबंध रखना बहुत सामान्य सी बात रही है। मृत्यंजय भी सामंत है और अपनी इकलौती बेटी यशोधरा के लिए बीजगुप्त उसे उपयुक्त वर लगता है। इसका कारण यही है कि 'बीजगुप्त उच्चकुल का नवयुवक था'। फिर भी, एक पिता के नाते वह यह भी चाहते हैं कि बीजगुप्त यदि चित्रलेखा से दूर हो जाए तो उसकी बेटी यशोधरा ज्यादा सुखी रहेगी। इसीलिए वह कुमारगिरि की मदद लेते हैं। लेकिन फिल्मकार ने महसूस किया होगा कि जो बात उपन्यास के पाठक बहुत आसानी से समझ सकता है, वह शायद फिल्म के दर्शकों के लिए उतनी तार्किक न लगे। यानी कि यदि बीजगुप्त किसी दूसरी स्त्री से बंधा है, भले ही वह नर्तकी हो, तो कोई पिता अपनी इकलौती बेटी की शादी का प्रस्ताव ऐसे व्यक्ति से कैसे कर सकता है। इस प्रकार उपन्यास का एक प्रसंग जो सामंती समाज के लिए बहुत सामान्य परिघटना है, फिल्मकार को उपयुक्त नहीं लगती और वह उसे बदल देता है। लेकिन यहाँ तब नया प्रश्न पैदा होता है। बीजगुप्त की यशोधरा से सगाई हो चुकी है, ऐसी स्थिति में क्या उसके लिए किसी अन्य स्त्री के प्रेमजाल में फंसना उपयुक्त है इस प्रश्न का उत्तर ठीक वही है जिसकी चर्चा उपन्यास के संदर्भ में की गई है। यानी कि सामंती समाज में प्रभु वर्ग के लिए विवाह से पूर्व और विवाह के बाद अपनी पत्नी (या पत्नियों) के अलावा भी अन्य स्त्रियों से संबंध रखना बहुत सामान्य रहा है। यहाँ यह प्रश्न जरूर उठता है कि जो पुरुषों के लिए सामान्य है, क्या वही स्त्री के लिए भी सामान्य है उपन्यास और फिल्म दोनों ही इस प्रश्न को इस दृष्टि से देखने से बचती हैं। हालाँकि स्त्री-पुरुष प्रेम में एकनिष्ठता का प्रश्न उपन्यास और फिल्म दोनों में उठाया गया है।
उपन्यास में चित्रलेखा का एक अतीत है। अतीत की पूरी कहानी उपन्यास में चित्रलेखा के परिचय के रूप में आरंभ में ही आती है। लेकिन फिल्म में इस कहानी को काफी हद तक वायवीय रूप में चित्रलेखा के मुख से कहलाया गया है। उसकी इस त्रासद कथा को सुनकर ही बीजगुप्त चित्रलेखा से प्रेम करने लगता है। वह सिर्फ सौंदर्य से नहीं उसके प्रति सहानुभूति से भी आकृष्ट होता है और यह आकर्षण ही प्रेम के रूप में परिवर्तित होता है। लेकिन जब चित्रलेखा कुमारगिरि के पास चली जाती है तो बीजगुप्त को आघात लगता है। उपन्यास में इसका कारण यह बताया गया है कि कुमारगिरि के प्रति उसमें प्रेम पैदा होता है, हालाँकि बीजगुप्त के प्रति प्रेम भी बना रहता है। लेकिन फिल्म में ऐसा नहीं होता। वह कुमारगिरि से बिल्कुल प्रभावित नहीं होती। कुमारगिरि के पास चित्रलेखा तब जाती है, जब उसे अपने बुढ़ापे का ख्याल आता है और उसे लगता है कि अपने मोहजाल में बाँधकर वह बीजगुप्त के साथ अन्याय कर रही है। अपने वर्तमान जीवन के प्रति उसमें पापबोध पैदा होता है और इसीलिए वह अपना सबकुछ दान कर दीक्षा लेने के लिए कुमारगिरि के पास जाती है जबकि उपन्यास में वह जब कुमारगिरि के पास जाती है, तब सबकुछ का त्याग करके नहीं जाती। इसलिए जब कुमारगिरि के पास से वापस लौटती है, तो भी उसके पास वह सबकुछ होता है जो पहले था। इसीलिए वह बीजगुप्त को यह कहती है कि 'नाथ! मेरे पास अतुल धनराशि है, मैं तुम्हारी हूँ। मेरा धन तुम्हारा है, फिर तुम निर्धन कैसे स्पष्ट है कि फिल्म उपन्यास के कई जटिल प्रश्नों को या तो हटा देती है या उसको सरलीकृत कर देती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्मकार उपन्यास की कथा को इस रूप में ग्रहण करता है कि कैसे एक युवा और सुंदर स्त्री के लिए एक योगी भोगी बन जाता है और एक भोगी योगी। लेकिन उपन्यास को इस रूप में देखना उसे बहुत सतही ढंग से देखना है। उपन्यास में कथा का विकास तो इसी रूप में होता है लेकिन कई दार्शनिक और नैतिक प्रश्न भी जुड़े होते हैं। फिल्म के आरंभ में ही जब कुमारगिरि सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में योग के बल पर जो चमत्कार दिखाता है उससे चाणक्य और चित्रलेखा बिल्कुल प्रभावित नहीं होते। इसके विपरीत कुमारगिरि को चित्रलेखा के हाथों लज्जित होना पड़ता है। यानी कि उपन्यासकार योग और साधना को आरंभ में ही प्रश्नांकित कर देता है। संसार से त्याग को भी वह कोई मूल्य नहीं मानता अगर वह निजी उपलब्धि के रूप में हो, जैसाकि कुमारगिरि के साथ है। जबकि बीजगुप्त और चित्रलेखा भी अपना वैभव और भोगविलास भरी जिंदगी त्याग देते हैं लेकिन उनका उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना नहीं है। उसके पीछे प्रेम है। वहाँ त्याग दिखावा नहीं है और उपन्यास में चित्रलेखा और बीजगुप्त संन्यासी नहीं बनते बल्कि गरीबी का, साधारण जीवन का वरण करते हैं। बीजगुप्त जैसे सुदृढ़ चरित्र के व्यक्ति का फिल्म में सगाई के बाद किसी अन्य स्त्री के प्रेम में पड़ना बहुत उपयुक्त नहीं लगता। इस दृष्टि से उपन्यास में बीजगुप्त का चित्रलेखा से प्रेम ज्यादा तर्कपूर्ण लगता है। यहाँ तक कि जब उसके सामने यशोधरा के विवाह का प्रस्ताव आता है तो वह चित्रलेखा को अपनी पत्नी बताता है, भले ही उससे विधिवत विवाह न हुआ हो। इसका अर्थ है कि चित्रलेखा के प्रति अपने संबंधों में वह ईमानदार है। कुमारगिरि इस दृष्टि से एक कमजोर चरित्र है काफी हद तक खलनायक। फिल्मकार उसे खलनायक बनाने से बचने के लिए उसके द्वारा आत्महत्या करवाता है। यही नहीं एक योगी के रूप में उसकी शक्ति को भी स्थापित करने का प्रयत्न करता है जब उसकी पुकार पर गंगा अपना रास्ता छोड़कर उसके पास तक पहुँच जाती है। दरअसल, यह फिल्म को नाटकीय बनाने की कोशिश का परिणाम भी है।
एक गंभीर उपन्यास को व्यावसायिक फिल्म के ढाँचे में पेश करने का ही नतीजा है कि फिल्मकार श्वेतांक के चरित्र को विदूषक बना देता है और बीजगुप्त और चित्रलेखा को उद्यान में युगल गीत गाते हुए दिखाता है। यह सही है कि फिल्म के गीत और संगीत बहुत ही कर्णप्रिय और प्रभावशाली है। केदार शर्मा के संवाद बहुत प्रभावशाली बने हैं। मीना कुमारी के सौंदर्य को भी उभारने में सफल रहा है। यही नहीं कई जगह चित्रलेखा के अंतर्द्वंद्व को भी मीना कुमारी बहुत कुशलतापूर्वक उभारती है। लेकिन कुमारगिरि और बीजगुप्त युवा नहीं लगते, अधेड़ लगते हैं। बीजगुप्त की भूमिका में प्रदीप कुमार बहुत साधारण और अशोक कुमार बहुत नाटकीय। देखा गया है कि कई बार साधारण रचना पर उत्कृष्ट फिल्म बनती है और उत्कृष्ट रचना पर साधारण फिल्म। 'चित्रलेखा' उपन्यास साहित्यिक कृति के तौर पर निश्चय ही उत्कृष्ट रचना है, भले ही महान न हो, लेकिन केदार शर्मा की फिल्म अत्यंत साधारण ही कही जा सकती है।